वैशाली

भूमिका

बिहार प्रान्त के वैशाली जनपद में स्थित आधुनिक बसाढ़ ( Basarh ) नामक स्थान ही प्राचीन काल का वैशाली नगर था। रामायण में इसे ‘विशाला’ कहा गया है। यह ध्यान देने की बात है कि मुजफ्फरनगर जनपद में स्थिति कोल्हुआ ( Kolhua ) से भी वैशाली के अवशेष मिलते हैं। कोल्हुआ के पास ही अशोक का स्तम्भ स्थापित है।

बसाढ़ वैशाली जनपद के मुख्यालय ‘हाजीपुर’ से बसाढ़ लगभग ३५ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है। जबकि यह मुजफ्फरपुर जनपद मुख्यालय से २० मील ( ≈ २६ किलोमीटर ) दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। बसाढ़ गण्डक नदी के बायें तट पर अवस्थित है। कोल्हुआ आधुनिक बशाढ़ से लगभग ५.५ किलोमीटर की दूरी पर है।

बुद्ध काल में यहाँ लिच्छवियों का प्रसिद्ध गणराज्य हुआ करता था। छठीं शताब्दी ई०पू० के गणराज्यों में यह सबसे बड़ा और शक्तिशाली गणराज्य था। इनकी केन्द्रीय समिति में ७,७०७ राजा थे। वैशाली का एक समृद्धिशाली नगर था। ललितविस्तर में इसे महानगर कहा गया है। यह जैन तथा बौद्ध धर्म का केन्द्र था।

वैशाली
वैशाली

जैन और बौद्ध धर्म से सम्बन्ध

महावीर स्वामी ने अपने जीवन के प्रारम्भिक तीस वर्ष यहाँ बिताये तथा कई बार उन्होंने यहाँ उपदेश भी दिया। उनकी माता ‘त्रिशला’ वैशाली गण के प्रमुख चेटक की बहन थीं।

गौतम बुद्ध को भी यह नगर बहुत प्रिय था। लिच्छवियों ने उनके ठहरने के लिये महावन में कूटाग्रशाला का निर्माण करवाया था जहाँ बुद्ध ने कई बार उपदेश दिये थे। इस नगर की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षुसंघ के लिये आम्रवाटिका दान में दिया था।

इतिहास

लिच्छवि राज्य बड़ा समृद्ध एवं शक्तिशाली था। छठी शताब्दी ई०पू० में यह वज्जि संघ का सदस्य था जिसमें लिच्छवि सहित कुल ८ गणराज्य थे। बिम्बिसार ने लिच्छवि के गणप्रमुख चेटक की पुत्री ‘चेलना’ या ‘छलना’ से विवाह करके उनका सहयोग प्राप्त किया था। परन्तु मगधनरेश अज्ञातशत्रु के समय उनके सम्बन्ध बिगड़ गये। उसने अपने मंत्री ‘वस्सकार’ को भेंजकर कूटनीति द्वारा उनमें फूट डलवा दी तथा फिर उस पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् लिच्छवि दीर्घकाल तक दबे रहे।

कालाशोक या काकवर्ण के समय वैशाली में ही द्वितीय बौद्ध संगीति आयोजित की गयी थी। कालाशोक ने वैशाली को मगध की राजधानी बनायी थी

कुषाणों के पतन के बाद तथा गुप्तों के उदय के समय गंगा घाटी में उन्होंने पुनः अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी। लिच्छवि कुल की राजकुमारी ‘कुमारदेवी’ से चन्द्रगुप्त प्रथम ने विवाह किया था जिससे समुद्रगुप्त जैसा पराक्रमी पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। समुद्रगुप्त स्वयं को ‘लिच्छवि दौहित्र’ कहकर गौरवान्वित महसूस करते थे। इस सम्बन्ध में इतिहासकार हेमचंद्र राय चौधरी* का कहना है कि ‘अपने महान् पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।’

  • Political History of Ancient India.*

फाहियान तथा हुएनसांग दोनों ने वैशाली नगर का वर्णन किया है। उन्होंने इसकी सम्पन्नता का वर्णन किया है। यहाँ कई स्तूप तथा विहार थे। लोग सच्चे और ईमानदार थे। भूमि बड़ी उपजाऊ थी। हुएनसांग ने वैशाली को द्वितीय बौद्ध संगीति का भी उल्लेख किया है जिसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया था।

वैशाली के समीप ही बखिरा है जहाँ से अशोक का सिंहशीर्ष स्तम्भ लेख मिलता है। बसाढ़ के खण्डहरों में राजप्रासाद एवं स्तूप के अवशेष हैं। यहाँ से कुछ मुद्रायें भी मिलती है।

प्राचीन वैशाली के भग्नावशेष, बसाढ़

यहाँ के टीले की खुदाई ब्लाख महोदय ने की थी। १९०३-०४ से १९५८-६२ ई० तक यहाँ पाँच उत्खननों में बड़े पैमाने पर खुदाइयाँ की गयी। यहाँ का प्रमुख टीला ‘राजा विशाल का गढ़’ कहा जाता है जहाँ मुख्यतः खुदाई की गयी है। उपलब्ध भौतिक अवशेषों से सूचित होता है कि ई० पू० ५० से लेकर २०० ई० तक यहाँ एक समृद्ध नगर था।

कुषाणकालीन अवशेष सुराहीनुमा हजारे, गहरे कटोरे, ईंटों के मकान तथा ७७ फुट लम्बी एक दीवार आदि है। कुषाणकालीन सिक्के तथा लगभग दो हजार मुहरें मिलती है जिनमें अधिकांशतः शिल्पियों, व्यापारियों सौदागरों एवं उनके निगमों को है।

गुप्तकालीन अवशेष ऊँचे अपेक्षाकृत घटिया किस्म के है जिनसे नगर के पतन की धारणा बनती है।

प्राचीन वैशाली के भग्नावशेष, कोल्हुआ

प्राचीन वैशाली का अभिन्न अंग कोल्हुआ उस स्थल विशेष का द्योतक है जहाँ पर एक स्थानीय वानरप्रमुख ने भगवान बुद्ध को मधु अर्पण किया था। इस घटना को बौद्ध साहित्य में बुद्ध के जीवन से जुड़ी आठ प्रमुख घटनाओं में से एक माना जाता है। यहाँ पर बुद्ध ने कई वर्षावास व्यतीत किए, पहली बार भिक्षुणियों को संघ में प्रवेश की अनुमति प्रदान की, अपने शीघ्र संभावित परिनिर्वाण की घोषणा की तथा वैशाली की अभिमानी राजनर्तकी आम्रपाली की एक विनम्र भिक्षुणी के रूप में परिवर्तित किया था।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किए गए उत्खननों के परिणाम स्वरूप कूटागारशाला, स्वस्तिकाकार विहार, पक्का जलाशय, बहुसंख्य मनौती स्तूप तथा लघुमंदिर प्रकाश में आए हैं। इनके अतिरिक्त आंशिक रूप से मिट्टी में दबे अशोक स्तम्भ तथा मुख्य स्तूप के अधोभाग को भी अनावृत किया गया है।

स्थानीय लोगों में लाट के नाम से प्रचलित स्तंभ वस्तुत: बलुए पत्थर का लगभग ११.०० मीटर ऊँचा चमकदार एकाश्मक स्तंभ है जिसके शिखर पर सिंह-शीर्ष सुशोभित है। यह सम्राट अशोक द्वारा स्थापित किए गए प्रारंभिक स्तंभों में से एक है जिस पर उनका कोई अभिलेख नहीं है। इस पर शंखलिपि में उकेरे गए कुछ अक्षर गुप्तकालीन प्रतीत होते हैं

मुख्य स्तूप वानर-प्रमुख द्वारा भगवान बुद्ध को मधु अर्पित करने की घटना का प्रतीक है। ईंटों द्वारा निर्मित स्तूप मूलत: मौर्यकाल में बना था जिसका आकार कुषाण काल में परिवर्धित करके चारों और प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। तदुपरान्त गुप्तकाल एवं परवर्ती गुप्त काल में पुनः ईटों से आच्छादित करके स्तूप को संवर्धित किया गया तथा चारों ओर नियमित अन्तराल पर आयक भी जोड़े गए।

स्तंभ के निकट स्थित कुण्ड की पहचान मर्कट-हद के रूप में की गई है जिसे वानरों ने भगवान बुद्ध के लिए बनाया था। सात सोपानों से युक्त लगभग ६५×३५ मीटर विस्तार वाले इस जलाशय की दक्षिणी तथा पश्चिमी भुजाओं पर स्नान हेतु घाट बने हैं।

स्थल के उत्खनन में पुरासामग्री बहुतायत में प्राप्त हुई है जिनमें कीमती पत्थर के मणके, मृण्मय आकृतियाँ, मुद्राएँ, रत्नजटित ईंटें, अभिलेखयुक्त मृदुभाण्ड का टुकड़ा तथा किरीटयुक्त वानर की विलक्षण मृणमय आकृति विशेष उल्लेखनीय है।

बुद्धकालीन गणराज्य

महाजनपद काल

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