प्राग्मौर्यकाल – समाज और संस्कृति ( ६०० ई०पू० से ३२१ ई०पू० )

भूमिका

प्राग्मौर्यकाल ( The Pre-Mauryan Age ) गंगाघाटी में सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है। इस काल की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का अध्ययन हम ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर साहित्य के अतिरिक्त विभिन्न स्थलों के उत्खनन से प्राप्त किये गये पुरातात्त्विक अवशेषों के आधार पर भी करते हैं। इस काल के भारतीय जीवन में नागरीय तत्त्व प्रधान होते हुये दिखायी देते हैं। वैदिककालीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्थान अब नागरीय अर्थव्यवस्था ने ग्रहण कर लिया। इसी कारण यह काल गंगाघाटी में नगरीय क्रान्ति (Urban Revolution) का काल कहा गया है।

मौर्य पूर्व काल ( ६०० ई०पू० से ३२३ ई०पू० ) में होने वाले सांस्कृतिक परिवर्तनों का मोटेतौर पर अनुशीलन प्रस्तुत लेख में किया गया है।

प्राग्मौर्यकाल के अन्य नाम

प्राग्मौर्यकाल ( The Pre-Mauryan Age ) जिसका समय मोटेतौर पर ६०० ई० पू० से मौर्य साम्राज्य की स्थापना ( ३२१ ई० पू० ) तक निर्धारित है, को अन्य नामों से भी जानते हैं; यथा —

  • प्राग्मौर्यकाल ( प्राक्-मौर्य काल ) का मोटेतौर तौर पर वही समय है जब वैदिक काल समाप्त हुआ। इसलिये इसको वैदिकोत्तर काल भी कहते हैं।
  • ६०० ई०पू० से ३०० ई०पू० का वही समय था जब सूत्र साहित्यों की रचना हुई इसलिये इसको सूत्रकाल भी कहते हैं।
  • यह वही समय है जब गंगा घाटी में धार्मिक आन्दोलनों की शुरुआत हुई जिसमें जैन, बौद्ध, आजीवक इत्यादि प्रमुख थे। इसलिये इसको धार्मिक आन्दोलनों का काल भी कह सकते हैं।
  • महात्मा बुद्ध का समय भी यही था इसलिये इसको बौद्धकाल भी कहते हैं।

सामाजिक दशा

ब्राह्मण साहित्यों के अनुशीलन से पता चलता है कि इस समय के समाज में परम्परागत चारों वर्णों में कठोरता आ गयी तथा जातिगत बन्धन एवं भेद-भाव स्पष्ट हो चुके थे।

सूत्र साहित्य में प्रथम बार हमें ‘द्विज जाति’ एवं ‘एकजाति’ का उल्लेख मिलता है। प्रथम तीन वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य की गणना ‘द्विज जाति’ में की गयी जो उपनयन तथा अध्ययन के अधिकारी थे।

समाज में छुआ-छूत की भावना बलवती होती जा रही थी तथा यह माना गया कि शुद्र जाति के स्पर्श मात्र से ब्राह्मण तथा अन्य वर्ण के लोग अपवित्र हो जाते हैं।

वर्ण का आधार कर्म के स्थान पर जन्म को माना गया तथा ब्राह्मण वर्ण जन्मना श्रेष्ठता का दावा करने लगा। विष्णुधर्मसूत्र में एक स्थान पर कहा गया है कि दस साल का ब्राह्मण भी १०० साल के क्षत्रिय की अपेक्षा श्रेष्ठ है तथा उसे क्षत्रिय का पिता मानना चाहिए

ब्राह्मण वर्ण अन्य वर्णों का पिता होने के कारण करों तथा दण्डों से मुक्त समझा गया। गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि राजा को चाहियए कि वह पुरोहित ब्राह्मण को निम्नलिखित छः दण्डों से मुक्त रखे —

१. शारीरिक यातना।

२. कारावास।

३. अर्थदण्ड अथवा जुर्माना।

४. देश-निष्कासन।

५. अपमानित किया जाना।

६. मृत्युदण्ड।

बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में जन्मजात सामाजिक श्रेष्ठता के विचार का खण्डन किया गया है। ये ग्रन्थ कर्म के आधार पर ही मनुष्य-मनुष्य में विभेद स्थापित करते हैं। स्वयं महात्मा बुद्ध ने कई बार इस बात पर बल देकर कहा कि मनुष्यः अपने गुण तथा कर्म के आधार पर ही श्रेष्ठ अथवा निम्न होता है, जन्म के आधार पर नहीं। बुद्ध मानव जाति की समानता के पोषक थे। वे कहते थे कि शील तथा प्रज्ञायुक्त मनुष्य ही ब्राह्मण है। इसी आधार पर वे अपने को ब्राह्मण भी कहते थे

फिर भी जातक ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि इस समय के समाज में अस्पृश्यता की भावना ने जड़ जमा लिया था। अस्पृश्यता के लिये चाण्डाल, निषाद, हीनजाति, हीनसिपिन आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। जातक कथाओं में अस्पृश्ता ते अनेकानेक विवरण मिलते है :

  • सेतकेतु जातक में हम एक ब्राह्मण को चाण्डाल के डर से भागते हुए पाते हैं ताकि उसके शरीर वायु के स्पर्श से वह अपवित्र न हो जाय।
  • मातंग जातक में एक चाण्डाल का निवास स्थान नदी के किनारे से इस कारण हटा दिया गया कि उसने नदी में दातून फेंक दिया था और वह आगे स्नान करते हुये एक ब्राह्मण की चोटी में फँस गयी थी।
  • चित्तसंभूत जातक में हम एक क्रुद्ध भीड़ को दो चाण्डाल भाइयों को इस कारण पीटते हुये पाते हैं कि उनके मार्ग में पड़ जाने के कारण दो कुलीन ( आभिजात्य ) महिलाओं ने मन्दिर जाने का विचार त्याग दिया था जिससे लोग भोजन तथा पेय प्राप्त करने से वंचित रह गये।
  • इसी चित्तसंभूत जातक में एक स्थान पर कहा गया है कि चाण्डाल को देखने के बाद एक सौदागर की कन्या अपने घर जाकर सुगन्धित जल से अपने नेत्र धोती है।

इसी प्रकार के अनेक उद्धरण जातक ग्रन्थों में मिलते हैं जो तत्कालीन समाज के जाति-पाँति में ग्रस्त होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। परन्तु ये ग्रन्थ सदा इस प्रथा की आलोचना करते हुए ब्राह्मणों की सामाजिक श्रेष्ठता के दावे को चुनौती देते हैं। ये बौद्ध ग्रन्थ क्षत्रिय वर्ण को ब्राह्मण की अपेक्षा सामाजिक व्यवस्था में उच्चतर स्थान प्रदान करते हैं।

ब्राह्मणों के ही समान क्षत्रियों को भी अपनी रक्तशुद्धि पर गर्व था। तभी तो कपिलवस्तु के शाक्यों ने अपने कुल की कन्या का विवाह कोशलनरेश प्रसेनजित के साथ करने से इंकार कर दिया तथा बदले में एक दासी की पुत्री को भेज दिया जो अन्ततोगत्वा उनके विनाश का कारण सिद्ध हुआ था।

चूँकि इस काल में राजतन्त्रात्मक राज्यों की शक्ति बढ़ रही थी तथा मगध में साम्राज्य का उदय हो रहा था, अतः क्षत्रिय वर्ण को प्रभुता बढ़ गयी। साथ ही गंगाघाटी में नागरीय क्रान्ति के कारण व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय प्रगति हुई, उसके फलस्वरूप वैश्यवर्ग समाज का सबसे सम्पन्न वर्ग बन गया। राजनीतिक शक्ति तथा सम्पत्ति दोनों ही से ब्राह्मण वंचित हो गये और इस कारण उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा

बौद्ध साहित्य में स्त्रियों की दशा का जो चित्रण मिलता है उससे स्पष्ट है कि वैदिक काल की अपेक्षा उनकी दशा खराब हो चली थी। उनके सामाजिक तथा शैक्षणिक अधिकारों में कमी आ गयी।

चुल्लवग्ग जातक से पता चलता है कि महात्मा बुद्ध स्त्रियों के संघ में प्रवेश के विरोधी थे और प्रथम बार उन्होंने अपना पोषण करने वाली प्रजापति गौतमी को संघ में लेने से स्पष्टतः मना कर दिया था। किन्तु जब राजा शुद्धोधन की मृत्यु हो गयी तब प्रजापति गौतमी कपिलवस्तु से चलकर वैशाली में बुद्ध के पास पहुँची तथा उसने बड़ा ही अनुनय-विनय किया। इस बार बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द ने उसकी ओर से आग्रह किया और उसके बाद ही बुद्ध ने उसे संघ मे प्रवेश कर प्रवज्जा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान किया था। परन्तु इसके साथ ही उन्होंने स्त्रियों के आचरण सम्बन्धी अत्यन्त कठोर नियम भी बना दिये। इन नियमों के अनुसार भिक्षुणी को सदा भिक्षु की अपेक्षा हीन माना गया भले ही वह कितनी भी पुरानी क्यों न हो

बुद्ध नारियों से सदा सशंकित थे तथा एक बार उन्होंने अपने शिष्य आनन्द से कहा था कि ‘जहाँ नारियाँ घर छोड़कर संघ में प्रवेश करने लगती हैं वहाँ धर्म स्थायी नहीं रह पाता।’ परन्तु बुद्ध की शंका के बावजूद कुछ भिक्षुणियों ने तत्कालीन समाज में अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान अर्जित किया था। कुछ विदुषी भिक्षुणियों ने अत्यन्त सुन्दर कविताओं की रचयिता थीं जिनका संकलन थेरीगाथा नामक ग्रन्थ में किया गया है।

वेश्याओं का भी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था जैसा कि वैशाली की गणिका आम्रपाली के विवरण से पता चलता है। बुद्ध ने स्वयं उसे अपने मत में दीक्षित किया था। आम्रपाली ने भिक्षु संघ के लिये अपनी आम्रवाटिका दान कर दिया था।

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि सगोत्र विवाह समाज में होते थे। शाक्य अपने ही कुल में अपनी कन्याओं का विवाह करते थे। महावीर की पुत्री का विवाह भी उनकी बहन के पुत्र जामालि के साथ सम्पन्न हुआ था। समाज में प्रणय विवाहों तथा अन्तर्वर्ण विवाहों के भी उल्लेख मिलते हैं। उदयन तथा वासवदत्ता के विवाह प्रणय विवाह का उदाहरण है। कोशल के राजा प्रसेनजित ने एक माली की कन्या से विवाह किया था।

बौद्धसाहित्य से पता चलता है कि राजा तथा कुलीन वर्ग के लोग बहुविवाह करते थे। महावग्ग जातक में कहा गया है कि मगध नरेश बिम्बिसार को पाँच सौ रानियाँ थीं।

समाज में सती प्रथा के प्रचलन का उदाहरण नहीं मिलता। यूनानी लेखक केवल पंजाब की कठ जाति में इस प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख करते हैं।

पर्दा प्रथा का प्रचलन समाज के कुलीन वर्ग में ही दिखायी देता है।

आर्थिक दशा : द्वितीय नगरीकरण

सैन्धव सभ्यता भारत की प्रथम नागर सभ्यता है। इसमें नगरों का अस्तित्व लगभग ई०पू० १८०० तक बना रहा। तत्पश्चात् लगभग एक हजार वर्षों तक भारत में किसी भी नगर का अस्तित्व दिखायी नहीं देता। इनका पुनः आविर्भाव ई०पू० छठी शताब्दी से गंगाघाटी में हुआ। इसे द्वितीय नगरीकरण (Second Urbanisation) की संज्ञा दी गयी है।

प्राग्मौर्ययुगीन गंगाघाटी के आर्थिक जीवन की प्रमुख विशेषता उसका नगरीकरण (Urbanisation) है। गार्डन चाइल्ड ने नगरीकरण की विशेषताओं में विशाल भवनों तथा घनी आबादी वाली बड़ी-बड़ी वस्तियों का होना आवश्यक बताया है। इसमें खाद्योत्पादन से अलग रहने वाले वर्ग; यथा शासक, शिल्पी, सौदागर, कलाकार, वैज्ञानिक, लेखक आदि निवास करते हैं। अनाज उत्पादित न करने वाले नगरवासियों का पोषण करने वाले शिल्प विशेषज्ञों की उपस्थिति तथा उत्पादकों से कर के रूप में मिलने वाले अधिशेष के महत्त्व पर चाइल्ड ने बहुत बल दिया है। उनके द्वारा निर्दिष्ट नगरीकरण की कुछ अन्य विशेषतायें है – नगर में दैवी शासक की उपस्थिति, लिपि का विकास, वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति, विदेशी व्यापार व वाणिज्य की प्रगति आदि। एडम्स के अनुसार विस्तृत आकार तथा घनी आबादी नगरीकरण के निर्णायक कारक होते हैं और प्रारम्भिक नगरीय आवश्यकताओं में विशिष्ट शिल्पों का कोई खास योगदान नहीं होता।

  • Urban Revolution — Ancient Cities of the Indus; Gordon Child.
  • The Natural History of Urbanism — Ancient Cities of the Indus; Adoms.

आर० एस० शर्मा का विचार है कि शहर की वास्तविक पहचान केवल आकार और आबादी से नहीं होती, बल्कि भौतिक जीवन की गुणवत्ता और व्यवसायों के रूप में होती है, यद्यपि पृष्ठ प्रदेश से प्राप्त अधिशेष किसी शहर के अस्तित्व के लिये अनिवार्य हैं फिर भी केवल गैर-कृषकों की बस्तियों को शहरी केन्द्र नहीं माना जा सकता। शिल्पियों का संकेन्द्रण तथा मुद्रा आधारित विनियम के प्रचलन शहरी जीवन की उतनी ही महत्त्वपूर्ण विशेषतायें है।

  • भारत के प्राचीन नगरों का पतन; रामशरण शर्मा।

ए० एन० घोष ने ग्रामीण जनसंख्या का नगरों की ओर पलायन को नगरीकरण का प्रमुख तत्त्व निरूपित किया है। स्थापत्य ग्रन्थों में नगर को सभी वर्गों के लोगों तथा शिल्पियों की बस्ती बताया गया है।

११वीं शताब्दी के वैयाकरण कैयट नगर की परिभाषा इस प्रकार देते हैं – “नगर ऐसी बस्ती है जो दीवार और खाईं से घिरा हो तथा जहाँ शिल्पियों एवं सौदागरों के संघों के कानून और रीति-रिवाज प्रचलित हो।”

प्रकार परिखा संयुक्तं श्रेणी धर्म समन्वितं।

बहुकर्मकार्रेर्युक्तं नगरं तदुदाहृतम्॥

इस प्रकार नगरीय जनसंख्या में गैर-कृषकों अथवा गैर-खेतिहरों का बहुल्य होता है। नगरों के उत्थान और पतन का व्यापार के इतिहास के साथ गहरा सम्बन्ध होता है। मानव इतिहास में नगरों के विकास को एक ‘क्रान्ति’ के रूप में देखा गया है जिससे इतिहास और सभ्यता का प्रारम्भ हुआ।

नगरीकरण के ये विशिष्ट लक्षण या विशेषताएँ प्राग्मौर्ययुगीन समाज में स्पष्टतः परिलक्षित होते है। सैन्धव नगरों के पतन के पश्चात् सर्वप्रथम इसी काल से ग्रन्थों में हम नगरों का विवरण प्राप्त करते हैं। यह नगरीकरण के लिये उत्पादन अधिशेष, जो गंगाघाटी में लौह उपकरणों के कृषि क्षेत्र में उपयोग के कारण सम्भव हुआ, शिल्प एवं उद्योग धन्धों के विकास, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति, मुदा व्यवस्था का आविर्भाव आदि का परिणाम था। इन विशेषताओं के साथ-साथ इस काल की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों ने भी इस प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया। विशाल राज्यों के उदय से कुछ नगर राजधानी के रूप में विकसित हुए। यहाँ बहुसंख्यक व्यापारी और शिल्पी बस गये। सिक्कों का व्यापक रूप से प्रचलन प्रारम्भ हो गया। मुद्रा व्यवस्था नगरी उन्नति का प्रतीक था। इस काल में विकसित होने वाले जैन एवं बौद्ध धर्मो का दृष्टिकोण भी व्यापारियों एवं व्यवसायियों के प्रति उदार था। उन्होंने व्यक्तिगत सम्पत्ति, व्यापार, ऋण, सूदखोरी आदि का समर्थन किया। बुद्ध ने तो सूदखोरी को एक सम्मानित पेशा बताया। इस प्रकार आर्थिक राजनैतिक एवं धार्मिक सभी परिस्थितियाँ नगरीकरण के सर्वथा उपयुक्त थी।

प्रारम्भिक पालि ग्रन्थों में ‘निगम’, नगर आदि शब्द मिलते हैं। निगम का शाब्दिक अर्थ ‘बाहर जाने का स्थान’ है। इससे व्यापार की गतिशीलता का भी बोध होता है। इस शब्द का प्रयोग शिल्पियों तथा व्यापारियों के संघों के लिये भी हुआ है जो नगरों में विद्यमान थे। दीघनिकाय में नगरक, महानगर, राजधानी आदि का उल्लेख मिलता है।

पाणिनि ने प्राचीरयुक्त नगरों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि पूर्व में ग्राम नगरों से भिन्न होता था (प्राचां ग्राम नगराणाम्)। बौद्धायन तथा आपस्तम्भ जैसे प्रारम्भिक सूत्रकारों ने ग्राम तथा नगर के बीच विरोधाभास का उल्लेख किया है। “वे लिखते है कि नगर में रहने वाले व्यक्ति को न तो मोक्ष मिल सकती है और न ही वह खुली हवा में साँस ले सकता है।

क्लासिकल विवरण से पता चलता है कि सिकन्दर के आदेश से उसका सेनानायक आरिस्टेबुलस एक ऐसे क्षेत्र में गया जो सिन्धु नदी द्वारा मार्ग परिवर्तन कर पूर्व में चले जाने के कारण रेगिस्तान में परिवर्तित हो गया था। उसने वहाँ शहरों और गाँवों के अवशेष देखे थे।

जैन ग्रन्थ — आचारांग एवं कल्प सूत्र में विविध प्रकार के नगरों का उल्लेख किया गया है; जैसे – करमुक्त, मिट्टी की प्राचीर वाला, छोटी प्राचीर वाला, समुद्रतटवर्ती एवं राजधानी।

इस प्रकार विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थ एवं लेखक बुद्धकालीन भारत में नगरों का उल्लेख करते हैं।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि बुद्धकाल के विविध स्तरों से प्राप्त एक विशेष प्रकार के मिट्टी के पात्र भी नगरीकरण की ओर संकेत करते हुए प्रतीत होते हैं। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभाण्ड (Northern Black Polished. Ware-NBP) कहा गया है। इन मृद्भाण्डों में थाली, कटोरे, घड़े, मटके, ढक्कन आदि मिलते हैं जिन्हें अच्छी तरह से तैयार एवं गूँथी हुई मिट्टी से ऊँचे तापक्रम वाले आँवों में पकाकर निर्मित किया गया है। इनकी बनावट अत्यन्त सुगढ़ है तथा ये चिकने एवं चमकीले है। अधिकांशतः इनका रंग काला ही दिखायी देता है। ये धातु के बर्तनों के समान सुन्दर लगते हैं। स्पष्ट है कि इस प्रकार के मृद्भाण्डों का प्रयोग सामान्यजन नहीं करते थे वरन् ये नगरों में निवास करने वाले धनाढ्य एवं कुलीन वर्गों द्वारा अनुष्ठानों या खानपान में प्रयोग में लाये जाते होंगे। इन पात्रों का भी व्यापार किया जाता होगा। चम्पा से इस प्रकार के ये मृद्भाण्ड बड़ी संख्या में मिलते हैं जो एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र भी था।

इस प्रकार साहित्य, सिक्के तथा मृदभाण्ड सभी से यह सूचित होता है कि बुद्धकाल में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी।

सम्पूर्ण भारत में पुरातात्त्विक उत्खननों के फलस्वरूप इस समय ६० प्रसिद्ध नगरों की संख्या निर्धारित की गयी है। ये पूर्व में चम्पा से पश्चिम में भृगुकच्छ तक तथा उत्तर में कपिलवस्तु से लेकर दक्षिण में कावेरीपत्तन तक फैले हुए थे। श्रावस्ती जैसे विशाल नगर २० के लगभग थे जिनमें से अधिकांश बुद्ध तथा उनके धर्म से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गये थे।

राजघाट, वैशाली, चिरान्द, सोनपुर, चम्पा आदि से लौहमल ( Iron Slug ) एवं लौह उपकरण मिलते हैं। इनसे सूचित होता है कि ई०पू० ६०० से ई०पू० ५०० में पूर्वी भारत में लौह प्रौद्योगिकी अत्यन्त विकसित हो गयी थी। तब विभिन्न नगरीय स्थलों में लौह उपकरण एवं अस्त्र-शस्त्र बहुतायत से तैयार किये जाने लगे थे। नगरीय क्रान्ति में लौह तकनीक का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

नगरीकरण के कारक

बुद्धकालीन गंगाघाटी की नगरीय क्रान्ति के लिये निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे —

  • उत्पादन अधिशेष
  • शिल्प और उद्योग धन्धों का विकास
  • व्यापार और वाणिज्य का विकास
  • मुद्रा प्रणाली का आविर्भाव
  • राजनीतिक और सामाजिक कारक
  • नवोदित धार्मिक विचारधारा
  • लिपि का आविर्भाव

उत्पादन अधिशेष और ग्रामीण व्यवस्था

साहित्य तथा पुरातत्त्व दोनों ही प्रमाणों से स्पष्ट संकेत मिला है कि इस समय गंगाघाटी में कृषि के लिये लोहे के उपकरणों का प्रयोग किया जाने लगा था; यथा – फाल, फावड़ा, कुदाल, दराँती आदि।

विभिन्न पुरास्थलों के उत्खनन से इन लौह उपकरणों के अवशेष मिले हैं। राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त लौहमल (Iron slag) से सूचित होता है कि ईसा पूर्व ७०० के लगभग यहाँ कच्चे लोहे की सहायता से उपकरण बनना प्रारम्भ हो गया था। चिरान्द, वैशाली, सोनपुर, चम्पा आदि की खुदाई में लोहे के बाणाग्र, भाले, कुल्हाड़ी, छेनी आदि मिलते है जिनका समय ईसा पूर्व सातवी-छठी शताब्दी निर्धारित किया गया है।

जखेड़ा (एटा, उ०प्र०) से ईसा पूर्व छठीं-पांचवीं शताब्दी का लोहे का फाल (Plough share) मिलता है। इसी प्रकार का फाल, बँसुला, चाकू, छुरी, काँटे, हँसिया आदि लौह उपकरण कौशाम्बी से भी मिलते है।

समकालीन बौद्ध एवं ब्राह्मण साहित्य भी इसका उल्लेख करते हैं। विनयपिटक में कहा गया है कि ‘दिन भर गरम करने के बाद जब फाल पानी में डाला जाता है तब कड़कड़ाता एवं सिसकारता है।अष्टाध्यायी में ‘भ्रष्टा’ तथा प्रारम्भिक पालि साहित्य में ‘भस्ता’ का उल्लेख है जो धौंकनी (भाथी = Bellow) का सूचक है। इससे समय-समय पर फाल पर सान चढ़ाकर उसको धार बनायी जाती थी ताकि गहरी जुताई एवं कई बार खेत को जोता जा सके। चावल एवं गन्ने की खेती गहरी जुताई द्वारा हो सम्भव थी।

लौह उपकरणों के व्यापक उपयोग से दस्तकारी, जंगल साफ कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाने, कठोर मिट्टी (केवाल) को तोड़कर जोतने आदि में सहायता मिली। रोपाई विधि से धान बोया जाने लगा। उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई तथा कृषक अपने उत्पादों के अधिशेष बड़ी मात्रा में प्राप्त करने लगे। बड़ी-बड़ी ग्रामीण बस्तियाँ अस्तित्व में आयीं। उत्पादन अधिशेष से मानव समाज को जीवन यापन का सुदृढ आधार मिला जिसके फलस्वरूप नगरों के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त हो गया। अधिशेष उत्पादन द्वारा नगरों में अधिवासित गैर-कृषकों, शिल्पियों, कारीगरों, व्यापारियों का पोषण होने लगा। नगरों में दस्तकार तथा सेट्ठी कहे जाने वाले व्यापारी बस गये। इस प्रकार नगरों के आविर्भाव में उन्नत कृषि तकनीक का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

ग्रामों के चारों ओर जो कृषि योग्य भूमि थी उसे ‘क्षेत्र’ कहा जाता था। क्षेत्र मनुष्य की व्यक्तिगत सम्पत्ति समझी जाती थी। कृषि योग्य भूमि के अतिरिक्त गाँवों में चारागाह भी होते थे। चारागाहों के लिये ग्रन्थों में ‘वन’ अथवा ‘दाव’ शब्द का प्रयोग मिलता है। चरवाहों को गोपालक कहा जाता था। चारागाह पर गाँव के सभी लोगों का अधिकार माना जाता था

ग्रामों का शासन ग्राम सभा द्वारा चलाया जाता था। ग्राम सभा में ग्राम के बड़े-बूढ़े लोग सम्मिलित थे और इसका अध्यक्ष मुखिया अथवा ग्रामभोजक था। उसका पद आनुवंशिक होता था। ग्राम-भोजक का एक प्रमुख काम ग्रामीण जनता से कर संग्रह करके सम्राट को देना होता था। भूमि कर उपज के छठें से लेकर बारहवें भाग तक होता था। इसके अतिरिक्त ग्राम सभा ग्रामीण भूमि का प्रबन्ध तथा तत्सम्बन्धी विवादों का निपटारा करती, ग्राम में शान्ति तथा व्यवस्था कायम रखती तथा नागरिकों के सुख-सुविधा हेतु सार्वजनिक हित के कार्य भी करती थी; यथा – सड़कों का निर्माण, सिंचाई के लिये नहर, तालाब, कुओं आदि का निर्माण, संस्थागार, धर्मशालायें आदि बनवाने का कार्य आदि।

इस काल में प्रायः प्रत्येक ग्राम के लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुयें अपनी ही सीमा में प्राप्त कर लेते थे और इस प्रकार वे आत्म-निर्भर थे। लोगों में सहकारिता की भावना का विकास हो गया था। उनका जीवन सुखी, सरल एवं आडम्बराहित था। अपराध बहुत कम होते थे।

गाँवों के लोग खेती के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के व्यवसाय भी करते थे। जातकों से पता चलता है कि समान व्यवसाय करने वाले लोग प्रायः एक ही गाँव में निवास करते थे।

शिल्प तथा उद्योग धन्धों का विकास

उत्पादन अधिशेष को बेचने के लिये बाजार की आवश्यकता थी। अतः धीरे-धीरे ऐसे केन्द्र विकसित होने लगे जहाँ पर उत्पादन अधिशेष का विक्रय किया जा सके। शनैः शनैः ये केन्द्र नगर बाजार में रूपान्तरित हुए तथा उनमें बसने वाले शिल्पियों एवं वणिकों की संख्या काफी बढ़ गयी। परिणामस्वरूप बुद्धकालीन उत्तरी भारत में व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धे अत्यन्त विकसित अवस्था में पहुँच गये थे।

जातक ग्रन्थों में अठारह प्रकार के उद्यमों (crafts) का उल्लेख मिलता है। इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार है; यथा – बढ़ई, लोहार, चर्मकार, चित्रकार आदि।

बढ़ई के लिये ‘बड्ढ़की’ शब्द आया है जिससे तात्पर्य सभी प्रकार के काष्ठ शिल्पियों से है। वे गाड़ियों, फर्नीचर, जहाज आदि बनाते थे। मज्झिम निकाय में एक ‘बड्ढ़की ग्राम’ का वर्णन मिलता है जहाँ फर्नीचर तथा समुद्री जहाजों का निर्माण किया जाता था।

धातु कर्मियों के लिये ‘कम्मार’ शब्द का प्रयोग हुआ है। पत्थर का काम करने वालों को ‘पाषाण कोट्टक’ कहा गया है।

अन्य उद्यमियों में हाथीदाँत की वस्तुयें बनाने वाले, जुलाहे, हलवाई, स्वर्णकार, कुम्हार, धनुष-वाण बनाने वाले, मालाकार, वैद्य, ज्योतिषी, नापित, शिकारी आदि का उल्लेख मिलता है।

सभी व्यवसायों का सम्मान नहीं था तथा कुछ को ‘हीनशिल्प’ कहा गया है। इसमें शिकारी, मछुए, बूचड़, कर्मकार, सँपेरों, गायक, नर्तक, नायक, जौहरी, नापित, इषुकार, बर्तन बनाने वाले आदि आते थे।

इन शिल्पकारों के निवास स्थान नगर का रूप लेने लगे क्योंकि ये जिन सामानों को तैयार करते थे, उनको खपत वहाँ होने लगी। समीपवर्ती क्षेत्रों से भी आकर लोग उनके सामान क्रय करते थे। शनैः शनैः एक ही प्रकार के व्यवसायियों की एक ही बस्ती बस गयी जो बाद में व्यवसायिक केन्द्रों तथा नगरों में बदल गयी। कुछ ग्राम तथा नगर कुछ विशिष्ट प्रकार के व्यवसायों के लिये प्रसिद्ध थे। जातक ग्रन्थ महाबड्ढकी ग्राम में लकड़ी का काम करने वाले तथा कम्मारग्राम में कपड़ा बुनने वाले जुलाहों के एक-एक हजार परिवार का उल्लेख करते हैं। वाराणसी के समीप एक हजार परिवार वाला बढ़इयों का एक बड़ा नगर था जिनमें दो प्रधान कारीगर थे। प्रत्येक पाँच सौ के ऊपर था।

विभिन्न व्यवसायियों के अपने-अपने संगठन थे जिन्हें ‘श्रेणी’ कहा जाता था। धर्मसूत्रों तथा जातक ग्रन्थों में श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। अनेक प्राचीन लेखों में भी ‘श्रेणी’ शब्द आया है।

‘श्रेणी’ एक ही प्रकार के व्यवसाय या उद्योग करने वाले व्यक्तियों की संस्था होती थी जिसकी तुलना मध्यकालीन यूरोप की ‘गिल्ड‘ (Guilds) से की जा सकती है। जातक ग्रन्थ अठारह श्रेणियों का उल्लेख करते हैं। ऐसा लगता है कि प्रायः प्रत्येक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय को अपनी ‘श्रेणी’ होती थी। श्रेणियों के संगठन में सर्वोच्च स्थान अध्यक्ष का था जिसे ‘श्रेष्ठिन्’ (सेट्ठी), जेष्ठक अथवा प्रमुख कहा जाता था।

एकेन पण्येन शिल्पेन वा ये जीवन्ति तेषाम् समूहः श्रेणी।कय्यट, २/१५९।

श्रेण्योनानाजातीनां एकजातीय कर्मोपजीविनां संघाताः।मिताक्षरा, २/१९२।

व्यापारियों की श्रेणी का प्रधान ‘सार्थवाह’ कहा जाता था। श्रेष्ठिन् को परामर्श देने के लिये एक सभा होती थी। कभी-कभी श्रेष्ठिन् का पद आनुवंशिक होता था। श्रेणियों के पास कार्यकारी तथा न्यायिक दोनों ही प्रकार के अधिकार होते थे। वे बैंक का भी काम करती थीं तथा नाप-तौल, वस्तुओं का मूल्य, मजदूरी आदि निश्चित किया करती थीं। वे अपने सदस्यों के सामाजिक जीवन को नियंत्रित करती थीं। उनके पास सेना भी होती थी जिसके बल पर वे कभी-कभी राजाओं की निरंकुशता का विरोध भी करती थीं। इनके नियमों को ‘श्रेणी-धर्म‘ कहा गया है।

श्रेणियों के अपने न्यायालय भी होते थे तथा उनके विभिन्न नियमों को राज्य की ओर से मान्यता प्रदान की जाती थी। विभिन्न श्रेणियों के मध्य एकता स्थापित करने के लिये भाण्डागारिक नामक पदाधिकारी होता था।

बड़े नगरों के व्यापारियों की बड़ी श्रेणियों होती थीं जिनके प्रधान को ‘महाश्रेष्ठि’ कहा जाता था। श्रावस्ती नगर के व्यापारियों को श्रेणी का ‘महाश्रेष्ठि’ अनाथपिण्डक तथा कौशाम्बी के व्यापारियों की श्रेणी का महाश्रेष्ठि घोषताराम था। अनाथपिण्डक ने ‘जेतवन’ तथा घोषिताराम ने ‘घोषिताराम विहार’ का निर्माण करवाया था।

श्रेणियों की सामूहिक भावना के कारण विविध व्यवसायों में कुशलता आती थी तथा सदस्यों के हितों की रक्षा भी होती थी। कालान्तर में श्रेणियाँ विभिन्न जातियों के रूप में परिणत हो गयीं

बुद्धकाल में व्यवसाय प्रायः आनुवंशिक होते थे। पुत्र अधिकतर अपने पिता के व्यवसाय का हो अनुसरण करता था। किन्तु कहीं-कहीं इस नियम का अपवाद भी मिलता है। जातक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ण के लोग भी वर्णेतर व्यवसाय अपना रहे थे। ब्राह्मणों को कृषि, पशुपालन, आखेट, बढ़ई, जुलाहे आदि का काम करते हुए दिखाया गया है। शाक्य तथा कोलिय क्षत्रियों को हम कृषि करते हुए पाते है। इसी प्रकार अन्य व्यवसायियों को भी हम व्यवसाय परिवर्तित करते हुए पाते हैं।

व्यापार तथा वाणिज्य की प्रगति

नगरीकरण की त्वरित गति इस काल में होने वाली व्यापार-वाणिज्य की अभूतपूर्व प्रगति का कारण तथा परिणाम दोनों ही थी। प्रमुख नगर वाणिज्यिक राजमार्गों के चौराहों पर स्थित थे जो विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ते थे। प्रमुख नगर बाजार के रूप में परिणत हो गये जहाँ विभिन्न स्थानों से व्यापारी विक्रय के लिये पहुँचने लगे। साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि बाजार वस्त्रों, तेल, सुगन्धित द्रव्य, स्वर्ण, रत्न, आभूषण, खाद्यान्न आदि से भरे रहते थे।

बुद्धकालीन गंगाघाटी में जो नगरीय क्रान्ति देश में समृद्धशाली व्यापारिक वर्ग को जन्म दिया। ये व्यापारी अतिरिक्त उत्पादन को कमी वाले क्षेत्रों में पहुँचाते थे। विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि इस काल में आन्तरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार अत्यन्त उन्नति अवस्था में थे। उत्तरी दकन के कई स्थानों से गंगाघाटी के मिट्टी के विशिष्ट पात्र मिलते हैं। ये विशिष्ट मृद्भाण्ड ‘उत्तरी काली चमकीले मृदभाण्ड’ (NBP) कहलाते हैं। ये मृद्भाण्ड उत्तर तथा दक्षिण के बीच होने वाले नियमित व्यापार को सूचित करते है।

इस काल में देश के भीतर अनेक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर अस्तित्व में आ चुके थे। व्यापारियों का कारवाँ गाड़ियों में माल भरकर एक स्थान से दूसरे स्थान को व्यापार के निमित्त जाता था। जातक ग्रन्थों में ५०० से १,००० गाड़ियों के जत्थे के साथ माल लेकर चलने वाले व्यापारियों के कारवाँ का उल्लेख मिलता है। उल्लेख मिलता है कि राजगृह की यात्रा के दौरान महात्मा बुद्ध की भेंट बेलथा नामक एक सौदागर से हुई जो अपने साथ ५०० गाड़ियों में शर्करा (चीनी) के सीरे से भरे हुए घड़ों को लादकर ले जा रहा था।

विभिन्न व्यापारियों के कारवाँ का नेता सार्थवाह होता था जिसके निर्देशन में कारवाँ आगे बढ़ते थे। सार्थवाह के अतिरिक्त उसमें ‘थलं निय्यामक’ नामक अधिकारी भी था जो मार्गदर्शक का काम करता था और भावी खतरों के बारे में व्यापारियों को सचेत करता था। व्यापारिक मार्ग हमेशा सुरक्षित नहीं थे तथा प्रायः चोर-डाकू व्यापारियों को लूट लिया करते थे। अतः प्रायः कारवाँ के साथ सशस्त्र रक्षक भी चलते थे

श्रावस्ती के धनाढ्य व्यापारी अनाथपिण्डक के कारवाँ के सम्बन्ध में जातक ग्रन्थ एक व्यापारिक मार्ग का उल्लेख करते है जो श्रावस्ती से प्रारम्भ होकर पूर्व में राजगृह तथा उत्तर-पश्चिम में गन्धार जनपद की राजधानी तक्षशिला तक जाता था। दूसरा व्यापारिक मार्ग श्रावस्ती से दक्षिण-पश्चिम की ओर प्रतिष्ठान तक जाता था। सुत्तनिपात से पता चलता है कि दक्षिण तथा पश्चिम के व्यापारिक मार्ग कौशाम्बी में आकर मिलते थे जहाँ से व्यापारी माल लेकर कोसल तथा मगध को जाया करते थे।

गंगा तथा यमुना नदियों के जलमार्ग से होकर भी व्यापारी जाते थे। विनय ग्रन्थों से पता चलता है कि पूर्व से पश्चिम तक गंगा नदी से होकर जाने वाले व्यापारिक मार्ग का अन्तिम स्थल सहजाति था। सहजाति से यमुना नदी होकर जलीय मार्ग कौशाम्बी तक जाता था। नदी पार करने के लिये उन दिनों पुल नहीं थे तथा नावों और जहाजों द्वारा व्यापारी नदी पार किया करते थे।

इसी प्रकार पश्चिम की ओर व्यापारिक मार्ग सिन्ध तथा सौवीर तक जाते थे। इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम में एक बड़ा स्थलीय व्यापारिक मार्ग भारत से तक्षशिला होते हुए मध्य तथा पश्चिमी एशिया के देशों को जाता था। इसी मार्ग से बहुसंख्यक विद्यार्थी तक्षशिला में शिक्षा प्राप्त करने के लिये आते थे।

भारत के व्यापारी जहाजों में माल भरकर बाह्य देशों में भी जाया करते थे। बाहर जाने वाली प्रमुख वस्तुएँ रेशम, मलमल, चाकू, अस्त्र-शस्त्र, कालीन, हाँची-दाँत निर्मित उपकरण, सोने-चाँदी के आभूषण इत्यादि होती थीं।

जातक ग्रन्थों में व्यापारियों के चम्पा से सुचर्ण भूमि (वर्मा) तथा पाटलिपुत्र से ताम्रलिप्ति होते हुए लंका जाने का विवरण मिलता है। पश्चिम भारत में भृगुकच्छ तथा सोपारा प्रसिद्ध बन्दरगाह थे जहाँ विभिन्न देशों के व्यापारी अपनी जहाजों में माल लादकर लाते तथा ले जाते थे।

कभी-कभी एक-एक जहाज में ५०० से लेकर ७०० तक व्यापारी बैठते थे। दारा प्रथम के समय ‘स्काइलैक्स’ और सिकन्दर के समय ‘नियार्कस’ ने सिन्धु नदी से क्रमशः लाला सागर और फ़ारस की खाड़ी तक पहुँचने के मार्ग का अन्वेषण किया था। इससे भारत और पाश्चात्य देशों में व्यापारिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला था।

नदियों के तट पर बसे हुए नगर कौशाम्बी, सहजाति, अयोध्या, काशी, मथुरा, (पाटन) आदि व्यापारियों के आकर्षण के प्रमुख केन्द्र थे।

जातक ग्रन्थ व्यापार वाणिज्य के सन्दर्भ में साझेदारी (Partnership) का भी उल्लेख करते हैं। ये साझेदारी स्थायी, अस्थायी अथवा सामयिक होती थी। कई व्यापारी सम्मिलित पूँजी लगाकर व्यापार करते थे तथा उससे प्राप्त लाभ को बराबर-बराबर बाँट लेते थे। कहीं-कहीं ५०० व्यापारियों द्वारा मिलकर नौकायें खरीदते तथा माल बेचने का भी विवरण प्राप्त होता है जो व्यापारिक क्षेत्र में सहकार और सामुदायिक जीवन की सूचना देता है

प्रमुख नगरों में बाजारें लगती थीं जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था। परन्तु खाद्य पदार्थों की विक्रय नगर के भीतर न होकर उसके प्रवेश द्वार पर ही कर दी जाती थी। बाजारों में वस्त्र, किराये की वस्तुएँ, तेल, सुगन्धित द्रव्य, स्वर्ण तथा रत्नों के आभूषण आदि सामग्रियाँ प्राप्त होती थीं।

बाजार भाव नियन्त्रित करने के लिये कोई नियम नहीं था तथा यह मोल भाव द्वारा ही तय किया जाता था। किन्तु राजकीय खरीददारों के लिये वस्तुओं के मूल्य सुनिश्चित रहती थी। व्यापारियों को आन्तरिक तथा बाह्य दोनों ही प्रकार के व्यापारिक माल पर राज्य को चुंगी देनी पड़ती थी। यह चुंगी आन्तरिक माल पर १/२० और बाहर जाने वाले माल पर १/१० होती थी। मिट्टी, जेस्पर, सेलखड़ी (Steatite) आदि के अनेक बाट या बटखरे भी एरण, वैशाली, जाजमऊ, चिरान्द आदि स्थानों से प्राप्त होते हैं।

अनेक लोग धन उधार देने का भी काम करते थे तथा इस पर उन्हें अच्छा ब्याज मिलता था। ऋणदान को ईमानदारी का व्यवसाय कहा गया है। बुद्ध ने भी इसे मान्यता प्रदान की थी।

व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में होने वाली अद्भुत प्रगति ने समाज में धन-संग्रह को बढ़ावा दिया तथा बढ़े व्यापारियों के पास अतुल सम्पत्ति संचित हो गयी। अपनी सम्पत्ति के बल पर व्यापारिक वर्ग सामाजिक श्रेष्ठता का दावा करने लगे तथा राजनीति को भी प्रभावित करने लगे। श्रावस्ती का अनाथपिंडक तथा कौशाम्बी का घोषित बुद्ध-काल के सुप्रसिद्ध पूँजीपति थे और उनका तत्कालीन शासकों के ऊपर भी अच्छा प्रभाव था।

नियमित सिक्कों का प्रचलन

यद्यपि वैदिक साहित्य में निष्क, शतमान आदि का उल्लेख मिलता है तथापि सिक्के के रूप में इनकी असंदिग्ध पहचान नहीं की जा सकती। इस बात के निश्चित संकेत मिलते हैं कि ईसा पूर्व सातवीं शती के अन्त तक सिक्कों का नियमित रूप से प्रयोग होने लगा था। इसे संस्कृत में ‘कार्षापण’ और पालि साहित्य में ‘काहापण‘ कहा गया है।

उत्खनन में जो प्राचीनतम् सिक्के मिले हैं, वे बुद्धकाल से पूर्व के नहीं हो सकते क्योंकि इसी समय व्यापारिक संघों ने अपने-अपने ठप्पे लगाकर इनका प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया था। ठप्पा मारकर बनाये जाने के कारण इन सिक्कों को आहत सिक्के (Punch-marked Coins) कहा जाता है। मध्य गंगाघाटी के कई स्थलों से इन सिक्कों की निधियाँ (Hoards) प्राप्त होती हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी इनका उल्लेख मिलता है। क्लासिकल लेखक नन्दों की अतुल सम्पत्ति का उल्लेख करते हैं।

एलन का विचार है कि नन्दों की अतुल सम्पत्ति विषयक जो परम्परा प्रचलित थी उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने बड़े पैमाने पर सिक्के जारी करवाये थे। सिक्कों के प्राचीनतम् ढेर पूर्वी भारत में ही मिलते है जो बौद्ध धर्म का गढ़ था। सम्भव है आहत सिक्कों की उत्पत्ति इसी क्षेत्र में हुई हो। आहत सिक्कों के प्रचलन ने भी नगरीकरण को सुदृढ बनाया।

स्पष्ट है कि इस समय विनिमय के माध्यम के रूप में सिक्कों का प्रचलन हो गया तथा अदला-बदली प्रणाली (Barter system) लगभग समाप्त हो गयी थी।

कार्षापण (आहत सिक्के) ताँबा तथा चाँदी दोनों से बनता था। उत्खनन में अधिकतर चाँदी के ही सिक्के मिले हैं, केवल कुछ हो ताँबे के हैंसोने का कोई भी सिक्का नहीं मिलता। इसके ऊपरी तथा पृष्ठ भाग पर अनेक चिह्न; यथा – सूर्य, षडरचक्र, अर्धचन्द्रयुक्त पर्वत, वृषभ आदि बनाये जाते थे।

ताँबे के कार्षापण १४६ ग्रेन तथा चाँदी का कार्षापण १८० ग्रेन के वजन का होता था। जातक ग्रन्थों में कार्षापण के साथ-साथ माषक, पाद, द्विमाषक, एकमाषक, अर्धमाषक, काकणि आदि लघु मूल्य वर्ग के सिक्कों का भी उल्लेख मिलता है। चाँदी का माषक कार्षापण का १/१६ था। बताया गया है कि बीस तथा तीस माषक भारवाले बड़े सिक्के चलते थे। ताँबे का भाषक नौ ग्रेन का थापाद का वजन २.२५ ग्रेन थाकाकणि सबसे छोटा सिक्का होता था

इस विवरण से स्पष्ट है कि बुद्धकाल में मुद्रा अर्थव्यवस्था अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गयी तथा सामान्य लन-देन इन्हों के माध्यम से होने लगा। मुद्रा की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि एक मरे हुए चूहे का मूल्य भी मुद्रा में ही आँका गया है। मुद्रा की बहुलता ने व्यापार वाणिज्य को समृद्ध बनाया जिसके परिणामस्वरूप नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो गयी।

मूलतः आहत सिक्के सौदागरों द्वारा चाँदी के सादे टुकड़ों के रूप में प्रचलित किये गये जिनके एक ओर श्रेणियों के चिन्ह अंकित किये जाते थे। कालान्तर में इन सिक्कों को ढलवाने का अधिकार राज्य ने ले लिया। सिक्का शहरी उन्नति का प्रतीक बन गया। मुद्रा अर्थव्यवस्था के आविर्भाव ने व्यापार-वाणिज्य में सुविधा प्रदान किया तथा आहत सिक्कों का व्यापक प्रयोग होने लगा।

धनाढ्य व्यापारियों एवं व्यवसायियों के पास प्रचुर सम्पत्ति जमा हो गयी। शहरों में निवास करने वाले ऐसे सेंट्ठियों का वर्णन मिलता है जिनके पास अस्सी करोड़ (असोति-कोटि-धन) मुद्रायें होती थीं। श्रावस्ती के अनाथपिण्डक तथा कौशाम्बी के घोषित अपने युग के सबसे धनी सेट्ठि थे

इस विवरण से स्पष्ट है कि बुद्धकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था प्रथम बार द्रव्ययुग में अवतीर्ण हुई। मुद्रा के प्रचलन के साथ आर्थिक गतिविधियों में एक नई स्फूर्ति उत्पन्न हो गयी।

  • १ ग्राम = १५.४१ ग्रेन
  • १ ग्रेन = ०.०६४८७४१ ग्राम = ६४.८७ मिलीग्राम

कार्षापण

  • चाँदी का कार्षापण १८० ग्रेन।
  • ताँबा का कार्षापण १४६ ग्रेन।

माषक

  • चाँदी का माषक १/१६ वाँ भार चाँदी के कार्षापण का = ११.२५ ग्रेन।
  • ताँबा का माषक ९ ग्रेन।

पाद

  • पाद का भार २.२५ ग्रेन।

काकणि

  • काकणि सबसे छोटा सिक्का।

राजनीतिक-सामाजिक कारण

तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों ने भी नगरीकरण के उत्कर्ष में योगदान दिया। इस युग में विशाल राजतंत्रों का उदय हुआ। इनके कुछ नगर जैसे राजगृह, पाटलिपुत्र, वाराणसी, श्रावस्ती, तक्षशिला आदि सामरिक एवं व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे। यहाँ राजा तथा प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में शिल्पी, कारीगर, व्यापारी भी बस गये जिसके परिणामस्वरूप राजधानियों वाले नगर उद्योग-व्यापार के प्रमुख केन्द्र भी बन गये।

व्यवसायी एवं व्यापारी नगरों की ओर ही उन्मुख हुए जहाँ उन्हें अपने उद्यमों के लिये अनुकूल वातावरण मिला तथा सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो गयी। इसके पूर्व की सामाजिक संरचना में वैश्यों को तीसरे स्थान पर रखा गया था किन्तु जब वे आर्थिक रूप से सम्पन्न हो गये, तब उचित सम्मान और अधिकार प्राप्त करने के लिये व्यापारिक और औद्योगिक केन्द्रों में पहुँच गये तथा ऐसे केन्द्र नगरों के रूप में विकसित हो गये।

इस काल के कुछ महान राजाओं की विजय ने भी व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन दिया; जैसे बिम्बिसार की अंग विजय ने गंगाघाटी के आन्तरिक व्यापार को विदेशी व्यापार के साथ जोड़ दिया। अजातशत्रु की काशी एवं वज्जि संघ पर विजय से गंगानदी से होने वाले व्यापार मार्ग पर मगध का अधिकार हो गया।

गंगाघाटी के प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिये श्रावस्ती, चम्पा, राजगृह, अयोध्या, कौशाम्बी तथा काशी जैसे नगर काफी महत्त्वपूर्ण बन गये। नगरों का विकास उन स्थानों पर हुआ जहाँ शिल्पों में विशिष्टता प्राप्त करने वाले ग्राम तथा व्यापारिक केन्द्र थे। नगरों में निवास करने वाले भूमिपति क्षत्रियों ने शिल्पियों के कार्यकलाप को प्रोत्साहित किया। वे स्वयं भी शिल्पों की शिक्षा प्राप्त करते थे।

नवोदित धार्मिक विचारधारा का समर्थन

ब्राह्मण धर्म अपने मूल स्वरूप में ग्रामीण जीवन का समर्थक था। इसके विपरीत ईसा पूर्व छठी शताब्दी में आविर्भूत जैन और बौद्ध धर्मों का दृष्टिकोण नगरीय जीवन का समर्थक था। व्यापार और वाणिज्य नगरीकरण के मूलाधार थे तथा दोनों ही धर्मो ने इनका खुलकर समर्थन किया। जैन धर्म के अहिंसा एवं मितव्ययिता के सिद्धान्त व्यापारियों की भावना के अनुकूल थे। बुद्ध ने ऋण दान तथा सूदखोरी की प्रथा की निन्दा नहीं की जबकि ब्राह्मण ग्रन्थ एवं लेखक इसकी भर्त्सना करते हैं। आपस्तम्भ के अनुसार ब्राह्मणों को सूद लेने वाले के यहाँ भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए

बुद्ध गृहस्थ को अपने ऋण चुकाने का सुझाव देते हैं तथा ऋणी व्यक्ति के संघ में प्रवेश पर रोक लगाते हैं। वे ब्याज पर धन देने को भी उचित मानते हैं। उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म की प्रारम्भिक शिक्षायें व्यापार में सफलता के लिये अनेक सुझाव देती है।

नगरीय जीवन का एक अंग वेश्यावृत्ति भी था। वेश्याओं के प्रति बुद्ध का दृष्टिकोण उदार था। वे स्वयं आम्रपाली के यहाँ ठहरे थे। स्त्रियाँ संघ में प्रवेश पा सकती थीं तथा वेश्याओं के लिये भी इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था। इसके विपरीत ब्राह्मण ग्रन्थ तथा लेखक वेश्याओं के आचरण की निन्दा करते हुए उन्हें समस्त धार्मिक क्रियाओं से वंचित करते हैं। आपस्तम्भ धर्मसूत्र में वेश्या के हाथ का भोजन ग्रहण करने का निषेध है।

बौद्धायन के अनुसार नगर में रहने वाला व्यक्ति मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। गौतम ने नगर में वेदपाठ तथा आपस्तम्भ ने नगर निवास का निषेध किया है।

इस प्रकार महावीर तथा बुद्ध द्वारा नागरीय जीवन एवं नगर अर्थव्यवस्था को समर्थन करने से भी नगरीकरण के उत्कर्ष को धार्मिक आधार प्राप्त हो गया।

लिपि का आविर्भाव

बुद्धकाल में लिपि का आविर्भाव हुआ जो नगरीय जीवन के लिये आवश्यक थी। यह सही है कि प्राचीनतम लेख अशोक के समय (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) के हैं, किन्तु पुरालिपि शास्त्रियों के अनुसार मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि के विकास में लगभग तीन शताब्दियों का समय लगा होगा। इस प्रकार लेखन कला की प्राचीनता बुद्ध काल तक जाती है।

लिपि के आविर्भाव से व्यापारियों व्यवसायियों को अपने हिसाब-किताब रखने में सहायता मिली तथा नगरों को शिक्षा प्रणाली भी सुगम हो गयी। लिपि ज्ञान को भी नगरीकरण का एक कारण माना गया है।

इस प्रकार इन विविध कारणों ने बुद्धकाल में नगरों के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। ये लौहकालीन नगर थे जो सैन्धव नगरों से कुछ अर्थों में भिन्न थे। इनका पूर्व की भाँति विलोपन नहीं हुआ अपितु इसके बाद नगरीकरण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रही। बुद्धकालीन नगरीकरण ने परम्परागत कबाइली आधार पर गठित सामाजिक-आर्थिक संगठन को समाप्त कर दिया। उत्तर भारत में जनजातियों का काल वस्तुतः समाप्त हो गया। राजनीतिक क्षेत्र में जनपदों ने प्राचीन जनजातीय प्रशासनिक इकाइयों का स्थान ग्रहण कर लिया।

परन्तु इस नगरीय क्रान्ति ने सामाजिक संतुलन को भी बिगाड़ दिया तथा कुलीन और निर्धन व्यक्तियों के जीवन में स्पष्ट अन्तर हो गया। समाज में मध्य वर्ग का भी उदय हुआ जो नगरों में निवास कर सभ्य जीवन बिताने लगे। जातक ग्रन्थों में गृहपति का उल्लेख प्रायः इसी प्रकार के लोगों को इंगित करने के लिये किया गया है।

मानव इतिहास में नगरों के विकास को एक क्रान्ति के रूप में देखा गया है जिससे इतिहास और सभ्यता का प्रारम्भ हुआ। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि प्रो० जी० सी० पाण्डे बुद्धकाल में ‘नगरीय क्रान्ति’ की बात को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ‘वस्तुतः कृषि प्रधान भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ नगरों के उदय को नगरीय क्रान्ति को संज्ञा देना एक परिप्रेक्षात्मक भ्रान्ति है। प्राचीन सभ्यतायें नागरिक क्रान्ति से उतनी ही दूर थीं जितनी प्राचीन कारीगरी औद्योगिक क्रान्ति से।’*

  • वैदिक संस्कृति – गोविन्द चन्द्र पाण्डेय।*

प्रमुख नगर तथा नगरीय केन्द्र (Important Urban Centres)

बुद्ध काल में नगरों का तेजी से उदय हुआ। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में बुद्ध के समय के छः प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख मिलता है –

१. चम्पा

२. राजगृह

३. श्रावस्ती

४. साकेत

५. कौशाम्बी

६. वाराणसी

इनके अतिरिक्त वैशाली, हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मिथिला, प्रतिष्ठान, उज्जयिनी, मथुरा आदि भी प्रमुख नगर थे। तक्षशिला पश्चिमोत्तर भारत का प्रसिद्ध नगर था।

डी० एन० झा के अनुसार ईसा पूर्व छठी शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच भारत में ६० नगरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। ये पूर्व में चम्पा से पश्चिम में भृगुकच्छ तक तथा उत्तर में ‘कपिलवस्तु से दक्षिण में कावेरीपत्तन तक फैले हुए थेश्रावस्ती जैसे विशाल नगर बीस के लगभग थे जिनमें से अधिकांश बुद्ध तथा उनके धर्म से संबंधित होने के कारण महत्वपूर्ण हो गये थे। ये नगर ही इस काल में बौद्धिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र बन गये। यही कारण है कि बौद्ध साहित्य, जो मुख्यतः इस युग को ही देन है, अपने दृष्टिकोण में पूर्णतया नगरीय प्रतीत होता है जबकि इसके पहले का ब्राह्मण साहित्य ग्रामीणता से प्रभावित है।

शिक्षा तथा साहित्य

बौद्ध काल तक भारत में लेखन कला का पूर्ण विकास हो गया था। देश के पश्चिमोत्तर भागों में हखामनी राजाओं ने अरामेइक (Aramaic) लिपि का प्रचलन करवाया जिससे आगे चलकर खरोष्ठी लिपि का उद्भव हुआ। परन्तु लेखन कला के बावजूद शिक्षा अधिकांशतः मौखिक ही होती थी। बौद्ध तथा ब्राह्मण आचार्य धार्मिक उपदेशों तथा सूत्रों को रट कर याद करने में ही विश्वास करते थे।

बुद्ध काल तक आते-आते वैदिक साहित्य के अध्ययन की लोकप्रियता कम हो गयी तथा साहित्यिक अध्ययन के साथ-साथ व्यवसाय और उद्योग के लिये उपयोगी शिल्पों तथा विधाओं के अध्ययन के ऊपर भी बल दिया गयाचिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा का भी महत्त्व था।

इस समय बौद्ध विहार तथा कुछ अन्य व्यवसायिक नगर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। विहारों में सामूहिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। पश्चिमोत्तर भारत में शिक्षा केन्द्र के रूप में तक्षशिला की अत्यधिक ख्याति थी। यहीं पर रहकर पाणिनि, जीवक, कौटिल्य जैसे सुप्रसिद्ध विद्वानों के शिक्षा प्राप्त किया था। जातक ग्रन्थों से पता चलता है कि तक्षशिला में धार्मिक विषयों के अतिरिक्त लौकिक विषयों को भी शिक्षा दी जाती थी।

मगध के राजवैद्य जीवक की चिकित्सा-सम्बन्धी शिक्षा के विषय में वौद्ध ग्रन्थों में रोचक विवरण प्राप्त होता है। वह बिम्बिसार के पुत्र अभय द्वारा तक्षशिला पहुँचाया गया जहाँ ७ वर्षों तक रहकर उसने अपनी जीविका कमाने के लिये औषधियों का अध्ययन किया। वह वैद्यक का प्रसिद्ध विद्वान बन गया जिसका चिकित्सा शुल्क १,६०० कार्षापण था। उसने मगधराज बिम्बिसार, अवन्ति नरेश प्रद्योत तथा महात्मा बुद्ध की चिकित्सा करके उन्हें रोगमुक्त किया था

तक्षशिला में दूर-दूर से विद्यार्थी, यहाँ तक कि यूनान से भी, शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। जातक ग्रन्थों के अनुसार यहाँ १८ शिल्पों की शिक्षा दी जाती थी। यहाँ विधि, औषधि तथा सैन्य विज्ञान के विशिष्ट विद्यालय थे। यहाँ धनुर्विद्या, आखेट, हस्तिविद्या, पशु-भाषा-विज्ञान आदि को भी शिक्षा को उचित व्यवस्था थी। इस प्रकार तक्षशिला में मानविकी, विविध विज्ञानों, व्यवसायों तथा शिल्पों आदि की उच्चतम शिक्षा प्रदान की जाती थी।*

  • Taxila thus offered the highest education in humanities and in the sciences, arts and the crafts. — Age of Imperial Unity; p. 594 : R. C. Majumdar.*

तक्षशिला के ही समान वाराणसी भी इस समय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यहाँ तक्षशिला के शिक्षा प्राप्त स्नातक आचार्य के रूप में कार्य करते थे। यह संगीत की शिक्षा के लिये जगत् प्रसिद्ध था। विद्यालयों में धनी तथा निर्धन दोनों ही वर्गों के छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। धनी वर्ग के विद्यार्थी सम्पूर्ण शुल्क एक ही साथ दे देते थे। निर्धन छात्र शुल्क के बदले आचार्य को सेवा करते थे। कभी-कभी समाज के कुलीन लोग निर्धन छात्रों का शुल्क अदा करते थे। उन्हें प्रायः भोजन तथा वस्त्र भी प्रदान कर दिये जाते थे। कभी-कभी राज्य की ओर से भी निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये धनराशि प्रदान की जाती थी। विद्यालयों की संख्या ५०० तक थी। चाण्डाल वर्ग के सिवाय शेष सभी वर्णों के विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर सकते थे

बौद्ध साहित्य दो प्रकार के शिक्षकों का उल्लेख करता है —

  • उपाध्याय तथा
  • आचार्य।

इनमें उपाध्याय का स्थान आचार्य की अपेक्षा श्रेष्ठतर होता था जो दस वर्ष के अनुभव का भिक्षु होता था। आचार्य के लिये छः वर्ष के अनुभव का भिक्षु होना अनिवार्य था।

कुछ बौद्ध विहारों के पास विस्तृत खेत होते थे जिनमें कृषि करके भिक्षु स्वयं अपना भोजन उत्पन्न करते थे। ब्राह्मण गुरुकुलों के समक्ष ऐसी कोई समस्या नहीं थी।

बौद्धकाल साहित्यिक गतिविधियों के लिये भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। इस समय कई ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों की रचना हुई तथा लौकिक साहित्य की रचना का भी प्रारम्भ हुआ। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस समय सूत्रों की रचना की गयी जिन्हें कल्प वेदांग के अन्तर्गत रखा गया है। गौतम, बौधायन तथा आपस्तम्भ इस युग के प्रमुख सूत्रकार थे। बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध को शिक्षाओं को पिटकों के रूप में संकलित करना प्रारम्भ किया।

बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम संगीति में सुत्त तथा विनय नामक दो पिटकों का संकलन हुआ जिनमें क्रिमशः धर्म तथा आचरण सम्बन्धी नियम थे।

  • सुत्तपिटक को पाँच निकायों में विभाजित किया जाता है— दीघ, मज्झिम, संयुक्त, अंगुत्तर तथा खुद्दक। इनमें चार बुद्ध द्वारा दिये गये उपदेश के रूप में है तथा अन्तिम (खुद्दक) में विविध विषयों का संग्रह है। खुद्दक निकाय में धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरागाथा, थेरीगाथा जैसे ग्रन्थ तथा जातक आते हैं।
  • विनय पिटक का विभाजन चार भागों में किया जाता है— सुत्तविभंग, खंधक, पातिमोक्ख तथा परिवार। इनमें संयम तथा अनुशासन के नियम है।

बौद्ध ग्रन्थों की रचना पालि भाषा में की गयी है। थेरीगाथा में भिक्षुणियों द्वारा विरचित कुछ सुन्दर कवितायें मिलती है।

बौद्धों के समान जैनों ने भी इस समय अपने साहित्य का सृजन प्रारम्भ कर दिया था। जैन-धर्म के मूल सिद्धान्त महावीर स्वामी के उपदेश थे। इनका साहित्य के रूप में संकलन पाँचवी शताब्दी ईसवी में बलभी की सभा में हुआ था।

प्राग्मौर्यकाल को साहित्यिक कृतियों में महर्षि पाणिनि कृत अष्टाध्यायी का उल्लेख किया जा सकता है। पाणिनि पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में स्थित सालातुर नामक स्थान के निवासी थे। उनके ग्रन्थ में ४०० सूत्र तथा आठ अध्याय हैं। संस्कृत व्याकरण के ऊपर यह ग्रन्थ सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वप्रसिद्ध रचना है। पाणिनि का समय चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व स्वीकार किया जाता है।

कला तथा स्थापत्य

प्राग्मौर्यकाल के कला-अवशेष अपेक्षाकृत बहुत कम मिलते हैं। गंगाघाटी में नगरीय क्रान्ति के प्रादुर्भाव के कारण अब भवनों के निर्माण में पकाई हुई ईटों तथा पाषाण का प्रयोग होने लगा था।

राजगृह, उज्जैन तथा कौशाम्बी के महल क्षेत्र की खुदाइयों से प्राकारों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इनका निर्माण पाषाणों की सहायता से किया गया है। इस समय मगध का सुप्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द था। उसी के निर्देशन में राजगृह के प्रासाद का निर्माण करवाया गया था। यहीं बिम्बिसार ने अपनी राजधानी बसायी थी। बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय के अनुसार चम्पा की नगर योजना भी महागोविन्द ने बनायी थी। उसके पुत्र अजातशत्रु ने पाटलिग्राम नामक नगर का निर्माण करवाया तथा उसने भी अपनी राजधानों का दुर्गीकरण करवाया था।

राजगृह के प्राचीर के जो अवशेष मिलते है उनसे पता चलता है कि उसका निर्माण बड़े तथा बेडौल पत्थरों को बिना चूने के जोड़कर बनाया गया है। बिम्बिसार द्वारा निर्मित राजगृह में भीतरी और बाहरी दो प्राकार हैं। भीतरी प्राचीर के चारों ओर खाई बनायी गयी हैं। यहाँ से दुर्ग के अवशेष भी मिलते है। इसका पाषाण निर्मित प्राकार अभी तक विद्यमान है। यह नगर के प्राकार की अपेक्षा सुदृढ़ तथा ऊँचा है।

पूर्व-मौर्य-युग के अवशेषों में पिपरहवा से प्राप्त बौद्ध स्तूप को धातुगर्भ मंजूषा (Relic casket) तथा उसमें रखे गये रत्न-पुष्प कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पिपरहवा सिद्धार्थनगर जनपद में नेपाल की सीमा पर स्थित है। यह स्तूप ईंटों से बनाया गया था। सम्प्रति यह २१ फुट ऊँचा है। इसके गर्भ से एक बड़ी पत्थर को पेटी निकली थी। इस पेटी के ऊपर एक लेख उत्कीर्ण मिलता है जिससे पता चलता है कि शाक्यों ने इस स्तूप का निर्माण करवाया था। उसके गर्भ में बुद्ध की शरीर धातु का अंश सुरक्षित था। पेटी के भीतर रखी गयी मंजूषा में शरीर धातु के अतिरिक्त कुछ अन्य कलात्मक वस्तुयें भी रखी गयी थीं; जैसे — सुन्दर मूर्तियाँ, रत्न-पुष्प, नीलम, स्फटिक मणि, शंख, स्वर्णपत्र आदि। कलात्मक दृष्टि से ये वस्तुयें अत्यन्त उच्चकोटि को है। इसकी राजगीरी अत्युत्तम है। बलुए पत्थर को बड़ी पेटी सुन्दर ढंग से बनी हैं तथा इसमें रखे हुये स्वर्ण, रजत, प्रवाल, स्फटिक मणियों के आभूषण तथा बहुमूल्य पत्थर स्वर्णकार तथा जौहरियों के उच्च स्तर को कलात्मक निपुणता को घोषित करते हैं।*

  • The masonry of the stupa is excellent of its kind. The great sandstone coffer could not be better made, and the ornaments of gold, silver, coral, crystal and precious stones, deposited in the honour of the holy relict, display a high degree of skill in the arts of the lapidary and goldsmith. — Imperial Gazetteers, Vol. 2, Smith.
  • देखें — पिपरहवा बौद्धकलश अभिलेख

पिपरहवा बौद्ध स्तूप उन आठ मौलिक स्तूपों में से एक माना जा सकता है जिनका निर्माण भगवान बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् आठ विभिन्न लोगो द्वारा उनकी धातु-अवशेषों पर करवाया गया था। इनमें कपिलवस्तु के शाक्य भी थे।

विभिन्न स्थलों की खुदाई से कड़े पत्थर तथा मिट्टी की बहुसंख्यक नारी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका तादात्म्य मातादेवी / मातृदेवी (Mother-goddess) के साथ स्थापित किया गया है। ये तक्षशिला से लेकर मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, राजघाट, पाटलिपुत्र आदि तक मिलती हैं। ये मूर्तियाँ मण्डलाकार चकियों के ऊपर खुदी हुई है। कला मर्मज्ञ वासुदेव शरण अग्रवाल ने इन्हें ‘श्रीचक्र’ की संज्ञा प्रदान की है तथा इनकी संख्या ४० बतायी है। इन चकियों से गंगाघाटी में मातादेवी ( मातृदेवी ) की पूजा को लोकप्रियता सूचित होती है। कुछ चकियों पर मातादेवी के साथ वनस्पतियों तथा पशुओं का भी अंकन मिलता है जिन्हें उर्वरता को देवी ( Goddess of Fertility ) कहा जा सकता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top