भूमिका
भारतीय सन्दर्भ में लोहे की प्राचीनता द्वितीय सहस्राब्दी तक ले जाया जा सकता है परंतु यह आम प्रयोग में १००० ई०पू० के आसपास से प्रारम्भ माना जाता है। भारतीय उप-महाद्वीप में लोहे के प्रयोग के स्वतंत्र प्रयोग के कई क्षेत्र हैं; जैसे गंगा घाटी, पश्चिमोत्तर, मध्य व दक्षिण भारत।
मानव द्वारा लोहे के प्रयोग की कहानी कुछ-कुछ घोड़े जैसी ही है।
- पालतू घोड़े को पहली बार छठी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में काला सागर के पास देखा गया था। परन्तु घोड़े का मानव द्वारा पालतू जानवर के रूप में प्रयोग जाकर दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से ही आम हो पाया।
- इसी तरह लोहे का भी एक लंबा गर्भकाल ( gestation period ) रहा। या यूँ कहें कि प्राचीन संस्कृतियों में लोहे के साक्ष्य तो यदा-कदा मिल जाते हैं परन्तु उसके आम प्रयोग में आने से पूर्व एक लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ी।
लोहे के प्रयोग के वैश्विक साक्ष्य
लौहयुक्त बहुत सारे छोटे-छोटे पिण्ड अंतरिक्ष में गतिमान हैं। ये पिण्ड कभी-कभी अपना मार्ग भटककर उल्कापिण्डों ( meteorites ) के रूप में पृथ्वी पर गिर जाते हैं। एक ऐसा ही टुकड़ा प्राचीन मिस्र में ३००० ई०पू० में पाया गया था। इसे लोहे के रूप में पहचाना गया था, और इसे मिस्र की भाषा में स्वर्गीय काला ताँबा ( black copper from heaven ) कहा जाता था।
कई ताँबे के खनिजों में लौह अयस्क पाये जाते हैं; जैसे – चाल्कोपायराइट ( CuFeS2 ), बोरनाइट ( 2CuS.CuS.FeS ) आदि। इन खनिजों से लौह अयस्क को अलग करने और शुद्ध लौह धातु बनाने में कई वर्ष लग गये।
एक शुद्ध धातु के रूप में, लोहा पहली बार मेसोपोटामिया में ५००० ई०पू० में और बाद में अनातोलिया में तृतीय सहस्राब्दी ई०पू० में बनाया गया था। हालाँकि, १२०० ई०पू० तक, लोहे को पश्चिमी एशिया में एक मूल्यवान धातु के रूप में महत्त्व दिया जाता था और शासकों द्वारा इसका उपहार के रूप में प्रयोग किया जाता था।
इसी तरह थाईलैण्ड के बानौची से लौह धातु के प्रयोग का साक्ष्य १६०० से १२०० ई०पू० जितना पुराना है।
भारतीय संदर्भ में लोहे की प्रचीनता
भारतीय उपमहाद्वीप में, लोहे को कभी-कभी हड़प्पा काल में लोथल और अफगानिस्तान के कुछ पुरातात्त्विक स्थलों में प्रयोग की बात बतायी गयी है। हालाँकि इनमें से कोई भी शुद्ध लोहे की धातु का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और न ही लौह धातु कर्म में काम कर रहा था। वे वास्तव में ताँबे की वस्तुएँ हैं जिनमें लौह अयस्क होता है। इन अयस्कों को ताँबे से अलग नहीं किया गया है और शुद्ध लौह धातु के रूप में प्रयोग देखने को नहीं मिलता है।
भारत में लोहे की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये हमें साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों ही प्रमाणों से सहायता मिलती है।
कुछ विद्वानों का मत है कि विश्व में सर्वप्रथम हित्ती नामक जाति, जो एशिया माइनर ( टर्की ) में ई०पू० १,८०० – १,२०० के लगभग शासन करती थी, ने ही लोहे का प्रयोग किया था। उनका एक शक्तिशाली साम्राज्य था। ई०पू० १,२०० के लगभग इस साम्राज्य का विघटन हुआ और इसके बाद ही विश्व के अन्य देशों में इस धातु का प्रचलन हुआ। अतः ई०पू० १,२०० के पहले हम भारत में भी लोहे के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
किन्तु लोहे पर हित्तियों के एकाधिकार की बात अब तर्कसंगत नहीं प्रतीत होती। उल्लेखनीय है कि थाईलैंड में बानैची नामक पुरास्थल की खुदाई से स्तरीकृत सन्दर्भों में ढला हुआ लोहा मिलता है जिसकी तिथि ई०पू० १,६०० – १,२०० के मध्य निर्धारित की गयी है। इस प्रमाण से लोहे पर हित्ती एकाधिकार की बात मिथ्या सिद्ध हो जाती है।
पुनश्च नोह ( भरतपुर, राजस्थान ) तथा इसके दोआब वाले क्षेत्र से लोहा कुछ लोहित मृद्भाण्डों (Black and Red Ware) के साथ मिलता है जिसकी सम्भावित तिथि ई०पू० १,४०० के लगभग है।
परियार के दसवें स्तर से भी कृष्णलोहित मृद्भाण्डों के साथ लोहे की एक भाले की नोंक (Spear head) मिलती है। उज्जैन, विदिशा आदि की भी यही स्थिति है। भगवानपुरा (कुरुक्षेत्र जनपद, हरियाणा) में यह चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के साथ मिलता है जो उत्तर-हड़प्पाकालीन स्तर है। आलमगीरपुर तथा रोपड़ में भी यहाँ स्थिति है।
अथर्ववेद में नीललोहित शब्द मिलता है। ए० घोष ने स्पष्टतः बताया है कि इससे तात्पर्य ‘कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड‘ से ही है। अतः भारत में लोहे का प्रादुर्भाव कृष्णलोहित मृद्भाण्डों के साथ हुआ न कि चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के साथ। भगवानपुरा के साक्ष्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोहा ऋग्वैदिक काल में भी ज्ञात था।
सुप्रसिद्ध पुराविद् ह्वीलर की मान्यता है कि भारत में सर्वप्रथम लोहे का प्रचलन ईरान के हखामनी शासकों द्वारा किया गया था। इसी प्रकार कुछ अन्य विद्वान यूनानियों को इसे लाने का श्रेय प्रदान करते हैं। किन्तु ये मत समीचीन नहीं लगते। स्वयं यूनानी साहित्य में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भारतवासियों को सिकन्दर के पहले से ही लोहे का ज्ञान था और यहाँ के कारीगर लौह उपकरणों का निर्माण करने में कुशल थे।
ऋग्वेद भी तीरों तथा भाले की नोकों एवं वर्म (कवच) का उल्लेख करता है। एक स्थल पर कवच तथा शत्रुओं से सुरक्षित लौह दुर्ग बनाने के लिये सोम का आह्वान किया गया है।१ गालव नामक प्रसिद्ध ऋषि की चर्चा है जिसने पाञ्चाल नरेश दिवोदास को दशराज्ञ युद्ध में लोहे की तलवारें देकर सहायता की थी। कन्नौज नरेश अष्टक का उल्लेख है जिसने अपने पुत्र का नाम ‘लौही’ रखा था।
- वर्म सीव्यध्वम्बहुला पृथूनि, पुरः कृणुध्वजमायसीरधृस्टा।१
अतः मितन्नियों तथा हित्तियों को लोहे का अविष्कर्त्ता सिद्ध करने के लिये दिये गये उद्धरण आधुनिक पुरातात्त्विक अनुसंधानों के आलोक में गलत प्रमाणित होते हैं जिसकी पुष्टि साहित्य में उपलब्ध सैकड़ों उद्धरणों से भी होती है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त उत्तम कोटि के ताँबे तथा काँसे के उपकरण और गंगा घाटी से प्राप्त ताम्रनिधियों एवं गैरिक मृद्भाण्डों से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन भारतीयों का तकनीकी ज्ञान अत्यन्त विकसित था। संभव है कि गंगाघाटी के ताम्रधातुकर्मी ही लोहे के अविष्कर्ता रहे हो क्योंकि लोहे की दो बड़ी निधियाँ माण्डी (हिमाचल) तथा नरनौल (पंजाब) उत्तर भारत में ही स्थित है।
अफ्रीका के समान भारत में भी ऐसी आदिम जनजातियाँ ( उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश की अगरिया२ ) निवास करती थीं जो देशी तकनीक से लोहा तैयार करती थीं तथा अपने द्वारा निर्मित बर्तनों का व्यापार करती थीं।
- अगरिया जनजाति आज भी समूहों में चलती है। इसका मुख्य उद्यम लौह उपकरण एवं बर्तन तैयार करना ही है।२
इन समुदायों को लोहे का ज्ञान नियमित लौह युग के हजारों वर्ष पूर्व ही हो चुका था।
मध्य तथा दक्षिणी भारत में लोहे की बहुलता को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ लौह तकनीक तंत्र ( Iron Technology ) का एक स्वतंत्र आरम्भिक केन्द्र था।
अतः अब यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि भारत में लोहे का आगमन आर्यों के साथ हुआ जबकि उन्होंने लौह तकनीक-तंत्र पर हित्ती एकाधिकार को नष्ट कर दिया। यह बात इस तथ्य से भी पुष्ट होती है कि देश के उत्तरी-पश्चिमी तथा अन्तरिक भागों में लोहा साथ-साथ मिलता है। आद्यवैदिक काल से ईस्वी सन् के प्रारम्भ तक लोहे की उपलब्धता के निरन्तर प्रमाण मिलते हैं। उत्तरवैदिक कालीन साहित्य तो स्पष्टतः लौह धातु के व्यापक प्रचलन का संकेत देता है।
सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल (ई० पू० १,००० – ६००) के ग्रन्थों में हमें इस धातु के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। अथर्ववेद में लोहायस तथा श्यामअयस् शब्द मिलते हैं। वाजसनेयी संहिता में ‘लोह‘ तथा ‘श्याम‘ शब्द मिलते हैं। विद्वानों ने ‘लोह’ शब्द को ताँबे के अर्थ में तथा ‘श्याम’ शब्द को लोहे के अर्थ में ग्रहण किया है। इस प्रकार अथर्ववेद में उल्लिखित ‘श्यामअयस्’ से तात्पर्य लौह धातु से ही है। इसके बाद ‘अयस्’ शब्द लोहे का ही पर्याय बन गया। काठक संहिता में चौबोस बैलों द्वारा खींचे जाने वाले भारी हलों का उल्लेख मिलता है। इनमें अवश्य ही लोहे की फाल लगायी गयी होगी। अथर्ववेद भी लोहे से बने हुए फाल का उल्लेख करता है। इस प्रकार साहित्यक प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा पूर्व आठवीं शती में भारतीयों को लोहे का ज्ञान प्राप्त हो चुका था।
लोहे की प्राचीनता सम्बन्धी साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से भी हो जाती है। अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, काम्पिल्य आदि स्थानों की खुदाईयों से लौह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल के लोग एक विशिष्ट प्रकार के बर्तन का प्रयोग करते थे जिसे चित्रित धूसर भाण्ड ( Painted Grey-ware -PGW ) कहा जाता है। इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण, जैसे- भाला, तीर, बसुली, खुरपी, चाकू, कटार आदि मिलते हैं। अतरंजीखेड़ा की खुदाई में धातु-शोधन करने वाली भट्टियों के अवशेष मिले हैं। इन साक्ष्यों से यह विदित होता है कि चित्रित धूसर भाण्डों के प्रयोक्ता लोहे का न केवल ज्ञान रखते थे अपितु इसके विविध उपकरण भी बनाते थे। पुरातत्वविदों ने इस संस्कृति का समय ईसा पूर्व १,००० के लगभग निर्धारित किया है।
पूर्वी भारत में सोनपुर, चिरांद आदि स्थानों की खुदाइयों से लोहे की बर्छियाँ, छेनी, कीले आदि मिली है जिनका समय आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है।
इसी प्रकार मध्य भारत के एरण, नागदा, उज्जैन, कायथा आदि स्थानों को खुदाईयों से भी लौह उपकरण मिलते हैं। इनका समय भी ईसा पूर्व सातवीं-छठीं शती निर्धारित किया जाता है।
दक्षिणी भारत के विभिन्न स्थानों से बृहत्पाषाणिक कब्रें ( Megaliths ) प्राप्त होती है। इनकी खुदाईयों में लोहे के औजार हथियार तथा उपकरण प्रचुरता से मिलते हैं। इस संस्कृति के लोग काले तथा लाल रंग के बर्तनों का प्रयोग करते थे। विद्वानों ने इस संस्कृति का समय ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित किया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दक्षिणी भारत के लोगों को लोहे का ज्ञान ईसा पूर्व एक हजार में हो गया था।
लौहकाल का समय
उपर्युक्त साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि भारत के विभिन्न भागों में लोहे का प्रचलन ईसा पूर्व एक हजार के लगभग हो गया था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि सर्वप्रथम दक्षिण भारत में इसका प्रचार हुआ तथा वहाँ लौह-संस्कृति का प्रारम्भ पाषाण काल के तुरन्त बाद हो गया। इसके विपरीत उत्तरी भारत में पाषाण काल के बाद पहले ताम्रकाल, फिर कांस्य काल आया। इसके कई सौ वर्षों बाद लोहे का आविष्कार किया गया।
इस प्रकार विविध साक्ष्यों पर विचार करने के उपरान्त लोहे के भारतीय उत्पत्ति का सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत लगता है तथा इसकी प्राचीनता ऋग्वैदिक काल तक ले जायी जा सकती है। किन्तु वास्तविक लौह युग का प्रारम्भ उस समय से हुआ जबकि मनुष्य ने इस धातु का प्रयोग जंगलों की कटाई कर भूमि को कृषि योग बनाने तथा बस्तियाँ बसाने के लिये करना प्रारम्भ कर दिया।
लौह धातु : प्रभाव
लोहे के ज्ञान से लोगों के भौतिक जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो गया। बुद्ध काल तक आते-आते पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार में इसका व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा। लौह तकनीक के फलस्वरुप कृषि उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हो गयी। इस समय गंगा घाटी में नगरीय क्रान्ति आयी तथा बड़े-बड़े नगरों की स्थापना हुई। विद्वानों ने इसके पीछे लौह तकनीक को हो उत्तरदायी ठहराया है। मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के पीछे भी इसी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
निष्कर्ष
संक्षेप में कहा जाए तो इस मान्यता को अब तिलांजलि देनी होगी कि भारत में लोहे का आरम्भ उस समय हुआ जब यहाँ आर्यों का आगमन हुआ और जब उन्होने लौह तकनीक तंत्र पर ‘हित्ती एकाधिकार’ को नष्ट कर दिया। आर्यों के सम्बन्ध में कोई विवाद छेड़े बगैर भी यह कह सकते हैं कि लोहे पर तथाकथित हित्ती एकाधिकार एक कोरी कल्पना है।
उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में लोहा तभी मिलता है, जब भीतरी भारत में मिलता है, उससे पहले नहीं। साथ ही, मध्य और दक्षिणी भारत में लोहे की अतिप्राचीनता को देखते हुए यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि भारत लौह तकनीक तंत्र का एक पृथक् आरम्भिक केंद्र था।
यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि थाइलैंड में बानैची स्थल पर स्तरीकृत संदर्भों में ईसा पूर्व १,६०० और १,२०० के बीच ढला हुआ लोहा मिला है जिससे लौह प्रौद्योगिकी के एकात्मक उद्गम के सिद्धांत को सदा के लिए समाप्त कर दिया है।
अंत में यह बात उल्लेखनीय है कि उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग, बलूचिस्तान और स्वात में जिस स्तर पर लोहा मिला है, वह भीतरी भारत में लोहा मिलने के बाद का स्तर है।