भूमिका
बिहार राज्य के नालन्दा जनपद में वर्तमान राजगीर नामक स्थान ही राजगृह है। यहाँ मगध महाजनपद की प्रारम्भिक राजधानी थी। इसका नाम गिरिब्रज भी मिलता है। राजगृह चतुर्दिक् पहाड़ियों से घिरा हुआ था। महाभारत काल में राजगृह एक तीर्थ माना जाता था।
नामकरण
प्राचीन काल में राजगीर को एक से अधिक नामों से जाना जाता था, जिनमें से वसुमती, बार्हद्रथपुर, गिरिब्रज, कुशाग्रपुर और राजगृह का उल्लेख किया जा सकता है।
- रामायण में वसुमती नाम मिलता है। राजा वसु ब्रह्माजी के पुत्र राजा वसु द्वारा स्थापित इस नगर को उन्हीं के नाम पर वसुमती कहा गया है।
- बार्हद्रथपुर नाम का उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है। यह राजा बृहद्रथ की याद दिलाता है, जो महाभारतकाल के प्रसिद्ध जरासंध के पूर्वज और एक राजवंश के पूर्वज थे।
- इसे चारों तरफ से घेरने वाली पहाड़ियों ने इसे गिरिब्रज नाम दिया है। नगर के क्षेत्र की भौतिक स्थिति अर्थात् पहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसे यह नाम मिला है।
- इस नगर एक अन्य नाम कुशाग्रपुर है। यह नाम ह्वेन त्सांग के यात्रा वृत्तांत और जैन और कुछ संस्कृत बौद्ध ग्रंथों में पाया जाता है। ह्वेन त्सांग का कहना है कि इसका अर्थ है ‘श्रेष्ठ घास का शहर‘ और उसका संदर्भ शहर के चारों ओर उगने वाली सुगंधित घास से है। हालाँकि संभवतः इसकी उत्पत्ति बृहद्रथ के उत्तराधिकारी राजा कुशाग्र से हुई है।
राजगृह ( अर्थात् राजकीय निवास ) नाम उस स्थान का एक उपयुक्त पदनाम है जो सदियों तक मगध की राजधानी रहा। हालाँकि, ह्वेन त्सांग का तात्पर्य है कि यह नाम केवल पहाड़ी क्षेत्र के उत्तर में स्थित नवीन नगर पर ही लागू होता है।
राजगृह की पहाड़ियाँ
राजगीर को घेरने वाली पहाड़ियाँ पारंपरिक रूप से पाँच हैं। अलग-अलग ग्रंथों में इनके नाम अलग-अलग है।
- वाल्मीकि रामायण में गिरिव्रज की पाँच पहाड़ियों का तथा सुमागधी नामक नदी का उल्लेख है — ‘एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः एतेशैलवराः पंच प्रकाशन्ते समंततः। सुमागधीनदी रम्या मागधान् विश्रुताऽऽययौपचानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते’।
- महाभारत में इन पाँच पहाड़ियों के नाम ये हैं – पांडर, विपुल, वाराहक, चैत्यक, और मातंग। महाभारत सभापर्व २१; दाक्षिणात्य पाठ – ‘पांडरे विपुले चैव तथा वाराहकेऽपि च, चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातगे च शिलोच्चये’।
- किंतु महाभारत, सभापर्व (२१२) में इन्हीं पहाड़ियों को वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि तथा चैत्यक कहा गया है — ‘वैहारी विपुल शैलो वराहो वृषभस्तथा, तथा ऋषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यक पंचमा’।
- पालि साहित्य में इन्हें वैभार, पांडव, वैपुल्ल, गिज्झकूट (गृध्रकूट) और इसिगिलि (ऋषिगिरि) कहा गया है।
- जैनग्रन्थ विविधतीर्थकल्प के अनुसार राजगृह नगर पाँच पहाड़ियों के बीच बसी हुई थी — विपुलगिरि, रत्नगिरि, उदयगिरि, सोनगिरि तथा वैभारगिरि।
- इनके वर्तमान नाम ये हैं – वैभार, विपुल, रत्न, छत्ता और सोनागिरि।
आधुनिक नामों को उनके प्राचीन नामों से पहचानना बहुत कठिन है।
पौराणिक राजा
रामायण में कहा गया है कि गिरिब्रज की स्थापना सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने की थी। इस परम्परा के बाद लंबे समय तक नगर के बारे में चुप्पी बनी रही, जब तक कि हम महाभारतकाल तक नहीं पहुँच गये।
ऐसा कहा जाता है कि जब बृहद्रथ ने खुद को इस स्थान पर स्थापित किया और उसके नाम से इस वंश को बार्हद्रथ वंश के नाम से जाना जाता है। उनके उत्तराधिकारियों में से एक प्रसिद्ध जरासंध था।
जरासंध अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजा के रूप में ख्याति प्राप्त की थी। वह मथुरा के शासक कंस का श्वसुर था। जब कृष्ण ने कंस को उसके कुकर्मों के लिये मार डाला, तो जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया था। परन्तु कृष्ण व बलराम ने पराजित करके उसे खदेड़ दिया।
बताया गया है कि जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में बन्दी बना लिया था। पाण्डु-पुत्र भीमसेन ने मल्ल-युद्ध में जरासंध को हराकर मार डाला और बन्दी राजाओं को मुक्त कराया था। हालाँकि, जरासंध का वंश कुछ समय बाद तक मगध पर शासन करता रहा।
इतिहास
छः महानगरों में से एक
बौद्ध ग्रंथ महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार छठीं शताब्दी ई०पू० में राजगृह छः महानगरों में से एक था। अन्य पाँच नगर थे – चम्पा, श्रावस्ती, साकेत, वाराणसी और कौशाम्बी।
राजधानी के रूप में
इसकी स्थापना का श्रेय मगध के प्रथम ऐतिहासिक शासक बिम्बिसार को दिया जाता है। पाली साहित्य में राजगृह की परिधि तीन मील बतायी गयी है। बिम्बिसार और अजातशत्रु के समय में मगध की राजधानी राजगृह बनी रही। राजगृह के राजप्रासाद का निर्माण बिम्बिसार के शासनकाल में वास्तुकार ‘महागोविन्द’ के निर्देशन में हुआ था। अजातशत्रु ने राजगृह का दुर्गीकरण करवाकर उसे सुरक्षित बनाया था जिसके लिये नयी चहारदीवारी का निर्माण किया गया था।
उदायिन् ( उदयभद्र ) ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनायी जबकि शिशुनाग के समय में वैशाली मगध की राजधानी बनी। कालाशोक ने पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनायी और इस समय से राजगृह के स्थान पर पाटलिपुत्र मगध साम्राज्य की स्थायी राजधानी बन गयी। परिणामस्वरूप राजगृह का महत्त्व घटता गया।
राजगृह स्तूप
अजातशत्रु के शासनकाल के ८वें वर्ष महात्मा बुद्ध को ‘महापरिनिर्वाण’ प्राप्त हुआ था। भगवान बुद्ध के धातु अवशेषों के आठ उत्तराधिकारियों में मगधराज अजातशत्रु भी थे। उन्होंने गौतम बुद्ध के धातु अवशेषों पर ‘राजगृह स्तूप’ का निर्माण करवाया था।
पहली बौद्ध संगीति
अजातशत्रु के ही शासनकाल में राजगृह की ‘सप्तपर्णि गुहा’ में पहली बौद्ध संगीति आयोजित हुई थी। इस सभा की अध्यक्षता ‘महाकस्सप’ ने की थी। इस बौद्ध संगीति में तथागत के प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ और ‘उपालि’ भी सम्मिलित हुए थे। आनन्द को धर्म और उपालि को विनय का प्रमाण माना गया। इस सभा में ‘सुत्तपिटक’ और ‘विनयपिटक’ का संकलन किया गया। सुत्तपिटक में ‘धर्म के सिद्धान्तों’ और विनयपिटक में ‘आचार के नियमों’ का संकलन है।
जैन, बौद्ध व हिन्दू धर्म का केन्द्र
जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का यह प्रमुख केन्द्र था।
भगवान महावीर और मगध नरेश बिम्बिसार सम्बन्धी थे। लिच्छवि गण प्रमुख चेटक की बहन त्रिशला ( विदेहदत्ता ) महावीर स्वामी की माँ थीं और चेटक की पुत्री चेलना ( छलना ) का विवाह बिम्बिसार से हुआ था। कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर स्वामी ने यहाँ १४ वर्षावास किये थे। २०वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत की यह जन्मस्थली है।
महात्मा बुद्ध ने स्वयं कई बार इस स्थान पर जाकर निवास किया तथा अपने धर्मोपदेश दिये थे। यहाँ उनके बहुसंख्यक अनुयायी थे। यहाँ स्तूप एवं विहार भी बने थे। नगर के उत्तर में ‘गृद्धकूट’ नामक प्रसिद्ध पहाड़ी थी जहाँ भगवान बुद्ध निवास करते थे। गृद्धकूट को ही जैन ग्रन्थ ‘विविधतीर्थकल्प’ में रत्नगिरि कहा गया है।
राजगृह : व्यापारिक केंद्र
बौद्ध और जैन धर्म का केन्द्र होने के साथ-साथ राजगृह एक व्यापारिक केन्द्र भी था। यहाँ से होकर अनेक व्यापारिक मार्ग गुजरते थे। श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, चम्पा आदि के साथ राजगृह का व्यापारिक सम्बन्ध था।
राजगृह का महत्त्व घटना
अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदयिन् या उदयभद्र (लगभग ४६०-४४४ ईसा पूर्व) ने अपनी राजधानी को राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानांतरित कर दिया। इसके दो कारण थे –
- एक, अजातशत्रु द्वारा वज्जि संघ पर विजय के कारण मगध साम्राज्य का विस्तार हिमालय की तलहटी तक पहुँच गया। पाटलिपुत्र इस साम्राज्य के केन्द्र में था।
- गंगा नदी के तट पर स्थित के कारण संचार की सुविधा।
इस समय से राजगृह का राजनीतिक महत्त्व धीरे-धीरे कम होने लग गया। हालाँकि पुराणों में हमारे पास एक संदर्भ है कि यह एक बार फिर शिशुनाग (लगभग ४१२-३९४ ईसा पूर्व) के समय में राजगृह पुनः राजधानी बनी और वैशाली को उसने दूसरी राजधानी बनाया।
लेकिन कालाशोक के समय से पाटलिपुत्र मगध की स्थायी राजधानी बन गयी।
लेकिन यह तथ्य कि सम्राट अशोक ने राजगृह में एक स्तूप और एक हाथी-शीर्ष वाला एकाश्मक स्तम्भ बनवाया था। इससे यह ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में यह स्थान बिल्कुल महत्त्वहीन नहीं था।
मगध राजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र बन जाने के बाद राजगृह का महत्त्व समाप्त हो गया। गुप्तकाल तक यह नगर वीरान हो चुका था। यह हमें फाहियान और ह्वेनसांग के वृत्तांत से भी ज्ञात होता है।
फाह्यान और ह्वेनसांग के वृत्तांत
चीनी यात्री फाह्यान ( Fa-Hien ) पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में (गुप्तकाल) भारत-यात्रा पर आये थे। वे राजगीर भी गये और इसे उन्होंने वीरान पाया। यद्यपि पहाड़ियों के बाहर करंडा-वेनिवन के मठ में कुछ भिक्षुओं के समूह को रहते हुए उन्होंने देखा।
प्रसिद्ध चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग ( Hiuen-Tsang ) सातवीं शताब्दी ( हर्षकाल ) में भारत यात्रा पर आये थे। जब वे राजगृह पहुँचे तो उस स्थान को उन्होंने वीरान पाया। प्राचीन मठों और स्तूपों में से उसे केवल नींव-दीवारें और खंडहर ही खड़े मिले। उसने यहाँ के एक स्तूप का भी विवरण दिया है।
चीनी तीर्थयात्रियों द्वारा दिये गये विभिन्न दर्शनीय स्थलों की दिशाएँ और दूरियाँ हमें उस स्थान के प्राचीन स्थलों का पता लगाने में बहुत मदद करती हैं।
गोरथगिरि
राजगृह के समीप ही गोरथगिरि नामक पहाड़ी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि भगवान श्रीकृष्ण जब मगध नरेश जरासंध के बध के लिये अपने प्रिय सखा अर्जुन और भीमसेन के साथ गिरिव्रज जा रहे थे तो पहले इसी पर्वत ( गोरथगिरि ) पर पहुँचे तथा वहाँ से मगध को देखा था। कलिंग के शासक खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपने अभिषेक के ८वें वर्ष गोरथगिरि पर आक्रमण कर मगध नरेश को व्यथित किया था।
पुरातात्त्विक अवशेष
राजगीर के पुरातात्त्विक अवशेषों व स्मारकों में पुराने शहर की व्यापक पत्थर की किलेबंदी, नये शहर के गढ़ की पत्थर की दीवारें, मनियार मठ, सोनभंडार गुफाएँ और कई स्तूपों, मठों के स्थल, गुफाएँ, मन्दिर आदि के अवशेष शामिल हैं।