नवपाषाणकाल ( Neolithic Age )

भूमिका

नवपाषाणकाल की अर्थव्यवस्था का आधारभूत तत्त्व खाद्य-उत्पादन और पशुपालन की जानकारी से है। इसका तकनीकी आधार पाषाण उपकरण हैं। ये उपकरण दो तरह के हैं – एक; टंकित ( Pecked ), घर्षित ( ground ) और पॉलिशदार ( Polished ) एवं दूसरे; छोटे, अपखंडित ( chipped ) उपकरण। वस्तुतः पहली श्रेणी के उपकरण नवपाषाणकाल की विशेषता है। दूसरी श्रेणी के उपकरणों को सूक्ष्मपाषाण ( microliths ) भी कहा जाता है जबकि मध्यपाषाणकाल की विशेषता है और इसका उपयोग इस काल में भी चलता रहा।

वास्तविक नवपाषाणकाल वह है जिसमें धातु का प्रयोग नहीं दिखता है। जहाँ कहीं नवपाषाणकाल स्तर पर धातु ( ताँबा ) का सीमित प्रयोग दिखता है उसको ताम्रपाषाणकाल ( chalcolithic age ) कहा जाता है।

नवपाषाणकालीन अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर थी, लेकिन इसका कतई यह अर्थ नहीं की इन स्थलों का पारस्परिक सम्बन्ध ही नहीं था या वे अलग-थलग थे। वस्तुतः वे व्यापारिक तंत्र से परस्पर जुड़े हुए थे। अधिकतर इनमें विदेशी व विलासिता की वस्तुओं का विनिमय होता था।

फिरभी नवपाषाणकाल की मुख्य उपलब्धि खाद्य-उत्पादन, पशुपालन और स्थिर ग्राम्य जन-जीवन का विकास है।

मानव इतिहास में नवपाषाण स्तर का विशेष महत्त्व है। इसी स्तर पर मानव ने पहले-पहल कृषि करना सीखा। प्रभूत कृषि उत्पादन का महत्त्वपूर्ण परिणाम था – जनसंख्या वद्धि। यह बात बढ़ती बस्तियों के आकार से पुष्ट होती है।

नवपाषाणकाल को इतिहासकारों ने ‘नवपाषाण क्रांति’ की संज्ञा दी है। फिरभी यह बात ध्यान रखनी होगी कि यह क्रांति आकस्मिक व तेज़ी से नहीं घटित हुई वरन् नवपाषाण जीवन-पद्धति का सूत्रपात एक क्रमिक और धीमी प्रक्रिया का परिणाम थी।

वन्य फसल व पशु से कृष्य फसल व पशुपालन

नवपाषाण या खाद्य-उत्पादन अर्थव्यवस्था के आरम्भ के बारे में जो उल्लेखनीय तथ्य है, वह यह है कि कृषि की किसी भी फसल की पूर्वज वन्य फसल होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि की कोई भी फसल किसी वन्य फसल की वंशज होती है। उदाहरणार्थ नवपाषाण युग के आरम्भ में गेहूँ की वन्य किस्म को खेती के योग्य बनाया गया, जिससे कृषिजन्य गेहूँ का उद्भव हुआ।

कुछ समय पहले तक यह सोचा जाता था कि पशुओं को पालतू बनाने और खाद्य उत्पादन का आरम्भ पहले-पहल विश्व के किसी एक क्षेत्र में हुआ और फिर यह महत्त्वपूर्ण कला वहाँ से दूसरे क्षेत्रों में पहुँची।

परन्तु नवीन पुरातात्त्विक अनुसन्धानों से यह सिद्ध हो गया है कि विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनेक इलाके सर्वथा स्वतंत्र रूप से अपने-अपने यहाँ की प्रमुख फसलों के सहारे खाद्य-उत्पादन की अवस्था में पहुँच गये थे। पशुओं को पालतू बनाने की समस्या के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। उदाहरणार्थ, मवेशी उन्हीं इलाक़ों में पालतू बनाये जा सकते थे जहाँ मवेशी अपनी जंगली अवस्था में मिल सकते थे। पेड़-पौधों की वन्य और कृषिजन्य किस्मों में जो संबंध है वही पशुओं को पालतू बनाने की समस्या में भी स्पष्ट दिखाई देता है।

कृषि व पशुपालन में पहले क्या प्रारम्भ हुआ?

यह प्रश्न पूछा जाता रहा है कि पहले क्या शुरू हुआ — पशुओं को पालतू बनाना या खेती?

वास्तव में ये दोनों प्रक्रियाएँ कमोबेश एक साथ प्रारम्भ हुई, हालाँकि हो सकता है कि पशुओं को पालतू बनाने की प्रक्रिया सम्भवतः थोड़ा पहले आरम्भ हुई हो।

प्रसंगवश, ‘कभी यह सोचा जाता था कि हस्त-निर्मित मृद्भांडों ( मिट्टी के बर्तनों ) की उपस्थिति पहली-पहली खाद्य-उत्पादक बस्तियों का अनिवार्य लक्षण थी। परन्तु नवीन अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि बहुत से इलाक़ों में आरम्भिक खाद्य-उत्पादन स्तरों पर मृद्भाण्ड अनुपस्थित थे। पुरातत्त्व साहित्य में इन मृद्भांड-रहित स्तरों को मृद्भाण्ड-पूर्व नवपाषाण स्तर ( pre-pottery neolithic levels ) या गैर-मृद्भाण्डीय नवपाषाण स्तर ( aceramic neolithic levels ) कहा जाता है।

खाद्य-उत्पादन का आरम्भ या नवपाषाण अर्थव्यवस्था का प्रारम्भ एक जटिल सांस्कृतिक प्रक्रिया थी जिसकी बहुत स्पष्ट जानकारी हमें आज भी प्राप्त नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि किसी इलाके में कुछ स्थिति थी, किसी में कुछ।

भारत में खाद्य उत्पादन या नवपाषाण अर्थव्यवस्था के आरंभ के बारे में उपलब्ध जानकारी बहुत अधूरी है। पहली बात यह है कि भारत अनेक रेशेदार फसलों का देश है, जैसे कि गेहूँ, जौ, चावल, बाजरा, इत्यादि। देखा जाए तो हम इन फसलों के आधार पर भारत को अनेक प्रमुख फसल क्षेत्रों में विभाजित कर सकते हैं। इनमें से प्रत्येक फसल की खेती कैसे शुरू हुई- इस विषय का पृथक विवेचन आवश्यक होगा। दूसरी बात यह निकलती है कि इन सभी प्रमुख फसलों पर आधारित खाद्य उत्पादन एक साथ शुरू होने की सम्भावना बहुत कम है।

कच्छी मैदान में बोलन नदी के किनारे मेहरगढ़ नामक स्थल से खाद्य-उत्पादन का पहला स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त हुआ है। यहाँ पर गेहूँ व जौ का उत्पादन किया जाता था। यहाँ पर खाद्य-उत्पादन स्तर का आरम्भ ईसा पूर्व सातवीं सहस्राब्दी ( ७,००० ई०पू० ) जितना पुराना है। इससे भारतीय उपमहाद्वीप का पश्चिमोत्तर भाग ( या कम-से-कम बलूचिस्तान ) गेहूँ-जौ के मौलिक कृषि क्षेत्र में आ जाता है जो इस क्षेत्र से आगे यूरोप में दक्षिण-पूर्वी यूनान और बल्कान देशों तक फैला हुआ था।

भारतीय उप-महाद्वीप में एक-के-बाद-एक दिलचस्प अन्वेषण हुए हैं।

  • पहला यह कि राजस्थान की एक झील ( साँभर झील ) के निक्षेपों में अन्न-रज तथा पर्याप्त मात्रा में काठकोयला मिला है जिसकी तिथि ईसा पूर्व आठवीं और सातवी सहस्राब्दी निर्धारित की गई है। काठकोयले ( charcoal ) के साथ-साथ अन्न-रज ( cereal pollen ) मिलने से अन्न की कृषि का संकेत मिलता है। इस इलाके में इस युग का कोई नवपाषाणकालीन स्थल नहीं मिला है, जिससे खाद्य उत्पादन का साक्ष्य मिलता हो।

दो मध्यपाषाणयुगीन स्थल हैं-

  • एक, आदमगढ़ ( होसंगाबाद जनपद, म०प्र० )और
  • दूसरा, बागोर ( कोठारी नदी के तट पर भीलवाड़ा जनपद, राजस्थान )।

इन दोनों की तिथि ईसा पूर्व ५,००० के लगभग निर्धारित की गयी है। ये स्थल मध्यपाषाण युग के हैं। इन दोनों स्थलों से मवेशियों और भेड़-बकरियों के पालन का साक्ष्य प्राप्त होते हैं। भारतीय उप-महाद्वीप में पशुपालन के प्राचीनतम प्रमाण इन्हीं दो स्थलों ( आदमगढ़ व बागोर ) के मध्यपाषाण स्तर से मिलते है।

उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी के कोलडिहवा स्थल ( प्रयागराज ) से वन्य और कृषिजन्य दोनों प्रकार का चावल मिलने का विवरण प्राप्त हुआ है जिसे ईसा पूर्व छठी और पाँचवीं सहस्राब्दी के स्तर का माना गया है। एक ही स्तर पर वन्य तथा कृषिजन्य चावल की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि इस स्तर पर चावल की कृषि का सूत्रपात हुआ होगा। चावल उत्पादन का विश्व में सबसे प्रचीन साक्ष्य कोलडिहवा से ही मिलता है।

असम और दक्षिणपूर्व एशिया में भौतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से घनिष्ठ संबंध रहा है। यहाँ खाद्य उत्पादन का प्रथम साक्ष्य ईसा पूर्व सातवीं सहस्राब्दी जितना पुराना अवश्य है, इससे ज्यादा पुराना चाहे न भी हो।

दक्षिण भारत में कृषिजन्य बाजरे की एक ऐसी किस्म मिली है जो ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी जितनी पुरानी है। बाजरे की इस किस्म का मूल उद्गम संतोषजनक ढंग से निर्धारित नहीं किया जा सका है, परंतु ऐसी संभावना है कि दक्षिण भारत में स्वतंत्र रूप से इसकी कृषि का विकास हुआ होगा। यदि ऐसा है तो दक्षिण भारत में बाजरे पर आधारित खेती बहुत पुरानी हो सकती है।

इस तरह यह स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भाग इन क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न अनाजों की खेती के आधार पर भिन्न-भिन्न ढंग से इस अवस्था में पहुंचे होंगे। गेहूँ, जौ, चावल, बाजरा की खेती अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर की जाती थी। पूर्वी भारत में चावल, पश्चिमोत्तर में गेहूँ और जौ तो दक्षिण में बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती का विकास हुआ।

समय

जहाँ एक ओर पश्चिमोत्तर में नवपाषाणकाल का समय ७,००० ई०पू० प्रारम्भ होता है वहीं भारतीय उप-महाद्वीप में इस संस्कृति का समय बाद का है :-

  • विन्ध्य क्षेत्र और उससे लगे हुए उत्तरी हिस्सों में लगभग ५,००० ई०पू० जितने पुराने बताये गये हैं।
  • दक्षिण भारत में नवपाषाणकाल लगभग २,५०० ई०पू० शुरू होता है।
  • साथ ही कुछ दक्षिणी भागों और पूर्वी भू-भागों में नवपाषाणकाल का आरम्भ १,००० ई०पू० में होता है।

इस तरह जहाँ विश्व के अन्य भागों में नवपाषाणकाल का प्रारम्भ ई०पू० ९,००० में हुआ वहीं भारत में नवपाषाणकालीन सभ्यता का प्रारम्भ मोटेतौर पर ईसा पूर्व ४,००० के आसपास हुआ।

परन्तु यह भी ध्यान में रखना होगा कि पश्चिमोत्तर में नवपाषाणकाल की बस्तियाँ एक ओर जहाँ ७,००० ई०पू० तक पुरातनता लिए हुए है वहीं पूर्वोत्तर व दक्षिण के कुछ स्थानों पर ये १,००० ई०पू० से अधिक पुरानी नहीं है।

नवपाषाणकाल : विशेषताएँ

नवपाषाणकालीन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं —

  • मानव अब खाद्य-पदार्थों का मात्र उपभोक्ता ही न रहा अपितु उनका उत्पादक भी बन गया अर्थात् वह कृषि और पशुपालन करने लगा।
  • घर्षित प्रस्तर उपकरण।
  • मृद्भाण्ड का निर्माण है।
  • कृषि और पशुपालन ने मानव के यायावर जीवन को स्थायित्व दिया और ग्राम समुदायों का उदय हुआ।
  • चाक का ज्ञान हुआ जिसकी सहायता से मृद्भाण्ड बनाये गये।
  • अग्नि पर मानव ने नियंत्रण पा लिया।

नवपाषाणकाल की प्रमुख विशेषता कृषि तथा पशुपालन का प्रारम्भ एवं पालिशदार पाषाण उपकरणों ( विशेषकर कुल्हाड़ियों ) का निर्माण है। मानव सभ्यता के इतिहास में कृषि के प्रारम्भ को एक ‘क्रान्ति’ के रूप में देखा गया है। विल डूरेन्ट के शब्दों में :

समस्त मानव इतिहास एक प्रकार से दो क्रान्तियों पर आधारित है- नवपाषाणकालीन आखेट से कृषि में संचरण तथा आधुनिक कृषि से उद्योग में संचरण।

In one sense all human history hinges upon two revolution; the neolithic passage from hunting to agriculture and modern passage from agriculture to industry. ( Will Durrant )

औजार

नवपाषाणकाल के लोग घर्षित ( polished ) पत्थर के औजारों व साधनों ( tools & implements ) का प्रयोग करते थे। वे मुख्यतया प्रस्तर की कुठार या कुल्हाड़ी ( Stone Axe ) का प्रयोग करते थे। ये कुल्हाड़ियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक पायी गयी हैं। काटनेवाली इस पत्थर की कुल्हाड़ी का प्रयोग लोग कई प्रकार के कार्यों में हरकतें थे। पौराणिक आख्यानों में प्रसिद्ध परशुराम तो इसी कुठार या कुल्हाड़ी सदृश औजार के नाम से ही प्रसिद्ध हो गये जहाँ उन्हें परशु ( कुठार ) धारक बताया गया है।

व्यवहृत कुल्हाड़ियों ( Axe ) के आधार पर नवपाषाणकालीन बस्तियों ( Neolithic Settlements ) को तीन प्रमुख भागों में वर्गीकृत किया गया है : –

  • पश्चिमोत्तर या उत्तर-पश्चिम ( North-West ) : इस समूह के नवपाषाणिक औजार में वक्र धार की आयताकार कुल्हाड़ियाँ हैं ( rectangular axes with a curved cutting edge )
  • पूर्वोत्तर या उत्तर-पूर्व ( North-East ) : इस समूह की कुल्हाड़ियाँ घर्षित ( polished ) पत्थर की होती थीं जिनमें आयताकार दस्ता लगा रहता था और कभी-कभी कंधेदार खंतियाँ ( shouldered hoes ) भी लगी होती थीं।
  • दक्षिण ( South ) : इस समूह की कुल्हाड़ियों के किनारे अंडाकार होते थे और हत्था नुकीला रहता था ( oval sides and pointed butt. )।

व्यवहृत कुल्हाड़ियों ( Axe ) के आधार पर वर्गीकरण

पश्चिमोत्तर की बस्तियाँ पूर्वोत्तर की बस्तियाँ दक्षिण की बस्तियाँ
इस समूह के नवपाषाणिक औजार में वक्र धार की आयताकार कुल्हाड़ियाँ हैं।

 

इस समूह की कुल्हाड़ियाँ घर्षितपत्थर की होती थीं जिनमें आयताकार दस्ता लगा रहता था और कभी-कभी कंधेदार खंतियाँ भी लगी होती थीं।

 

इस समूह की कुल्हाड़ियों के किनारे अंडाकार होते थे और हत्था नुकीला रहता था।

 

नवपाषाणकाल : स्थल

कुछ प्रमुख नवपाषाणकालीन स्थल हैं —

पाकिस्तान

·      बलूचिस्तान

o   मेहरगढ़

o   किले गुल मुहम्मद

o   राना घुंडई

o   अंजीरा

o   मुंडीगाक

o   गुमला

·      पंजाब

o   सरायखोला

·      खैबर पख्तूनख्वा

o   घालीगाय

भारतवर्ष

·      कश्मीर

o   बुर्जहोम

o   गुफकराल

·      उत्तर प्रदेश

o   कोलडिहवा

o   महगड़ा

o   चोपानी माण्डो

·      बिहार

o   चिरांद

o   चिछार

o   सेनुवार

o   ताराडीह

·      झारखण्ड

o   बारूडीह

·      ओडिशा

o   कुचाई

o   गोलबाई सासन

·      पश्चिम बंगाल

o   पांडु राजार ढिबि

o   महिषदल

o   भरतपुर

·      मेघालय

o   सेबलगिरि ( Sebalgiri )

o   पाइनथोर लांगटीन ( Pynthor Langtein )

o   लॉनोंगथ्रो ( Lawnongthroh )

o   माइरखन ( Myrkhan )

·      असम

o   सारूतारू

o   मारकडोला

o   दाओजलीहेडिंग

·      मणिपुर

o   नापचिक

·      कर्नाटक

o   कोडेकल

o   पिकलीहल

o   मास्की

o   वात्गल

o   तेक्कलकोटा

o   संगनकल्लू

o   ब्रह्मगिरि

o   हल्लूर

o   टी० नरसीपुर

o   तेर्दल

o   बुदिहल

o   हेम्मिगे

·      तेलंगाना

o   उतनूर

·      आंध्र प्रदेश

o   नागार्जुनकोण्डा

o   रामपुरम

o   वीरापुरम

o   सिंगनपल्ली

o   पलवाय

·      तमिलनाडु

o   पैयमपल्ली

 

नवपाषाण युग के सेल्ट, कुल्हाड़ियाँ, बसूले, छेनी आदि औज़ार उड़ीसा और छोटानागपुर के पहाड़ी इलाकों में भी पाये गये हैं। परंतु मध्य प्रदेशऔर उत्तरी दकन में नवपाषाणकालीन बस्तियों का आमतौर पर अभाव सा या बहुत कम स्थल मिलते हैं, जिसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में ऐसे पत्थर नहीं थे जिन्हें आसानी से खरादा और चिकना ( grind & polish ) किया जा सके।

नवपाषाणकाल
नवपाषाणकाल : स्थल

कुछ प्रमुख स्थल

मेहरगढ़

नाम :- मेहरगढ़ ( Mehrgarh )

स्थिति :- कच्छी/कोची का मैदान ( Kacchi/Kochi Plain ) में, बोलन दर्रे के पास में, बोलन नदी के किनारे, वर्तमान पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में क्वेटा, क्लात और सिबी नगर के मध्य।

खोजकर्ता :- १९७४ ई० में एक फ्रांसीसी पुरातात्विक अन्वेषण दल द्वारा जिसका नेतृत्व जीन फ्रांसिस जैरिग ( Jean-Francis Jarrige ) और उनकी भार्या कैथरीन जैरिग ( Catherine Jarrige ) ने किया।

समय :- स्थापित लगभग ७,००० ई०पू० में; परित्यक्त लगभग २,६०० ई०पू०

भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम् नवपाषाणकालीन स्थल मेहरगढ़ है जिसकी तिथि ईसा पूर्व ७,००० मानी जाती है। ई०पू० ५,००० के पूर्व यहाँ के लोग मृद्भाण्ड का प्रयोग करना नहीं जानते थे। उत्खनन में यहाँ से कच्चे मकान, पत्थर के कटोरे, सान-पत्थर ( grinding stone ) तथा पालतू जानवरों की अस्थियाँ मिलती है।

मेहरगढ़ का दूसरा स्तर ताम्र पाषाणकाल से सम्बन्धित है। इस काल के लोग ताँबे के प्रयोग से परिचित थे। वे मिट्टी के बर्तन बनाते थे। मध्य भारत के साथ-साथ ईरान तथा अफगानिस्तान से उनका सम्पर्क था। वे गेहूं, जौ तथा कपास की खेती करते थे तथा अपने मकान कच्ची ईंटोंएवं घास-फूस की सहायता से बनाते थे। उनका जीवन अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक उन्नत था।

कोची या कच्छी के मैदान ( Kochi Plain ) में इसकी स्थिति इसको महत्त्वपूर्ण बनाती है क्योंकि कोची मैदान को बलूचिस्तान की ‘रोटी की टोकरी’ ( Bread Basket ) कहा जाता है। मेहरगढ़ सिन्धु नदी और भूमध्यसागर के मध्य बसने वाले बड़े नवपाषाणकालीन स्थलों में से एक था।

मेहरगढ़ के आरम्भिक लोग कृषि व पशुपालन करते थे। परन्तु ५,५५० ई०पू० के आसपास बाढ़ से यह बस्ती उजाड़ हो गयी थी। ५,००० ई०पू० के आसपास प्रस्तर और अस्थि के औजारों से यहाँ पर कृषि कार्य व सम्बंधित गतिविधियाँ पुनः प्रारम्भ हुईं।

मेहरगढ़ के लोग गेहूँ और जौ ( wheat & barley ) की खेती शुरू से ही करते आ रहे थे। यहाँ के लोग आरम्भिक चरण ( initial stage ) में गाय, भेंड़ और बकरी का पालन करते थे। आरम्भ में बकरियों की संख्या अधिक थी, परन्तु बाद में गाय की संख्या बकरियों व भेड़ों दोनों से अधिक हो गयी। पशुपालन से कृषि को अवश्यमेव लाभ हुआ होगा।

अनाज ( cereals ) पर्याप्त मात्रा में उपजाये जाते थे और उनका अन्नागारों ( granaries ) में भण्डारण ( storage ) किया जाता था। ये अन्नागार कच्ची ईंटों ( mud bricks ) से बनाये जाते थे। अवास भी कच्ची ईंटों से बनाये जाते थे। ये कच्ची ईंटों की अनेक संरचनाएँ मिली हैं जो छोटे-छोटे भागों में विभाजित ( compartmented ) किया गया था और इसकी पहचान अन्नागार के रूप में की गयी है।

यहाँ के लोग ५,००० ई०पू० के आसपास तक कुम्हार के चाक ( potter’s wheel ) से बर्तन नहीं बनाते थे। परन्तु ४,५०० ई०पू० के बाद वे कुम्हार के चाक का प्रयोग करने लगे थे। मृद्भाण्डों की संख्या अब तेजी से बढ़ी और उसपर चित्रकारी भी वे लोग करने लगे थे।

इस कृषि-पशुपालन अर्थव्यवस्था का विस्तार ४,५०० ई०पू० से ३,५०० ई०पू० के मध्य कोची मैदान से सिंधु नदी घाटी के मैदानी क्षेत्रों तक हुआ। सिंधु नदी की सहायक नदी हकरा ( Hakra ) के सूखे पाट ( dried basin ) में ४७ उत्तर नवपाषाणकाल ( later Neolithic ) की बस्तियाँ ( settlements ) मिली हैं। हड़प्पा संस्कृति के उद्भव की पूर्व-पीठिका स्पष्ट रूप से इन्हीं नवपाषाणकालीन बस्तियों ने स्पष्ट किया होगा।

बुर्जहोम व गुफकराल

बुर्जहोम ( Burzahom )

·      यह श्रीनगर से उत्तर-पश्चिम दिशा में १६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

·      १९३५ ई० में डी० टेरा तथा पीटरसन ने इसकी खोज की थी।

·      १९६०-६४ ई० के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से इस स्थल की खुदाई करवायी गयी।

 

गुफकराल ( Gufkral )

·      श्रीनगर से दक्षिण में ४१ किलोमीटर की दूरी पर पुलवामा जनपद के त्राल तहसील में स्थित है।

·      १९८१ ई० में ए० के० शर्मा ने इस स्थल का उत्खनन करवाया।

 

 

 

कश्मीर में दो प्रमुख नवपाषाणकालीन स्थल हैं :— बुर्जहोम और गुफकराल। कश्मीरी नवापाषाणकालीन के स्थलों की निम्न विशेषताएँ हैं :—

  • गर्तावास ( dwelling pits )
  • मृद्भाण्डों की विविधता ( wide range of ceramics )
  • पत्थर व अस्थि के औजारों की विविधता ( the variety of stone and bone tools )
  • सूक्ष्म या लघुपाषाण औजारों का पूर्णतया अभाव ( the complete absence of microliths )

बुर्जहोम का अर्थ होता है – भोजवृक्ष या भुर्ज ( Birch ) का स्थान। बुर्जहोम की निम्न बातें प्रमुख हैं :-

  • यहाँ के लोग गर्तावास में रहते थे। अर्थात् वे जमीन के नीचे गड्डा या गर्त बनाकर उसमें निवास करते थे। ये गर्त यहाँ पर एक झील के किनारे मिले हैं। ये गर्त अंडाकार या वृत्ताकार होते थे। गर्त्तगृह में उतरने की सीढ़ियाँ और दीवारों में आले बने हैं, प्रवेश द्वार के पास चूल्हे हैं और चारदीवारी के आसपास स्तम्भ-गर्त हैं जिनसे छप्पर का संकेत मिलता है।
  • ये मछली पकड़ते थे।
  • ये खेती भी करते थे। गेहूँ और जौ की खेती की जाती थी।
  • बुर्जहोम के लोग खुरदुरे धूसर मृद्भांडों ( coarse grey pottery ) का प्रयोग करते थे। पहले चरण में हस्तनिर्मित मृदभाण्ड जिसपर चटाई के छाप बने हैं और बाद में चाक पर बने हुए बर्तन मिलते हैं।
  • अनेक मानवीय शवाधानों से प्राथमिक और द्वितीयक दोनों प्रकार के शवाधानों का संकेत मिलता है :
    • प्राथमिक शवाधान में शव को सीधे ही कब्र में दफना देते हैं।
    • द्वितीयक शवाधान में पहले शव को कुछ समय तक खुला रखते हैं, और बाद में अस्थियाँ इकट्ठी करके कब्र में दफना दी जाती है।
  • शवाधान के जो उदाहरण मिलते हैं उनसे पता चलता है कि मनुष्य के साथ-साथ पालतू कुत्ते को भी दफनाने की प्रथा प्रचलित थी। इस प्रकार की प्रथा नव पाषाणकाल में भारत में कहीं और प्रचलित नहीं थीइनके अलावा कुत्ते, भेड़िये और जंगली बकरे जैसे पशुओं के शवाधान भी मिले हैं।
  • एक शिला-पट्ट मिला है जिसपर शिकार का दृश्य दिखायी देता है।

गुफकराल का अर्थ है – गुफ + कराल या क्राल। गुफ = गुफा, कराल या क्राल = कुम्हार। अर्थात् कुम्भकारों की गुफा। यहाँ के लोग कृषि और पशुपालन दोनों से परिचित थे।

कश्मीर के नवपाषाणकाल के लोग घर्षित ( Polished ) पत्थर के औजार और अस्थि के औजारों का प्रयोग करते थे।

कश्मीरी उपकरणों में ट्रैप पत्थर पर बनी हुई कुल्हाड़ी, बंसुली, खुरपी, छैनी, कुदाल, गदाशीर्ष, बेधक आदि हैं। पत्थर के अतिरिक्त हड्डी के बने हुए उपकरण भी यहाँ से मिलते हैं। इनमें पालिशदार बेधकों की संख्या अधिक है। भेड़-बकरी आदि जानवरों की अस्थियाँ तथा मिट्टी के बर्तन भी खुदाई में प्राप्त होते हैं। जौ, गेहूँ, मटर, मसूर आदि अनाजों के दाने मिलते हैं।

गुफकराल से अन्य उपकरणों के साथ-साथ सिलबट्टे तथा हड्डी की बनी सुइयां भी मिलती हैं। इनसे सूचित होता है कि अनाज पीसने तथा वस्त्र सीने की विधि से भी उस काल के लोग परिचित थे। यहाँ से प्राप्त बर्तनों में घड़े, कटोरे, थाली, तश्तरी आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इनका निर्माण चाक तथा हाथ दोनों से किया गया है।

पुराविदों का कहना है कि बुर्जहोम से मिली सामग्री का स्वात घाटी के घालीगाय और पोतवार पठार के सरायखोला के साथ सादृश्य रहा है।

बुर्जहोम वासस्थान की सबसे पूर्व की तिथि २,७०० ई०पू० है, जो लगभग १,००० ई०पू० ( अधिकतम ७०० ई०पू० तक ) तक आबाद रही।

कोलडिहवा, महगड़ा, चोपानी माण्डो व पंचोह

विन्ध्य क्षेत्र के प्रमुख नव पाषाणकालीन पुरास्थल प्रयागराज जनपद में बेलन सरिता के तट पर स्थित कोलडिहवा, महगड़ा, चौपानी माण्डो तथा पंचोह है। यहाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा खुदाइयाँ करवायी गयी है।

कोलडिहवा ( Koldihwa ) से नव पाषाणकाल के साथ-साथ ताम्र तथा लौह कालीन संस्कृति के अवशेष भी मिलते हैं।

महगड़ा ( Mahagara ) तथा पंचोह से केवल नव पाषाणकालीन अवशेष ही प्राप्त हुए हैं।

यहाँ के उपकरणों में गोल समन्तान्त वाली पत्थर की कुल्हाड़ियों की संख्या ही अधिक है। अन्य उपकरण हथौड़े, छेनी, बंसुली आदि हैं। स्तम्भ गाड़ने के गड्ढ़े मिले हैं जिनसे लगता है कि इस काल के लोग लकड़ी के खम्भों को जमीन में गाड़कर अपने रहने के लिये गोलाकार झोपड़ियां बनाते थे। हाथ से बनाये गये विभिन्न आकार-प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिलते हैं। यहाँ का एक विशिष्ट बर्तन रस्सी छाप है। इसकी बाहरी सतह पर रस्सी की छाप लगायी गयी है। इसके अलावा खुरदुरे तथा चमकीले बर्तन भी मिले है। बर्तनों में कटोरे, तश्तरी, घड़े आदि है। कुछ बर्तनों के ऊपर अलंकरण भी मिलता है। पशुओं में भेड़-बकरी, सुअर, हिरण को हड्डियाँ मिलती है। इससे स्पष्ट है कि इन जानवरों को पाला जाता अथवा शिकार किया जाता था।

कोलडिहवा के उत्खनन को सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यहाँ से धान की खेती किये जाने का प्राचीनतम प्रमाण ( ई० पू० ७,००० से ८,००० ) प्राप्त होता है। मिट्टी के बर्तनों के ठीकरों पर धान के दाने तथा भूसी एवं पुआल के अवशेष चिपके हुए मिलते है। इनमें सूचित होता है कि व्यापक रूप से धान की खेती की जाती थी। अनाज रखने के लिये उपयोगी घड़े तथा मटके भी कोलडिहवा एवं महगड़ा से मिलते है।

चोपानी माण्डो ( Chopani Mando ) से पुरापाषाणकाल से लेकर नवपाषाणकाल तक के चरण देखने को मिलते हैं। यहाँ पर जो मृदभाण्ड मिले हैं उनको विश्व के प्रचीनतम् साक्ष्यों में से एक माना गया है।

नवपाषाणकाल : गंगाघाटी, पूर्व व पूर्वोत्तर के स्थल
नवपाषाणकाल : गंगाघाटी, पूर्व व पूर्वोत्तर के स्थल

चिराँद

मध्य गंगा घाटी का सबसे महत्वपूर्ण नव पाषाणकालीन पुरास्थल चिरान्ड या चिराँद या चिरांद ( Chirand ) हैं। चिराँद बिहार के सारण ( छपरा ) जनपद में गंगा नदी गंगा के उत्तरी किनारे पर पटना से ४० कि०मी० पश्चिम में स्थित है।

यहाँ उत्खनन के फलस्वरूप ताम्र पाषाण युग के साथ-साथ नव पाषाण युगीन संस्कृति के अवशेष भी मिलते है।

यहाँ के उपकरणों में पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़ी, सिलबट्टे, हथौड़े तथा हड्डी और सींग के बने हुए छेनी, बरमा, बाण, कुदाल, सूई, चूड़ी आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

घड़े, कटोरे, टोटी वाले बर्तन तसले आदि मृदभाण्ड यहाँ से प्राप्त हुए है।

ज्ञात होता है कि यहाँ के लोग अपने निवास के लिये बाँस-बल्ली की झोपड़ियाँ बनाते थे।

वे धान, मसूर, मूंग, गेहूँ, जौ आदि की खेती करना जानते थे।

गाय-बैल, हाथी, बारहसिंहा, हिरण, गैंडा आदि पशुओं से उनका परिचय था जिनकी अस्थियाँ प्राप्त होती है।

भारतीय उप-महाद्वीप में चिराँद ही एक और स्थान है ( कश्मीरी स्थल – बुर्जहोम व गुफकराल के अलावा ) जहाँ हड्डी के पर्याप्त उपकरण पाये गये हैं। यहाँ के उपकरण हरिण सींगों के हैं। ये अस्थि उपकरण परवर्ती नवपाषाण चरण ( late Neolithic stage ) के हैं। साथ ही यहाँ की नवपाषाण संस्कृति में पत्थर के औजारों की कमी ध्यान देने योग्य है। चिराँद में मिली हड्डियों की तिथि २,००० ई०पू० से बहुत पहले नहीं रखी जा सकती है, और संभवतः यहाँ के औजार परवर्ती नवपाषाण काल ( lete Neolithic Age ) के हैं।

यह बसावट लगभग १०० सेंटीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में पायी गयी है। यहाँ बस्ती इसलिए सम्भव हुई कि गंगा, सोन, गंडक और घाघरा इन चार नदियों का संगमस्थल होने के कारण यहाँ खुली जमीन उपलब्ध थी।

बरुडीह व कुचाई

झारखण्ड के खूँटी जनपद में स्थित बरुडीह ( Barudih ) तथा ओडिशा के मयूरभंज जिले में स्थित कुचाई ( Kuchai ) भी नव पाषाणयुगीन पुरास्थल है जहाँ से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाड़ियाँ प्राप्त की गयी है। कुदाल, छेनी, बसुली, लोढ़ा आदि भी पाये गये है। बरुडीह से सलेटी तथा काले रंग के मृदभाण्ड भी प्रकाश में आये हैं।

पूर्वोत्तर के स्थल

असम की पहाड़ियों तथा मेघालय की गारों पहाड़ियों से भी नव पाषाणयुगीन प्रस्तर उपकरण प्राप्त किये गये है। इनमें कुल्हाड़ी, हथौड़े, सिल-लोढ़े, मूसल आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय है। हाथ तथा चाक पर तैयार किये गये मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े भी मिलते हैं।

भारतीय उप-महाद्वीप के पूर्वोत्तर क्षेत्र से कई नवपाषाण युग के स्थल मिलते हैं – मेघालय में सेबलगिरि, पिनथोर लाँगटीन; असम में सारूतारू, मारकडोला, डाओजली हेडिंग और मणिपुर में नापचिक आदि।

दक्षिण भारत के स्थल

नवपाषाण युग के लोगों द्वारा दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में बहुत सारी बस्तियाँ बसायीं गयी थीं। वे लोग आमतौर से नदी के किनारे ग्रेनाइट की पहाड़ियों के ऊपर या पठारों पर बसते थे।

दक्षिण भारत में सबसे अधिक संख्या में नवपाषाणकाल के स्थल मिलते हैं। इसका कारण था आसानी से पत्थरों की उपलब्धता। कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में लगभग ८५० से अधिक नवपाषाणकालीन स्थल मिले हैं जिनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं :-

  • कर्नाटक में
    • मास्की ( Maski ); पिकलीहल ( Piklihal ) और वात्गल ( Watgal ) — रायचूर जनपद
    • ब्रह्मगिरि ( Brahmgiri ) — चित्रदुर्ग जनपद
    • संगनकल्लू ( Sanganakallu ); टेक्कलकोटा ( Tekkalkota ) और कुपगल ( Kupgal ) — बेल्लारी जनपद
    • हल्लूर ( Hallur ) — हवेरी जनपद
    • कोडेकल ( Kodekal ) — यादगीर जनपद
    • टी० नरसीपुर ( Tirumakadalu Narsipur = T. Narsipur ); हेम्मिगे ( Hemmige ) — मैसुरू जनपद
    • तेर्दल ( Terdal ) — बागलकोट जनपद
    • बुडीहल ( Budihal ) — बेंगलुरू देहात जनपद
  • तेलंगाना में
    • उतनूर ( Utnur ) — आदिलाबाद जनपद
  • आंध्र प्रदेश में
    • नागार्जुनकोंडा ( Nagarjunakonda  ) —पलनाडु जनपद
    • पलवाय (Palvoy ) — अनंतपुर जनपद
    • रामपुरम ( Ramapuram ), वीरपुरम ( Veerapuram ) और सिंगनपल्ली ( Singanpalli )
  • तमिलनाडु में
    • पैयमपल्ली ( Paiyampalli ) —  तिरुपत्तूर जनपद
नवपाषाणकाल : स्थल
नवपाषाणकाल : स्थल ( दक्षिण भारत )

इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे। इन स्थानों से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाड़ियाँ के साथ-साथ सलेटी या काले रंग के मिट्टी के बर्तन तथा हड्डी के बने हुए कुछ उपकरण प्राप्त होते हैं।

वे पत्थर की कुल्हाड़ियों ( stone axes ) का और कई प्रकार के प्रस्तर-फलकों ( stone-blades ) का भी प्रयोग करते थे।

मिट्टी तथा सरकन्डे को सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार अथवा चौकोर घर बनाते थे। हाथ तथा चाक दोनों से वे बर्तन तैयार करते थे। कुछ बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी। खुदाई में घड़े, तश्तरी, कटोरे आदि मिले है।

वे कुलथी, रागी, चना, मूंग आदि अनाजों का उत्पादन किया जाता था। साथ ही सिल-बट्टे ( stone slab and grinder ) या चक्की ( quern ) का प्रमाण मिलने से भी यही प्रकट होता है कि वे अनाज पैदा करना जानते थे।

पकी मिट्टी की मूर्तिकाओं या लघु मूर्तियों ( Fire-baked earthen figurine ) से प्रकट होता है कि वे भेड़ व बकरी के अलावा बहुत-से मवेशियों ( cattle ) को भी पालते थे। अर्थात् वे गाय-बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सुअर को पालते थे।

दक्षिणी भारत के नव पाषाणयुगीन सभ्यता को संभावित तिथि ईसा पूर्व २,४०० से १,००० के लगभग निर्धारित की गयी है।

राख के टीले ( Ash Mounds )

कर्नाटक के रायचूर जनपद में स्थित पिक्लीहल के नवपाषाणयुगीन निवासी पशुपालक ( cattle-herder ) थे। वे मवेशी अर्थात् गाय-बैल ( cattle ), बकरी, भेड़ आदि पालते थे। वे मौसमी शिविरों ( seasonal camps )  में रहते थे। वे अपने शिविर के चारों ओर खंभे और खूँटे गाड़कर मवेशी के बाड़े बनाते जिनमें वे मवेशियों को रखते और गोबर इकट्ठा करते थे। फिर वे उस सारे शिविर स्थल में आग लगाकर उसे साफ कर देते थे ताकि अगले मौसम में फिर शिविर लगाये जा सकें। पिक्लीहल में राख के ढेर या भस्म के टीले ( ash mounds ) और निवास स्थान दोनों मिले हैं।

विन्ध्य व गंगाघाटी ऋतुजन्य प्रवसन

विन्ध्य तथा गंगाघाटी की नवपाषाणिक संस्कृतियों में कुछ विषमताएँ दिखायी देती है जो भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम है। विन्ध्य क्षेत्र में शैलाश्रय, पहाड़ आदि है, जबकि गंगा घाटी समतल मैदान है। ये दलदल झीलों में परिवर्तित हो रहे थे। अतः गंगा घाटी में मानव ने घास-फूस के घर बनाये, कृषि करना प्रारम्भ किया तथा पत्थर के साथ-साथ हड्डी तथा सींग के उपकरण, मिट्टी के बर्तन आदि बनाये। गंगा घाटी में पाषाणोपकरण छोटे-छोटे हैं। विद्वानों का विचार है कि वर्षांत के बाद लोग गंगाघाटी में आते थे तथा वर्षांत के दिनों में विन्ध्य के शैलाश्रयों में लौट जाते थे। इसे ऋतुजन्य प्रवजन ( Seasonal migration ) की संज्ञा दी गयी है। विंध्य क्षेत्र के शैलाश्रयों में चित्रकारियाँ मिलती है जो गंगाघाटी में नहीं है।

गंगाघाटी के जीवन में एक अनुक्रम दिखायी देता है। यहाँ पाषाणकाल के पश्चात् ताम्र पाषाण फिर लौह काल विकसित होता दिखायी देता है। द्वितीय नगरीय क्रान्ति यहीं हुई । निश्चित आवास, चिकने मिट्टी के वर्तन, पाषाण के साथ-साथ हड्डी तथा हाथीदाँत के उपकरण भी मिलते है जिनका विन्ध्य क्षेत्र में अभाव अथवा अत्यल्पता है। विस्तृत पैमाने में खेती तथा पशुपालन के साक्ष्य यहाँ मिलते हैं। विन्ध्य क्षेत्र की मिट्टी बलुई तथा गंगा घाटी की जलोड़ है जिसमें खेती अच्छी होती थी। विन्ध्य क्षेत्र में विशालकाय पशु मिलते हैं। इसके विपरीत गंगाघाटी में लघुकाय पालतू पशुओं को संख्या अधिक है। विन्ध्य क्षेत्र से गंगा घाटी में आवागमन मुख्यतः सहसाराम की पहाड़ियों से होता था

रहन-सहन

नवपाषाणकालीन संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। इस काल का मानव न केवल खाद्य पदार्थों का उपभोक्ता ही था वरन् वह उनका उत्पादक भी बना। वह कृषि कर्म से पूर्णतया परिचित हो चुका था। कृषिकर्म के साथ-साथ पशुओं को मनुष्य ने पालना भी प्रारम्भ कर दिया। गाय, बैल, भैंस, कुत्ता, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि जानवरों से उनका परिचय बढ़ गया।

मनुष्य ने अपने औजारों तथा हथियारों पर पालिश करना प्रारम्भ कर दिया। पालिशदार पत्थर को कुल्हाड़ियां देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मिलती है।

इस काल के मनुष्यों का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न रहा। उसने एक निश्चित स्थान पर अपने घर बनाये तथा रहना प्रारम्भ कर दिया। कर्नाटक प्रान्त के ब्रह्मगिरि तथा संगनकल्लू ( बेलारी ) से प्राप्त नव पाषाणयुगीन अवशेषों से पता चलता है कि वर्षों तक मनुष्य एक ही स्थान पर निवास करता था।

इस काल के मनुष्य मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे। अग्नि के प्रयोग से परिचित होने के कारण मनुष्य का जीवन अधिक सुरक्षित हो गया था।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इस युग के मनुष्य जानवरों की खालों को सीकर वस्त्र बनाना भी जानते थे। लोग कपास और ऊन से बने वस्त्रों का प्रयोग करते थे। उत्तर पाषाणकालीन मानव ने चित्रकला के क्षेत्र में भी रुचि लेनी प्रारम्भ कर दी थी। मध्य भारत की पर्वत कन्दराओं से कुछ चित्रकारियाँ प्राप्त हुई हैं जो सम्भवतः इसी काल की हैं। ये चित्र शिकार से सम्बन्धित हैं। इस काल के मनुष्य अपने बर्तनों को भी रंगते थे तथा उन पर चित्र बनाते थे।

वे विभिन्न प्रकार के शवाधान करते थे : जैसे – कलश शवाधान, प्राथमिक और द्वितीय शवाधान, युगल शावाधान इत्यादि। शवाधानों से उनके लोकोत्तर विश्वास की जानकारी मिलती है।

कृषि और अनाज

नवपाषाणयुगीन निवासी सबसे पुराने कृषक समुदाय के थे। वे पत्थर की कुदालों ( stone hoes ) और खोदने के डंडों ( digging sticks )से भूमि को खोदते थे। डंडों में एक ओर एक से आधे किलोग्राम वजन के पत्थर के छल्ले लगाये जाते थे। पत्थर के पालिशदार औजारों के अलावा वे सूक्ष्मपाषाण-फलकों ( microlith-blades ) का भी प्रयोग करते थे।

वे मिट्टी और सरकंडों के बने गोलाकार या आयाताकार घरों में रहते थे। बताया जाता है कि गोलाकार घरों में रहनेवालों की संपत्ति पर सामुदायिक स्वामित्व होता था। जो भी हो, निश्चित है कि नवपाषाणयुगीन लोग स्थायी रूप से घर बना कर रहने लगे।

अनाज उत्पादन के सम्बन्ध में कुछ बातें स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं :-

  • दक्षिण भारत में मोटे अनाज का उत्पादन किया जाता था; जैसे – रागी और कुल्थी ( horse gram ) पैदा करते थे।
  • गंगाघाटी के लोग चावल उगाते थे जिसका प्रचानतम् साक्ष्य कोलडिहवा से मिला है।
  • पश्चिमोत्तर क्षेत्र में गेहूँ व जौ उगाया जाता था। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि कपास उत्पादन का प्रचीनतम् साक्ष्य मेहरगढ़ से मिलता है।
    • मेहरगढ़ में बसने वाले नवपाषाण युग के लोग अधिक उन्नत थे। वे गेहूँ, जौ और कपास उपजाते थे और कच्ची ईंटों ( mud-bricks ) के घरों में रहते थे।

कुम्भकारी की शुरुआत

चूँकि नवपाषाण अवस्था के कई लोग अनाजों की खेती करते थे और पशु पालते थे इसलिए उन्हें अनाज रखने के पात्रों की आवश्यकता हुई। साथ ही भोजन पकाने, खाने, और पेय पदार्थों के लिए भी पात्रों की आवश्यकता हुई। अतः कुम्भकारी ( pottery ) सबसे पहले इसी अवस्था में दिखायी देती है। आरम्भ में हाथ से बनाये गये मृद्भांड मिलते हैं। बाद में मिट्टी के बरतन कुम्हार के चाक ( potter’s wheel ) पर बनाये जानेलगे। कुम्हार का चाक सबसे पहले ४,५०० ई०पू० के बाद बलूचिस्तान क्षेत्र में देखने को मिलता है और बाद में इसका प्रसार आंतरिक भारतीय भू-भागों तक हुआ। डॉ० आर० एस० शर्मा लिखते हैं कि –“It seems that the potter’s wheel came to Baluchistan from western Asia and from there it spread across the subcontinent.” इन पात्रों में पालिशदार काला मृद्भांड ( black-burnished ware ), धूसर मृद्भांड ( grey ware ) और चटाई की छाप वाले मृद्भांड ( mat-impressed ware ) शामिल हैं।

नवपाषाणकाल : प्रगति और सीमाएँ

९,००० ई०पू० से ३,००० ई०पू० के बीच की अवधि में पश्चिम एशिया में भारी तकनीकी प्रगति हुई, क्योंकि इसी अवधि में लोगों ने खेती, बुनाई, कुम्भकारी, भवन-निर्माण, पशुपालन, लेखन आदि का कौशल विकसित किया।

परन्तु भारत में यह सारा विकास कुछ विलंब से हुआ। फिर भी, भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण युग ईसा पूर्व सातवीं सहस्राब्दी के आसपास शुरू हुआ। गेहूँ, जौ आदि सहित कई महत्त्वपूर्ण फसलें इस उपमहाद्वीप में इसी अवधि से उपजायी जाने लगीं और संसार के इस भाग में कई गाँव बसे। लगता है, यहाँ आकर मानव ने सभ्यता के द्वार पर पाँव रखा।

नवपाषाणकाल के लोगों को पूर्ववर्ती लोगों से जो अलग बनाती है वह है उनके द्वारा पत्थर के सेल्ट ( stone celt ) का प्रयोग। ये सेल्ट किनारेदार और नुकीले ( edged & pointed ) होते थे।

ये सेल्ट अधिकतर जुताई के उपकरण ( tilling tools ) जैसे कुदाल ( hoe ) और हल ( plough ) के रूप में प्रयुक्त होते थे। अर्थात् सेल्ट का प्रयोग जमीन खोदने ( groung digging ) या जोतने ( ploughing  ) और बीज बोने ( seeds showing ) के लिये करते थे।  इन सबका अर्थ था जीवन यापन के तरीके में एक क्रांतिकारी बदलाव। लोग अब शिकार, मछली पकड़ने और खाद्य-संग्रहण करने पर निर्भर नहीं रहे थे। कृषि और पशुपालन नवपाषाणकालीन मानव के भोजन को स्थायित्व प्रदान किया। अपने औजारों से उन्होंने रहने के लिए आवास भी बनाये। भोजन और आश्रय के ये साधनों के साथ वे सभ्यता की दहलीज पर खड़े थे।

प्रस्तर युग ( Stone Age ) के लोगों की कुछ बहुत बड़ी सीमाएँ थीं।

  • ये लोग पूर्णतः पत्थर के ही औजारों और हथियारों पर ही आश्रित थे, इसलिए वे पहाड़ी इलाकों से दूर जाकर बस्तियाँ नहीं बना सकते थे।
  • ये लोग पहाड़ियों की ढलानों पर गुफाओं में और पहाड़ियों से युक्त नदी घाटियों में ही अपना निवास बना सके।
  • ये लोग पर्याप्त प्रयास के बावजूद ये सिर्फ उतना ही अनाज पैदा कर सकते थे जितने से किसी तरह अपना जीवन बसर कर सकें।

मानव उद्विकास ( Human Evolution )

नृजाति और प्रजाति संकल्पना

पुरापाषाणकाल : अत्यंतनूतन युग व विभाजन का आधार

पाषाणकाल : काल विभाजन

उपकरण प्ररूप : पाषाणकाल

पूर्व पुरापाषाणकाल ( Lower Palaeolithic Age )

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age )

उत्तर पुरापाषाणकाल ( Upper or Late Palaeolithic Age )

मध्यपाषाणकाल ( Mesolithic Age )

ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ

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