भूमिका
मौर्य सम्राट अशोक ने भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग को जीतकर (२६१ ई०पू०) अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। सम्राट अशोक के देहावसान के बाद मौर्य साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। इस विघटन क्रम में पश्चिमोत्तर भारत, दक्षिण भारत व कलिंग मौर्य साम्राज्य से अलग होने वाले प्रारम्भिक क्षेत्र थे। मौर्य साम्राज्य की केन्द्रीय सत्ता शुंगों के हाथ में आयी परन्तु वे भी इस विघटन को रोकने में असमर्थ रहे। प्रथम शताब्दी ई०पू० में हम कलिंग को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में पाते हैं। इस समय यहाँ चेदि वंश के महामेघवाहन कुल के महाराज खारवेल को शासन करते हुए पाते हैं।
‘चेदि’ भारत की एक अत्यन्त प्राचीन जाति थी। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में चेदि महाजनपद विद्यमान था जिसमें सम्भवतः आधुनिक बुन्देलखण्ड तथा उसके समीपवर्ती प्रदेश सम्मिलित थे। चेतिय जातक में इसकी राजधानी सोत्थिवती बतायी गयी है। महाभारत में इसी को शुक्तिमती (शक्तिमती) कहा गया है। विद्वानों का मत है कि इसी चेदि वंश की एक शाखा कलिंग गयी तथा उसने वहाँ एक स्वतन्त्र राजवंश की स्थापना की थी।
स्रोत
वर्तमान ओडिशा प्रान्त के पुरी जनपद में भुवनेश्वर से ४.८ किमी० (३ मील) की दूरी पर स्थित उदयगिरि पहाड़ी की ‘हाथीगुम्फा’ से उसका एक तिथिरहित अभिलेख प्राप्त हुआ है। इसमें खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषेक तथा राजा होने के बाद से १३ वर्षों तक के शासन काल की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण दिया हुआ है। हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल के राज्यकाल का इतिहास जानने का एकमात्र स्रोत है। इतिहासकारों ने इसी अभिलेख के आधार पर खारवेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्रस्तुत किया है।
- देखें — हाथीगुम्फा अभिलेख
महाराज खारवेल
महामेघवाहन कुल की स्थापना
इतिहासकारों के अनुसार कलिंग के चेदि राजवंश का संस्थापक ‘महामेघवाहन’ नामक व्यक्ति था। अतः इस वंश का नाम महामेघवाहन वंश भी पड़ गया। इस राजवंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक खारवेल हुआ। खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास के शक्तिशाली राजाओं में से एक है।*
Maharaja Kharavela is one of the most remarkable figures of ancient Indian History.* — Age of Imperial Unity
प्रारम्भिक जीवन
उदयगिरि का हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल की उत्पत्ति तथा वंश परम्परा पर कोई प्रकाश नहीं डालता। उसे कलिंग का तृतीय शासक बताया गया है। महामेघवाहन उसका पितामह था। मंचपुरी गुफा के एक लेख में वक्रदेव नामक महामेघवाहन शासक का उल्लेख हुआ है। डी० सी० सरकार तथा ए० के० मजूमदार जैसे विद्वान् इसे ही कलिंग के चेदि वंश का दूसरा शासक तथा खारवेल का पिता बताते है। परन्तु यह पूर्णतया अनुमान पर ही आधारित है तथा इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते जब तक कि कोई और साक्ष्य प्राप्त हो जाय।
हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि खारवेल जन्म से लेकर १५ वर्ष की अवस्था तक उसे युवा राजकुमारों के अनुसार विविध प्रकार की क्रीड़ाओं तथा विद्याओं की शिक्षा-दीक्षा दी गयी। उसका शरीर स्वस्थ्य था और वह गौर वर्ण का था। उसे लेख, मुद्रा, गणना, व्यवहार, विधि तथा दूसरी विद्याओं की शिक्षा मिली थी। वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया था।
१५ वर्ष की अवस्था में खारवेल युवराज बनाया गया तथा युवराज के रूप में ९ वर्षों तक प्रशासनिक कार्यों में भाग लिया।
२४ वर्ष की आयु में उसका राज्याभिषेक किया गया तथा वह राजा बन गया। उसका विवाह ललक हत्थिसिंह नामक एक राजा की कन्या से हुआ था जो उसकी प्रधान महिषी थी।
खारवेल की उपलब्धियाँ
प्रथम वर्ष
राजधानी कलिंग नगर निर्माण कार्य :
- तूफान से नगर को क्षति पहुँची थी।
- नगर के तोरणों, प्राचीरों की मरम्मत करवाया।
- शीतल जल से युक्त तड़ागों का निर्माण करवाया था।
- इन निर्माण कार्यों में ३५ लाख मुद्रायें खर्च हुईं।
इससे राजा की लोकप्रियता बढ़ी और उनकी स्थिति मजबूत हुई। उसने फिर दिग्विजय के लिये एक व्यापक योजना तैयार की।
“अभिसितमतो च पधमे वसे वात-विहत-गोपुर-पाकार-निवेसनं पटिसंख्यारयति कलिंगनगरि-खिबी [ रं ] [ । ] सितल-तडाग-पाडियों च बंधापयति सवूयान-प [ टि ] संथपनं च कारयति पनतिसाहि-सत सहसेहि पकतियों च रंजयति [ ॥ ]”
अर्थात्
“अभिषिक ( राजा ) होने के बाद प्रथम वर्ष में वे तूफान से नष्ट कलिंगनगरी खिबिर२१ के गोपुरों, प्राकारों, मकानों आदि की मरम्मत (प्रतिसंस्कार ) कराते हैं; शीतल जलवाले तालाब के बाँध को सुदृढ़ कराते हैं; सभी बगीचों को नये ढंग से सँवरवाते हैं। इसमें वे ३५ लाख ( मुद्रा ) व्यय करते हैं। ( इस तरह वे ) प्रकृति ( प्रजा ) का रंजन करते हैं।”
दूसरा वर्ष
सातवाहन राज्य के विरुद्ध अभियान:
- अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष कलिंग नरेश खारवेल ने शातकर्णि के शक्ति की उपेक्षा करते हुए एक विशाल सेना, जिसमें अश्व, गज, रथ एवं पैदल सैनिक सभी सम्मिलित थे, पश्चिम की ओर भेजी।
- यह सेना कण्वेणा नदी तक आगे बढ़ी।
- इसने मुसिकनगरी में आतंक फैला दिया।
दुतिये च वसे अचितयिता सातकंनि पछिम दिसं हयं-गज-नर-रध बहुलं दंडंपठापयति [ । ] कन्हबेंणां-गताय च सेनाय वितासिति असिकनगर [ ॥ ]
अर्थात्
और दूसरे वर्ष सातकर्णि की परवाह न कर ( वे) अश्व, गज, नर, रथ, बहुल सेना-दल पश्चिम दिशा में भेजते हैं। सेना कृष्णवेणा ( नदी ) के तट तक पहुँचकर ऋषिकनगर में आतंक उत्पन्न करती है।
कण्वेणा नदी तथा मुसिकनगर दोनों के समीकरण के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है:
- रैप्सन तथा बरुआ कण्णवेणा की पहचान वैनगंगा (महाराष्ट्र की एक छोटी नदीं) तथा उसकी सहायक नदी कन्हन के साथ करते हैं। उन्होंने मुसिकनगर को गोदावरी घाटी में स्थित अस्सिक (अश्मक) की राजधानी बताया है।
- काशी प्रसाद जायसवाल कण्वेणा को आधुनिक कृष्णा नदी तथा मुसिकनगर को कृष्णा तथा मुसी के संगम पर स्थित बताया है।
- शातकर्णि की पहचान सातवाहन नरेश शातकर्णि प्रथम से की जाती है।
यह निश्चित नहीं है कि खारवेल तथा शातकर्णि की सेनाओं में कोई सीधा संघर्ष हुआ या नहीं। अश्मक शातकर्णि के प्रभाव में था। अतः वह खारवेल के आक्रमण की उपेक्षा शातकर्णि नहीं कर सकता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह खारवेल का एक धावा मात्र था जिसे शातकर्णि सफलतापूर्वक टालने में समर्थ रहा। अपनी इसी सफलता के उपलक्ष्य में शातकर्णि ने सम्भवतः अश्वमेध यज्ञ किया।
इस तरह खारवेल को पहले सैन्याभिमान में कोई विशेष सफलता नहीं प्राप्त हुई।
तीसरा वर्ष
राज्याभिषेक का तीसरा वर्ष खारवेल ने अपनी राजधानी में संगीत, वाद्य, नृत्य, नाटक आदि के अभिनय द्वारा भारी उत्सव मनाया।
“ततिये पुन वसे गंधव-वेद-बुधो दप-नत-गीत-वादित-संदसनाहि उसव-समाज-कारापनाहि च कीडापयति नगरिं [ ॥ ]”
अर्थात्
“फिर तीसरे वर्ष गन्धर्व विद्या में पारंगत ( खारवेल ) दर्प ( अर्थशास्त्र के अनुसार मल्ल युद्ध विशेष ), नृत्य, गीत एवं वादन, उत्सव व समाज का आयोजन कर नगर-वासियों का मनोरंजन कराते हैं।”
चौथा वर्ष
राज्याभिषेक के चौथे वर्ष खारवेल ने बरार के भोजकों तथा पूर्वी खानदेश और अहमदनगर के रठिकों के विरुद्ध सैन्य अभियान किया। वे परास्त किये गये तथा उसकी सेवा करने के लिये बाध्य किये गये। इसी विजय के प्रसंग में विद्याधर नामक जैनियों की एक शाखा के निवास स्थान का उल्लेख हुआ है तथा बताया गया है कि खारवेल ने वहाँ निवास किया था। इसकी स्थापना कलिंग के पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा की गयी थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह जैनियों का एक पवित्र तीर्थस्थान समझा जाता था तथा इसकी रक्षा करना खारवेल का परम कर्त्तव्य था। रठिकों तथा भोजकों ने वहाँ अपना अधिकार कर लिया होगा। संभव है इसी कारण वह भोजकों तथा रठिकों के विरुद्ध युद्ध में गया हो। खारवेल ने उन्हें पराजित कर उनके रत्न एवं धन को छीन लिया। पश्चिमी भारत में उनका एक शक्तिशाली राज्य था।
“चवथे वसे विजा-धराधिवासं अहत-पुवं कलिंग पुव-राज- [ निवेसित ] …… वितधम [ कु ] ट [ सविधिते ] च निखत-छत-भिंगारे [ हि ] त-रतन-सपतेये सव-रठिक-भोजकेपादे वंदापयति [ ॥ ]”
अर्थात्
“चौथे वर्ष वे विद्याधरों के आवास ( विन्ध्य ) में, जिसे कलिंग का कोई भी पूर्ववर्ती शासक आहत (विजित ) नहीं कर सका था, निवास करते हैं …… जिनके मुकुट नष्ट कर दिये गये, और जिनके छत्र, भृंगार, हरित-रत्न, सम्पत्ति अपहृत कर लिये गये हैं, उन राष्ट्रिक और भोजकों से वे अपने चरणों की वंदना कराते हैं।”
रठिकों तथा भोजकों का उल्लेख अशोक के अभिलेखों में भी मिलता है। वे मौर्यों की अधीनता स्वीकार करते थे। सातवाहन वंशी शासकों के साथ उनके मैत्री सम्बन्ध थे। शातकर्णि प्रथम की पत्नी नागनिका महारठी वंशी कन्या थी।
इस प्रकार खारवेल द्वारा उन्हें पराजित किया जाना निश्चित रूप से एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।
पाँचवाँ वर्ष
अपने राज्याभिषेक के पाँचवें वर्ष वह तनसुलि से एक नहर के जल को अपनी राजधानी ले आया। इस नहर का निर्माण ३०० वर्ष पूर्व नन्द राजा द्वारा किया गया था। यह स्पष्ट नहीं है कि यह नन्द राजा मगध का प्रसिद्ध शासक महापदमनन्द था अथवा कलिंग का कोई स्थानीय शासक था।
“पंचमे च दानी वसे नंदराज-ति-वस-सतो [ घा ] टितं तनसुलिय-वाटा-पणाडिं नगरं पवेस [ य ] ति सो …… [ । ] [ अ ] भिसितो च”
अर्थात्
“पाँचवें, ( इस ) वर्ष वे तनसुलिय-वाटा प्रणाली ( नहर ) को, जिसे नन्दराज२५ ने ३०० ( अथवा १०३ ) वर्ष पूर्व खुदवाया था ( सहत्र मुद्रा व्यय करके ) नगर में प्रवेश कराते हैं …”
छठवाँ वर्ष
राज्याभिषेक के छठे वर्ष में एक लाख मुद्रा व्यय करके खारवेल ने अपनी प्रजा को सुखी रखने के लिये अनेक प्रयास किये। उसने ग्रामीण तथा शहरी जनता के कर माफ कर दिये।
“[ छठे वसे ] राजसेय२ संदंसयंतो सवकर-वण-अनुगह-अनेकानि सत-सहसानि विसजति पोर जानपदं [ ॥ ]
अर्थात्
“राज्याभिषेक के [ छठे वर्ष ] में राज्य के ऐश्वर्य के प्रदर्शन के निमित्त सभी राज-कर माफ कर देते हैं और पौर-जानपदों के बीच अनेक लाख [ मुद्राओं ] के अनेक अन्य अनुग्रह विसर्जित करते हैं।”
सातवाँ वर्ष
उसके राज्यारोहण के ७वें वर्ष का विवरण संदिग्ध है। अभिलेख से तो यही अर्थ निकलता है कि उसकी पत्नी ‘वजिरघरवती’ माता बनती है, दूसरे शब्दों में वह पिता बनता है। परन्तु संतान पुत्री थी या पुत्र अस्पष्ट है।
“सतमं व वसे [ पसा ] सतो वजिरघर [ वति धुसित धरिनी३ [ । ] सा मतुक पदं पुंनो [ दया तपापुनाति ] [ ॥ ]”
अर्थात्
“जब वे सातवें वर्ष में शासन करते होते हैं तब [पुण्य के उदय होने से ] उनकी वजिरघरवती नाम्नी गृहिणी ( पत्नी ) माता का पद प्राप्त [ करती ] हैं।”
आठवाँ वर्ष
खारवेल ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष में खारवेल ने उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया। उसकी सेना ने गोरथगिरि (बराबर की पहाड़ियों) को पार करते हुये तथा मार्ग में दुर्गों को ध्वस्त करते हुये घेरा डाला। उसकी सेना के डर से यवनराज दिमिति की सेना आतंकित हो गयी और वह मथुरा भागा।
“अठमे च वसे महता-सेन [ । ] य [ अपतिहत-भिति ] गोरधगिरिं घाता पयिता राजगहं उपपीडपयति [ । ] एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक ] …….. यछति………. पलव [ भार ] कपरुखे हय -गज-रथ-यह यति सव-घरावासो [ पूजित-ठूप-पूजाय ] सव-गहणं च कारयितुं बम्हाणानं ज [ य ] -परिहार ददाति [ ॥ ] अरहत च- [ पूजति।”
अर्थात्
“आठवें वर्ष में वे अप्रतिहत भित्ति (अजेय दुर्गवाले ) गोरथगिरि पर घात ( आक्रमण ) कर राजगृह [ के राजा ] को उत्पीड़ित ( त्रस्त ) करते हैं। इन दुष्कर कर्मों को सम्पादित करते देखकर, उसकी सेना और वाहनों से भयभीत होकर यवनराज विमक२९ मथुरा भाग जाता है। …… [ तब ] वह ( खारवेल ) पल्लव [ भार ] से युक्त कल्पवृक्ष, अश्व-गज-रथ-सैन्य के साथ सब गृहस्थों द्वारा [ पूजित स्तूप की पूजा करने ] जाते हैं और सर्वग्रहण ( अनुष्ठान ) करते हैं और ब्राह्मणों को जय के परिहार के निमित्त [ दान ] देते हैं और अर्हत की [ पूजा करते हैं ]।”
इस यवन शासक ‘दिमिति’ की पहचान सुनिश्चित नहीं है। स्टेनकोनो नामक विद्वान् ने इसका समीकरण डेमेट्रियस प्रथम अथवा द्वितीय से स्थापित किया है। कुछ अन्य विद्वान् इसे कोई हिन्द यवन अथवा शक शासक मानने के पक्ष में हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में हमें निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है।
नवाँ वर्ष
नवें वर्ष उसने अपनी उत्तर भारत की विजय के उपलक्ष्य में प्राची नगर के दोनों किनारों पर ‘महाविजय प्रासाद’ बनवाये। उसने ब्राह्मणों को दानादि दिये तथा आगे भी विजय के लिये सैनिक तैयारियाँ कीं।
“[… नवमे च वसे सुविजय ] [ ते उभय प्राचीतटे ] राज-निवासं महाविजय-पासादं कारयति अठतिसाय सत-सतसेहि [ ॥ ]”
अर्थात्
[… नवें वर्ष में ] इस सुविजय ( धर्म-कार्य ) के पश्चात अड़तालिस लाख [ मुद्रा ] लगाकर प्राची [ नदी ] के दोनों तटों पर महाविजय [ नामक ] प्रासाद का निर्माण करते हैं …”
दसवाँ वर्ष
दसवें वर्ष उसने पुनः भारतवर्ष यानि गंगा-घाटी पर आक्रमण किया, परन्तु कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
“दसमे च वसे दंड-संधी-सा [ ममयो ] भरध वस-पठानं मही जयनं ( ? ) …… कारापयति [ ॥ ]”
अर्थात्
“दसवें वर्ष में दण्ड और सन्धि के स्वामी ( ? ) सम्पूर्ण पृथ्वी के विजय के निमित्त भारतवर्ष में प्रस्थान की [ …… ] तैयारी करते हैं।”
ग्यारहवाँ वर्ष
ग्यारहवें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण भारत की ओर ध्यान दिया। उसकी सेना ने पिथुन्ड नगर (चेन्नई के निकट) को ध्वस्त किया तथा और आगे दक्षिण की ओर जाकर तमिल संघ का भेदन किया (भिंदति तमिर-दह-संघातं)। लेख के अनुसार खारवेल ने पिथुण्ड नगर में गदहों का हल चलवाया था।
“[ एकादसमे च वसे ] …… प [ । ] या-तानं च म [ नि ] -रतनानि उपलभते [ । ] [ दखिन दिसं ] [ मंद ] च अव राज निवेसितं पीथुण्डं गदभनंगलेन कासयति [ । ] जन- [ प ] द भावनं च तेरस-बस-सत-कतं भिंदति तमिर-दह-संघातं [ । ]”
अर्थात्
“[ और ग्यारहवें वर्ष ] पलायन करते हैं और मणि रत्न प्राप्त करते हैं। [ दक्षिण दिशा की ओर ] मन्द गति से प्रयाण हुए अव ( ? ) की राजधानी पिथुण्ड में गदहों से हल चलवाते हैं। जनपदकल्याण के भाव से एक सौ तेरह [ वर्ष ] पूर्व बने तिमिर हृद के संघात का भेदन करते हैं।”
ऐसा प्रतीत होता है कि उसका सामना करने के लिये सुदूर दक्षिण के तमिल राजाओं ने कोई संघ बना लिया जिसे खारवेल ने नष्ट कर दिया।
इस नगर की पहचान मसूलीपट्टम् के निकट स्थित पिटुण्ड्र नामक स्थान से की जाती है जिसका उल्लेख टॉलमी ने किया है। सुदूर दक्षिण में विजय करते हुए खारवेल पाण्ड्य राज्य तक जा पहुँचा था।
बारहवाँ वर्ष
बारहवें वर्ष खारवेल ने दो सैन्य अभियान किये –
- एक, उत्तर भारत तथा
- दूसरा, दक्षिण भारत में।
सर्वप्रथम उसने अपनी सेना को उत्तर भारत के मैदानों में भेजा तथा उसने अपने अश्वों एवं हाथियों को गंगा नदी में स्नान करवाया। मगध नरेश, जिसका नाम डॉ० जायसवाल तथा डॉ० वरुआ ने ‘वहसतिमित्र’ (बृहस्पतिमित्र) पढ़ा है, पराजित हुआ तथा उसने खारवेल की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार यह अभियान सफल रहा तथा खारवेल अपार लूट की सम्पत्ति तथा कलिंग की जिन-प्रतिमा, जिसे तीन शताब्दियों पूर्व नन्दशासक द्वारा मगध ले जाया गया था, को लेकर अपनी राजधानी वापस लौटा। इस धन की सहायता से उसने सुन्दर टावरों से सुसज्जित एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया।
“बारसमे च वसे …… [ सह ] सेहि वितासयति उतरापथ-राजानो …… म [ । ] गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय पाययति [ । ] म- [ ग ] धं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति [ । ] नंदराज-नीतं चका [ लिं ] ग-जिनं संनिवेस [ पूजयति। कोसात ] [ गह ] रतन-पडीहारेहि अंग-मगध वसुं च नयति [ ॥ ] …..[ के ] तुं जठर [ लखिल-गोपु ] राणि-सिहराणि निवेसयति सत-विसिकनं [ प ] रिहारेहि [ । ]”
अर्थात्
“बारहवें वर्ष में सहस्र [ सैनिकों को लेकर ] उत्तरापथ के राजाओं को त्रस्त करते हैं। …… मगधवासियों में विपुल भय उत्पन्न करते हुए हाथियों और घोड़ों को गंगा में पानी पिलाते हैं और मगध-नरेश बृहस्पतिमित्र (बहसतिमित ) से अपने चरणों की वन्दना कराते हैं और नन्दराज द्वारा लाये गये कलिंग-जिन के संनिवेश ( मन्दिर ) की [ पूजा करते हैं ] और [कोष से ] [ गृह ] -रत्न अपहरण करके अंग और मगध का धन ( वसु ) ले आते हैं। [ वापस लौटने पर ] दो हजार [ मुद्रा ] व्यय कर दृढ सुन्दर तोरणयुक्त गोपुरों पर केतु ( झण्डा ) लगवाते हैं।”
जैनधर्म में मूर्तिपूजा का उल्लेख सर्वप्रथम हाथीगुम्फा लेख में ही प्राप्त होता है।
डॉ० बरुआ के अनुसार यह मन्दिर भुवनेश्वर में बनवाया गया था। ब्रह्माण्ड पुराण की उड़िया पांडुलिपि के एक संदर्भ से इसकी पुष्टि होती है जिसमें खारवेल को भुवनेश्वर में एक मन्दिर बनवाने का श्रेय दिया गया है।
उत्तरी अभियान से निवृत्त होने के उपरान्त खारवेल ने बारहवें वर्ष ही दक्षिण की ओर पुनः एक अभियान किया। वह सुदूर दक्षिण में स्थित पाण्ड्य राज्य तक जा पहुँचा। बताया गया है कि उसने जल तथा थल दोनों ही मार्गों से पाण्ड्यों की राजधानी पर धावा बोला। यह अभियान पूर्णरूपेण सफल रहा। पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की तथा उसके लिये मुक्तामणियों का उपहार दिया।
“अमुतमछरियं च हथि-नाव-नीतं परिहरति…… हय हथि-रतन [ मानिक ] पंडराजा [ चेरानि अनेकानि मुत-मनि-रतनानि आहारापयति इध सत [ सहसानि ] …… सिनो वसीकारोति [ । ]”
अर्थात्
“अद्भुत आश्चर्य की बात तो यह है कि हस्ति और नौ ( जल ) सेना भेजकर के अश्व, हस्ति और रत्न का अपहरण करते हैं; पाण्ड्य और चेर राजा से मुक्ता, मणि रत्नादि छीन लेते हैं। …… के निवासियों को वश में करते हैं।”
यह खारवेल का अन्तिम सैन्य अभियान था। वह अपने साथ अतुल सम्पत्ति लेकर अपनी राजधानी वापस लौट आया।
तेरहवाँ वर्ष
अपने शासन के तेरहवें वर्ष में खारवेल ने कुमारीपहाड़ी पर जैन भिक्षुओं के निवास के निमित्त गुहाविहारों का निर्माण करवाया था। कुमारीपहाड़ी से तात्पर्य उदयगिरि-खंडगिरि की पहाड़ियों से है।
धर्म तथा धार्मिक नीति
कलिंग नरेश खारवेल जैन धर्म का अनुयायी थे। उन्होंने जैन साधुओं को संरक्षण प्रदान किया, उनके निर्वाह के लिये प्रभूत दान दिये तथा उनके रहने के लिये आरामदायक निवास स्थान बनवाये।
हाथीगुम्फा लेख का उद्देश्य उदयगिरि पहाड़ी पर बनवाये गये ऐसे ही भिक्षु आवासों का विवरण सुरक्षित रखना था।
परन्तु स्वयं जैन होते हुए भी वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। हाथीगुम्फा के लेख से पता चलता है कि उसने सभी देवताओं के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था तथा वह सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करता था।*
“सब पासंडपूजको सव-दे [ वाय ] तन-सकार-कारको …”*
अर्थात्
“सर्व देवतायतन का संस्कार करानेवाले …”
निर्माण-कार्य
कलिंग नरेश खारवेल एक महान् निर्माता भी था। उसने राजा होते ही अपनी राजधानी को प्राचीरों तथा तोरणों से अलंकृत करवाया। अपने राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष उसने भुवनेश्वर के पास उदयगिरि तथा खण्डगिरि की पहाड़ियों में जैन भिक्षुओं के आवास के लिये गुहा-विहार बनवाये थे।
उदयगिरि में १९ तथा खण्डगिरि में १६ गुहा विहारों का निर्माण हुआ था। उदयगिरि में रानीगुम्फा तथा खण्डगिरि में अनन्तगुम्फा की गुफाओं में उत्कीर्ण रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। इन चित्रों में तत्कालीन समाज के जनजीवन की मनोरम झाँकी सुरक्षित है।
उसके द्वारा बनवाया गया ‘महाविजय प्रसाद’ भी एक अत्यन्त भव्य भवन था।
शासनकाल
खारवेल ने कुल १३ वर्षों तक राज्य किया। उसके शासन की तिथि के विषय में विवाद है। हाथीगुम्फा अभिलेख की लिपि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास की है। अतः हम खारवेल को ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में रख सकते हैं।
अभिलेख के अन्तःसाक्ष्य से भी इसी तिथि की पुष्टि होती है। इसकी छठीं पंक्ति में कहा गया है कि खारवेल ने तनसुलि से एक नहर का विस्तार अपनी राजधानी तक किया था। इस नहर का निर्माण उसके ३०० वर्षों पूर्व मगध के नन्द राजा ने करवाया था। यह नन्द राजा महापदमनन्द ही है जिसकी तिथि ईसा पूर्व ३४४ मानी जाती है। अतः खारवेल का समय ३४४ – ३०० = ४४ ईसा पूर्व में निश्चित होता है।
मूल्यांकन
खारवेल के व्यक्तित्व व कृतित्व का जो विवरण हमें प्राप्त है उससे यह स्पष्ट है कि वह एक विजेता, लोकोपकारी शासक, निर्माता तथा धर्म-सहिष्णु शासक था। खारवेल स्वयं विद्वान् तथा विद्वानों का आश्रयदाता था।
अभिलेख में उसे ‘राजर्षि’ कहा गया है। इसके अतिरिक्त उसके लिये लेमराज, वृद्धराज, भिक्षुराज, धर्मराज तथा महाविजयराज जैसे विशेषणों का प्रयोग भी मिलता है। इनसे ज्ञात होता है कि खारवेल में राजविजयी एवं धर्मविजयी शासक के गुणों का सन्निवेश हम एक साथ पाते हैं।
वस्तुतः वह हमारे समक्ष एक उल्का की भाँति उपस्थित होता है। उसकी उपलब्धियाँ हमें उस विद्युत प्रकाश के समान चकाचौंध करती हैं जो क्षण मात्र के लिये चमक कर तिरोहित हो जाता है।
यह सम्भव है हाथीगुम्फा अभिलेख का विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण हो, परन्तु फिर भी इस बात से को नकारा नहीं किया जा सकता कि वह एक कुशल सेनानायक था और उसके समय में कलिंग का राज्य अपने गौरव की पराकाष्ठा पर पहुँच गया जिसे वह उसकी मृत्यु के शताब्दियों बाद भी पुनः नहीं प्राप्त कर सका।*
- It can not be denied that Kharavela was a military leader of rare ability and under him Kalinga reached a pinnacle of glory which it failed to regain for several centuries after his death. — A comprehensive History of India, part-2
इस तरह वह एक शक्तिशाली राजा था। उसका अन्त किन परिस्थितियों में हुआ, यह अज्ञात है। वस्तुतः जितनी तेजी से खारवेल का उत्थान हुआ, उतनी ही तेजी से पतन भी हो गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका शक्तिशाली साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।