उत्तर वैदिक काल

विषयसूची

भूमिका

उत्तर वैदिक काल १,००० ई० पू० से ५०० ई० पू० तक माना गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं — कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था, कबायली संरचना में दरार का पड़ना और वर्ण व्यवस्था का जन्म तथा क्षेत्रीय राज्यों का उदय। इसका तकनीकी आधार लौह धातु का प्रयोग जो ऋग्वैदिक काल से इसको पृथक करती है। ऋग्वैदिक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर ही उत्तर-वैदिक-कालीन संस्कृति विकसित हुई।

उत्तर वैदिक संस्कृति के स्रोत

उत्तर वैदिक संस्कृति का ज्ञान हमें ऋग्वेद के आधार पर ही विकसित संहिता ग्रन्थ, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषदों से ज्ञात होता है जिनका समय लगभग ई० पू० १,००० से ५०० तक निर्धारित किया गया है।

संहिताओं में यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के नाम उल्लेखनीय है। संहिताओं के बाद ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषदों का विकास होता है।

ब्राह्मण गद्य साहित्य से सर्वप्राचीन ग्रन्थ है जिनमें कर्मकाण्डों के महत्त्व को अनेक गाथाओं द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना सहिताओं की व्याख्या करने के लिये सरल गद्य में की गयी है।

ब्राह्मणों के अन्तिम भाग आरण्यक है जिनमें दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों का वर्णन किया गया है। संभवतः इनके अध्ययन के लिये ‘अरण्य’ (वन) जैसे एकान्त स्थानों की आवश्यकता होती थी, इसी कारण इन्हें आरण्यक कहा गया। आरण्यकों में ऐतरेय, कौषीतकी तथा तैत्तिरीय प्रमुख है।

आरण्यकों के बाद के ग्रन्थ उपनिषद् है जिनकी भाषा लौकिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। उपनिषदों में हम वैदिक चिन्तन का चरम विकास पाते हैं। इसी कारण इन्हें ‘वेदान्त’ भी कहा गया है। इनका प्रमुख विषय आत्मविद्या है। इन ग्रन्थों की रचना गंगा-घाटी में हुई थी।

इसी समय तथा क्षेत्र में विभिन्न पुरास्थलों पर की गयी खुदाइयों से चित्रित तथा भूरे रंग के मिट्टी के पात्र प्राप्त होते हैं। इन पात्रों को “चित्रित धूसर मृद्भाण्ड” (Painted Grey Ware -PGW) कहा जाता है।

इस संस्कृति के लोग लोहे के अस्त्र-शस्त्र एवं उपकरणों का प्रयोग करते थे। हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, नोह आदि प्रमुख उत्खनित स्थल हैं। ये सभी कुरु-पञ्चाल क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं जहाँ उत्तर वैदिक आर्यों का मुख्य कार्यक्षेत्र रहा। यहाँ से लोहे के बने बाणाग्र, बरछे, फलक इत्यादि मिलते हैं। इस लौह उपकरणों में युद्ध सम्बन्धित अस्त्र-शस्त्रों की संख्या ही अधिक है। स्पष्ट है कि पहले लोहे का उपयोग युद्ध के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में ही किया गया। धीरे-धीरे इससे कृषि उपकरण भी बनाये जाने लगे।

वैदिक संस्कृति का पूर्व की ओर प्रसार

ऋग्वैदिक संस्कृति का मुख्य केंद्र ‘सप्तसैंधव प्रदेश’ था। मोटेतौर पर ऋग्वैदिक आर्य अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में गंगा नदी तक फैले हुए थे। परन्तु उत्तर वैदिक काल के आर्यों का प्रसार एक व्यापक क्षेत्र में हो गया। अनेक छोटे-छोटे जन बड़े जनों में मिला लिये गये तथा बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हुई। उत्तर-वैदिक-काल की समाप्ति के पूर्व ही आर्यों ने यमुना, गंगा एवं सदानीरा (राप्ती या गण्डक) नदियों द्वारा सिंचित उपजाऊ मैदानों को पूर्णतया जीत लिया था। आर्य सभ्यता का केन्द्र मध्य देश था जो सरस्वती से लेकर गङ्गा के दोआब तक विस्तृत था। इसमें कुरु-पञ्चाल जैसे विशाल राज्य थे। यहाँ से आर्य सभ्यता पूर्व की ओर कोशल, काशी, विदेह (उत्तरी बिहार) तक फैली। क्रमश: कोशल, काशी, विदेह, मगध, अंग आदि राज्यों का महत्त्व बढ़ता गया तथा कुरु-पञ्चाल आदि महत्त्वहीन होते गये।

मगध तथा अंग अभी आर्य संस्कृति के प्रभाव से बाहर थे। मगध तथा अंग का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलतासर्वप्रथम अथर्ववेद में हो इनका उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद में मगध के लोगों को व्रात्य कहा गया है जो प्राकृत भाषा बोलते थे। उनके प्रति तिरस्कार पूर्ण भाव प्रकट किये गये हैं। यहाँ तक कि यह इच्छा व्यक्त की गयी है कि पूर्व दिशा में स्थित अंग तथा मगध के लोग ज्वर द्वारा ग्रसित किये जाये।

आर्य सभ्यता का प्रसार अभी विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में नहीं हो पाया था। किसी भी वैदिक ग्रन्थ में हम दक्षिण के राज्यों का नामोल्लेख नहीं पाते हैं। आर्यों के पूर्व दिशा की ओर प्रसार के विषय में शतपथ ब्राह्मण ( १/४/१/१०) में वर्णित ‘विदेघ माधव’ का आख्यान उल्लेखनीय है। इसके अनुसार ‘विदेघ माधव’ सरस्वती नदी के तट पर निवास करते थे। उन्होंने वैश्वानर अग्नि को मुख में धारण किया था। घृत का नाम लेते ही वह अग्नि मुख से निकल कर पृथ्वी पर आ गया और नदियों को जलाता हुआ पूर्व की ओर बढ़ गया। विदेघ माधव तथा उनके पुरोहित ‘गौतम रहूगुण’ ने उसका अनुगमन किया। किन्तु उत्तरगिरि (हिमालय) से बहने वाली ‘सदानीरा नदी’ ( गण्डक नदी ) को वह नहीं जला सका। विदेघ माधव द्वारा अपने निवास स्थान के विषय में पूछे जाने पर अग्नि ने उनसे सदानीरा के पूरब की ओर रहने का आदेश दिया। यह नदी ही कोशल तथा विदेह राज्यों की आज भी मर्यादा बनी हुई है। यह आख्यान ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती नदी अर्थात् पश्चिम से ही वैदिक सभ्यता पूर्व की ओर प्रसारित हुई थी।

उत्तर-वैदिक काल तक आते-आते अणु, द्रुह्यु, तुर्वस, पुरू, यदु, भरत, क्रिवि आदि जनों का लोप हो गया तथा उनके स्थान पर विशाल राज्यों की स्थापना हुई। इनमें कुरु और पञ्चाल सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है। यहाँ के निवासी शिष्टाचार में अग्रणी, विधिपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले तथा अच्छी संस्कृत बोलने वाले बताये गये हैं। इनके शासक सर्वश्रेष्ठ थे तथा इनकी परिषदें सर्वोत्तम थीं। ये ‘संयुक्त राज्य’ थे जिनकी राजधानी ‘आसंदीवत्’ तथा ‘काम्पिल्य’ थी। आसंदीवत् के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृश्द्वती के बीच की भूमि) सम्मिलित था, जबकि काम्पिल्य के अन्तर्गत बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद के जनपद थे।परीक्षित तथा जनमेजय के समय कुरु राज्य उन्नति की चरम सीमा पर था। अथर्ववेद में उसकी समृद्धि का चित्रण है। तदनुसार यहाँ के नागरिक सुखी तथा समृद्धिशाली थे। छान्दोग्य उपनिषद् में एक स्थान पर बताया गया है कि कुरु जनपद में कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिट्टियों के उपद्रव के कारण अकाल ही पड़ा। पञ्चाल के राजाओं में प्रवाहन, जैबालि, अरुणि एवं श्वेतकेतु के नाम मिलते हैं। ये उच्चकोटि के चिंतक एवं दार्शनिक थे। उपनिषद् काल में विदेह ने पञ्चाल का स्थान ग्रहण कर लिया। विदेह के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पञ्चाल, कोशल, काशी, विदेह, मगध, अंग आदि प्रमुख राज्य थे।

तकनीकी विकास

तकनीकी विकास की दृष्टि से यही वह काल है, जबकि उत्तरी भारत में लौह युग का प्रारम्भ हुआ। यद्यपि लोहे ने तत्काल ही ताम्र-काँस्य का स्थान नहीं ले लिया होगा, फिर भी यह विकास का एक ऐसा क्रांतिकारी कदम था, जो आगे चलकर जीवन के विभिन्न पहलुओं को गहरे तक प्रभावित करने वाला था।

लोहे के अर्थ में ‘श्याम अयस्’ अथवा ‘कृष्ण अयस्’ के अनेक उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्यों में मिलते हैं। आरम्भ में डी० डी० कोसांबी जैसे विद्वानों ने लोहे के क्रांतिकारी योगदान पर पहली बार बल दिया, किंतु इस आरम्भिक उत्साह में कालांतर में ढील आ गयी।*

  • The city in early historical India – 1973. — A. Ghosh ( p. 5-11 ) & ‘The Beg of iron and social change in India’; Indian Studies Past and Present. Vol. 14, Issues – 4 , 1973 —D. K. Chakraborty. *

ऐसा प्रतीत होता है कि लौह तकनीक का प्रयोग आरम्भ में युद्धास्त्रों के लिये और फिर धीरे-धीरे कृषि एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में होने लगा।*

  • S. Sharma – ‘Class formation and its Material Basis in Upper Gangetic Basin ( C. 1000-500 BC )’ in Indian Historical Review, New Delhi, Vol. 2, issue 1, July 1975, p. 1-13.*

इस प्रकार का अनुमान संभवतः केवल इसी आधार पर लगाया गया है कि अब तक मिले लौह उपकरणों में युद्ध सम्बन्धित अस्त्र-शस्त्रों की ही प्रधानता है। परन्तु इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर और अधिक निश्चित रूप से कुछ कहने के लिये विभिन्न उत्खननों से प्राप्त लोहे की वस्तुओं का स्तरविन्यासात्मक (stratigraphic) वितरण-सम्बन्धित ब्यौरों से प्राप्त निष्कर्षों के साथ-साथ और स्थलों के उत्खनन व अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।

जो भी हो लोहे की धातु का ज्ञान अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण प्रगति थी। ताँबा वा काँसा की अपेक्षा लोहे से अधिक मजबूत उपकरण बनाये जाने लगे। पहले तो इसका प्रयोग युद्ध के शस्त्रास्त्रों में देखने को मिलता है। परन्तु धीरे-धीरे इससे कृषि के उपकरण भी बनने लगे।

राजन्यों के हाथ में अब श्रेष्ठ युद्ध शस्त्रास्त्र आने से बड़े-बड़े क्षेत्रीय राज्यों का विकास होने लगा जिसको हम जन से जनपद के विकास के रूप में भी देख सकते हैं। कृषि में लोहे के प्रयोग से जंगल को साफ करके अधिक कृषि भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित होने लगी। यद्यपि गंगा की घाटी की भूमि नरम व उपजाऊ थी परन्तु लोहे के प्रयोग से गहरी जुताई से कृषि की उत्पादकता बढ़ने लगी। इस उत्पादन अधिशेष ने शिल्पी, राजन्य, ब्राह्मण इत्यादि के लिये यह व्यवस्था की वह बिना कृषि में लगे उनका पोषण हो सकता था। अर्थात् अब कार्य विभाजन और विशेषीकरण होने लगा था। अनेक शिल्पकारों का समाज में उदय हुआ। राजस्व का संग्रह होने लगा।

कुल मिलाकर हम निष्कर्ष रूप से कहें तो लोहे के प्रयोग समवेत रूप से जहाँ एक ओर राजन्य वर्ग को शक्तिशाली बनाया वहीं दूसरी ओर एक ऐसी अर्थव्यवस्था को जन्म दिया वैदिकोत्तर काल में नागर जनसंख्या को पोषण प्रदान करने में सक्षम होने वाली थी। इसी पृष्ठभूमि पर कालान्तर में १६ महाजनपदों का विकास हुआ, धार्मिक आन्दोलन को पूर्वपीठिका तैयार की और अंततः अखिल भारतीय मगध साम्राज्य का चरमोत्कर्ष होने वाला था।

इस तरह लोहे के प्रयोग से तुरन्त क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ। यह एक लम्बी प्रक्रिया थी। जो कि १००० ई०पू० के आसपास शुरू हुई और उत्तर वैदिक काल के बाद भी जारी रही। परन्तु प्रस्तुत संदर्भ में हम अपने को उत्तर वैदिक काल तक ही सीमित रखेंगे।

उत्तर-वैदिक कालीन संस्कृति

उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति के प्रमुख तत्त्वों — राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था पर क्रमशः एक-एक करके विचार करते हैं।

राजनीतिक संगठन

जन से जनपद की ओर

उत्तर वैदिक काल में आर्यों के जीवन में पहला प्रमुख परिवर्तन आर्यों की स्थिरता के रूप में सामने आया। अब छोटे-छोटे जन मिलकर एक बड़ी इकाई ‘जनपद’ में बदल रहे थे। ‘हमें कुछ जनों के आपस में मिलने का विवरण मिलता है; जैसे –

  • पुरु + भरत = कुरू
  • तुर्वस + क्रिवि = पञ्चाल

अनेकों ब्राह्मण ग्रंथों में तो स्वयं कुरु-पंचाल युग्म का उल्लेख मिलता है। वास्तविकता तो यह है कि उत्तर वैदिककालीन राजनीतिक गतिविधियों में कुरु-पंचाल और इनके जैसे बड़े-बड़े जनपदों का ही बोलबाला था।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इस प्रक्रिया में लौह तकनीक ने भी सहयोग दिया हो। हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, नोह, अतरंजीखेड़ा, बटेसर आदि पुरातात्त्विक स्थलों से बरछी-शीर्ष एवं बाणाग्र जैसी अधिकाँश लोहे की वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। ये स्थल कुरु-पंचाल प्रदेश में ही पड़ते हैं। अभी तक की स्थिति यह है कि प्राप्त लौह अस्त्रों की सर्वाधिक संख्या अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुई है।

यह भी संयोग मात्र नहीं है कि उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में ही कुरु-पंचाल के अनेक राजाओं द्वारा ‘अश्वमेघ यज्ञ’ सम्पन्न करने के अनेकशः उल्लेख मिलते हैं। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि ऐसे राष्ट्रों की सैन्य शक्ति उनके विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारक थी।

क्षेत्रीयता का उभरना

विशाल राज्यों की स्थापना के साथ ही साथ इस युग में राजा के अधिकारों में भी वृद्धि हुई। अब वह जन अथवा कबीले का नेता न होकर एक विस्तृत भूभाग का एकछत्र शासक होता था।

क्षेत्रीयता का तत्त्व अब उभर रहा था — यह इस बात से पता चलता है कि ‘पैतृक राजतंत्र’ और ‘राष्ट्र’ की अवधारणा के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में पहली बार ‘राष्ट्र’ शब्द का उल्लेख आया है। अथर्ववेद में कहा गया है, “राष्ट्र राजा के हाथों में हो तथा राजा वरुत, वृहस्पतिदेव, इन्द्र एवं अग्नि उसे दृढ़ बनाए” ( ६/८८/२ )। तैत्तिरीय संहिता (२/३/१) के अनुसार ‘कर्मकाण्ड को पूर्णरूपेण सम्पन्न करके राजा राष्ट्र प्राप्त करता है।’ शतपथ ब्राह्मण (९/४१/१) में कहा गया है कि राजा ‘राष्ट्रभृत’ अर्थात् साम्राज्य का पोषक है। शतपथ ब्राह्मण (१२/९/३/१)में ही ‘दुष्टरीतु पौंसायन’ का प्रसिद्ध उदाहरण है, जिससे यह पता चलता है कि वह सृंजयों में राजतंत्र की १०वीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता था और इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण (८/१२/१७) में ‘दश-पुरुषं राज्यं’ का वर्णन है।

राजा

‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में ‘राजा की उत्पत्ति’ सम्बन्धी ( सिद्धान्त ) एक विवरण इस प्रकार मिलता है — “देवताओं तथा असुरों में परस्पर युद्ध हुआ जिसमें देवता पराजित हो गये। देवताओं ने विचार किया कि उनकी पराजय का कारण राजा का अभाव है। अतः उन्होंने राजा चुना तथा उसके नेतृत्व में युद्ध करते हुए असुरों पर विजय प्राप्त किया।”

इस उल्लेख से स्पष्ट है कि राजा का उदय सैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुआ तथा सभी ने सहमति द्वारा उसका चुनाव किया

इन सब जनपदों में शासन का प्रकार एक-सा नहीं था। कुछ राज्यों में राजतंत्र शासन या तो कुछ में गणतंत्र। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार —

  • पूर्व दिशा (मगध कलिंग, बंग आदि) के जो राजा है, उनका साम्राज्य के लिये अभिषेक होता है और वे सम्राट कहलाते हैं।
  • दक्षिण दिशा में जो सात्वत (यादव) राज्य है, वहाँ का शासन ‘भोज्य’ है और उनके शासक ‘भोज’ कहे जाते हैं।
  • पश्चिम दिशा (रुराष्ट्र, कच्छ, सौवीर, आदि) का शासन स्वराज्य है और उसके शासक ‘स्वराट’ कहलाते हैं।
  • उत्तर दिशा में हिमालय के क्षेत्र में (उत्तर कुरु, उत्तर मद्र, आदि) जो राज्य है, वहाँ वैराज्य प्रणाली है और वहाँ के शासक ‘विराट’ कहलाते हैं।
  • मध्य देश (कुरु, पंचाल, कोसल, आदि) के राज्यों के शासक ‘राजा’ कहे जाते हैं।

इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में, साम्राज्य, भोज्य, स्वराज्य, वैराज्य और राज्य, इन पाँच प्रकार की प्रणालियों का उल्लेख है।

  • सम्राट वे शासक थे जो वंशक्रमानुगत होते हुए अपनी शक्ति के विस्तार के लिये अन्य राज्यों का मूलोच्छेद करने को तत्पर रहते थे। जरासंघ आदि मगध सम्राट इसी प्रकार के थे।
  • भोज, शायद उन राजाओं को कहते थे जो वंशक्रमानुगत न होकर कुछ निश्चित समय के लिये अपने पद पर नियुक्त थे। सात्वत यादवों (अंधक, वृष्णि आदि) में यह प्रथा विद्यमान थी। और हमें यह ज्ञात है कि श्रीकृष्ण सम्भवतः भोज या संघमुख्य थे।
  • स्वराट वे शासक थे जिनकी स्थिति ‘समानों में ज्येष्ठ’ (Primus inter pares i.e. first among the equals) की होती थी इन स्वराज्यों में कतिपय कुलीन श्रेणियों का शासन होता था और सब कुलों की स्थिति एक समान मानी जाती थी।
  • सम्भवतः वैराज्य जनपद वे थे जिनमें कोई राजा नहीं होता था और जहाँ जनता अपना शासन स्वयं करती थी।
  • कुरु-पंचाल आदि मध्यदेश के जनपद राज्य कहलाते थे और वहाँ प्राचीन काल की परम्परागत शासन प्रणाली विद्यमान थी।

ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित – शासन प्रणाली

दिशा राज्य उपाधि
पूर्व/प्राची/प्राशी साम्राज्य सम्राट
पश्चिम/प्रतीची स्वराज्य स्वराट
उत्तर वैराज्य विराट
दक्षिण भोज्य भोज
मध्य देश राज्य राजन्/राजा

उत्तर वैदिक काल में राजा एक बड़े भू-भाग पर शासन करने लगे थे। अब वे अपने बढ़ते हुए अधिकार के अनुरूप सामान्य उपाधियों के स्थान पर राजाधिराज, सम्राट, एकराट् जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करने लगे थे।

ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि “समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट् होता है।” अथर्ववेद में एकराट् सर्वोच्च शासक को कहा गया है। राजसूय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान कर सम्राट अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे। ऐतरेय तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसे सम्राटों की लम्बी सूची मिलती है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चारों दिशाओं को विजित करने वाले को ‘एकराट’ की उपाधि दी जाती थी। पुराणों में ‘महापद्मनन्द’ को सर्वप्रथम एकराट कहा गया। महापद्मनन्द ने सबसे पहली बार ‘कलिंग’ विजय की थी। परन्तु महापद्मनन्द का इतिहास वैदिक युग के बाद का है अतः उसे यहाँ विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है।

राजा ‘देवता का प्रतीक’ समझा जाने लगा था। अथर्ववेद में परीक्षित को “मृत्युलोक का देवता” बताया गया है

सिद्धान्ततः वह निरंकुश शासक होता था। ब्राह्मणों तक को वह अपनी इच्छानुसार देश से निकलवा सकता था। सम्राट ‘दण्डधर’ होने के कारण स्वयं दण्ड से मुक्त था। परन्तु व्यवहार में उसके अधिकारों पर कुछ अंकुश लगे होते थे। अभिषेक के समय वह धर्मानुकूल आचरण करने की प्रतिज्ञा करता था।

उत्तर-वैदिक काल में हमको अनेक राजाओं के नाम मिलते हैं। अथर्वेद में मृत्युलोक के देवता के रूप में ‘परीक्षित’ का उल्लेख प्राप्त होता है। उपनिषदों में निम्न राजाओं के नाम मिलते हैं —

  • कुरू देश के राजा ‘उद्दालक आरुणि’ : छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक आरुणि और उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता से सम्बन्धित विख्यात सम्वाद मिलता है।
  • पंचाल देश के राजा ‘प्रवाहण जाबालि’ : बृहदारण्यक उपनिषद् से पता चलता है कि उद्दालक आरुणि ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रवाहण जाबालि के पास गये थे।
  • केकय के राजा ‘अश्वपति’ : छांदोग्य उपनिषद् से पता चलता है कि उद्दालक आरुणि ज्ञान प्राप्ति के लिये कैकय नरेश अश्वपति के पास गये थे।
  • काशी के राजा अश्वपति
  • विदेह के राजा ‘जनक’ : ज्ञान की दृष्टि से उत्तर वैदिक काल के ये सबसे प्रसिद्ध शासक माने जाते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् से ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य ने जनक से शिक्षा पायी। शतपथ ब्राह्मण से ज्ञात होता है राजा जनक ने एक गोष्ठी में ब्राह्मणों को पराजित किया। इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मणों ने उन्हें ‘राजन्य’ की उपाधि दी।

राजत्व की ‘दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त’ की चर्चा भी इसी काल के साहित्य में मिलती है। हालाँकि सभा, समिति, विदथ, परिषद् आदि संस्थानों की गतिविधियों में कबायली जीवन की कुछ झलक मिल जाती है — समिति एवं परिषद की पहचान कबीले के लोगों से होती थी; यथा – ‘पंचालों की समिति।’ राजा की घोषणा ‘कबीले’ में होती थी। भूमि का दान भी राजा कबीले की अनुमति के बिना नहीं कर सकता था।

सभा और समिति

उत्तर-वैदिक युग के प्रारम्भ में ‘सभा’ और ‘समिति’ के अधिकारों में भी पर्याप्त वृद्धि हो गयी। अथर्ववेद में सभा और समिति को “प्रजापति की दो पुत्रियाँ”* कहा गया है।

  • सभा च मां समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविधाने।७/१२/१ – अथर्ववेद।*

इन दोनों संस्थाओं के स्वरुप के विषय में विवाद है :-

  • लुडविग का विचार है कि ‘सभा’ उच्च सदन (Upper House) थी जिसमें पुरोहित तथा कुलीन लोग भाग लेते थे। जबकि ‘समिति’ निम्न सदन (Lower House) थी जिसमें सामान्यजन के प्रतिनिधि बैठते थे।
  • जिगर का मत है कि सभा, ग्राम की संस्था थी तथा समिति सम्पूर्ण जन की केन्द्रीय समिति होती थी।
  • हिलब्रान्ट के मतानुसार समिति संस्था थी जबकि सभा उसको बैठक स्थल थी।
  • के० पी० जायसवाल का विचार है कि समिति राष्ट्रीय संस्था थी जबकि सभा उसको स्थायी समिति होती थी।
  • अल्तेकर के अनुसार सभा प्रायः ग्राम संस्था थी और उसमें सामाजिक तथा राजनीतिक दोनों विषयों पर विचार किया जाता था।

सभा में बहुमत से निर्णय लिये जाते थे। यह न्यायालय का भी कार्य करती थी। समिति का स्वरूप केन्द्रीय शासन की व्यवस्थापिका सभा के समान था। यह सभा से बड़ी जनता की संसद होती थी। केन्द्रीय शासन और सेना पर समिति का बहुत अधिक प्रभाव था। समिति के समर्थन पर ही राजा का भविष्य निर्भर करता था। समिति के विरुद्ध हो जाने पर राजा की स्थिति संकटपूर्ण हो जाती थी।

परन्तु सभा और समिति की रचना एवं कार्य-पद्धति के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। सम्भव है इसका स्वरूप एवं कार्य-पद्धति गणराज्यों की केन्द्रीय समितियों जैसा ही रहा हो जिसमें सैनिक एवं कुलीन वर्ग के प्रमुख व्यक्ति भाग लेते हो। संहिता और ब्राह्मण काल तक आते-आते समिति का प्रभाव कम हो गया और यह केवल ‘परामर्शदायिनी परिषद्’ ही रह गयी।

सभा और समिति के साथ-साथ हमें ‘विदथ’ नामक एक अन्य संस्था का भी उल्लेख मिलता है। अल्तेकर महोदय इसकी उत्पत्ति ‘विद्’ (जानना) से लगाते हुए इसे विद्वानों को परिषद् बताते हैं जहाँ धार्मिक एवं दार्शनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श होता था प्रशासन में यह भाग नहीं लेती थी। इसके विपरीत आर० एस० शर्मा इसे आर्यों की प्राचीनतम जनसभा (Folk-Assembly) मानते हैं। उनके अनुसार इसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही भाग लेते थे तथा यह सभी प्रकार के कार्यों — आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सैनिक आदि को सम्पन्न करती थी।*

  • Aspects of Political Ideas and Institutions in Ancient India. — R. S. Sharma.*

‘सभा’ और ‘समिति’ नामक संस्थायें इस समय भी राजा की निरंकुशता पर रोक लगाती थीं। राजा के निर्वाचन में भी जनता का हाथ होता था। अथर्ववेद के कुछ सूक्तों से पता चलता है कि राजा जनता की भक्ति और समर्थन प्राप्त करने के लिये सदा लालायित रहते थे। कुछ मन्त्रों से पता चलता है कि अन्यायी राजाओं को प्रजा दण्ड दे सकती थी तथा उन्हें राज्य से बहिष्कृत करने का अधिकार उसे था। पदच्युत राजाओं द्वारा पुनः अपना राज्य एवं ऐश्वर्य प्राप्त किये जाने के भी उल्लेख प्राप्त होते है। इस अवसर पर होने वाले विशेष संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है।

परन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि राजा की शक्ति में शनैः शनैः वृद्धि हो रही थी और उसकी निरंकुशता को नियंत्रित रखने वाली संस्थाओं की शक्तियों और भूमिका का ह्रास होता जा रहा था। दूसरे शब्दों में राजा की शक्ति में वृद्धि का स्वाभाविक परिणाम था कि सभा व समिति जैसी संस्थाओं का महत्त्वहीन होते जाना। एक बात और कि राजाओं की शक्ति में वृदि हो इसके लिये आवश्यक था कि वह प्रयासपूर्वक अपने ऊपर नियंत्रण रखने वाली राजनीतिक संस्थाओं को समाप्त करना शुरू करे और उसने किया भी यही। इस क्रम में पूर्व-वैदिक कालीन आर्यों की प्रचीनतम् संस्था ‘विदथ’ सर्वप्रथम समाप्त हो गयी। उसके बाद सभा और समिति के नियंत्रण को समाप्त कर दिया गया।

यद्यपि ‘अथर्ववेद’ में सभा और समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियाँ’ कहा गया है — इसका क्या अर्थ है? इसको हम इस तरह समझ सकते हैं कि उत्तर वैदिक काल के शुरुआती चरण में इनका महत्त्व बना हुआ था परन्तु अंतिम चरण तक आते-आते उनकी प्रतिष्ठा व शक्ति का पर्याप्त ह्रास हो चुका था।

पदाधिकारी / रत्निन्

राजा को ‘सैनिक’ तथा ‘न्याय’ सम्बन्धी कार्य मुख्य रूप से करने होते थे। युद्धों में वह सेना का संचालन करता तथा शान्ति के समय प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करता था। वह प्रधान दण्डधर था जिसके हाथ में दण्ड देने की सर्वोच्च शक्ति निहित थी।

यजुर्वेद की संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में राज्य के कुछ उच्च ‘पदाधिकारियों’ का उल्लेख मिलता है जिन्हें ‘रत्नी’ या ‘रत्निन्’ कहा गया है तथा ये ‘राजपरिषद्’ के सदस्य होते थे। रत्नियों/रत्निनों की सूची में राजा के सम्बन्धी, मन्त्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारीगण आते थे। इनकी ‘प्रथम श्रेणी’ में राजा की पट्टरानी और प्रिय रानी भी थीं क्योंकि इनका नाम संहिताओं में मिलता है। पुरोहित का भी नाम सर्वत्र रत्नियों की सूची में मिलता है। ‘विभागाध्यक्षों’ में सेनानी (सेनापति), सूत (रथ सेना का नायक), ग्रामणी/ग्रमिणी (गाँव का मुखिया), संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) तथा भागधुक (अर्थ मन्त्री) के नाम मिलते है। ‘दरबारी श्रेणी’ में क्षता (दौवारिक), अक्षावाप (आय-व्यय गणनाध्यक्ष अथवा द्यूत क्रीड़ा में राजा के साथी), पालागल (विदूषक) आदि सम्मिलित थे। शतपथ ब्राह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा (बढ़ई) तथा रथकार (रथ बनाने वाला) के नाम भी रत्नियों की सूची में ही मिलते है।

‘शतपथ ब्राह्मण’ में हमें सबसे अधिक १२ रत्निनों का उल्लेख मिलता है :

  • सेनानी / सेनापति : उत्तर-वैदिक काल में इसकी महत्ता ब्राह्मणों से अधिक हो गयी। ऐतरेय ब्राह्मण में सेनानी के महत्त्व का विवरण मिलता है।
  • पुरोहित : इसका भी महत्त्व था। शतपथ ब्राह्मण में इसके महत्त्व के उल्लेख है।
  • युवराज :
  • महिषी : मुख्य रानी
  • ग्रामिणी : ग्राम प्रमुख
  • सूत : राजा का सारथी
  • क्षत्ता या क्षता : दौवारिक ( प्रतिहार )
  • संग्रहीता : कोषाध्यक्ष
  • भागदुक : भू-राजस्व संग्रह करने वाला अधिकारी ( अर्थ मंत्री )
  • पालागल : विदूषक
  • अक्षावाप : द्यूत-क्रीड़ा में राजा का सहयोगी या आय-व्यय गणनाध्यक्ष
  • गोविकर्तन : आखेट में राजा का साथी अथवा जंगल का प्रमुख अधिकारी ( गवाध्यक्ष )
  • मौर्यकाल में कोषाध्यक्ष के लिये ‘सन्निधाता’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • मौर्यकाल में राजस्व संग्राहक अधिकारी के लिये ‘समाहर्ता’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • गुप्तकाल में ‘विदूषकों’ का विवरण मिलता है जो ब्राह्मण वर्ण/जाति के होते थे और राजा का मनोरंजन अथवा हँसाने का कार्य करते थे।

एक ओर हम देखते हैं कि उत्तर वैदिक काल में सभा, समिति जैसी संस्थाएँ अपना महत्त्व खोती जा रही थीं और राजा की महत्त्व में वृद्धि होती जा रही थी। इसका संकेत हमें राजा का राज्याभिषेक होने से मिलता है। राजा का राज्याभिषेक ‘राजसूय यज्ञ’ के साथ सम्पन्न होता था। साथ ही अब हम ‘अधिकारियों के एक वर्ग’ को पाते हैं जिनका महत्त्व बढ़ा हुआ पाते हैं। इन अधिकारियों को ही ‘रत्निन्’ कहा गया है। ये रत्निन् अपने कान में रत्न धारण करते थे

इन रत्नियों का प्रशासन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था। ज्ञात होता है कि ‘राजसूय यज्ञ’ के समय राजा स्वयं रत्नियों के घर जाकर उनका समर्थन प्राप्त करता और उन्हें ‘रत्न बलि‘ प्रदान करता था। अथर्ववेद वेद में ‘सूत और ग्रामिणी’ को ‘कर्तृ’ अर्थात् राजा बनाने वाला कहा गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में तो यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि राजा को राज्य प्रदान करने वाले रत्निन् ही होते हैं।*

  • एते वै राष्ट्रस्य प्रदातारः।*

इसके अतिरिक्त ‘स्थापति’ एवं ‘शतपति’ नामक दो प्रान्तीय पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं जो ‘रत्निन्’ नहीं थे। स्थापति सीमान्त प्रदेश का प्रशासक अथवा न्यायाधिकारी था। शतपति संभवत १०० ग्रामों के समूह का अधिकारी होता था। साथ ही तक्षन् / तक्षा ( बढ़ई ) और क्षत्ती ( कंचुकी – जो रनिवास की देखभाल करता था ) का उल्लेख मिलता है।

राजस्व व्यवस्था

उत्तर-वैदिक काल में कर प्रणाली की शुरुआत हो गयी थी। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में इसके लिये ‘भाग और बलि’ शब्द का प्रयोग मिलता है। संग्रहीता ( कोषाध्यक्ष ) और भागदुक ( अर्थमंत्री ) जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख इस बात की पुष्टि करते हैं। उत्तर-वैदिक काल में भू-राजस्व सोलहवाँ भाग ( १/१६ ) था।

अपनी सेवाओं के बदले राजा को अपनी प्रजा से कर तथा सेवा प्राप्त करने का अधिकार था। प्रारम्भ में यह भेंट, उपहारादि के रूप में ऐच्छिक था किन्तु धीरे-धीरे इसने नियमित कर (बलि) का रूप प्राप्त कर लिया।

करों का बोझ मुख्यतः सामान्य जन वैश्य वर्ण ( कृषकों, व्यापारियों, कलाकारों, शिल्पियों आदि ) पर ही पड़ता था। ब्राह्मण तथा राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के लोग अधिकांशतः राजकीय करों से मुक्त थे।

कर देने का कार्य केवल वैश्य वर्ग करता था इसलिए राजा का नाम ‘विशमत्ता’ अर्थात् विश को खा जाने वाला पड़ गया। दूसरी ओर करदाता होने के कारण ‘वैश्य’ वर्ग को ‘अन्यस्यबलिकृत’ और ‘अन्यस्याद्य’ कहा गया है।

सेना और न्याय

उत्तर वैदिक काल के दौरान ही भावी स्थायी सेना की अवधारणा के बीज भी सीमित रूप में दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि वह सजातीयता (Kinship) के नियम पर आधारित थी। ऐतरेय ब्राह्मण (३/४८ ) में कहा गया है कि कुरु नरेश सदा तैयार ६४ योद्धाओं से घिरा रहता है और ये योद्धा उसके पुत्र एवं पौत्र हैं। शतपथ ब्राह्मण (८/५/४/१६) में इस बात का उल्लेख है कि पंचाल नरेश शोण सात्रासाह द्वारा अश्यमेध यज्ञ सम्पन्न कराये जाते समय ६०३३ बख्तरबंद योद्धा तैयार थे।

अर्थात् इस काल में भी राजा के पास कोई स्थायी सेना नहीं थी तथा आवश्यकता पड़ने पर वह एक अस्थायी सेना का गठन कर लेता था।

इस काल में भी कोई न्याय प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी। यद्यपि पुलिस के लिये ‘उग्र’ और अपराधियों के लिये ‘जावगृभ’ जैसे शब्द मिलते हैं।

सामाजिक जीवन

परिवार

ऋग्वैदिक काल के समान इस समय भी संयुक्त परिवार की संस्था थी जो ‘पितृसत्तात्मक’ ही होते थे। पिता के अधिकार विस्तृत एवं उसकी शक्ति असीमित थी। वह अपने पुत्रों को बेच सकने, गृह निकाला करने आदि विषयों में स्वतन्त्र अधिकार रखता था। ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीगर्त ने अपने पुत्र शुनःशेप को १०० गौवे लेकर बलि के लिये बेंच दिया था। इसी तरह विश्वामित्र ने अपने ५० पुत्रों को आज्ञा न मानने के अपराध में घर से निकाल दिया था। किन्तु इस प्रकार के निर्णय विशेष परिस्थितियों में ही लिये जाते थे। सामान्यतः पिता का पुत्र एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ सम्बन्ध मृदुतापूर्ण थे।

वर्ण व्यवस्था

वर्णों में शनैः शनैः कठोरता आने लगी थी और अब वे ‘जाति’ के रूप में परिणत होने लगे थे परन्तु इस समय भी जाति प्रथा उतनी अधिक कठोर नहीं बनी जितनी आगे चलकर सूत्रकाल में होने वाली थी। व्यवसाय परिवर्तन कुछ कठिन सा हो गया था।

धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में चारों वर्णों (ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के कर्तव्यों, अधिकारों और स्थिति में अन्तर किया जाने लगा था। शतपथ ब्राह्मण में चारों वर्णों की अंत्येष्टि के लिये चार प्रकार के टीलों का (Funeral mounds) का विवरण मिलता है। सम्बोधन के भी अलग-अलग शब्द मिलते है। ब्राह्मण के लिये ‘एहि’ (आइये), क्षत्रिय के लिये ‘आगहि’ (आओ), वैश्य के लिये ‘आद्रव’ (जल्दी आओ) तथा शूद्र को ‘आधाव’ (दौड़कर आओ) कहकर संबोधित किये जाने का शब्द-विधान मिलता है। प्रत्येक वर्ण के उपयोग के लिये अलग-अलग रंग के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है। इन विवरणों से स्पष्ट है कि वर्ण-भेद उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही थी। चातुर्वर्ण्यों का विवरण निम्न प्रकार है :-

ब्राह्मण

ऋग्वैदिक काल में पुरोहितों की संख्या ७ थी जो उत्तर वैदिक काल में बढ़कर १७ तक पहुँच गयी। इनमें ऐसे पुरोहित जिनको ब्रह्म का ज्ञान होता था उनको ‘ब्राह्मण’ कहा गया है। ब्राह्मण यज्ञ व धार्मिक अनुष्ठान करते थे। वे युद्ध में राजा के विजय की कामना करते थे।

‘ऐतरेय ब्राह्मण’ से ज्ञात होता है कि क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों से अधिक अच्छी थी। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण जीविका चाहने वाला और दान लेने वाला बताया गया है। राजा जब चाहे पुरोहित/ब्राह्मण को हटा सकता है। यद्यपि ‘शतपथ ब्राह्मण’ में ब्राह्मणों के महत्त्व का विवरण मिलता है।

ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। ब्राह्मणों को दान लेने वाला (आदायी), सोमपायी, कार्यशील तथा इच्छानुसार भ्रमण करने वाला (यथाकाम प्रयाप्य) कहा गया है। कुछ उल्लेखों में ब्राह्मण को राजा से भी बड़ा बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि राजा अपनी शक्ति ब्राह्मण से ही प्राप्त करता है।

क्षत्रिय

यह शासक वर्ग था और राज्य की सुरक्षा से सम्बन्धित वर्ण था। ऐतरेय ब्राह्मण में इसकी श्रेष्ठता का विवरण मिलता है।

क्षत्रिय या राजा भूमि के स्वामी होते थे। वे देश की रक्षा के लिये युद्ध करते तथा प्रजा से कर लेते थे। ऐसा लगता है कि इस समय ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों में सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गयी थी। शतपथ ब्राह्मण में एक दूसरे स्थान पर क्षत्रिय को ब्राह्मण की अपेक्षा श्रेष्ठ बताता है। इस काल के कुछ क्षत्रिय शासक अपने ज्ञान के लिये विख्यात थे तथा वे ब्राह्मणों के भी शिक्षक थे।

वैश्य

वैश्य शब्द की उत्पत्ति ‘विश्’ शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘सामान्य जनता’ से है। समाज का यही वर्ग ‘करदाता’ था। इसीलिए वैश्य को ‘अन्यस्यवलिकृत’ और ‘अन्यस्याद्यः’ कहा गया है। ये वर्ण कृषि, व्यापार और उद्योग धन्धों में लगे रहते थे। उन्हें ‘आदय’ (भक्षणीय) कहा गया है जिससे तात्पर्य है कि वैश्य सामाजिक पुष्टि (पोषण) के आधार थे।

शुद्र

शुद्र वर्ण और शब्द का प्रथम बार उल्लेख ऋग्वेद के १०वें मण्डल के पुरुष सूक्त में मिलता है। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था कठोर हो चली थी जिसका सर्वाधिक असर वर्ण व्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़े शुद्र वर्ण पर पड़ा। शुद्रों का एकमात्र कार्य ऊपर के अन्य तीन वर्णों का सेवक ( अन्यस्य प्रेष्यः ) बताया गया है। लोग उसे मनमाने ढंग से उखाड़ फेंकते थे ( कामोत्थाप्यः )। साथ ही शुद्रों को ‘यथाकाम्यबधः’ अर्थात् उसका इच्छानुसार वध किया जा सकता था। परन्तु जी० सी० पाण्डेय ‘वध्य’ का अर्थ दण्डनीय बताते हैं।

शतपथ ब्राह्मण में भी शूद्रों को हीन परिस्थिति का उल्लेख प्राप्त होता है तथा बताया गया है कि शूद्र अभिषिक्त पुरुष द्वारा सम्बोधन के योग्य नहीं होता था।

चारों वर्णों का अंतर्सम्बन्ध

समाज स्पष्टत वर्ण-व्यवस्था पर आधारित था। वर्ग इस प्रकार बँटे हुए थे कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अनुत्पादी होते हुए भी विशेषाधिकार-संपन्न थे और वे ही उत्पादन के नियंत्रणकर्ता थे। वैश्य और शुद्र वर्ण उत्पादन के लिये उत्तरदायी थे।

चातुर्वर्ण्यों के पारस्परिक सम्बन्धों पर दृष्टिपात पर लेना अनुचित न होगा। यद्यदि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ही विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग के थे, तथापि फिरभी उनमें आपस में तनाव के संकेत भी दृष्टिगोचर होती है। उत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में ‘ब्रह्म एवं क्षत्र’ तथा ‘मित्र एवं वरुण’ के जिस द्वंद्व का उल्लेख है, वह ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के पारस्परिक मनमुटाव का प्रतीक है। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये यदा-कदा आपस में साँठ-गाँठ भी कर लेते थे।

परन्तु प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन दोनों में संघर्ष क्यों? इस संघर्ष का कारण समाज में प्रथम स्थान प्राप्त करने की लालसा जनित संघर्ष बताया गया है। साथ ही इस संघर्ष का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण अधिशेष उत्पादन पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिये था।

चूँकि ब्राह्मण तो सभी ओर से लेने वाले थे, जबकि क्षत्रियों को स्वयं दान भी देना पड़ता था, अतः यह कहा जा सकता है कि क्षत्रिय वर्ग की आवश्यकताएँ कहीं अधिक थीं। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि क्योंकि क्षत्रिय वर्ण राजकाज से सम्बद्ध थे इसलिए प्रशासन सम्बन्धी आवश्यकएँ भी थीं।

ऐसा प्रतीत होता है कि संघर्ष में पराजित होने के पश्चात् जब और कोई विकल्प न रहा तो ब्राह्मणों ने वास्तविक शक्ति अर्थात् अधिशेष उत्पादन का नियंत्रण क्षत्रियों पर छोड़ दिया और समझौते के तौर पर स्वयं आदरसूचक प्रथम स्थान स्वीकार करके संतोष लिया।

ऐतरेय ब्राह्मण का वह अंश (७/२९)* जिसमें ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्रों का सम्बन्ध क्षत्रियों से दिखाया गया है। यह विवरण स्पष्ट रूप से क्षत्रियोंकी विजय का प्रतीक है। राजसूय में जब सिंहासनारोहण के समय चार प्रमुख पुरोहितों द्वारा राजा को ‘परमश्रेष्ठ ब्राह्मण’ के रूप में घोषित किया जाता था, तो वह भी उपर्युक्त समझौते का प्रतीकात्मक स्वरूप है। यह संभवतः उपनिषदों के रचनाकाल से पहले हो चुका होगा, क्योंकि इन ग्रंथों में तो क्षत्रियों ने ब्राह्मणों को धर्म के क्षेत्र में भी सफलतापूर्वक चुनौती दी है। क्या यह सम्भव नहीं है कि अपनी शक्ति को स्थापित करने के उद्देश्य से राजा ने लोगों को आतंकित भी किया हो।

  • इसके विवेचन के लिये देखिये – अरविंद शर्मा कृत ‘An Analysis of three Epithets Applied to the Shudras in Aitareya Brahmana (7/29/4). यह Journal of the Economic and Social History of the Orient; Vol. 18, no. 3, Oct. 1975, p. 300-317. ( total – 18 page ) में प्रकाशित।*

मुद्रा प्रणाली* का प्रादुर्भाव अभी तक नहीं हुआ था अतः बलि, शुल्क, भाग आदि जो राजा को दिये जाते थे, वे वस्तुओं के रूप में होते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रमुख खाद्य उत्पादक वैश्य वर्ण पर अत्यधिक दबाव रहता होगा।

  • वैदिक साहित्यों में वर्णित ‘निष्क’ कोई नियमित स्वर्ण मुद्रा न होकर उस धातु का एक ढेर मात्र था। अभी तक हुए उत्खननों कोई भी ऐसी मुद्रा प्राप्त नहीं हुई है जिसे उत्तर वैदिक काल का बताया जा सके। कौशांबी के उत्खननकर्ता जी० पार० शर्मा का यह दावा है कि उन्हें वहाँ पर ईसा पूर्व नवीं शताब्दी का एक ताँबे का सिक्का मिला है, परन्तु विद्वानों को यह ग्राह्य नहीं है।*

ऐतरेय ब्राह्मण (८/१७) में राजा को ‘विशमत्ता’ अर्थात्, उत्पादक वर्गों का भक्षक बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में अनेक अवतरणों में कहा गया हैं कि क्षत्रिय वर्ग किस प्रकार कृषकों पर हुक्म चलाता था।*

  • India of the age of the Brahmanas : Ancient Indian Culture and Civilization as revealed in Brahmanas, 1969, p. 115-116 – Jogiraj Basu. *

ऐसे विश की घोर भर्त्सना की गयी है जो शासक का आदेश न माने अथवा उसको नीची निगाह से देखे।

कृषकों को क्षत्रिय शक्ति के अधीन बनाये रखने में ब्राह्मण वर्ण ने भी कोई कसर न छोड़ रखी थी। कृषकों की अपनी कठिनाइयाँ कुछ कम नहीं थीं — पक्षी, कीड़े-मकोड़ों आदि से उन्हें फसल को बचाना पड़ता था और उस पर भी राजा के दबाव को देखते हुए उनकी दशा की कल्पना की जा सकती है।

शतपथ ब्राह्मण में विवरण मिलता है कि युद्धकाल में विजय की कामना से राजा लोगों के साथ एक ही पात्र में भोजन करता था। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि राजा और विश् के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे — ऐसा अधिकाधिक संकट की स्थिति में ही होता था। इस सन्दर्भ में यह बात भी भुलायी नहीं जा सकती कि उत्पादन के अपने नियमित कर्तव्य के अतिरिक्त वैश्यों को सैनिक सेवाएँ भी देनी पड़ती थीं।

विश् का सम्बन्ध सेना से भी था और बल की तादात्म्यता विश् से की जाती थी। निश्चित एवं नियमित करारोपण के अभाव में किसी प्रकार की केंद्रीय स्थायी सेना का विकास सम्भव न था। यह सत्य है कि किसी कृषक विद्रोह का उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु क्या यह सम्भव नहीं कि उपनिषदों में जो कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है, वह इसी प्रकार के विद्रोह को काबू में रखने के लिये ही किया गया हो? और फिर एक दृष्टांत तो ऐसा मिलता ही है, जब कि करों के बोझ के कारण दक्षिणी पंचाल के लोग उत्तर में चले गये थे। शूद्रों की हालत तो और भी दयनीय थी। सभी ऊँचे वर्गों की सेवा करना तो उनका कर्त्तव्य था ही, किंतु राजा अपनी इच्छानुसार इन्हें आतंकित कर सकता था अथवा पीट भी सकता था।

जाति के उदय की पूर्व-पीठिका

समाज में अनेक आर्थिक श्रेणियों (Guilds) का उदय हुआ जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगी थीं। व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे। चर्मकारों, रथकारों, धातुकारों आदि की अलग-अलग जातियाँ बन गयी। यद्यपि कुछ सीमा तक अन्तर्वर्ण विवाह होते थे।

परन्तु इस समय तक समाज में ‘अस्पृश्यता’ की भावना का उदय नहीं हुआ था। उपनिषदों में उल्लिखित सत्यकाम जाबालि तथा जानश्रुति की कथाओं से स्पष्ट है कि शूद्र दर्शन के अध्ययन से वंचित नहीं किया गया था। शतपथ ब्राह्मण सोमयज्ञ में शूद्र को स्थान देता है। वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में कहा गया है कि ‘ब्रह्मलोक में सभी समान माने जाते हैं। अतः चाण्डाल भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी है।

उत्तर वैदिक काल में एक अन्य वर्ग ‘रथकार’ की अच्छी दशा का उल्लेख मिलता है। उसका भी उपर्युक्त तीन वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य ) की भाँति ‘उपनयन’ संस्कार होता था।

महिलाओं की स्थिति

सामाजिक जीवन के अन्य पहलुओं में कुल का उल्लेख दृष्टव्य है, जो कि ऋग्वेद में अप्राप्त है। यद्यपि एक पत्नी विवाह के आदर्श को अब भी मान्यता प्राप्त थी, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि बहुपत्नी विवाह भी पर्याप्त रूप से प्रचलित था और सबसे पहली पत्नी को मुख्य पत्नी होने का विशेषाधिकार प्राप्त था। लड़की का बिकना असम्भव नहीं था, हालाँकि इसे बहुत अच्छा नहीं समझा जाता था।

ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की दशा में कुछ गिरावट आयी यद्यपि समाज में महिलाओं की दशा परवर्ती काल की अपेक्षा अच्छी थी। राजनीतिक संस्था ‘विदथ’ तो महत्त्वहीन हो चुकी थी साथ ही ‘सभा’ शनैः शनैः अपना महत्त्व खोती जा रही थी। इन दो संस्थाओं में महिलाएँ की भागीदारी होती थी अतः इसका स्पष्ट अर्थ है महिलाओं की दशा में शनैः शनैः गिरावट का आना।

यद्यपि बालविवाह नहीं होते थे फिरभी विवाह की आयु जो ऋग्वैदिक काल में १६ वर्ष थी वह उत्तर वैदिक काल में घटकर १४ वर्ष हो गयी। बहुविवाह तथा विधवा विवाह प्रचलित थे। मैत्रायणी संहिता में मनु की १० पत्नियों का उल्लेख मिलता है।

स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी। हमें अनेक विदुषी महिलाओं के विवरण मिलते हैं; यथा – गार्गी, शुभला, वेदवती, काशकृत्सनी आदि। साथ ही याज्ञवल्क्य की कूदो पत्नियों मैत्रेयी और कात्यायनी की विवरण मिलता है।

बृहदारण्यक उपनिषद्* में उल्लिखित ‘याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद’ जहाँ इस बात का द्योतक है कि स्त्रियाँ समाज में उच्चतम् स्थित प्राप्त करती थीं। याज्ञवल्क्य जैसे विद्वान ऋषि को चुनौती दे सकती थीं।

  • बृहदारण्यक उपनिषद् ( ३/६ )।*

शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को ‘अर्धांगिनी’ कहा गया है।

वे उत्सवों और धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थीं। परन्तु उन्हें अब भी राजनीतिक तथा सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम हो गयी थी।

पितृप्रधान समाज में पुत्र की कामना स्वाभाविक है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ (७/१५) स्पष्टतः कन्या के चिन्ता का कारण अथवा दुःखों का स्रोत बताता है और पुत्र को परिवार का रक्षक। ‘अथर्ववेद’ भी कन्याओं के जन्म की निन्दा करता है। ‘मैत्रायणी संहिता’ में तो स्त्री को द्यूत तथा मदिरा की श्रेणी में रखकर तीन बुराइयों में गिनाया गया है

परवर्तीकाल में स्त्रियों सम्बन्धित अनेक बुराइयाँ अभी तक जन्मी नहीं थीं; यथा – बालविवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा आदि। दास प्रथा भारतीय इतिहास के प्रत्येक कालखण्ड में विद्यमान रही है एकमात्र ‘संगम काल’ को छोड़कर। सीमित अर्थों में दहेज प्रथा भी प्रचलित थी।

समाज का शेष जनजीवन — जैसे; खान-पान, मनोरंजन, वस्त्राभूषण आदि ऋग्वैदिक काल के समान ही थे।

गोत्र

उत्तर वैदिक काल में ‘गोत्र प्रथा’ की शुरुआत हुई। अथर्ववेद में इसका अर्थ ‘एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों के कुल से मिलता है।’ यद्यपि ऋग्वेद में भी ‘गोत्र’ का उल्लेख है परन्तु वहाँ पर इसका अर्थ ‘गोष्ठ’ अर्थात् वह स्थान जहाँ एक ही कुल की गायें पाली जाती थीं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

आश्रम व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में ही आश्रम व्यवस्था की शुरुआत हुई। आश्रम का शाब्दिक अर्थ है ‘श्रम करते करते विराम करना’ जिससे नये श्रम की तैयारी की जा सके। एक सनातनी के जीवनकाल को १०० वर्ष का मानकर उसे ४ आश्रमों में विभाजित किया गया है :

  • ब्रह्मचर्य
  • गृहस्थ
  • वानप्रस्थ
  • संन्यास

इन चार आश्रमों में प्रथम तीन आश्रम ही ज्ञात थे जबकि चतुर्थ आश्रम ‘संन्यास’ अज्ञात था। प्रथम तीन आश्रमों का सबसे पहले उल्लेख ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ में प्राप्त होता है। जबकि चारों आश्रमों का एक साथ उल्लेख ‘जाबाल उपनिषद्’ में मिलता है। जबाल उपनिषद् परवर्ती रचना है।

देखिये – आश्रम व्यवस्था

त्रि-ऋण

जन्म से ही एक सनातनी भारतीय के ऊपर तीन होते हैं जिनसे ऊऋण होना आवश्यक है।

  • देव ऋण – देवताओं को यज्ञादिक माध्यम से प्रसन्न करना।
  • ऋषि ऋण – प्राचीन वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करके ऋषि ऋण से ऊऋण होना होता है।
  • पितृ ऋण – पुत्र रत्न उत्पन्न करके पिता के ऋण से ऊऋण होने का विधान है।

यहाँ पर यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि इन तीन ऋणों में ‘मातृ ऋण’ नहीं है। साथ ही पितृ ऋण का सम्बन्ध पुत्र की प्राप्ति से है न कि ‘कन्या जन्म’ अथवा ‘सन्तान प्राप्ति’ से।

इन त्रिऋण का सम्बन्ध गृहस्थ आश्रम से है। क्योंकि गृहस्थाश्रम में रहते हुए ही एक सनातनी भारतीय इन त्रि-ऋणों से मुक्त होता है।

पंचमहायज्ञ

पंचमहायज्ञ का विधान भी ‘गृहस्थाश्रम’ के लिये था। इसमें सम्मिलित है :

  • ब्रह्म यज्ञ / ऋषि यज्ञ – इसमें वेदों का अध्ययन और यज्ञादिक के माध्यम से प्राचीन ऋषियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती थीं।
  • देव यज्ञ – यज्ञादिक माध्यमों से देवताओं को प्रसन्न करना।
  • पितृ यज्ञ – यह मृत पितरों की आत्मा की शान्ति के लिये सम्पन्न किया जाता था। इसमें पितरों को तर्पण, श्राद्ध आदि दिया जाता है।
  • मनुष्य यज्ञ / नृ यज्ञ / अतिथि यज्ञ – इसका उद्देश्य अतिथियों की सेवा करना है।
  • भूत यज्ञ – इसके द्वारा भूत-प्रेत एवं सम्पूर्ण चराचर को प्रसन्न किया जाता है। ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’ इसका आदर्श है।

पुरुषार्थ व्यवस्था

पुरुषार्थों का आश्रम व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तुतः आश्रमों में इन्हीं पुरुषार्थों की प्राप्ति की जाती है। पुरुषार्थों का संख्या चार है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रथम तीन को ‘त्रिवर्ग’ कहा गया है। जबकि मोक्ष शामिल होने के बाद इसको ‘चतुर्वर्ग’ कहा जाने लगा।

  • धर्म – यह ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ है धारण करना अर्थात् जो वस्तु धारण की जाय या जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है।
  • अर्थ – इसका अर्थ ‘धन’ से है। परन्तु इसको धर्मानुकूल ग्रहण करने का निर्देश है।
  • काम – भारतीय सनातनी पद्धति में इसका अर्थ ‘पुत्र’ प्राप्ति से है।
  • मोक्ष – यह जीवन का चरम लक्ष्य या परम उद्देश्य है। यह पुरुषार्थ ‘वैदिक काल के बाद में प्रचलित हुआ।

विस्तृत विवरण के लिये देखिये – पुरुषार्थ व्यवस्था और उसके सामाजिक निहितार्थ

आर्थिक जीवन

उत्तर वैदिक काल में आर्यों के जीवन में स्थायित्व आने और लोहे के प्रयोग के कारण आर्थिक जन-जीवन में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने लगे जो आगे चलकर वैदिकोत्तर काल में द्वितीय नगरीय क्रांति के लिये पृष्ठभूमि का निर्माण कर रहे थे। कृषि और पशुपालन अब भी आर्थिक जीवन के मुख्य आधार थे। परन्तु कृषि का महत्त्व अपेक्षाकृत बढ़ता जा रहा था।

दूसरे शब्दों में लोगों के आर्थिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उनके स्थायित्व में दृष्टिगोचर होता है और यह कृषि के अधिकाधिक प्रसार व उन्नति का परिणाम था जिसका तकनीकी आधार लोहा था।

चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (PGW) एवं उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड (NBPW) पुरातात्त्विक संस्कृतियों से लोगों के स्थायी जीवन की पुष्टि होती है। यद्यपि विभिन्न सीमाओं के बावजूद ये दोनों पात्र परम्पराएँ उत्तर वैदिक काल की कृतियाँ माना जा सकता है।

कृषि

यद्यपि अथर्ववेद में मवशियों की वृद्धि के लिये अनेक प्रार्थनाएँ हैं, किंतु उत्तर वैदिक काल में कृषि ही लोगों का प्रमुख व्यवसाय था। ऋग्वेद में कृषि का विवरण पशुपालन की अपेक्षा कम प्राप्त होता परन्तु उत्तर वैदिक साहित्यों में इसके प्रभूत विवरण मिलते हैं :

  • तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है – ‘अधिक अन्न उपजाओ।’
  • खेत हलों द्वारा जोते जाते थे। अस्थियों जैसे सख्त खदिर और कत्था से निर्मित फाल का वर्णन हमें मिलता है।
  • यद्यपि पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, किंतु इस काल के साहित्य में तो प्रवीरवन्त अथवा पवीरव (धातु की चोंच वाला फाल) का भी उल्लेख है।
  • दात्र अथवा सृणि अर्थात् दराँती के कतिपय अवशेष तो उत्खननों में भी मिले हैं (अतरंजीखेड़ा से)।
  • ‘काठक संहिता’ में २४ बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हलों का विवरण मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में ६, ८, १२ और २४ बैलों द्वारा खेतों की जुताई का विवरण मिलता है।
  • शतपथ ब्राह्मण (७/२/२) में कृषि से सम्बन्धित सम्पूर्ण प्रक्रिया या चारों प्रक्रियाओं का विवरण मिलता है; यथा — जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई (कृषन्तः वपन्त लुनन्तः मृणन्तः) का विवरण।
  • ‘वाजसनेयी संहिता’ में कई प्रकार के धान्यों का उल्लेख है। जौ, चावल, मूँग, उड़द, तिल और गेहूँ आदि प्रमुख अनाज थे।
  • लोग खाद के प्रयोग से पूर्णतया परिचित थे। अथर्ववेद में पशुओं को प्राकृतिक खाद को मूल्यवान बताया गया है।
  • कृषि सम्बन्धित आपदाओं; यथा – अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि को दूर करने के लिये अनेक प्रकार के मन्त्रों एवं आचारों का विधान मिलता है।
  • वाजसनेयी संहिता में विभिन्न अन्नों को बोने तथा पकने का समय दिया गया है।

लोहे के प्रयोग से जहाँ एक ओर जंगलों को साफ करके अधिक भूमि को कृषि योग्य बनाने में सफलता मिली वहीं लोहे के फाल से अधिक गहरी जुताई सम्भव हुई। इस प्रक्रिया में जब हम ‘अग्नि’ का सहयोग जोड़ लेते हैं तो परिदृश्य और स्पष्ट हो जाता है जिसका विवरण हमें शतपथ ब्राह्मण में ‘विदेघ माधव’ आख्यान से प्राप्त होता है।

उत्तर वैदिक काल में लगभग सभी प्रकार के धान्यों का विवरण मिलने लगता है। कृषि और उससे सम्बन्धित कुछ शब्दावलियाँ निम्न हैं –

प्रयुक्त शब्द अर्थ
सीर हल का फाल ( लोहे का बना हुआ )
यव जौ
गोधूम गेहूँ
व्रीहि या तंदुल चावल
शारिशाका सरसों
माष उड़द
उम्पा अलसी
शण सन
इच्छु गन्ना
करीश या करीष गोबर की खाद

गन्ना का प्राचीनतम् पुरातात्त्विक प्रमाण ‘हस्तिनापुर’ से प्राप्त हुआ है। सिंचाई के लिये अथर्ववेद में कुल्या ( नहर ) का उल्लेख तो मिलता है परन्तु बड़े पैमाने पर अभी भी इसका प्रचलन नहीं था।

हमें फसल के दो प्रकार के होने का विवरण मिलता है :

  • कृष्टिपच्य – खेती करके उपजायी जाने वाली फसल।
  • अकृष्टपच्य – बिना खेती किये स्वतः पैदा होने वाली फसल।

उत्तर वैदिक काल में अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का तकनीकी आधार ‘लोहे का प्रयोग’ था। प्रारम्भ में इसका उपयोग अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में किया गया किन्तु बाद में इसकी सहायता से कृषि यन्त्रों का भी निर्माण किया गया। लौह तकनीक ने कृषि उत्पादन के क्षेत्र में एक महान् परिवर्तन उत्पन्न कर दिया।

ऋग्वेद की तुलना में उत्तर वैदिक साहित्य में विभिन्न अनाजों का वर्णन है। सौभाग्यवश अतरंजीखेड़ा से हमको चावल और गेहूँ के साक्ष्य भी मिल गये हैं। हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। प्राकृतिक गोबर खाद और ऋतुओं के ज्ञान का कृषि प्रक्रिया में उपयोग भी तत्कालीन विकसित कृषि प्रणाली का द्योतक है।

यद्यपि उत्पादन की मात्रा का अनुमान लगाना असंभव है। परन्तु चूँकि समाज में स्पष्टतः ब्राह्मण एवं क्षत्रिय जैसे अनुत्पादी युगों का उदय हो चुका था। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कृषक अपनी आवश्यकता से कहीं अधिक उत्पादन करने की क्षमता रखते थे। यह उत्दापन अधिशेष निरंतर बढ़ता जा रहा था और जो वैदिकोत्तर काल में आने वाले नगरीय क्रांति के पोषण का आधार बनने वाला था।

पशुपालन

कृषि का महत्त्व बढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि पशुपालन का महत्त्व कम हो गया था। पशुपालन और कृषि एक दूसरे के सहयोगी बनकर उभरे। अर्थव्यवस्था का आधार ही कृषि और पशुपालन था। उत्तर वैदिक काल के साहित्य में कई स्थलों पर पशुधन की वृद्धि के लिये प्रार्थनायें की गयी है।

पशुओं में गाय, वृषभ, भेड़, बकरी, गर्दभ, सूकर आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे। अब हमें बाघ और हाथी ( हस्ति या वरण ) का भी उल्लेख मिलता है। इस समय लोग ‘हाथी’ को भी पालना प्रारम्भ कर दिये थे। जो व्यक्ति हाथियों पर अंकुश रखता रखता था उसे ‘हस्तिव्य’ कहा गया है।

गाय की पवित्रता बढ़ती हुई दिखायी देती है। अथर्ववेद में गाय के प्रति सम्मान का उल्लेख मिलता है। जो यज्ञों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर गोवध करते थे उनके लिये मृत्युदण्ड का विधान मिलता है।

शिल्प और उद्योग

कृषि के अतिरिक्त, विभिन्न प्रकार के शिल्पों का उदय भी उत्तर वैदिक-कालीन अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता थी। इन विभिन्न व्यवसायों में से अनेक का विवरण हमें पुरुषमेध के विवेचन में मिलते है जिनमें धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्भकार, व्यापारी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। कुल मिलाकर उत्तर वैदिक काल विविध शिल्पों और उद्योग निम्न थे — स्वर्णकार, रथकार, चर्मकार, जुलाहे, रज्जुकार, रजक, मछुए, लुहार, नायक, नर्तक, सूत, व्याध, गोप, कुम्भकार, वैद्य, ज्योतिषी, नाई, इत्यादि प्रमुख है।

व्यवसाय शनैः शनैः वंशानुगत होते जा रहे थे। वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस समय के विभिन्न व्यवसायियों की एक लम्बी सूची मिलती है। इनमें प्रमुख हैं –

शब्द अर्थ
कुलाल कुम्भकार

उत्तर वैदिक काल के प्रमुख मृद्भाण्ड हैं

विदलकार वेंत का व्यवसाय करने वाला
कंटकीकार बाँस की वस्तुएँ बनाने वाला
स्वर्णकार सोने की धातु पर काम करने वाला
रज्जुसर्ज रस्सी बटने वाला
अयसताप धातुओं को गलाने वाला
चर्मकार चमड़े पर कार्य करने वाला
रंगरेज कपड़े पर रंगाई करने वाला

उत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में निम्नलिखित धातुओं का उल्लेख प्राप्त होता है –

शब्द अर्थ
अयस और लोहित अयस ताँबा
श्याम अयस / कृष्ण अयस लोहे
रुक्म या रूप्य* चाँदी
त्रपु टिन
शीशा सीसा

उत्तर वैदिक काल में सिक्कों की शुरुआत नहीं हुई थी। वैदिक काल की समाप्ति के तत्काल बाद हमको आहत सिक्कों के प्रचलन का साक्ष्य मिलता है। उत्तर वैदिक काल के साहित्यों में रुक्म या रूप्य शब्द चाँदी के लिये प्रयुक्त हुआ है। आगे चलकर ‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’ ने काटियावाड़ की विजय ( शकों को पराजित करने पर ) के बाद ‘व्याघ्र शैली’ का सिक्का ‘रुप्यक’ प्रचलित किया जिसका भार ३२.३६ ग्रेन था। मध्यकाल में शेरशाह सूरी ने चाँदी का सिक्का ‘रुपया’ प्रचलित किया। वर्तमान में भारतीय मुद्रा को रुपया कहा जाता है जिसका प्रतीक ₹ है। कागज के रूपये का प्रचलन लार्ड कैनिंग के किया गया था।

स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, ताँबा, चाँदी, शीशा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे। लौह धातु के ज्ञान से इनके भौतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ

पुरातात्त्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ई० पू० १,००० के लगभग लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था। ईसा पूर्व सातवीं शती तक लोहे का प्रसार पूर्वी उत्तर प्रदेश तक हो गया। अतरंजीखेड़ा के उत्खनन से हँसिए (दात्र) के अवशेष तथा जौ, चावल और गेहूँ के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। उत्तर वैदिक साहित्य में लोहे को ‘कृष्ण अयस्’ कहा गया है।

इन धातुओं से विविध प्रकार के औजार, हथियार एवं आभूषण बनाये जाते थे। अनेक व्यक्ति अपने व्यवसाय में निपुणता भी प्राप्त कर चुके थे। स्त्रियाँ रंगाई, सूईकारी आदि में निपुण थीं। दूसरे शब्दों में बुनाई का कार्य केवल महिलाएँ करती थीं। लोग अभी भी घास-फूस और मिट्टी से बने कच्चे घरों में रहते थे।

बाट-माप की इकाइयाँ

निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयाँ थीं। बाट की मूलभूत इकाई संभवतः ‘कृष्णल’ था। ‘रत्तिका’ तथा ‘गुंजा’ भी उसी के समान थे। प्राचीन भारत की बाट पद्धति में रत्तिका का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। साहित्य में इसे ‘तुलाबीज’ कहा गया है।

उत्तर वैदिक कालीन साहित्यों में माप और बाट सम्बन्धित अनेक शब्द मिलते हैं :

  • रत्ती या रत्तिका — यह तौल की प्रारम्भिक इकाई मानी जाती है। यह गुंजा का लाल दाना है। इसको साहित्यों में ‘तुलाबीज’ कहा गया है।
  • द्रोण — यह अनाज और ठोस वस्तुओं के मापने की इकाई थी।
  • निष्क — स्वर्ण धातु। वस्तु विनिमय में प्रयुक्त।
  • शतमान — चाँदी धातु। वस्तु विनिमय के लिये प्रयुक्त।
  • पाद या कृष्णल — ताँबा धातु। वस्तु विनिमय के लिये प्रयुक्त।

व्यापार और वाणिज्य

जल तथा थल दोनों मार्गों से व्यापार होते थे। शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रों का उल्लेख हुआ है। वाजसनेयी संहिता में १०० डाड़ों वाले जलपोतों का उल्लेख हुआ है।

यद्यपि ऋग्वेद में समुद्र का उल्लेख तो मिलता है परन्तु समुद्र शब्द का आशय वास्तविक समुद्र से ही था इस पर विवाद है। परन्तु उत्तर वैदिक काल में आर्यों को समुद्र का ज्ञान हो गया था और इसमें कोई संदेह नहीं है। समुद्र और समुद्र यात्रा की चर्चा स्पष्ट रूप से मिलता है। यह व्यापार और वाणिज्य का किसी न किसी रूप में परिचायक है।

‘पणि’ और ‘बृबु’ व्यापारियों का उल्लेख अभी भी मिलता है। इनका विवरण ऋग्वेद में भी मिलता है।

उत्तर-वैदिक काल में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नति पर थे। इस काल के साहित्यों में व्यापारियों की अनेक श्रेणियों का विवरण मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में श्रेष्ठी का भी उल्लेख है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी ‘श्रेष्ठिन्’ शब्द मिलने से व्यापारिक श्रेणियों का अनुमान लगाया जाता है। ‘श्रेष्ठिन्’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था। परन्तु बुद्धकालीन सेट्ठियों से उनकी तुलना व्यर्थ है। राजसूय यज्ञ के दौरान ‘रत्नवींषि’ अनुष्ठान के समय जब राजा तक्षण एवं रथकार के भी घर जाता था, तब भी श्रेष्ठियों को ‘रत्निन्’ का दर्जा प्राप्त नहीं था

ब्याज पर धन देने का व्यवसाय पर्याप्त रूप से प्रचलित था। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिये ‘कुसीद’ शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिये ‘कुसीदिन्’ शब्द मिलता है।

अथर्ववेद में मगध, अंग, कौशाम्बी और हस्तिनापुर जैसे नगरों के उल्लेख मिलने लगते हैं। परन्तु इन्हें नगर की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है हाँ अधिक से अधिक इन्हें ‘आद्य नगर’ या ‘गर्भावस्था के नगर’ की संज्ञा दे सकते हैं।

परन्तु यह कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में भौतिक अवस्था में भारी उन्नति हुई। वस्तुओं का लेनदेन बढ़ने लगा जिसमें सोना, चाँदी, ताँबा आदि सभी धातुओं का प्रयोग किया जाने लगा। परन्तु हमें अभी भी न तो किसी ‘बंदरगाह’; ‘बाह्य देश’ और न ही सिक्के का उल्लेख मिलता है। अतः कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक कालीन समाज ‘शुद्ध ग्रामीण समाज’ था। जिसमें लोग आपसी लेनदेन के आधार पर व्यापार करते थे।

सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक कालीन आर्यों का भौतिक जीवन पहले की अपेक्षा विकसित था। उत्तरी गंगा घाटी में आर्य स्थायी रूप से बस गये तथा प्रभूत मात्रा में कृषि उत्पादन होने लगा था।

धर्म तथा दर्शन

उत्तर-वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। अनेक ऋग्वैदिक देवताओं का महत्त्व घट गया तथा उनके स्थान पर नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई। उत्तर वैदिक काल में उन देवताओं का महत्त्व बढ़ता जा रहा था जो सर्जन अथवा निर्माण के देवता थे। ऋग्वैदिक काल के वरुण, इन्द्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव ने ले लिया।

  • सृजन या निर्माण के सर्वोच्च देवता के रूप में ‘प्रजापति’ का महत्त्व हम बढ़ा हुआ पाते हैं। पूर्व के देव ‘हिरण्यगर्भ’ और ‘विश्वकर्मा’ इसी में ( प्रजापति ) समाहित हो गये। प्रजापति को ‘मत्स्य’ और ‘वाराह’ के रूप में भी प्रदर्शित किया गया।
  • प्रजापति के बाद ‘विष्णु’ का महत्त्व था। विष्णु देव का प्रजापालक के रूप में प्रतिष्ठित थे।
  • इस काल में ‘रुद्र’ के महत्त्व में विशेष रूप से वृद्धि हुई। जिस रुद्र देव को हम ऋग्वैदिक काल में गौण देवता के रूप में पाते हैं और वहाँ पर उनका क्रोधी स्वभाव देखने को मिलता हैं। परन्तु उत्तर वैदिक काल में रूद्र के स्वभाव में हमें ‘कोमल’ और ‘कठोर’ दोनों स्वभाव का समन्वय विकसित होते हुए पाते हैं। रुद्र के विविध नाम हमें मिलते हैं; यथा – शिव, महादेव, हर, भीम, ईशान, पशुपति आदि।
  • ‘पूषन्’ जहाँ ऋग्वैदिक काल में वनस्पतियों एवं पशुओं का देवता था परन्तु उत्तर वैदिक काल में वह अब ‘शुद्र वर्ण/जाति’ का देवता रह गया।

यज्ञ और कर्मकाण्ड

उत्तर वैदिक काल में यज्ञीय विधि-विधान अत्यन्त विस्तृत एवं जटिल हो गये और कर्मकाण्डों का बोलबाला हो गया। यहाँ तक कि प्रत्येक वेद से सम्बन्धित अलग-अलग पुरोहित हो गये जिनका विवरण प्रस्तुत सारणी में है :-

वेद सम्बन्धित पुरोहित
ऋग्वेद होतृ / होता

यह देवताओं के आवाहन से सम्बन्धित था।

यजुर्वेद अध्वर्यु

यह कर्मकाण्डों से सम्बन्धित था।

सामवेद उद्गातृ / उद्गाता

यह ऋचाओं का गायन करता था।

अथर्ववेद ब्रह्म / ऋत्विज

यह उपर्युक्त सभी पुरोहितों का यज्ञ के समय निर्देशन करता था। अतः कहा जा सकता है कि ब्रह्म ( ब्रह्मा ) या ऋत्विज के निर्देशन या देखरेख में अध्वर्यु अपने कर्मकाण्ड का सम्पादन करता था।

यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गयी तथा अन्य आहुतियाँ गौड़ होने लगीं। उत्तर वैदिक काल में विविध प्रकार के यज्ञ प्रचलित हो गये। इनमें से कुछ यज्ञ बहुत बड़े होते थे जिनको राजा अपने प्रजा के साथ सम्पादित करते थे। जबकि कुछ मुहल्ले के लोगों के साथ-साथ करता था। ऐसे भी यज्ञ थे जो परिवार के लोग संपादित करते थे। राजसूय, वाजपेय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। अग्निष्टोम, दर्श और पूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयण, निरुद्-पुशुबन्ध, सौत्रामणि, पिण्डपितृ, षोडसी, अतिरात्र, पुरुषमेध आदि विविध प्रकार के यज्ञों का भी उल्लेख प्राप्त होता है।

अग्निष्टोम पाँच दिनों तक चलता था। इसमें ग्यारह पशुओं की बलि दी जाती थी। इसमें बारह शस्त्रों का प्रयोग होता था। सोमयज्ञ के अर्न्तगत उल्लिखित सात प्रकारों में यह प्रकृतियाग होने के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण था।

यज्ञ का अत्यन्त घृणित एवं निन्दनीय स्वरूप ‘पुरुषमेध’ में दिखायी देता है। यह पाँच दिन तक चलता था तथा इसमें ग्यारह अथवा पच्चीस यूप निर्मित किये जाते थे। इसमें पुरुष बलि का विधान था जो ब्राह्मण या क्षत्रिय जाति का होता था।*

  • यस्मिन् मेध्यान्पुरुषाना लभते तस्मादेव पुरुषमेधः।१३/६/२/१ — शतपथ ब्राह्मण।*

‘राजसूय’ क्षत्रिय शासक अपने अभिषेक की समाप्ति पर करते थे। ‘अश्वमेध’ सार्वभौम सत्ता का प्रतीक होता था। यज्ञ क्रमशः पशु हत्या के साधन बन गये। अश्वमेध यज्ञ में ६०० पशुओं को हत्या कर दी जाती थी। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण पुरोहितों को बहुत अधिक गायें, सोना, वस्त्र, भूमि आदि दान में दी जाती थीं।

यज्ञ विवरण
राजसूय यज्ञ यह राजा के राज्याभिषेक से सम्बन्धित था।

इसमें इंद्र और वरुण का अभिषेक किया जाता था।

इस यज्ञ को सम्पादित करने वाले पुरोहित को २,४०,००० गायें दान में दिये जाने का उल्लेख मिलता है।

अश्वमेध यज्ञ यह यज्ञ राज्य विस्तार से सम्बन्धित था।

यह सर्वाधिक प्रसिद्ध यज्ञ था।

इस यज्ञ के अन्त में ‘अश्व की बलि’ दी जाती थी।

इस यज्ञ में सर्वाधिक पशुओं की बलि दी जाती थी।

वाजपेय यज्ञ यह यज्ञ राजा अपनी ‘शक्ति प्रदर्शन’ करने के लिये करता था।

यह एक प्रकार की ‘रथदौड़’ थी। इस रथदौड़ में राजा का रथ सबसे रहता था।

इस यज्ञ में ‘सोमपान’ किया जाता था।

अग्निष्टोम यज्ञ इस यज्ञ में ‘सोम की आहुति’ दी जाती थी।

इसमें सोम की आहुति देने के कारण इसको ‘सोमयाज्ञ या सोमयाग’ भी कहते हैं।

सौत्रामणि यज्ञ इसमें ‘सुरा की आहुति’ दी जाती थी।

यह यज्ञ इंद्र को प्रसन्न करने के लिये किया जाता था।

शूल्गव यज्ञ यह यज्ञ रुद्र को प्रसन्न करने के लिये किया जाता था।
पुरुषमेध यज्ञ इस यज्ञ में सर्वाधिक २५ यूपों का निर्माण किया जाता था।

इसमें एक पुरुष की भी बलि दी जाती थी।

अग्निहोत्र यज्ञ यह यज्ञ सुबह और शाम अग्नि को प्रसन्न करने के लिये किया जाता था।

इस यज्ञ को पापों के क्षय और स्वर्ग की ओर ले जाने वाले नाव के रूप में वर्णित किया गया है।

दार्श यज्ञ इस यज्ञ में ‘इन्द्र और अग्नि’ की उपासना की जाती थी।

यह यज्ञ अमावस्या को सम्पन्न किया जाता था।

पूर्णमास यज्ञ इस यज्ञ में ‘अग्नि और सोम’ की उपासना की जाती थी।

यह यज्ञ पूर्णिमा मासों सम्पन्न किया जाता था।

कर्मकाण्डों के विरुध्द प्रतिक्रिया

इन याज्ञिक कर्मकाण्डों में पशुओं की अत्यधिक बलि दी जाने लगी थी। दूसरी ओर कृषि के पशुओं का संरक्षण अत्यावश्यक था। इस तरह ये याज्ञिक कर्मकाण्ड कृषि की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे थे। उत्तर वैदिक काल के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते इन याज्ञिक कर्मकाण्डों के विरुध्द उपनिषदीय प्रतिक्रिया दिखायी देती है।

मुण्डक उपनिषद् में ‘यज्ञों को ऐसी टूटी हुई नौकाओं के समान बताया गया है जिसके द्वारा इस जीवन रूपी भवसागर को पार नहीं किया जा सकता है।’ इन कर्मकाण्डों के विरुध्द उपनिषदों में ज्ञान और दर्शन का उपदेश दिया गया। इस उपनिषदीय प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि पर गंगा घाटी में हमें ६ठी शताब्दी ई० पू० में ‘धार्मिक आन्दोलन’ देखने को मिलता है जिसकी चरम परिणति ‘बौद्ध और जैन धर्म’ के रूप में देखने को मिलता है।

अंधविश्वास

उत्तर वैदिक काल में प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण आदि में लोगों का विश्वास दृढ होता गया। इन अन्धविश्वासों को धर्म में स्थान मिला। आर्य एवं अनार्य विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरूप धर्म में अनेक नवीन तत्त्व प्रविष्ट कर गये। अप्सरा, गन्धर्व, नाग आदि को भी दैव रूप में कल्पना की जाने लगी।

एकेश्वरवाद और एकवाद

ऋग्वैदिक काल के अन्त तक जिस एकेश्वरवादी विचारधारा का उदय हुआ वह इस युग के अन्त तक पूर्णता को प्राप्त हुई। इसी समय (लगभग ६०० ई० पू०) उपनिषदों की रचना हुई तथा पुरोहितों के बढ़ते हुए प्रभाव, यज्ञीय कर्मकाण्ड तथा अनुष्ठानों के विरुद्ध सबल प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई।

उपनिषदों के समय तक तप, त्याग, संन्यास आदि पर विशेष बल दिया जाने लगा। इस पर भी कुछ विद्वान अवैदिक विचारधारा का ही प्रभाव देखते है।*

  • उपनिषदों पर अवैदिक विचारधारा के प्रभाव के लिये देखिये, डॉ० गोविन्द चन्द पाण्डे कृत ‘Studies in the Origins of Buddhism.’*

उपनिषदों में स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों को निन्दा की गयी है तथा ‘ब्रह्म’ की एकमात्र सत्ता स्वीकार की गयी है। उसे निर्विकार, अद्वैत एवं निरपेक्ष बताया गया है, जो जगत् से परे भी है, तथा उसमें व्याप्त भी है। ब्रह्म का व्यक्ति के सारभूत तत्त्व ‘आत्मा’ से समीकरण स्थापित किया गया है। उपनिषदों के अनुसार ‘आत्मसाक्षात्कार’ ही मोक्ष है जो अज्ञान के नाश से सम्भव है। जगत् का माया के रूप में चित्रण मिलता है।

आर्य और आर्येतर संस्कृति का समन्वय

वैदिक एवं अवैदिक विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरुप लोग निवृत्तिमार्गी होने लगे। अब कायाक्लेश एवं संन्यास मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक समझे गये। संन्यास की अवधारणा निश्चयत: आर्येतर संस्कृति के प्रभाव का फल थी। ब्राह्मण चिन्तकों ने इसे अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिये मानव जीवन में चार आश्रमों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। प्रारम्भिक उपनिषदों में केवल तीन आश्रमों का विधान मिलता है— ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ परन्तु कालान्तर में ‘संन्यास’ नाम से एक चौथा आश्रम इस व्यवस्था का अंग बन गया। प्रत्येक ‘द्विज’ को इन चारों आश्रमों से होकर जीवन-यापन करना आवश्यक बताया गया।

कर्मकाण्डों के निहितार्थ

ऋग्वेदकालीन धार्मिक जनजीवन की भाँति उत्तर वैदिक काल के लोगों की धार्मिक आस्थाएँ एवं गतिविधियाँ भी तत्कालीन भौतिक पृष्ठभूमि से कुछ कम प्रभावित नहीं थीं। इस युग में एक ओर तो ब्राह्मणो द्वारा प्रतिपादित एवं पोषित यज्ञ अनुष्ठान एवं कर्मकाण्डीय व्यवस्था थी, तो दूसरी ओर इसके विरुद्ध उठायी गयी उपनिषदों की आवाज। यद्यपि यज्ञादिक का आभास ऋग्वेद में भी मिलता है लेकिन एक स्वतंत्र पंथ के रूप में इसका विकास इसी युग में हुआ।

चूँकि ब्राह्मण एक अनुत्पादी वर्ग था, अतः अपने को विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग बनाये रखने के लिये यह आवश्यक हो गया कि वे लोगों के मस्तिष्क पर अपनी धार्मिक श्रेष्ठता की छाप बनाये रखें। जिस प्रकार कर्मकाण्ड का विकास इस युग में दृष्टिगोचर होता है, उसमें ब्राह्मणों का निहित स्वार्थ था। आरम्भ में में तो क्षत्रियों ने भी इस पंथ को बनाये रखने में ही अपना हित समझा – इसके दो कारण थे :

  • एक तो ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ही अधिशेष उत्पादन को हथियाने में रुचि रखते थे।
  • दूसरे इस युग के महत्त्वपूर्ण यज्ञों जैसे अश्वमेघ, वाजपेय, राजसूय, आदि का विस्तृत अध्ययन करने से पता चलता है कि मुलतः इनका उद्देश्य कृषि-उत्पादन को बढ़ाना था।
  • आर्य और अनार्य सभ्यताओं का समन्वय कराना।

वाजपेय यज्ञ तो खाद्य एवं पान से सम्बन्धित था ही, अश्वमेघ एवं राजसूय भी, जो कि तथाकथित राजनीतिक शक्ति के द्योतक माने जाते हैं, ऐसे अनेकों रीति-रिवाजों एवं प्रतीकों से भरे पड़े हैं, जिनसे यह संकेत मिलता है कि उनका मूल उद्देश्य खाद्य उत्पादन की वृद्धि करना था। उदाहरणार्थ, अधिकांश यज्ञों में किसी-न-किसी रूप में संभोग क्रिया का एक महत्त्वपूर्ण स्थान था, जो कि भूमि की उर्वरता एवं प्रजनन शक्ति की प्रतीक थी। वाजपेय यज्ञ में ऐसी क्रियाओं के सम्बन्ध में बृहदारण्यक उपनिषद् (६/४३ ) तथा वाजसनेयी संहिता ( २३/२२-३१) में महत्त्वपूर्ण उल्लेख हैं।

राजसूय यज्ञ में भी सम्पूर्ण वर्ष के दौरान चलने वाले अनुष्ठानों का अंत ऐसे यज्ञ से होता था, जिसकी अध्यक्षता ‘इन्द्रशुनासीर’ अर्थात् हलयुक्त इन्द्र करता था और जिसका उद्देश्य “पस्त प्रजनन शक्ति को पुनः जागृत करना होता था।”* यह भी ध्यातव्य है कि यदि राजसूय राजा के सिंहासनारोहण से ही सम्बन्धित होता तो केवल एक बार होना चाहिए था, परन्तु वह तो प्रति वर्ष चलता रहता था।

  • The Ancient Indian Royal Consecration 1957 ( p. 223-223 ) — J.C.Heesterman.*

जिस प्रकार आद्य एवं प्राक्-वर्णी समाज में भोजन एकत्र करने के कार्य को सुगम बनाने के लिए जादुई कर्मकाण्ड सपन्न किया जाता था, उसी प्रकार वर्ण-विभाजित समाजों में, जैसा कि उत्तर वैदिक काल में था, आद्य जादू का स्थान ऐसे विशाल एवं रहस्यमय कर्मकाण्ड ने ले लिया था, जो विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग ही कर सकता था।*

  • जी० थॉमसन कृत ‘रिलीजन’; १९५० *

क्षत्रियों द्वारा कर्मकाण्डीय व्यवस्था का समर्थन करने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इनके माध्यम से वे आर्य सभ्यता की सीमा पर रहने वाले अनार्य प्रमुखों के बीच अपना प्रभुत्व बढ़ा पाते थे। अथर्ववेद तथा पंचविश ब्राह्मण में मगध के व्रात्य मुखिया को वैदिक समाज में प्रवेश देने के लिए विशाल कर्मकाण्ड का आयोजन किया गया है। इसी प्रकार निषादों के मुखिया को वैदिक अनुष्ठानों में स्थान दिया गया है। राजसूय यज्ञ के दौरान जिन लगभग एक दर्जन रत्निनों के घर राजा जाता था, उनमें से चार स्त्रियाँ होती थीं। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि अनार्य जातियों के मातृकुलीय रिवाजों को नजरअंदाज नहीं किया गया था। इस प्रकार कर्मकाण्डों ने वृहत्तर समुदाय के संगठन में सहयोग दिया

कर्मकाण्डों का पुरातात्त्विक साक्ष्य

उत्तर वैदिक काल से सम्बन्धित जो थोड़े-बहुत पुरातात्त्विक साक्ष्य मिले हैं उनसे धार्मिक जीवन के बारे में भी कुछ सूचना मिली है। यद्यपि मिट्टी के कुछ खिलौने प्राप्त होते हैं जिसमें पशुओं का निरूपण मिलता है। परन्तु किसी प्रकार की मूर्तिपूजा के अवशेष प्राप्त नहीं होते हैं और यह साहित्यिक विवरणों के अनुरूप ही हैं।

लेकिन जिस कर्मकाण्डीय व्यवस्था का उल्लेख हमें मिलता है उसके क्या प्रमाण है? यह विस्मय की बात है कि चित्रित धूसर एवं उत्तरी पॉलिश वाले मृद्भाण्ड संस्कृति के अधिकांश केंद्रों से कर्मकाण्डीय यज्ञ कुण्डों या यज्ञ वेदी का कोई विशेष प्रमाण नहीं मिला है। अतरंजीखेड़ा*से कुछ वृत्ताकार अग्नि कुण्ड मिले हैं, जो शायद इसी उद्देश्य के लिये हो।

  • Indian Archaeology — A Review, 1963-64 ( p. 49 ) *

पुरुषमेष के सन्दर्भ में एक यज्ञ वेदी प्राप्त होने का दावा कौशांबी* के उत्खननकर्ता ने किया है। श्रावस्ती में कुछ ऐसे बड़े गड्डे मिले हैं, जिनमें कुछ बहुत छोटे-छोटे मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। क्या ये कर्मकाण्डीय उद्देश्य की ओर संकेत करते हैं? इस सन्दर्भ में और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।

  • The Excavations At Kaushambi ( 1957-59) – p. 87-127 : G. R. Sharma. *

उपनिषदीय ‘ज्ञान मार्ग’ के निहितार्थ

उत्तर वैदिक काल के धार्मिक जीवन की दूसरी धारा उपनिषदीय अद्वैत सिद्धान्त में दिखायी देती है। यह ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड पर एक गहरा आघात था। उपनिषदीय अद्वैत वेदान्त के चिह्न ऋग्वेद के उन अंशों में ढूंढ़े जा सकते हैं, जहाँ ‘ब्रह्मद्विष’ अर्थात् वेद से घृणा करने वालों का उल्लेख है अथवा जहाँ वेदों की आराधना करने वालों को स्वार्थी पुरोहित के रूप में वर्णित किया गया है।

उपनिषदीय विचारकों ने यज्ञादिक अनुष्ठानों को ऐसी कमजोर नौका बताया है, जिसके द्वारा यह भवसागर पार नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस उद्देश्य के लिये मनुष्य को जीवन के चक्र से मोक्ष दिलाने के लिये ‘ज्ञान मार्ग’ का प्रतिपादन किया।

ब्रह्मन् एवं आत्मन् के बीच अद्वैत भाव का अनुभव करना ही ‘ज्ञान मार्ग’ है। चूँकि कबायली संगठन में दरार पड़ चुकी थी, वर्णव्यवस्था का आविर्भाव हो चुका था, अतः पुरानी मान्यताएँ एवं मूल्य अनुपयोगी हो गये थे।

ऋग्वेद कालीन ऋत् का ह्रास उत्तर वैदिक काल तक हो चुका था। इस प्रकार के संक्रमणकाल में मनुष्य विस्मय से अपने अलगाव का अनुभव करता है। कबायली एकता के विघटन से जो एक आध्यात्मिक अराजकता का जन्म-सा हुआ, उसे कैसे जीता जाये, अपने निजी अहम् को लाँधकर सामंजस्य को कैसे पुनःस्थापित किया जाय? उपनिषदीय दार्शनिकों ने इस समस्या का हल प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उन्हें इस बात का आभास हुआ कि जब तक मानव के आंतरिक एवं बाह्य अस्तित्व में सामंजस्य नहीं होगा, वह सुखी जीवन व्यतीत नहीं कर पाएगा। अर्थात आत्मन् एवं ब्रह्मन् के अद्वैत का सामाजिक-आर्थिक आधार, प्रारम्भिक आर्यों की पशुचारण अर्थव्यवस्था पर आधारित, कबायली समाज के अंतर्गत वर्णव्यवस्था के आविर्भाव में दृष्टिगोचर होता है।

ऋग्वैदिक काल या पूर्व-वैदिक काल

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