भूमिका
उच्च पूर्व पाषाणकाल या उत्तर पुरापाषाणकाल ( Upper or Late Palaeolithic Age ) हिमयुग ( Ice Age / Pleistocene Epoch ) के अंतिम चरण का द्योतक है। भारत में ५६६ उच्च पूर्वपाषाणयुगीन स्थल पाये गये हैं। हिमयुग के अंतिम चरण में तुलनात्मक रूप से जलवायु गर्म हो गयी थी और आर्द्रता भी अपेक्षाकृत कम हो गयी थी। वैश्विक संदर्भ में इस चरण में दो प्रमुख विशेषताएँ देखने को मिलती हैं :-
- नये चकमक उद्योग की उपस्थिति ( appearance of new flint industries)
- आधुनिक मानव प्ररूप का उदय ( appearance of men of the modern type i.e. Homo sapiens sapiens )।
भारतीय संदर्भ में फलकों ( blades ) और तक्षणियों ( burins ) का प्रयोग विशेषरूप से दिखा जाता है। फिरभी इसका प्रधान पाषाण उपकरण फलक ( Blade ) है। फलक ( blade ) पतले तथा संकरे आकार वाला वह पाषाण फलक है जिसके दोनों किनारे समानान्तर होते है तथा जो लम्बाई में अपनी चौड़ाई से दूना होता है। इसका समय लगभग ३५,००० ई०पू० से १०,००० ई०पू० निर्धारित की गयी है।
प्रारम्भ में पुराविद् भारतीय प्रागैतिहास में ब्लेड प्रधान काल मानने को तैयार नहीं थे किन्तु बाद में विभिन्न स्थानों से ब्लेड उपकरणों के प्रकाश में आने के परिणामस्वरूप यह स्वीकार किया गया कि युरोप तथा पश्चिमी एशिया की भाँति भारत में भी ब्लेड प्रधान उच्च पूर्व पाषाणकाल का अस्तित्व था।
उत्तर पुरापाषाणकाल : स्थल
भारतीय उप-महाद्वीप में अबतक ५६६ उच्च पुरापाषाणकाल ( Upper Palaeolithic Age ) सम्बन्धी स्थल मिले हैं जिनमें से कुछ मुख्य स्थल निम्न हैं :-
- बेलन नदी घाटी तथा सोन नदी घाटी ( उ०प्र० ),
- सिंहभूमि ( बिहार ),
- जोगदहा, भीमबेटका, बबुरी, रामपुर, बाघोर ( म०प्र० ),
- पटणे, भदणे तथा इनामगाँव ( महाराष्ट्र ),
- रेणिगुन्ता, वेमुला, कर्नूल गुफायें ( आन्ध्र प्रदेश ),
- शोरापुर दोआब ( कर्नाटक ),
- विसदी ( गुजरात ),
- बूढ़ा पुष्कर ( राजस्थान ),
- रिवात में ५५वाँ पुरास्थल ( रावलपिण्डी, पाकिस्तान ),
- संघाव की गुफाएँ ( मरदान जिला, पाकिस्तान ),
- सिंध में रोहड़ी की पहाड़ियों में माइलस्टोन १०१ आदि।
उत्तर प्रदेश के बेलन नदी घाटी में स्थित लोंहदा नाला से मिली हुई अस्थि-निर्मित मातृदेवी की मूर्ति इसी काल की है। बेलन नदी घाटी इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यहाँ पर पुरापाषाणकाल से सम्बन्धित तीनों ( पूर्व, मध्य व उत्तर — पुरापाषाणकाल ) काल के पुरावशेष प्राप्त होते हैं। यहीं के चौपानी माण्डो से उत्तर पुरापाषाणकाल से लेकर नवपाषाणकाल की ओर संक्रमण का साक्ष्य भी मिलता है।
इन स्थानों से प्राप्त इस काल के उपकरण मुख्य रूप से फलक ( Blade ) पर बने हैं। इसके साथ-साथ कुछ स्क्रेपर, वेधक, छिद्रक भी मिले है। ब्लेड उपकरण एक विशेष प्रकार के बेलनाकार कोरों से निकाले जाते थे। इनके निर्माण मे चर्ट, जेस्पर, पिलन्ट आदि बहुमूल्य पत्थरों का उपयोग किया गया है। पाषाण के अतिरिक्त इस काल में अस्थियों के बने हुए कुछ उपकरण भी मिलते है। इनमें स्क्रेपर, छिद्रक, बेधक तथा धारदार उपकरण है।
भीमबेटका से नीले रंग के कुछ पाषाण खण्ड मिलते हैं। वाकणकर महोदय के अनुसार इनके द्वारा चित्रकारी के लिये रंग तैयार किया जाता होगा। संभव है विन्ध्य क्षेत्र की शिलाश्रयों में बने हुए कुछ गुहाचित्र उच्च पूर्वपाषाणकाल के ही हों। इनसे तत्कालीन मनुष्यों की कलात्मक अभिरुचि भी सूचित होती है। इस प्रकार के गुफाचित्र पश्चिमी युरोप से भी प्राप्त हुए हैं।
उत्तर पुरापाषाणकाल : विशेषताएँ
उत्तरपुरापाषाण काल ( Upper Palaeolithic ) की परिभाषा यह दी जाती है कि इसमें निम्नलिखित विशेषताएँ अलग-अलग रूप में अथवा मिली-जुली होनी चाहिए :—
- इसमें उपकरण बनाने की मुख्य सामग्री लंबे, स्थूल प्रस्तर फलक ( blade ) होते हैं।
- जो उपकरण तैयार किये जाते थे उनमें तक्षणी ( burin ) और खुरचनी ( scraper ) की प्रतिशत मात्रा बहुत रहती है। सरल फलकों के किनारों को तेज या खुंडा बनाने के लिये उनकी घिसाई की जा सकती है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि इस संस्कृति में अस्थि-उपकरणों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी। जो प्रारूप पहचान किये गये हैं उनमें कुछ अलंकृत छड़ें, मत्स्य भाले, नोकदार सुइयाँ और भालों की नोकें सम्मिलित हैं।
- नक्काशी और चित्रकारी दोनों रूपों में कला, व्यापक रूप से देखने को मिलती है।
यदि ये विशेषताएँ किसी ऐसे निक्षेप में मिलती हों जिसे अत्यंतनूतन युग या हिमयुग ( Pleistocene age or Ice Age ) का निक्षेप सिद्ध किया जा सके तो उस संस्कृति को उत्तर-पुरापाषाणकालीन संस्कृति के रूप में पहचान सकते हैं।
उत्तर पुरापाषाणकाल की पहचान
कुछ ही समय पहले तक इस देश में ऐसी कोई संस्कृति नहीं पहचानी गयी थी, अतः हम लंबे समय तक पुरापाषाण काल के त्रिवर्गीय विभाजन का प्रयोग नहीं करते थे अर्थात् पूर्व, मध्य और उत्तर-पुरापाषाण काल के स्थान पर हम अत्यंतनूतन युग में केवल दो संस्कृतियाँ गिनते रहे हैं जिन्हें हम आद्य प्रस्तर युग ( Early Stone Age ) और मध्य प्रस्तर युग ( Middle Stone Age ) कहते थे।
यह कहना एकदम सही नहीं होगा कि फलक या फलकों से बने उपकरण इससे पहले भारत में अज्ञात थे। दुर्भाग्य से, ये हमेशा अपने से पहली या बाद की संस्कृति के साथ मिले-जुले पाये गये हैं, और हमेशा धरातल से ही मिले हैं। अतः इस सामग्री की कालानुक्रमिक स्थिति को भी प्रदर्शित नहीं किया जा सका है।
परन्तु हाल ही में अनेक ऐसे स्थल प्रकाश में आये हैं जहाँ शुद्ध फलक उद्योग नदी निक्षेपों में दबे हुए पाये गये हैं। इनका एक सर्वोत्तम उदाहरण उत्तर प्रदेश की बेलन नदी घाटी से मिला है। यहाँ बहुसंख्यक नदियों के विपरीत सामान्य दो बजरियों के ऊपर एक तीसरी बजरी की परत मिली है। इस तीसरी बजरी से न केवल उत्तरपुरापाषाण युग का पूरा उद्योग प्राप्त हुआ है, बल्कि रेडियो कार्बन पद्धति से इसका तिथि-निर्धारण भी किया जा सकता था। इसे १९,७१५ + ३४० वर्ष आद्यपूर्व का पाया गया है। साथ ही इस स्थल से उत्तरपुरापाषाणकाल से मध्यपाषाण काल की ओर संक्रमण का प्रमाण भी मिलता है।
आंध्र प्रदेश के रेनीगुंटा में फलकों और तक्षणियों का एक और विशाल संग्रह प्राप्त हुआ है । उसी राज्य के बेटमचेर्ला में अनेक अस्थि-उपकरण भी मिले हैं। लगता है, इनमें से अधिकांश अस्थि-उपकरण चूलदार वेधनी के रूप में प्रयुक्त होते थे।
कर्नाटक में, विशेषतः शोरापुर और बीजापुर जिलों में, उत्तरपुरापाषाणकाल के कुछ अन्य दबे हुए स्थल मिले हैं।
अभी तक कोई कलाकृति अंतिम रूप से इस संस्कृति के साथ नहीं जोड़ी जा सकी है, परंतु फलक उपकरणों, तक्षणियों और अस्थि-उपकरणों को भारतीय उत्तरपुरापाषाण काल के प्रमाण अवश्य माना जा सकता है। युरोप और अफ्रीका के अनेक उत्तरकालीन स्थलों से जो दोनों ओर महीन की गयी वेधनियाँ मिलती है, भारत में उनका कोई भी चिह्न नहीं मिलता है।
अभी तक यह सिद्ध करने की कोई संभावना है कि भारतीय उत्तरपुरापाषाण काल अपने मध्य-पुरापाषाणकालीन आधार पर विकसित हुआ है या बाहर के संपर्क का प्रतिनिधित्व करता है। यदि पुराने सिंधु, गुजरात और राजस्थान की पट्टी को संपर्क का मार्ग मान लिया जाए तो इस सम्पूर्ण मार्ग से बेलन जैसे, या यो समझिए कि शोरापुर जैसे पर्याप्त उत्तरपुरापाषाण नहीं मिलते। साथ ही यह पता चला है कि हमारे मध्य-पुरापाषाणकाल तक इस क्षेत्र में फलक-विनिर्माण की जड़ें गहरी जमी थीं। परिणामतः जब तक कोई और प्रमाण नहीं मिलता, भारत के उत्तरपुरापाषाण काल की स्थानीय उत्पत्ति की पचास प्रतिशत संभावना स्वीकार करना उपयुक्त होगा।
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