भूमिका
यद्यपि अशोक ने कश्मीर, खस, नेपाल और कलिंग-विजय के अतिरिक्त किसी सैन्याभिमान में भाग नहीं लिया था। इसमें भी राज्याभिषेक के बाद कलिंग अभियान सम्राट अशोक की एकमात्र विजय थी। तथापि अशोक प्रियदर्शी के अभिलेखीय प्रमाणों से साम्राज्य का जो विस्तार उभरकर आता है वह भारतीय इतिहास की सबसे विशाल साम्राज्य अकाट्य रूप से सिद्ध करता है। इस साम्राज्य के अधिकांश भाग अशोक को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुए थे जिसे उन्होंने अक्षुण्ण बनाये रखा।
साम्राज्य विस्तार
अशोक के अभिलेखों के आधार पर हम निश्चित रूप से उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण कर सकते है।
पश्चिमोत्तर सीमा
पश्चिमोत्तर में निम्न स्थानों से सम्राट अशोक के शिलालेख प्राप्त हुए हैं-
(१) शाहबाजगढ़ी, पेशावर जनपद; पाकिस्तान।
(२) मानसेहरा, हजारा जनपद; पाकिस्तान।
(३) शरेकुना, कंधार के समीप; अफगानिस्तान।
(४) लघमान,जलालाबाद के निकट काबुल नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित; अफगानिस्तान।
इन अभिलेखों के प्राप्ति-स्थलों से यह स्पष्ट होता है कि उसके साम्राज्य में हिन्दुकुश, एरिया (हेरात), आरकोसिया (कन्दहार) तथा जेड्रोसिया सम्मिलित थे।
क्लासिकल लेखकों के विवरण से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकेटर को हराकर इस क्षेत्र को अधिकृत कर लिया था। इसे तत्कालीन समय में एरिया, पैरोपनिसिडाई, अराकोशिया और जेड्रोसिया कहा जाता था जोकि वर्तमान के क्रमशः हेरात, काबुल, कंधार और मकरान हैं।
चीनी यात्री हुएनसांग ने कपिशा में अशोक के स्तूप का उल्लेख करता है।
इस तरह स्पष्ट है कि अशोक के साम्राज्य में अफगानिस्तान का एक बड़ा भाग सम्मिलित था।
उत्तरी सीमा
उत्तर भारतीय उप-महाद्वीप के उत्तर में सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमा निर्धारित करने में निम्न अभिलेख सहायक हैं :
- कालसी, देहरादून जनपद, से सम्राट अशोक का शिलालेख मिला है।
- रुमिन्ददेई, नेपाल।
- निग्लीवा या निगालीसागर, नेपाल।
- इसी तरह उत्तरी बिहार के लौरिया नंदनगढ़, लौरिया अरराज और रामपुरवा से मिले अभिलेख।
कश्मीर :
कल्हण कृत राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर का पहले मौर्य शासक अशोक थे। आगे वे बताते हैं कि सम्राट अशोक ने यहाँ पर ‘अशोकेश्वर’ नामक मंदिर की स्थापना की थी। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि अशोक ने श्रीनगर का स्थापना की थी।
इन शिलालेख / स्तम्भलेखों से पता चलता है कि उत्तर में हिमालय क्षेत्र का एक बड़ा भाग (नेपाल की तराई) भी सम्राट अशोक के साम्राज्य का अंग था। साथ ही राजतरंगिणी और ह्वेनसांग से ज्ञात होता है कि कश्मीर अशोक के साम्राज्य का अंग था।
पूर्व में साम्राज्य विस्तार
भारतीय उप-महाद्वीप के पूर्व में सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमा के विस्तार की जानकारी निम्न अभिलेखीय प्रमाणों से प्राप्त होती है –
- महास्थान अभिलेख, बोगरा जनपद; बाँग्लादेश
- बौद्ध परम्पराओं के अनुसार सम्राट अशोक स्वयं अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका के लिये विदा करने ताम्रलिप्ति तक आये थे।
- ह्नेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसने कर्ण-सुवर्ण (प० बंगाल), समतट (पूर्वी बंगाल) और पुंड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तूप के दर्शन किये थे।
- चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरणों से अनुमान लगाया जा सकता है कि कामरूप (असम) सम्भवतया अशोक के साम्राज्य से बाहर था। क्योंकि न तो यहाँ से कोई अभिलेख मिले हैं और न ही ह्वेनसांग ने सम्राट अशोक-निर्मित किसी स्मारक का विवरण दिया है।
- कलिंग विजय तो सर्वविदित है जिसको सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के ८वें वर्ष ( २६१ ई०पू० ) में विजित किया था और यहाँ पर स्वयं उनके अभिलेखों (धौली और जौगढ़) से इसकी पुष्टि होती है।
- अतः वर्तमान बांग्लादेश, ताम्रलिप्ति बंदरगाह और वर्तमान ओडिशा सम्राट अशोक के साम्राज्य के अंग थे। जबकि ब्रह्मपुत्र घाटी अर्थात् वर्तमान असम (कामरूप) साम्राज्य से बाहर था।
पश्चिम में साम्राज्य की सीमा
पश्चिमी में अशोक के साम्राज्य की सीमा अरब सागर तक जाती थी जिसकी पुष्टि निम्नलिखित साक्ष्यों से होती है :
- जूनागढ़ के गिरनार से अशोक का अभिलेख मिलता है।
- गुजरात के जूनागढ़ से ही रूद्रदामन के अभिलेख में सुदर्शन झील के निर्माण के संदर्भ में अशोक के पितामह और स्वयं अशोक का विवरण प्राप्त होता है।
- महाराष्ट्र के सोपारा से अशोक का अभिलेख मिलता है।
इस तरह सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक जाती थी।
साम्राज्य का दक्षिणी विस्तार
दक्षिण में विस्तार का ज्ञान निम्न अभिलेखीय प्रमाणों से पुष्ट होता है :
- वर्तमान कर्नाटक राज्य के निम्न स्थलों से सम्राट अशोक के अभिलेख मिलते हैं –
- मास्की, रायचूर जनपद।
- नेत्तूर, उडेगोलम; बेलाड़ी जनपद।
- जटिंग रामेश्वर, सिद्धपुर, ब्रह्मगिरि; चित्तलदुर्ग जनपद।
- गोविमठ, पालकिगुंडु; मैसुरू जनपद।
- द्वितीय बृहद् शिलालेख में अशोक अपनी दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सत्तियपुत्त, केरलपुत्त तथा ताम्रपर्णि के नाम का उल्लेख करते हैं। इसमें से अंतिम को छोड़कर चार तमिल राज्य थे और साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित थे। ताम्रपर्णि वर्तमान श्रीलंका है।
- इसके साथ ही जैन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य राज्य को अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंपकर दक्षिणेश्वर कर्नाटक श्रवणवेलगोला चले गये थे और वहीं संल्लेखना पद्धति से अपने प्राण त्याग दिये थे। वर्तमान में चंद्रगिरि नामक पहाड़ी इस तथ्य की पुष्टि करती है।
भण्डारकर महोदय का विचार है कि चोल तथा पाण्ड्य का उल्लेख बहुवचन में तथा सतियपुत्त तथा केरलपुत्त का उल्लेख एकवचन में है। अतः प्रथम दो जातियों के तथा अन्तिम दो शासकों के सूचक हैं। चोल राज्य में तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली तथा तंजोर का क्षेत्र था, और पाण्ड्य राज्य में मदुरा, रामनाद तथा तिरुनेवेल्ली के जिले सम्मिलित थे। केरलपुत्त राज्य में दक्षिण मालाबार क्षेत्र था।
सत्तियपुत्त की पहचान संदिग्ध है। प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री इनकी पहचान तमिल सरदार आदिगमन से करते हैं जो संगमकाल में काफी प्रसिद्ध था।
ताम्रपर्णि से तात्पर्य श्रीलंका से है। इन सभी के साथ अशोक का मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। इससे स्पष्ट है कि सुदूर ( धुर ) दक्षिण के भाग को छोड़कर (जो चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्त तथा केरलपुत्त के अधिकार में था।
इस तरह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण भारतवर्ष ( भारतीय उप-महाद्वीप ) सम्राट अशोक के अधिकार में था।
अन्य विवरण
तेरहवें बृहद् शिला प्रज्ञापन में अशोक के समीपवर्ती राज्यों की सूची इस प्रकार मिलती है –
“एषे च मुखमुते विजये देवनं प्रियस यो ध्रमविजयो [ । ] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अन्तेषु अषपु पि योजन शतेषु यत्र अन्तियोको नम योनरज परं च तेन अन्तियोकेत चतुरे ४ रजनि तुरमये नम अन्तिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [ । ] एवमेव हिद रज विषवस्पि योन-कंबोयेषु नमभ नभितिन भोज-पितिनिकेषु अन्ध्रपलिदेषु सवत्र देवनं प्रियस ध्रुमनुशस्ति अनुवटन्ति [ । ]”
अर्थात् “पुनः देवों के प्रिय की वह [ धर्मविजय ] यहाँ [ अपने राज्य में ] और सब अन्तों ( सीमान्तस्थित राज्यों ) उपलब्ध हुई है। [ वह धर्मविजय ] छः सौ योजनों तक, जहाँ अन्तियोक नामक यवनराज है और उस अन्तियोक से परे चार राजा – तुरमय ( तुलमय ), अन्तिकिनी, मक ( मग ) और अलिकसुन्दर नामक – हैं, और नीचे ( दक्षिण में ) चोड, पाण्ड्य व ताम्रपर्णियों ( ताम्रपर्णीवालों ) तक [ उपलब्ध हुई है ]। ऐसे ही यहाँ राजा के विषय ( राज्य ) में यवनों [ और ] कांबोजों में, नाभक और नाभपंति ( नभिति ) में, भोजों [ और ] पितिनिकों में [ तथा ] आंध्रों [ और ] पुलिन्दों में सर्वत्र देवों के प्रिय धर्मानुशासन का [ लोग ] अनुवर्तन ( अनुसरण ) करते हैं।”
इस विवरण में निम्न तथ्य उभरकर सामने आते हैं :
- सम्राट अशोक का दावा करते हैं कि यह धर्मविजय स्वयं के साम्राज्य और सीमान्त स्थित राज्यों में प्राप्त हुई।
- धर्मविजय छः सौ योजन तक, जहाँ अन्तियोक नामक यवनराज है और उस अन्तियोक से परे चार राजा – तुलमय, अन्तिकिनी, मक और अलिकसुन्दर हैं।
- दक्षिण में चोड, पाण्ड्य एवं ताम्रपर्णियों में तक ( धर्मविजय ) उपलब्ध हुई है।
- ऐसे ही यहाँ के राजा के राज्य में यवनों और कांबोजों में, नाभक और नाभपति में, भोजों और पितिनिकों में और आंध्रों व पुलिंदों में सर्वत्र देवों के प्रिय धर्मानुशासन का लोग अनुवर्तन करते हैं।
इनमें योन अथवा यवन, कम्बोज तथा गन्धार प्रदेश उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। भण्डारकर महोदय इन्हें काबुल तथा सिन्ध के बीच स्थित बताते हैं। भोज बरार तथा कोंकण में तथा रठिक या राष्ट्रिक महाराष्ट्र में निवास करते थे। पितिनिक पेठन में तथा आन्ध्र राज्य कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित था। नाभक अथवा नाभपमिस राज्य पश्चिमी तट तथा उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त के बीच कहीं बसा था। पारिमिदस के समीकरण के विषय में विवाद है। रायचौधरी इसे विन्ध्यक्षेत्र में तथा भण्डारकर बंगाल के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित बताते हैं।
पश्चिम में काठियावाड़ में जूनागढ़ के समीप गिरनार पहाड़ी तथा उसके दक्षिण में महाराष्ट्र के थाना जिले के सोपारा नामक स्थान से उसके शिलालेख मिलते हैं। बंगाल की खाड़ी के समीप स्थित कलिंग राज्य को अशोक ने अपने अभिषेक के आठवें वर्ष जीता था। उड़ीसा के दो स्थानों-धौली तथा जौगढ़ से भी उसके शिलालेख मिलते हैं।
बंगाल में ताम्रलिप्ति से प्राप्त स्तूप उसके वहाँ आधिपत्य की सूचना देता है। हुएनसांग हमें बताता है कि समतट, पुण्ड्रवर्धन, कर्णसुवर्ण आदि में भी अशोक के स्तूप थे। इन सभी अभिलेखों की प्राप्ति स्थानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका साम्राज्य उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त (अफगानिस्तान) से लेकर दक्षिण में कर्नाटक तक तथा पश्चिम में काठियावाड़ से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था।
कश्मीरी कवि कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि उसका कश्मीर पर भी अधिकार था। इसके अनुसार उसने वहाँ धर्मारिणी विहार में अशोकेश्वर नामक मन्दिर की स्थापना करवायी थी। कल्हण अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताता है। उसके साम्राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय पर्वत तक जाती थी। इस प्रकार वह अपने समय के विशालतम साम्राज्यों में से एक था।
अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)