भूमिका
वाराणसी भारतीय उप-महाद्वीप पर सबसे पुरातन ऐसी नगरी है जहाँ मानव आवास अपनी निरन्तरता बनाये हुए हैं। महाजनपद काल में वाराणसी काशी महाजनपद की राजधानी थी। बौद्ध साहित्यों में वर्णित छठी शताब्दी ई० पू० के छः महानगरों में से वाराणसी भी एक थी। यह पुरातन समय से ही धार्मिक, सांस्कृतिक, शिक्षा और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र रही है।
वाराणसी के विभिन्न नाम
वाराणासी के विभिन्न नाम मिलते हैं जिनमें से प्रमुख निम्न हैं :
- वरुणा और असी नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इसको ‘बनारस’ कहते हैं।
- पुराणों के अनुसार इस नगरी का नाम सम्भवतया मनुवंश के सप्तम नरेश ‘काश’ के नाम पर ही काशी हुआ था।
- द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग यहाँ पर स्थित हैं। यह ज्योतिर्लिंग जिस मंदिर में स्थापित है उसे ‘काशी विश्वनाथ मंदिर’ कहते हैं। इसलिये इसे ‘भगवान शिव की नगरी’, ‘बाबा भोलेनाथ की नगरी’ कहते हैं।
- इसे ‘दीपों का नगर’ भी कहते हैं।
- मंदिरों की अधिकता के कारण काशी को ‘मंदिरों का नगर’ कहते हैं।
- काशी सदैव शिक्षा का केन्द्र रही है इसलिये इसको ‘ज्ञान की नगरी’ भी कहते हैं।
- यहाँ पर सँकरी गलियाँ मिलती हैं इसलिये इसको ‘गलियों का नगर’ कहते हैं।
- गंगाजी के किनारे बहुत सारे घाट बनाये गये हैं जिनकी संख्या लगभग ८४ है इसलिये इसको ‘घाटों का नगर’ भी कहते हैं।
- अनादि काल से वाराणसी सनातन धर्म व संस्कृति का केन्द्र रही है इसलिये इसको ‘भारत की धार्मिक राजधानी’ और ‘भारत की सांस्कृतिक राजधानी’ भी कहते हैं।
वाराणसी बनाम काशी
इन दोनों नामों को पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त किया जाता है जो सही भी है। प्रचीन काल में काशी महाजनपद था और वाराणसी उसकी राजधानी। परन्तु यह भेद बहुत स्पष्ट रूप से स्थापित हो ऐसा नहीं था। अगली बात दोनों नाम की प्राचीनता को लेकर है।
वाराणसी नाम काशी नाम से अपेक्षाकृत नवीन है किंतु इसका भी उल्लेख महाभारत में है —‘समेतं पार्थिवं क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः, कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथेनैकेन संयुगे’ ( शान्तिपर्व २७ / ९ )। ‘ततो वाराणसीं गत्वार्चयित्वा वृपध्वजम्, कपिलाह्रदे नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्’ ( वनपर्व ८४ / ७८ )|
पांडवों ने तीर्थ यात्रा के प्रसंग में काशी की यात्रा नहीं की थी किंतु भीम का अपनी दिग्विजय यात्रा में काशिराज सुबाहु पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है – ‘स काशिराजं समरे सुबाहुमनिवर्तिनं वशे चक्रे महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रमः’ ( वनपर्व ३० / ६-७ )।
वाराणसी की प्राचीनता
वाराणसी विश्व के प्राचीनतम् बसे हुए नगरों में से एक है और भारत का प्राचीनतम् बसा नगर है। यह हिन्दू धर्म के सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक है। साथ ही बौद्ध और जैन धर्म में भी इसको पवित्र माना गया है।
- “Benares is older than History, older than tradition, older even than legend and looks twice as old as all of them put together”. — Mark Twain.
वर्तमान वाराणसी तथा उनके समीपवर्ती भाग में प्राचीन काल का काशी राज्य स्थित था। काशी नगरी की प्राचीनता वैदिक युग तक जाती है। अथर्ववेद में काशी के निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। रामायण तथा महाभारत में भी काशी राज्य तथा उसकी महत्ता का वर्णन है।
बुद्ध काल में काशी के सभी राजाओं का सामान्य नाम ब्रह्मदत्त मिलता है। बुद्ध के पूर्व काशी का राज्य अति प्रसिद्ध था। षोडश महाजनपदों की सूची में इसका नाम है। काशी की समृद्धि तथा उसके वैभव का उल्लेख जातक ग्रन्थों में मिलता है।
काशी का पड़ोसी राज्य कोसल और मगध था। कोसल और काशी में दीर्घकालीन संघर्ष चला जिसमें अन्ततः कोसल विजयी रहा तथा वहाँ के राजा कंस ने काशी नरेश ब्रह्मदत्त को हटाकर उसे अपने राज्य में मिला लिया।
बुद्ध काल में हम काशी को कोशल राज्य के एक प्रान्त के रूप में पाते हैं। यहाँ के राजा प्रसेनजित ने अपनी बहन महाकोशला का मगधराज बिम्बिसार के साथ विवाह किया तथा दहेज में काशी प्रान्त दिया। इसकी वार्षिक आय एक लाख रुपये थी।
काशी की राजधानी वाराणसी में थी। महाभारत के अनुसार इस नगर की स्थापना दिवोदास नामक राजा ने की थी। जबकि पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना मनु के ७वीं पीढ़ी के ‘काश’ ने की थी।
साहित्यों में वाराणसी का वर्णन
काशी शैव धर्म का प्रमुख केन्द्र था जहाँ शिव के अनेक भक्त निवास करते थे। यह संस्कृत शिक्षा का भी केन्द्र था जहाँ विद्वानों का जमघट लगा रहता था। इसकी गणना भारत की सात पवित्र मोक्षदायिका नगरियों* में की गयी है।
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥*
वाराणसी ( काशी ) अनादि काल से हिन्दुओं के लिये परम तीर्थ रही है। ऐसी मान्यता है कि जो काशी में मृत्यु को प्राप्त होता है उसे मोक्ष मिल जाता है अर्थात् वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है। इस सम्बन्ध में सन्त कबीरदास रचित प्रसिद्ध साखी है —
“जौ काशी तन तजा कबीरा, तौ रामहिं कहा निहोरा रे।”
महाभारत के शान्तिपर्व ( २७ / ९ )* और वनपर्व ( ८४ / ७८ )# में काशी का नाम वाराणसी भी मिलता है।
‘समेतं पार्थिवं-क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः, कन्यार्थमाह्वयद् वीरो रथनैकेन संयुगे’।*
‘ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वृषभध्वजम्, कपिलाह्रदे नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्’।#
प्राचीन विश्वास के अनुसार काशी अमर नगरी है। विद्वानों का विचार है कि शिव-उपासना का यह सर्वप्राचीन केंद्र है। काशी आर्य सभ्यता के भी पूर्व विद्यमान था क्योंकि शिव और मातृदेवी की पूजा पूर्ववैदिक काल में भी प्रचलित मानी जाती है, परन्तु यह ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि यह प्रश्न पर्याप्त विवादपूर्ण भी है।
पुराणों के अनुसार इस नगरी का नाम सम्भवतया मनुवंश के सप्तम नरेश ‘काश’ के नाम पर ही काशी हुआ था। काशी जनपद का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद की पैप्पलाद-संहिता में कोसल तथा विदेह वासियों के साथ मिलता है। वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धा-काण्ड ( ४० / २२ ) में काशी और कोसल जनपदों का एकसाथ उल्लेख मिलता है।* इन देशों में वानरराज सुग्रीव ने वानर सेना को माता सीता के अन्वेषण के लिये भेजा था।
‘महींकालमहीं चापि शैलकाननशोभिताम्, ब्रह्ममालान्विदेहांश्च मालवान् काशिकोसलान्’।*
वायुपुराण ( २ / २१ / ७४ ) तथा विष्णुपुराण ( ४ / ८ / २-१० ) में काशी नरेशों की तालिका मिलती है।* ये भरत के पूर्वज राजाओं के नाम हैं किंतु इनमें केवल दिवोदास और प्रतार्दन के नाम ही वैदिक साहित्य में प्राप्त हैं।
‘काश्यस्य काशेयः काशिराज:’।
‘काशिराज गोत्रेऽवर् त्वमष्टधा सम्यगायुर्वेदं करिष्यसि … आदि।*
पुरुवंशी नरेशों के पश्चात् काशी में ब्रह्मदत्तवंशीय राजाओं का राज्य हुआ। बौद्ध साहित्यों विशेषकर जातक कथाओं में इस वंश के सभी राजाओं का सामान्य नाम ब्रह्मदत्त मिलता है ये शायद मूलरूप से मिथिला के विदेह राजाओं से सम्बन्धित थे।
महाभारत से ज्ञात होता है कि मगधराज जरासंध के समय काशी का राज्य मगध में सम्मिलित था परन्तु जरासंध के पश्चात् स्वतन्त्र हो गया था। भीष्म ने काशिराज की कन्याओं, अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण करके अन्तिम दो का विवाह विचित्रवीर्य से कराया था। महाभारत के अनुशासन पर्व से सूचित होता है कि काशी के राजा दिवोदास ने जो सुदेव का पुत्र था वाराणसी नगरी बसायी थी। इस राज्य का घेरा गंगा के उत्तरी तट से लेकर गोमती के दक्षिण तट तक विस्तृत था। इस वर्णन से जान पड़ता है कि काशी वाराणसी से प्राचीन थी।
विष्णुपुराण ( ५ / ३४ / ४१ ) में काशी का श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र द्वारा भस्म किये जाने का वर्णन है। मिथ्या वसुदेव पौड्रक को सहायता देने के कारण काशीनरेश से श्रीकृष्ण रुष्ट हो गये थे इसलिए उन्होंने उसे परास्त कर काशी को नष्ट कर दिया था।*
‘शस्त्रास्त्र मोक्षचतुरं दग्ध्वातद्बलमौजसा कृत्या गर्भावशेषांतां तदा वाराणसीं पुरीम्’।*
चीनी यात्री हुएनसांग भी इसे शैवधर्म का प्रसिद्ध केन्द्र बताता है। यहाँ शिव का प्रसिद्ध मन्दिर है जो आज भी असंख्य श्रद्धालुओं के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
काशी से थोड़ी दूर पर सारनाथ स्थित है जिसको प्रचीन समय में मृगदाव और ऋषिपत्तन भी कहते थे। यहीं पर भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। यह प्रथम उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से प्रख्यात है। सारनाथ में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक ध्वंसावशेष मिलते हैं; जैसे – सम्राट अशोक द्वारा स्थापित सिंह शीर्ष स्तम्भ जोकि भारतीय राजचिह्न है, गुप्तकालीन धमेख स्तूप, गुप्तकालीन भगवान बुद्ध की प्रतिमा इत्यादि।
काशी का सम्बन्ध जैन धर्म से भी है। २३वें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जन्म काशी में हुआ था। उनके पिता काशी नरेश अश्वसेन और माता वामा थीं।
जैन ग्रंथ प्रज्ञापणा सूत्र में भी वाराणसी का उल्लेख हैं। विविधितीर्थंकल्प के अनुसार असी गंगा और वरुणा के तट पर स्थित होने के कारण यह नगरी वाराणसी कहलाती थी। वाराणसी के सम्बन्ध में महाराज हरिश्चन्द्र की कथा, रूपांतरण के साथ इस जैन ग्रंथ में वर्णित है। वाराणसी के इस ग्रंथ में पांच मुख्य विभाग बतलाये गये हैं- देव वाराणसी, जहां विश्वनाथ का मंदिर तथा चौबीस जिनपट्ट स्थित हैं; राजधानी वाराणसी; यवनों का निवास स्थान; मदन वाराणसी और विजय वाराणसी। दंतखात सरोवर के निकट तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चैत्य स्थित था और उससे ६ मील पर बोधिसत्व मंदिर।
बुद्ध के समय के पूर्व काशी का राज्य भारत भर में प्रसिद्ध था और इसकी गणना अंगुत्तरनिकाय के अनुसार तत्कालीन षोडश महाजनपदों में थी। जातक कथाएँ काशीनरेश ब्रह्मदत्त के नाम से भरी पड़ी हैं। काशी के राजकुमारों का तक्षशिला जाकर विद्या पढ़ने का भी उल्लेख जातकों में मिलता है। इस समय काशी तथा पार्श्ववर्ती विदेह और कोसल जनपदों में बहुत शत्रुता थी। विदेह की सत्ता को समाप्त करने में काशी का भी बड़ा हाथ था। कई जातककथाओं में काशीनरेशों की महत्वाकांक्षाओं तथा काशीजनपद की महानता का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। गुहिलजातक में उल्लेख है कि काशी सारे भारतवर्ष में सर्वप्रमुख नगरी थी। इसका विस्तार बारह कोस था जबकि इन्द्रप्रस्थ तथा मिथिला का घेरा केवल सात कोस ही का था। तंडुलनालिजातक में उल्लेख मिलता है कि नगर की दीवारों का घेरा बारह कोस और मुख्यनगर तथा उप-नगरों का घेरा लगभग तीन सौ कोस था। अन्य जातकों में उल्लेख है कि बनारस के आसपास साठ कोस का जंगल था। काशी के कई नरेशों को जातकों में ‘सब्ब राजानम अगराजा’ ( अर्थात् ‘सर्वराजानाम् अग्रराजा’ ) कहा गया है। महावग्ग जातक में भी उल्लेख है कि प्राचीन काल में काशी राज्य बहुत समृद्धिशाली था।
भोजजानीय जातक में वर्णन मिलता हैं कि काशी के वैभव के कारण आसपास के सभी राजाओं की दृष्टि काशी पर रहती थी। एक बार तो सात पड़ोसी राजाओं ने काशी को घेर लिया था।
महात्मा बुद्ध से पूर्व ही कोसल और काशी का संघर्ष चला आ रहा था। जातक कथाओं में बताया गया है कि काशी नरेश ब्रह्मदत्त ने कोसल को विजित किया था। परन्तु कोसल नरेश कंस ने काशी को जीतकर कोसल में मिला लिया था। इसीलिये जातक ग्रंथों में कंस को ‘बारानसिग्गहो’ अर्थात् बनारस को जीतने वाला कहा गया है। कंस के बाद क्रमशः ‘महाकोसल’, ‘प्रसेनजित’ और ‘विड्डूभ’ शासक हुए। प्रसेनजित महात्मा बुद्ध के समकालीन और समान आयु के थे।
महात्मा बुद्ध के समय मगधराज बिम्बिसार ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया। बिम्बिसार ने पहले वैवाहिक राजनय से मगध की स्थिति को सुदृढ़ किया; यथा – कोसल राजकुमारी महाकोसला ( कोसला देवी ) से विवाह, लिच्छवि राजकुमारी चेलना ( छलना ) से विवाह, मद्र देश की राजकुमारी क्षेमा ( खेमा ) से विवाह। कोसल से वैवाहिक सम्बन्ध से मगध को काशी का कुछ भाग दहेज के रूप में प्राप्त हुआ था।
अजातशत्रु के समय भी काशी मगध और कोसल के मध्य संघर्ष का कारण बनी। परन्तु प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से करके शान्ति स्थापित किया और इस समय से काशी महाजनपद पूर्ण रूप से मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
उसने कोसल देश के राजा प्रसेनजित् की कन्या का नाम वाजिरा, वासवी और वासवदत्ता मिलता है। कथाओं में कहा गया है कि काशी को वासवदत्ता की शृंगार-प्रसाधन की सामग्री के व्यय के लिये दिया गया था।
बौद्ध साहित्य में काशी के कई नाम मिलते हैं; यथा – वाराणसी, केतुमती, सुरुंधन, सुदस्सन (सुदर्शन), ब्रह्मवद्धन (ब्रह्मवर्धन), पुप्फवती (पुष्पवती), रम्मानगरी (रामानगरी, वर्तमान रामनगर ) तथा मौलिनी आदि।
बुद्ध के पश्चात् काशी और निकटवर्ती सारनाथ का गौरव काफी दिनों तक बढ़ा-चढ़ा रहा। मौर्यसम्राट अशोक ने सारनाथ को महत्त्वपूर्ण समझते हुए यहाँ अपना जगत्प्रसिद्ध सिंहस्तम्भ प्रतिष्ठापित किया ( तीसरी शताब्दी ई०पू० )। तत्पश्चात् भारत के इतिहास के प्रमुख राजवंशों में से कुषाण, भारशिवनाग, गुप्त, मौखरी प्रतीहार, चेदि तथा गहड़वारों ने क्रम से यहाँ राज्य किया। इन सभी के राज्यकाल के सिक्के तथा अन्य पुरातत्त्वविषयक अवशेष यहाँ से प्राप्त हुए हैं।
सातवीं शती में हर्ष के समय चीनी यात्री युवानच्वांग ने काशी तथा सारनाथ की यात्रा की थी।
निर्माण, विध्वंस और पुनर्निर्माण
मुसलमानों के आधिपत्य का उत्तरभारत में विस्तार होने के साथ ही साथ काशी के बुरे दिन आ गये।
- १०३३ ई० में नियाल्तगीन नामक मुसलमान सेनाध्यक्ष ने सर्वप्रथम बनारस पर आक्रमण करके उसे लूटा।
- ११९४ ई० में बनारस को गुलामवंश के सुलतानों ने अपने राज्य में शामिल कर लिया।
- १५७५ ई० में अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल ने विश्वनाथ का एक विशाल मंदिर प्राचीन विश्वनाथ के देवालय के स्थान पर बनवाया।
- १६५९ ई० में धर्मांध औरंगजेब ने इस मंदिर को तुड़वाकर इसकी सामग्री से उसी स्थान पर वर्तमान ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ बनवायी।
- मराठों के उत्कर्षकाल में माता अहल्याबाई होल्कर ने अनेक घाट और मंदिर गंगा तट पर बनवाये। वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर उन्हीं का बनवाया हुआ है।
- पंजाब-केसरी महाराजा रणजीतसिंह ने भी विश्वनाथ के दुबारा बने हुए वर्तमान मंदिर पर सोने का पत्र चढ़वाया।
- इस समय काशी विश्वनाथ गलियारा का निर्माण प्रगति पर है।
- हिन्दू पक्ष अभी भी अपने मंदिर की पुनर्प्राप्ति के लिये प्रयासरत हैं। माननीय न्यायालय ने ‘भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग’ को निर्देश दिया है कि ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करके रिपोर्ट प्रस्तुत करें जिसके आधार पर आगे की कार्यवाही की जा सके।
बनारस के घाट
काशी के अनेक घाटों में दशाश्वमेध, मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र तथा तुलसी घाट अधिक प्रसिद्ध हैं। इन सब के साथ पौराणिक तथा ऐतिहासिक गाथाएँ जुड़ी हुई हैं।
अकबर-जहांगीर के समय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जिस घाट के निकट रहते थे वह तुलसी घाट के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि रामचरितमानस के उत्तरार्ध, किष्किंधा काण्ड से उत्तरकाण्ड तक की रचना तुलसीदास ने इसी पुण्य स्थान पर की थी।
शिक्षा का केन्द्र
वाराणसी का प्राचीन समय से ही शैक्षणिक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध इतिहास रहा है। यह अपने शिक्षण केन्द्रों के लिये प्रसिद्ध था। यहाँ पर दर्शन, गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा और अन्यान्य विषयों की शिक्षा जाती थी। यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। उच्च शिक्षण का यह केन्द्र था। नगर का आध्यात्मिक शिक्षा से सम्बन्ध और पवित्र गंगा नदी के तट पर स्थित होने के कारण यह जहाँ एक ओर आध्यात्मिक केन्द्र था वहीं लौकिक विषय की भी उपेक्षा नहीं की गयी थी।
यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि प्राचीन भारत के प्रमुख शिक्षण संस्थान जहाँ आततायी आक्रांताओं की बर्बरता की भेंट चढ़ गये ( जैसे – तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बलभी इत्यादि विश्वविद्यालय ), वहीं वाराणसी अपनी निरंतरता को बनाये रखने में सक्षम रहा है। ऐसा नहीं है कि वाराणसी ने क्रूर तुर्की आक्रमण नहीं झेला परन्तु यह कैसे अपने को एक सांस्कृतिक, शैक्षणिक व धार्मिक केन्द्र के रूप में बनाये रखने में सक्षम रहा यह जहाँ विस्मयकारी घटना है वहीं शोघ का विषय भी।
उत्तर वैदिक काल में में हम जिस ज्ञान क्रांति का सूत्रपात पाते हैं उसमें कुछ राजाओं का विशेष योगदान है। कुरु, पांचाल, विदेह, काशी के नरेशों में दार्शनिक चर्चा के हमें उल्लेख मिलते हैं। इस सन्दर्भ में अजातशत्रु का दार्शनिक के रूप में उल्लेख मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये अजातशत्रु मगध के अजातशत्रु से भिन्न हैं।
मध्यकाल में अनेक मुस्लिम विद्वानों ने वाराणसी आकर शिक्षा ग्रहण की थी :
- अबू माशिर अल बल्ख ( Abu Maashir-al-Balkh ) एक प्रसिद्ध ९वीं शताब्दी ( ७८७ – ८८६ ई० ) के अरबी-फारसी खगोलशास्त्री थे। इन्होंने १० वर्षों तक बनारस में रहकर अध्ययन किया था।
- अलबेरुनी ( Al-Biruni ) आक्रांता महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत आये थे। उन्होंने काशी में रहकर ब्राह्मणों से संस्कृति सीखा और विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन किया। तत्पश्चात् तहक़ीक़-ए-हिन्द या किताब-उल-हिन्द नामक रचना अरबी भाषा में की।
वाराणसी से जुड़े विद्वानों में आदि शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानन्द, कबीरदास, रैदास, गोस्वामी तुलसीदास इत्यादि का नाम प्रमुख है। मध्यकाल में वाराणसी भक्ति आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र था।
- आदि शंकराचार्य अपने गुरु गौड़पाद ( गोविन्द योगी ) के आदेश पर काशी आये और यहाँ पर साधना की थी।
- वल्लभाचार्य के जन्म के समय काशी तुर्कों द्वारा आक्रांत था। उनके माता-पिता काशी से जब दक्षिणी ओर प्रवास कर रहे थे तब उनका रायपुर में जन्म हुआ था।
- रामानन्द का जन्म प्रयाग में हुआ परन्तु उन्होंने अपनी कर्मभूमि काशी को बनाया। यहीं पर उन्होंने रामानन्द सम्प्रदाय की स्थापना की थी। उनके १२ शिष्यों के नाम मिलते है जिसमें कबीर, रैदास, धन्ना और पद्मावती प्रमुख हैं।
- कबीरदास निर्गुण मार्गी भक्ति धारा के कवि है। उनके नाम पर कबीरपंथी सम्प्रदाय चल पड़ा। उनका जन्म वाराणसी और मृत्यु मगहर में हुआ था।
- रैदास भी निर्गुण भक्तिमार्गी कवि थे। ये मीराबाई के गुरु माने जाते हैं।
- भक्ति आन्दोलन ने उच्चतम बिन्दु को गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में छुआ। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य तो है ही साथ ही विश्व के महाकाव्यों में भी अपना स्थान रखता है। इस महाकाव्य के कुछ अंशों की रचना वाराणसी के तुलसीदास घाट पर की गयी थी।
आर्थिक केन्द्र
काशी की स्थिति जहाँ एक ओर सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी वहीं गंगा नदी के तट पर स्थित होने के कारण इससे व्यापारिक मार्ग भी जुड़ते थे। प्राचीन काल से ही हमें उल्लेख मिलता है कि उत्तरापथ से अश्व व्यापारी बनारस में आकर अपने घोड़े बेचते थे। जातक ग्रंथों में काशी की समृद्धि और सम्पन्नता का जो विवरण मिलता है वह अकारण नहीं है। इसीलिए आर्थिक महत्त्व के कारण काशी पर अधिकार करने के लिये कोसल और मगध में एक लम्बा संघर्ष चला था। इस संघर्ष में अंतिम सफलता मगध को मिली थी।