मौर्य राजवंश की उत्पत्ति या मौर्य किस वर्ण या जाति के थे?

भूमिका

भारतीय इतिहास के अनेक महान् व्यक्तियों के समान चन्द्रगुप्त मौर्य का वंश भी अंधकारपूर्ण है। मौर्य राजवंश की उत्पत्ति के विषय में ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलते हैं। फलस्वरूप उनकी जाति या वर्ण का निर्धारण भारतीय इतिहास की एक जटिल समस्या है।

मौर्य राजवंश की उत्पत्ति : तीन मत

ब्राह्मण ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य को एक स्वर में शूद्र अथवा निम्न कुल से सम्बन्धित करते हैं, जबकि बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ उन्हें क्षत्रिय सिद्ध करते हैं। वहीं विदेशी स्रोत चन्द्रगुप्त मौर्य के बारे में कहते हैं कि उनका सम्बन्ध किसी राजपरिवार से नहीं था अर्थात् वे सामान्य कुल में जन्में थे। इस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति या मौर्य वंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीन मत हैं :

  • एक, चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म शुद्र वंश या निम्न वंश में हुआ था। यह मत ब्राह्मण ( संस्कृत ग्रंथों ) में मिलता है।
  • द्वितीय, चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म क्षत्रिय वंश में हुआ था। इस मत कि विवरण हमें बौद्ध धर्म ( पालि साहित्य ) और जैन धर्म ( प्राकृत साहित्य ) में मिलता है।
  • तृतीय, चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म सामान्य परिवार ( Humble Family ) में हुआ था और उसका सम्बन्ध किसी राजवंश से नहीं था। इसका विवरण हमें क्लासिकल लेखकों ( यूनानी-रोमन ) की रचनाओं में प्राप्त होता है।

यहाँ हम चन्द्रगुप्त मौर्य ( मौर्य वंश ) की उत्पत्ति-विषयक विभिन्न मतों की समालोचनात्मक समीक्षा करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करेंगे।

मौर्य शुद्र थे

ब्राह्मण ( हिन्दू धर्म ) ग्रंथों में एक मत से चंद्रगुप्त मौर्य को शुद्र वंश से सम्बन्धित किया गया है। इसमें प्रमुख ग्रंथ हैं :

  • विष्णुपुराण
  • विष्णुपुराण पर श्रीधरस्वामी की टीका
  • विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस
  • मुद्राराक्षस पर घुण्डिराज की टीका
  • सोमदेव कृत कथासरित्सागर
  • क्षेमेन्द्र कृत बृहत्कथामंजरी

इनमें से कुछ पर समीक्षात्मक दृष्टिपात करना समीचीन है :

ब्राह्मण साहित्य का साक्ष्य

ब्राह्मण साहित्य में सर्वप्रथम पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। पुराण नन्दों को ‘शूद्र’ कहते हैं। विष्णुपुराण में कहा गया है कि शैशुनागवंशी शासक ‘महानंदी के पश्चात् शुद्र योनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे।

ततः प्रभृत्ति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः।

कुछ विद्वानों ने इस कथन के आधार पर मौर्यों को शुद्र सिद्ध करने का प्रयास किया है। विष्णुपुराण के एक भाष्यकार श्रीधरस्वामी ने चन्द्रगुप्त को नन्दराज की पत्नी ‘मुरा’ से उत्पन्न बताया है। उनके अनुसार मुरा की सन्तान होने के कारण ही वह मौर्य कहा गया।

चन्द्रगुप्तम् नंदस्यैव पत्यंतरस्य मुरासंज्ञस्य पुत्रं मौर्याणाम् प्रथमम्।

दूसरा प्रमाण विशाखदत्त कृत ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक से लिया गया है। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को नन्दराज का पुत्र माना गया है। किन्तु इसमें जो विवरण मिलता है उससे स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रगुप्त नन्दराज का वैध पुत्र नहीं थे क्योंकि नाटक में ही नन्दवंश को चन्द्रगुप्त का ‘पितृकुलभूतं’, अर्थात् पितृकुल बनाया गया, पद उल्लिखित है। यदि चन्द्रगुप्त नन्दराज का वैध पुत्र होता तो उसके लिये ‘पितृकुल’ का प्रयोग मिलता। पुनश्च एक स्थान पर लिखा गया है कि नन्दराज का समूल नाश हो गया। यदि चन्द्रगुप्त नन्द राजा का वास्तविक पुत्र होता तो उसके बचे रहने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह नाटक नन्दों को उच्च कुल तथा चन्द्रगुप्त को निम्न कुल का बताता है। इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’ कहा गया है। शुद्र उत्पत्ति के समर्थक विद्वानों ने इन दोनों शब्दों को शुद्र जाति के अर्थ में ग्रहण किया है।

१८वीं शताब्दी ईस्वी के ‘मुद्राराक्षस’ के एक टीकाकार घुण्डिराज ने चन्द्रगुप्त को शुद्र सिद्ध करने के लिये एक अनोखी कहानी गढ़ी है। उसके अनुसार सर्वार्थसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा को दो पत्नियाँ थीं सुनन्दा तथा मुरा। सुनन्दा एक क्षत्राणी थी जिसके नौ पुत्र हुए जो ‘नव नन्द’ कहे गये। मुरा शूद्रा (वृषलात्मजा) थी। उसका एक पुत्र हुआ जो ‘मौर्य’ कहा गया।

ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के दो संस्कृत ग्रन्थों सोमदेव कृत कथासरित्सागर तथा क्षेमेन्द्र कृत बृहत्कथामंजरी में चन्द्रगुप्त को शुद्र उत्पत्ति के विषय में एक भिन्न विवरण मिलता है। इन ग्रन्थों के अनुसार ‘नन्दराज’ की अचानक मृत्यु हो गयी तथा ‘इन्द्रदत्त’ नामक एक व्यक्ति योग के बल पर उसकी आत्मा में प्रवेश कर गया तथा राजा बन बैठा। तत्पश्चात् वह योगनन्द के नाम से जाना जाने लगा। उसने नन्दराज की पत्नी से विवाह कर लिया जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु वास्तविक नन्द राजा (पूर्वनन्द) को पहले से ही चन्द्रगुप्त नामक एक पुत्र था। योगनन्द अपने तथा अपने पुत्र हिरण्यगुप्त के मार्ग में चन्द्रगुप्त को बाधक समझता था जिससे दोनों में वैमनस्य होना स्वाभाविक था। वास्तविक नन्दराजा के मंत्री शकटार ने चन्द्रगुप्त का पक्ष लिया। चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपनी ओर मिलाकर उसकी सहायता से शकटार ने योगनन्द तथा हिरण्यगुप्त का अन्त कर दिया तथा राज्य का वैध उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त ही सिंहासन पर बैठा। इस प्रकार इन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त को नन्दराज का पुत्र मानकर उसकी शुद्र उत्पत्ति का मत व्यक्त किया गया है।

ब्राह्मण ग्रंथों की मौर्यों के प्रति दुर्भावना के कारण

प्रश्न यह उठता है कि भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली राजवंश के प्रति ब्राह्मण साहित्य दुर्भावनापूर्ण रवैया क्यों अपनाते हैं? मौर्य वंश को शुद्र वंश का सिद्ध करने हेतु बार-बार मनगढ़ंत कहानियाँ क्यों बताते है?

इसका बड़ा ही सीधा सा उत्तर है। तत्कालीन समाज में जो धार्मिक आन्दोलन चला उसका केन्द्र मगध था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जीवन के अन्तिम समय में जैन धर्म अपना लिया। बिन्दुसार ने आजीवक सम्प्रदाय का अनुशीलन किया। सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध हो गये और एक स्थानीय धर्म को उठाकर उन्होंने अन्तराष्ट्रीय पटल पर लोकप्रिय बना दिया।

ब्राह्मण वर्ग को यद्यपि सम्मान मिलता था क्योंकि स्वयं अशोक के अभिलेख इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। परन्तु उनका विशेषाधिकार जाता रहा। उनको अन्य धर्मों के भिक्षुओं, निर्ग्रंथों, आजीवकों के समान ही सम्मान मिलता पर कोई विशेष तवज्जो नहीं।

वह ब्राह्मण वर्ण जो यह घोषणा करता फिरता हो कि — ‘१० वर्षीय ब्राह्मण बालक को भी १०० वर्षीय क्षत्रिय से श्रेष्ठ है’ (आपस्तम्ब)। विष्णुधर्मसूत्र तो ‘१० वर्षीय ब्राह्मण बालक को १०० वर्षीय क्षत्रिय तक का पिता ही बता दिया गया’। गौतम धर्मसूत्र में तो ब्राह्मण तो दण्ड से परे बता दिया और राजा को सलाह दी कि उसे ६ प्रकार के दण्डों से मुक्त रखे — शारीरिक यातना, कारावास, अर्थदण्ड, देश-निकाला, अपमानित न करें और मृत्युदण्ड। इन विशेषाधिकारों को ब्राह्मण वर्ग धर्म का सहारा लेकर प्राग्मौर्यकाल ( Pre-Mauryan Age ) में सामाज में स्थापित कर चुके थे।

किसी भी राजसत्ता के लिये ऐसे विशेषाधिकार मान्य नहीं हो सकते। मौर्यों ने ‘व्यवहार समता’ और ‘दण्ड समता’ स्थापित किया। यह बात ब्राह्मण वर्ग को पच नहीं रही थी। इसीलिये वे मौर्य वंश को नीच, वृषल, शुद्र इत्यादि सिद्ध करते हैं।

शुद्र उत्पत्ति के मत की समीक्षा

यदि हम सावधानीपूर्वक उपर्युक्त मतों की समीक्षा करें तो ऐसा प्रतीत होगा कि वे कल्पना पर अधिक आधारित है, ठोस तथ्यों पर कम। जहाँ तक पुराणों का प्रश्न है, वे चन्द्रगुप्त की जाति के विषय में बिल्कुल मौन है। वे एक स्वर से नन्दों को शूद्र कहते हैं तथा यह बताते हैं कि द्विजर्षभ (श्रेष्ठ ब्राह्मण) कौटिल्य सभी नन्दों को मारकर चन्द्रगुप्त को सिंहासनासीन करेगा।

उद्धरिष्यति तान् सर्वान् कौटिल्यो द्विजर्षभः।

कौटिल्याश्चंद्रगुप्तं तु ततो राज्यभिषेक्ष्यति॥

विष्णुपुराण का कथन केवल नन्दों के ऊपर ही लागू होता है, न कि बाद के सभी राजवंशों पर हमें निश्चित रूप से पता है कि नन्दों के बाद के सभी राजवंश शुद्र नहीं थे। पुराणों का टीकाकार इतिहास तथा व्याकरण दोनों से अनभिज्ञ लगता है। इस सम्बन्ध में राधाकुमुद मुखर्जी बहुत ही रोचक टिप्पणी करते हैं कि — “विष्णुपुराण का टीकाकार व्याकरण के नियमों का पालन करने से अधिक चन्द्रगुप्त की एक माँ ढँढ़ने में ललायित है।”

पाणिनीय व्याकरण के नियमों के अनुसार मौर्य शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग ‘मुर’ शब्द से होगी। ‘मुरा’ शब्द से ‘मौरेय’ बनेगा, मौर्य नहीं। इस सम्बन्ध में प्रो० राधाकृष्ण चौधरी का कहना उचित ही है — “व्याकरण के नियमों के अनुसार, ‘मुरा’ से मौर्य शब्द बनना सम्भव नहीं है। यह केवल ‘मुर’ से बन सकता है, जिसका उल्लेख पाणिनि ने एक गोत्र रूप में किया है।”

मुद्राराक्षस का साक्ष्य मौर्यो की जाति के विषय में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। यह नाटक नन्दों को उच्चवर्ण का बताता है जो भारतीय साहित्य तथा विदेशी विवरण के आलोक में विश्वसनीय नहीं है। जहाँ तक ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’ शब्दों का प्रश्न है, इनके आधार पर भी हम चन्द्रगुप्त को शूद्र नहीं मान सकते। मनुस्मृति तथा महाभारत में ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग धर्मच्युत व्यक्ति के लिये किया गया है। मनु के अनुसार ‘भगवान धर्म को वृष कहते हैं। जो पुरुष धर्म का नाश करता है देवता उसे वृषल समझते हैं। अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिये।’ अन्यन्त्र मनु लिखते हैं कि क्षत्रिय जातियाँ (उपनयनायि) क्रियाओं के लोप होने से तथा (याजन, अध्यापनादि के निमित्त) ब्राह्मणों को न देखने से वृषलत्व को प्राप्त हुई।

वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम्।

वृषलं तं विदुर्देवाः तस्मात् धर्म न लोपयेत्॥

शनैकस्तु क्रिया लोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥

मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के लिये ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग अधिकांशत चाणक्य द्वारा तथा एक स्थान पर राक्षस तथा दूसरे स्थान पर कंचुकी द्वारा किया गया है। चाणक्य इसे शुद्र के अर्थ में कदापि प्रयोग नहीं कर सकते। वह चन्द्रगुप्त को प्रेमपूर्वक ही ‘वृषल’ कहते हैं। नाटक में ही एक स्थान पर इस शब्द का प्रयोग ‘राजाओं में वृष’ अर्थात् सर्वोत्तम राजा (वृषलेन वृषेण राज्ञाम्) के अर्थ में मिलता है। अतः हम इसे शुद्र जाति का बोधक नहीं मान सकते।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में जैन-धर्म ग्रहण कर लिया था। संभव है विशाखदत्त ने इसी कारण ब्राह्मण व्यवस्था के पोषक चाणक्य के मुख से उसे ‘वृषल’ कहलाया हो।

  • ‘वृषल’ शब्द के विविध अर्थों के सम्बन्ध में दृष्टव्य, डॉ० अतुल कुमार सिनहा के लेख Changing Denotations of the term Vrishal-A Case Study in Downward Social Mobility-G. N. Jha Kendriya Sanskrit Vidyapeetha, Vol. 30. No. 4, Alld, 1984.

इसी प्रकार ‘कुलहीन’ शब्द का प्रयोग ‘सामान्य कुलोत्पन्न’ अर्थ में हो सकता है। इससे केवल इतना हो प्रमाणित होता है कि चन्द्रगुप्त राजकुल से सम्बन्धित नहीं थे। किन्तु इन शब्दों को लेकर इतनी खींचतान करने की आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती। वास्तविकता तो यह है कि समस्त नाटक की ऐतिहासिकता ही चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में संदिग्ध है। इसकी रचना मौर्यकाल के लगभग आठ शताब्दियों बाद की गयी थी। अतः हम मौर्य इतिहास के पुनर्निर्माण में इसे प्रामाणिक नहीं मान सकते।

मुद्राराक्षस के टीकाकार ने जो कथा गढ़ी है वह पूर्णतया कपोलकल्पित है जिसका कोई आधार नहीं प्रतीत होता कथासरित्सागर तथा बृहत्कथामन्जरी काफी बाद की रचनायें हैं, अतः मौर्य इतिहास के विषय में उन्हें भी प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। इन ग्रन्थों में नन्द, चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के नाम के अतिरिक्त कोई भी ऐसी बात नहीं कही गयी है जो चन्द्रगुप्त को शुद्र सिद्ध करे। पुनश्च ये ग्रन्थ अनेक अनैतिहासिक कथाओं से परिपूर्ण हैं।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त को शुद्र अथवा निम्न वर्ण से सम्बन्धित करने के पक्ष में जो तर्क दिये गये हैं वे सबल नहीं है। अतः हम चन्द्रगुप्त मौर्य को शुद्र नहीं मान सकते।

मौर्य क्षत्रिय थे

जैन और बौद्ध साहित्य मौर्य वंश को क्षत्रिय बताते हैं –

  • बौद्ध धर्म से सम्बंधित प्रमुख ग्रंथ हैं – महापरिनिब्बानसुत्त, दिव्यावदान, महावंश, महाबोधिवंश इत्यादि।
  • जैन ग्रंथों में प्रमुख हैं – परिशिष्टपर्वन्, आवश्यकसूत्र की हरिभद्रिया टीका इत्यादि।

इनमें से कुछ का विश्लेषण करना समीचीन है :

बौद्ध साहित्य का साक्ष्य

ब्राह्मण परम्परा के विपरीत बौद्ध ग्रंथों का प्रमाण मौर्यो को क्षत्रिय जाति से सम्बद्ध करते हैं। यहाँ चन्द्रगुप्त को ‘मोरिय’ क्षत्रिय वंश का कहा गया है। ये ‘मोरिय’ कपिलवस्तु के शाक्यों की ही एक शाखा थे

जिस समय कोशल नरेश विड्डूभ ने कपिलवस्तु पर आक्रमण किया, शाक्य परिवार के कुछ लोग कोशलनरेश के अत्याचारों से बचने के लिये हिमालय के एक सुरक्षित क्षेत्र में आकर बस गये। यह स्थान मोरों के लिये प्रसिद्ध था, अतः यहाँ के निवासी ‘मोरिय’ कहे गये। ‘मोरिय’ शब्द मोर से ही निकला है जिसका अर्थ है- ‘मोरों के प्रदेश का निवासी’

एक दूसरी कथा में ‘मोरिय नगर‘ का उल्लेख हुआ है तथा यह बताया गया है कि यह नगर जिन ईटों से निर्मित हुआ था, उनकी बनावट मयूरों के गर्दन के समान थी। अतः इस नगर के निर्माता ‘मोरिय’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

अनेक बौद्ध ग्रन्थ बिना किसी संदेह के चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित करते हैं। महाबोधिवंश उसे राजकुल से सम्बन्धित बताता है जो मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था।

नरिन्द्रकुलसंभव।

महावंश में चन्द्रगुप्त, ‘मोरिय’ नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न बताया गया है।

मोरियानाम् खत्तियानाम् वंसे जातं सिरीधरं,

चन्द्रगुप्तोति पंचातं चणक्को ब्राह्मणों ततो।

नवम् धननन्दन्तं घातेत्वा चण्डकोधसा,

सकले जम्बूद्वीपन्हि रज्ज समभिसिंचिसो॥

— महावंश, गेगर का अनुवाद।

महापरिनिब्यानसूत‘ में मौर्यों को पिप्पलिवन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का बताया गया है। इसके अनुसार बुद्ध की मृत्यु के बाद मोरियों ने कुशीनारा के मल्लों के पास उनके अवशेषों का अंश प्राप्त करने के लिये। राजदूत भेजकर अपने क्षत्रिय होने के आधार पर ही दावा किया था। महापरिनिब्बानसूत्त प्राचीनतम् बौद्ध ग्रन्थ है, अतः इसे अपेक्षाकृत अधिक विश्वासनीय माना जा सकता है।

जैन साहित्य का साक्ष्य

इसमें हेमचन्द्र का ‘परिशिष्टपर्वन्‘ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें चन्द्रगुप्त को ‘मयूर पोषकों के ग्राम के (मयूर पोषक ग्रामे) मुखिया की पुत्री का पुत्र’ बताया गया है।

आवश्यक सूत्र की हरिभद्रीया टीका में भी चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया के कुल में उत्पन्न कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि जैन ग्रन्थ नन्दों को शूद्र बताकर उनकी निन्दा करते हैं जबकि वे मौर्यो की शूद्र उत्पत्ति का संकेत तक नहीं करते।

इस प्रकार जैन तथा बौद्ध दोनों ही साक्ष्य मौर्यो को मयूर से सम्बन्धित करते हैं। इस मत की पुष्टि अशोक के लौरियानन्दनगढ़ के स्तम्भ के नीचे के भाग में उत्कीर्ण मयूर की आकृति से भी हो जाती है। सर्वप्रथम ग्रुडनवेडेल (Grunwedel) महोदय ने यह बताया था कि मयूर मौर्य रावंश का राजकीय चिन्ह (Dynastic Emblem) था। इसी कारण मौर्य युग की कलाकृतियों में मयूरों का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है। मार्शल का विचार है कि साँची के पूर्वी द्वार तथा अन्य भवनों को सजाने के लिए मोरों के चित्र बनाये जाते थे। साँची के विशाल स्तूप में भी मयूरों की कई आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती है।

मौर्य सामान्य परिवार से थे

इसमें मुख्य रूप से क्लासिकल लेखक आते हैं — प्लूटार्क, जस्टिन आदि।

विदेशी लेखकों के साक्ष्य

सिकन्दर के उत्तरकालीन यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में जो विवरण दिये हैं, वे यहाँ विचारणीय है। यूनानी लेखक उसे ‘एंड्रोकोटस’, ‘सेंड्रोकोटस’ आदि नामों से जानते हैं।

प्लूटार्क के विवरण से ज्ञात होता है कि जब चन्द्रगुप्त मौर्य अपनी युवावस्था में स्वयं सिकन्दर से मिले थे तथा बाद में कहा करता था कि सिकन्दर बड़ी आसानी से सम्पूर्ण देश को जीत लिया होता क्योंकि तत्कालीन नन्द राजा अपने कुल की निम्नता के कारण जनता में अत्यधिक घृणित एवं अप्रिय था।

Androkottus himself, who was then a lad, saw Alexander and afterwards used to declare that Alexander might easily have conquered the whole country as the then king was hated by his subjects on account of his mean and wicked disposition.

— Plutarch’s Lives, Vol. 8.

इससे निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य यदि स्वयं निम्नकुलोत्पन्न होते तो वह नन्दों के कुल के विषय में ऐसी बातें नहीं करते।

जस्टिन१० हमें बताते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य ‘यद्यपि सामान्य कुलोत्पन्न’ (Born of humble origin) थे फिर भी दैवी प्रेरणावश सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा रखते थे। एक बार साण्ड्रोकोटस की स्पष्टवादिता से सिकन्दर अप्रसन्न हो गया तथा उसने उसे मार डालने का आदेश दिया। चन्द्रगुप्त अपनी सतर्कता से बच निकले……।’

  • The Invasions of India by Alexander the Great, Justine; p. 327.१०

इन विवरणों से मात्र यहाँ निष्कर्ष निकलता है कि वह राजपरिवार से सम्बन्धित नहीं था।

अन्य विवरण

मौर्यों के क्षत्रिय होने के प्रमाण कुछ मध्यकालीन अभिलेख से भी मिलता है। इनमें मौर्यों को ‘चन्द्रवंशीय क्षत्रिय’ और मंद्यातरी का वंशज बताया गया है। राजपूताना गज़ेटियर में मौर्यों को राजपूत प्रमाणित करने की चेष्टा की गयी है।

निष्कर्ष : वर्ण-निर्धारण

इन विविध प्रमाणों की समालोचनात्मक समीक्षा के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों का प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक सन्तोषजनक और ग्राह्य है। वस्तुतः चन्द्रगुप्त मोरिय क्षत्रिय ही थे। चन्द्रगुप्त मौर्य को शूद्र अथवा निम्नजातीय सिद्ध करने के लिये हमारे पास कोई ठोस आधार नहीं है। सबसे प्रमुख तथ्य तो यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य वर्णाश्रम धर्म का प्रबल समर्थक और पोषक थे। उनके अनुसार क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति ही राजत्व का अधिकारी हो सकते हैं।

अर्थशास्त्र में आचार्य कौटिल्य एक स्थान पर बताते हैं कि ‘दुर्बल व्यक्ति भी यदि उच्च वर्ण (अभिजात) का हो तो वह निम्न कुलोत्पन (अनभिजात) बलवान व्यक्ति की अपेक्षा राजा होने के योग्य होता है। ऐसे व्यक्ति का वर्ण की श्रेष्ठता के कारण प्रजा स्वतः सम्मान करती है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करती है, जबकि शुद्रवंशी राजा घृणा का पात्र होता है।’११

दुबलमभिजातं प्रकृतयः स्वयमुपनमन्ति,

बलवतश्चानभिजातस्योपजापं विसंवादयन्ति ……।११

— अर्थशास्त्र।

इन उद्धरणों से स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि यदि चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय नहीं होते तो चाणक्य नन्दों के विनाश के लिये उन्हें अपना अस्त्र नहीं बनाते। वह एक शुद्र को राजगद्दी पर कदापि नहीं बैठा सकते थे।

अतः चन्द्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय मानना हो सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है।

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