धर्म का भारतीय सभ्यता और संस्कृति में विशेष स्थान है। धर्म का इतिहास उतना ही पुरातन है जितना कि मानव सभ्यता का। प्रस्तर युग से ही मानव अलौकिक शक्तियों की तरफ़ आकर्षित होने लगा था। लोहदा नाला ( बेलन नदी घाटी, उत्तर प्रदेश ) से प्राप्त अस्थि की पुरापाषाणकालीन मातृ देवी की प्रतिमा, मध्यपाषाकालीन अनेक स्थलों से अंत्येष्टि संस्कार के रूप में मृतकों के समाधिकरण और उनके साथ उपयोगी सामग्री रखना आदि मानव के पारलौकिक जीवन में विश्वास के संकेत देता है। नवपाषकाल में लोकोत्तर जीवन में विश्वास बढ़ता गया और यही क्रम ताम्रपाषाण काल एवं कांस्य काल में जारी रहा।
वैदिक काल से पूर्व धर्म की जानकारी हमें पुरातात्विक साक्ष्यों से होती है।
ताम्र–पाषाणिक काल में धर्म
यह नवपाषाणकाल का स्वाभाविक विकास था। तकनीकी रूप से जव मानव ने प्रस्तर उपकरणों के साथ-साथ ताम्र औजारों का प्रयोग शुरू किया तो यह संस्कृति ताम्र-पाषाणिक संस्कृति कहलायी। यद्यपि यह कांस्य संस्कृति की पूर्ववर्ती मानी जाती है परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में यह सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद अस्तित्व में आयी और कुछ का तो सह-अस्तित्व भी रहा।
ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में मातृ देवी और वृषभ की पूजा की जाती थी। इनामगाँव से गणेशजी के आद्य रूप का संकेत मिलता है। इनामगाँव से ही अनेक सिरकटी मृण्मूर्तियाँ मिलती हैं जिनकी तुलना महाभारत की देवी विशिरा से की गयी है। अग्निकुंड और अंत्येष्टि वस्तुओं से भी तत्कालीन धार्मिक विश्वास का पता चलता है।