भारतीय दर्शन – एक सामान्य परिचय

परिचय

भारतीय दर्शन के तत्त्व हमें वैदिक ऋषियों की काल्पनिक उड़ानों में अपनी विशिष्टता के साथ बीजरूप में दृष्टिगोचर होते हैं, जो आगे चलकर शंकर के अद्वैत वेदांत में चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ।

हमारे ऋषिगण सत्य की खोज में बराबर प्रयत्नशील रहे, जिसके फलस्वरूप कई दार्शनिक सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने जीव और जगत् को पूर्वाग्रह से परे होकर मुक्त, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण भाव से देखा।

दर्शन क्या है?

मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है।( अरस्तू ) इसी विवेक अर्थात् बुद्धि के कारण मानव विभिन्न संदर्भ में तर्कसंगत विचार करता है। मनुष्य की बौद्धिकता उसे अनेक प्रश्नों पर गहन विचार करने को प्रेरित और उत्साहित करती हैं; जैसे —

  • विश्व का स्वरूप कैसा है? इसकी उत्पत्ति कैसे और क्यों हुई? विश्व का कोई प्रयोजन है या यह प्रयोजनहीन है? यह संसार क्यों है? संसार का स्रष्टा कौन है?
  • ईश्वर है या नहीं है? यदि ईश्वर है तो उसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण क्या है?
  • आत्मा क्या है? आत्मा है या नहीं है?
  • जीव क्या है? मनुष्य क्या है? जीवन क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है? मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है?
  • हम क्यों हैं? मृत्यु के बाद क्या होता है? जीवन से परे क्या है?
  • ज्ञान क्या है? सत्य ज्ञान का स्वरूप एवं सीमाएँ क्या हैं?
  • शुभ और अशुभ क्या है? उचित और अनुचित के निर्णय का आधार क्या है? नैतिकता क्या है?
  • व्यक्ति और समाज का क्या संबंध है?

ऐसे प्रश्नों के प्रति मानव शुरू से ही जिज्ञासु रहा है। इन्हीं प्रश्नों का समाधान दर्शनशास्त्र में किया जाता है। इन प्रश्नों के समाधान में भावना नहीं अपितु बुद्धि का सहारा लिया जाता है।

दर्शन की अँग्रेजी ‘Philosophy’ हैं और इसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों से हुई है – ‘philein’ + ‘sophos’। philein का अर्थ है – to love और sophon का अर्थ है – wise / wisdom । इस तरह Philosophy का अर्थ है – ‘love to wisdom’

दर्शन शब्द की निष्पत्ति संस्कृति भाषा के ‘दृश्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘देखना’ है। परन्तु यहाँ देखने का अर्थ ‘तार्किक और अंतर्दृष्टि से देखना’ है। ‘दृश्यता यथार्थ तत्त्वमनेन’ अर्थात् जिससे यथार्थ तत्त्व की अनुभूति या अनुभव हो वही दर्शन है। दूसरे शब्दों में भारत में दर्शन उस विद्या को कहा गया है जिससे तत्त्व-ज्ञान हो सके।

भारतीय दर्शन में अनुभूतियों को दो श्रेणी में बाँटा गया है :-

  • ऐन्द्रिय ( sensuous )
  • अनैन्द्रिय ( non-sensuous )

जिस ज्ञान या अनुभव को हम इंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पाते हैं वह ऐन्द्रिक या लौकिक ज्ञान की श्रेणी में आता है। दूसरी ओर जो ज्ञान हमें अनैन्द्रिक अनुभव से मिलता है वह आध्यात्मिक अनुभूति की श्रेणी में आता है।

भारतीय चिंतनधारा में माना गया है कि तत्त्व का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा सम्भव नहीं हो सकता बल्कि यह तो इन्द्रियातीत होता है। इसलिए इसका ज्ञान मात्र आध्यात्मिक अनुभूति से ही सम्भव है।

आध्यात्मिक अनुभूति ( intuitive experience ) बौद्धिक ज्ञान से श्रेष्ठ है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञेय और ज्ञाता का द्वैत बना रहता है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ( अद्वैत )।

भारतीय दर्शनों की मान्यता है कि हम परम-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में हम तत्त्व दर्शन या तत्त्व साक्षात्कार कर सकते हैं। यहाँ तत्त्व दर्शन का अर्थ सम्यक् दर्शन या दर्शन से है।

भारतीय दर्शन में तत्त्व साक्षात्कार पर बल है इसलिए इसको ‘तत्त्व दर्शन’ कहा जाता है।

भारतीय दर्शन ‘व्यावहारिकता’ से ओतप्रोत है। मानव ने जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए सोचता विचारता रहा है। दुःखों से मुक्ति की छटपटाहट उसे दर्शन की ओर ले गयी। इसलिए दुःखों से पूर्ण निवृत्ति ही दर्शन का मुख्य ध्येय रहा है।

मनुस्मृति में दर्शन के सम्बन्ध में उल्लेख हैं :—

“सम्यक् दर्शन सम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्ते।

दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपाद्यते॥”

( अर्थात् सम्यक् दर्शन प्राप्त व्यक्ति को कर्म बंधन में नहीं डाल सकते, दर्शन विहीन ही संसार-जाल में उलझते हैं। )

इस सम्बन्ध में प्रो॰ हिरियाना का मत समीचीन है – ‘पाश्चात्य दर्शन की तरह भारतीय दर्शन का प्रारम्भ आश्चर्य और उत्सुकता से न होकर जीवन की नैतिक एवं भौतिक बुराइयों के शमन के निमित्त हुआ था।… दार्शनिक प्रयत्नों का मूल उद्देश्य था जीवन के दुःखों का अंत खोजना और इसी क्रम में तात्त्विक प्रश्नों का आविर्भाव हुआ।

अतः भारत में ज्ञान की चर्चा ज्ञान के लिए न होकर मोक्ष की अनुभूति के लिए हुई है। यहाँ मोक्ष का अर्थ है — दुःख से निवृत्ति। मोक्ष अवस्था में दुःखों का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है। दुःखों से निवृत्ति अथवा मोक्ष को ही चरम / परम लक्ष्य मानने के कारण भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ कहा जाता है।

मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा की आवश्यकता भारतीय दर्शन में मानी गयी है। परन्तु चार्वाक चिंतन में तो न तो आत्मा का विचार है न ही मोक्ष का।

आत्मा पर विचार के कारण भारतीय दर्शन आध्यात्मिक हो जाता है। आत्मा पर विचार करने के कारण भारतीय दर्शन को ‘आत्म- विद्या’ या ‘आत्मा विद्या’ भी कहा जाता है।

“अतः व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन की विशेषताएँ हैं।”

भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन के स्वरूप में तुलना या अंतर

‘भारतीय दर्शन’ और ‘पश्चिमी दर्शन’ जैसे नामकरण ही दोनों के स्वरूप ही की भिन्नता को इंगित करते हैं। विज्ञान में हम ऐसा विभाजन नहीं पाते हैं, क्योंकि वह ( विज्ञान ) सार्वभौम और वस्तुनिष्ठ है। दूसरी ओर दर्शन में ऐसी सार्वभौमिकता और वस्तुनिष्ठता नहीं दिखती बल्कि यह ( दर्शन ) विशिष्ट और आत्मनिष्ठ है। दोनों की तुलना हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं :—

( १ ) पश्चिमी दर्शन सैद्धान्तिक है जबकि भारतीय दर्शन व्यावहारिक —

  • ‘पश्चिमी दर्शन’ का आरम्भ ‘उत्सुकता और आश्चर्य’ से हुआ। पाश्चात्य दार्शनिक अपनी जिज्ञासा शान्त करने के उद्देश्य से विश्व, ईश्वर और आत्मा के सम्बन्ध में सोचने के लिए प्रेरित हुए। अतः पश्चिमी दर्शन में व्यावहारिकता का अभाव है। यहाँ पर दर्शन को ‘मानसिक व्यायाम’ कहा गया है। दर्शन का अनुशीलन किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए न होकर स्वयं के ज्ञान के लिए है। इस तरह पश्चिम में दर्शन ‘साध्य’ के रूप में है।
  • ‘भारतीय दर्शन’ का आरम्भ ‘आध्यात्मिक असंतोष’ से हुआ। संसार को दुःखमय पाकर भारतीय दार्शनिकों उसके उन्मूलन के लिए दर्शन का सहारा लिया। ‘भारत में दर्शन का अध्ययन मात्र ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं, वरन् जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता था।’( प्रो॰ मैक्समूलर ) भारतीय दर्शन का परम उद्देश्य ‘मोक्ष-प्राप्ति’ में सहायता करना है। अतः भारतीय दर्शन एक ‘साधन’ है जिससे मोक्ष तक पहुँचा जाता है।

( २ ) पाश्चात्य दर्शन वैज्ञानिक है जबकि भारतीय दर्शन धार्मिक —

  • ‘पश्चिमी दर्शन’ में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया गया है। पश्चिमी दर्शन सैद्धांतिक है जबकि धर्म का स्वरूप व्यावहारिक होता है। अतः दर्शन की वैज्ञानिकता के कारण उनका धर्म से विरोध है। यहाँ पर हमें धर्म की उपेक्षा स्पष्ट रूप से दिखती है।
  • ‘भारतीय दर्शन’ का दृष्टिकोण धार्मिक है। यहाँ पर दर्शन और धर्म दोनों ही व्यावहारिक हैं। मोक्ष की उपलब्धि दर्शन और धर्म दोनों के सामान्य लक्ष्य हैं। धर्म के प्रभाव के कारण यहाँ पर आत्मसंयम पर बल दिया गया है। सत्य-दर्शन अथवा तत्त्व-ज्ञान के लिए धर्म-सम्मत आचरण अपेक्षित माना गया है। इस तरह धर्म और दर्शन दोनों गलबहियाँ डाल साथ चलते हैं।

( ३ ) पश्चिमी दर्शन बौद्धिक है जबकि भारतीय दर्शन आध्यात्मिक —

  • ‘पाश्चात्य दर्शन’ बौद्धिक है। पश्चिमी दार्शनिकों का मानना है कि बुद्धि से सत्य तक पहुँचा जा सकता है। डेमोक्राइट्स, सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, डेकार्ट, स्पीनोजा, लाइबनीज, बूल्फ, हीगल आदि चिंतकों ने बुद्धि के महत्त्व पर बल दिया है।
  • ‘भारतीय दर्शन’ आध्यात्म के रंग में डूबा हुआ है। यहाँ पर आध्यात्मिक ज्ञान ( intuitive knowledge ) की प्रधानता है। भारतीय चिंतक सत्य के ज्ञान से संतुष्ट नहीं होता अपितु उसकी अनुभूति पर बल देता है। आध्यात्मिक ज्ञान तार्किक ज्ञान से उच्च है। तार्किक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत बना रहता है जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में यह द्वैत मिट जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान निश्चित और संशयहीन होता है।

( ४ ) पाश्चात्य दर्शन विश्लेषणात्मक है जबकि भारतीय दर्शन संश्लेषणात्मक —

  • पश्चिमी दर्शन की शाखाओं का पृथक-पृथक विश्लेषण किया जाता है; यथा – तत्त्व विज्ञान, नीति विज्ञान, प्रमाण विज्ञान, ईश्वर विज्ञान, सौन्दर्य विज्ञान आदि।
  • भारतीय दर्शन में संश्लेषणात्मक पद्धति का अनुसरण किया जाता है क्योंकि तत्त्व विज्ञान, नीति विज्ञान, प्रमाण विज्ञान, ईश्वर विज्ञान, सौन्दर्य विज्ञान आदि विषयक समस्याओं पर साथ-साथ विचार किया जाता है।

( ५ ) पश्चिमी दर्शन इह-लौकिक है जबकि भारतीय दर्शन पारलौकिक —

  • पाश्चात्य दर्शन लौकिक सत्ता में विश्वास रखता है। इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य संसार नहीं है।
  • भारतीय दर्शन में परलोक के प्रति विचार मिलता है। यहाँ स्वर्ग-नरक पर विचार किया गया है। चार्वाक चिंतन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन आध्यात्मिक हैं।

( ६ ) पाश्चात्य दर्शन में दुःखात्मक दृष्टिकोण की उपेक्षा की गयी है जबकि भारतीय दर्शन दुःखवाद व अभावात्मकता पर विचार करता है —

  • पाश्चात्य दर्शन में जीवन व जगत् के प्रति दुःखात्मक दृष्टिकोण की उपेक्षा गयी है और भावात्मक दृष्टिकोण की प्रधानता है।
  • भारतीय दर्शन का जीवन और जगत् के प्रति दृष्टिकोण दुःखात्मक और अभावात्मक है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दोनों चिंतन पद्धतियों का मिलन या संश्लेषण असम्भव है। विगत कुछ दशकों से दोनों पद्धतियों को आधार बनाकर विद्वान ‘विश्व दर्शन’ के सम्पादन के लिए प्रयत्नशील हैं।

पाश्चात्य दर्शन  भारतीय दर्शन 
पश्चिम में दर्शन के लिए ‘Philosophy’ शब्द प्रयुक्त होता है। जिसका अर्थ है – ‘love of wisdom’। भारतीय वाड़्मय में दर्शन का अर्थ है – ‘ जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वह दर्शन है।’
यहाँ पर दर्शन ‘सैद्धान्तिक’ है। भारतीय परम्परा में दर्शन का स्वरूप ‘व्यावहारिक’ है।
दर्शन एक प्रकार से ‘साध्य’ है। यहाँ पर दर्शन एक प्रकार से मानसिक व्यायाम है। दर्शन का अनुशीलन किसी उद्देश्य के लिए लिए न होकर स्वयं ज्ञान प्राप्ति के लिए ही है। यहाँ पर दर्शन मोक्ष प्राप्ति के लिए ‘साधन’ है। दर्शन का उद्देश्य यहाँ पर मोक्ष प्राप्ति में साहाय्य प्रदान करना है।
पश्चिम में दर्शन ‘वैज्ञानिक’ है। भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण ‘धार्मिक’ है।
पश्चिमी दर्शन में ‘धर्म की उपेक्षा’ की गयी है। यहाँ पर दर्शन और धर्म में ‘सहकार’ है।
यहाँ पर दर्शन नितांत ‘बौद्धिक’ है। भारतीय दर्शन ‘आध्यात्मिक’ है।
पाश्चात्य दर्शन में ‘द्वैतभाव’ है, अर्थात् ज्ञान और ज्ञाता में द्वैत बना रहता है। भारतीय दर्शन में ‘अद्वैतभाव’ है, अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय में भेद मिट जाता है।
यहाँ पर ‘विश्लेषणात्मक पद्धति’ अपनायी गयी है। भारतीय चिंतन धारा में ‘संश्लेषणात्मक पद्धति’ अपनायी गयी है।
यह ‘इहलोकवादी’ है। भारतीय चिंतन ‘परलोकवादी’ है। इसका एकमात्र अपवाद चार्वाक चिंतनधारा है।
यहाँ पर जीवन और जगत् के प्रति ‘दुःखवाद की उपेक्षा’ की गयी है। भारतीय चिंतन में जीवन व जगत् के प्रति दृष्टिकोण ‘दुःखात्मक एवं अभावात्मक’ है।

भारतीय दर्शन की कुछ सामान्य बातें

पाश्चात्य और भारतीय दर्शन का विकास न्यूनाधिक रूप से एक प्रकार से हुआ है क्योंकि मानव समाज लगभग एक जैसे प्रश्नों से जूझता रहा है। हालाँकि पूर्व और पश्चिम में दर्शनशास्त्र के मौलिक प्रश्न या समस्याएँ एक जैसी रहीं हैं अतः उनके समाधान में भी समानताएँ पायी जाती हैं।

परन्तु कुछ संदर्भों में दार्शनिक पूर्व और पश्चिम की दार्शनिक अनुसंधान की विधियों में भिन्नता भी है साथ ही दार्शनिक विचारधारा का विकास-क्रम भी भिन्न रहा है।

भारतीय दर्शन की प्रवृत्ति ‘संश्लेषणात्मक’ है। दूसरे शब्दों में तत्त्व-चिंतन, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान और ज्ञानमीमांसा पर भारतीय दार्शनिकों ने ‘समन्वयात्मक ढंग’ से विचार किया न कि पृथक-पृथक।

भारतीय दर्शन मात्र हिन्दू दर्शन नहीं है। दूसरे शब्दों में भारतीय दर्शन का अर्थ केवल हिन्दू दर्शन से नहीं है बल्कि यह अत्यंत व्यापक है। इसमें प्राचीन-अर्वाचीन, हिन्दू-अहिन्दू, आस्तिक-नास्तिक आदि सभी समाहित हैं। इस संदर्भ में मध्वाचार्य कृत ‘सर्वदर्शन-संग्रह’ उल्लेखनीय है, इसमें षड्दर्शन के साथ-साथ चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन को भी स्थान दिया गया है।

भारतीय दर्शनों का दृष्टिकोण व्यापक और उदार है। सभी दर्शन दर्शन पद्धतियाँ परस्पर समालोचना करती हुई एक नयी विमर्श की पद्धति का का विकास करती है। इस विशेष पद्धति में पहले पूर्व-पक्ष, फिर खंडन और अंत में उत्तर-पक्ष ( सिद्धान्त पक्ष ) आता है।

  • पूर्व-पक्ष में विरोधी या अन्य पक्षों पर विचार या व्याख्या किया जाता है।
  • खंडन पक्ष में उसका खंडन या निराकरण किया जाता है।
  • सिद्धान्त पक्ष में दार्शनिक अपने पक्ष का प्रतिपादन करता है।

भारतीय दर्शन अत्यंत प्रगाढ़ और समृद्ध है। अपने उदार और व्यापक दृष्टिकोण के कारण इसमें जिस नवीन पद्धति का विकास हुआ उसके अन्तर्गत एक दर्शन दूसरे दर्शन पर भी गहराई से विचार करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय दर्शन परस्पर विमर्श और समालोचना करते हुए अत्यंत प्रगाढ़ और समृद्धि होते गये।

भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ

भारतीय दर्शन का वर्गीकरण

भारत दर्शनिक पद्धतियों को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटा गया है; एक, आस्तिक और दूसरा, नास्तिक।

( क ) आस्तिक

    • ध्यातव्य है कि आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी नहीं है क्योंकि इस वर्ग में आने वाले सभी दर्शन ईश्वर को नहीं मानते। इन्हें आस्तिक दर्शन इसलिए कहते हैं क्योंकि ये सभी ‘वेद’ को मानते हैं। सांख्य और वैशेषिक ईश्वर को नहीं मानते फिर भी ये दोनों आस्तिक हैं; क्योंकि ये वेद को मानते हैं। आस्तिक दर्शन छह है और इनको सामूहिक रूप से ‘षड्दर्शन’ कहा जाता है।
    • अर्थात् भारतीय परम्परा में वेदसम्मत दर्शन को आस्तिक माना गया है।
    • इन षड्दर्शनों को भी निम्न भागों में बाँटा गया है –
      • लौकिक विचारों से उत्पन्न दर्शन – इसके अन्तर्गत

→ सांख्य,

→ वैशेषिक,

→ योग और

→ न्याय दर्शन सम्मिलित हैं।

      • वैदिक विचारों से उद्भूत दर्शन। इसे भी पुनः दो भागों में बाँटा गया है –

→ वैदिक कर्मकाण्डों पर आधृत दर्शन — पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा )

→ वैदिक ज्ञानकाण्ड पर आधृत दर्शन — उत्तर-मीमांसा ( वेदांत )

 

( ख ) नास्तिक

    • नास्तिक दर्शन वे है जो वेदों को नहीं मानते हैं। — नास्तिकों वेदनिन्दकः।’
    • नास्तिक दर्शन तीन हैं –

→ चार्वाक दर्शन,

→ जैन दर्शन और

→ बौद्ध दर्शन।

आधुनिक भारतीय साहित्यों में इन दोनों शब्दों ( आस्तिक और नास्तिक ) के दो और अर्थ मिलते हैं —

  • एक, ईश्वरवादी व अनीश्वरवादी के संदर्भ में।
  • द्वितीय, लौकिक और पारलौकिक के अर्थ में।

ईश्वरवाद व अनीश्वरवाद के संदर्भ में :-

  • आस्तिक का अर्थ ‘ईश्वरवादी’ और
  • नास्तिक का अर्थ ‘अनीश्वरवादी’ है।
    • अतः ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी मान्यता के आधार पर भी इनका वर्गीकरण किया जा सकता है।
    • ईश्वरवादी के अंतर्गत —

→ मीमांसा,

→ वेदांत,

→ न्याय और

→ योग दर्शन आते हैं।

    • जबकि अनीश्वरवादी दर्शन के अन्तर्गत

→ सांख्य,

→ वैशेषिक,

→ चार्वाक,

→ जैन और

→ बौद्ध दर्शन आते हैं।

लोक और परलोक के अर्थ में :-

  • आस्तिक – परलोक में विश्वास करनेवाला।
  • नास्तिक – परलोक में विश्वास न करनेवाला।
    • परलोक की मान्यतानुसार भी भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण किया जा सकता है।
    • परलोकवादी दर्शन की श्रेणी में षड्दर्शन के साथ-साथ बौद्ध और जैन दर्शन भी आ जाते हैं।
    • अपरलोकवादी की श्रेणी में एकमात्र ‘चार्वाक दर्शन’ ही सम्मिलित है।

‘प्राचीन दार्शनिक साहित्य में आस्तिक और नास्तिक का अर्थ क्रमशः ‘वेदानुयायी’ और ‘वेदविरोधी’ बताया गया है।’

‘बौद्ध और जैन दर्शन वेद-विरोधी और अनीश्वरवादी हैं।’

‘इस प्रकार चाहे जिस दृष्टि से देखें, वर्गीकरण की चाहे जो विधि अपनायें चार्वाक दर्शन नास्तिकता की ही श्रेणी में आता है। वह वेद-विरोधी, अनीश्वरवादी और अपरलोकवादी है।अर्थात् चार्वाक दर्शन तीनों ही दृष्टिकोण से नास्तिक है इसीलिए इसको नास्तिक शिरोमणि कहा जाता है।’

भारतीय दर्शन आस्तिक और नास्तिक के ‘तीन’ अर्थ

आस्तिक

नास्तिक

  • आस्तिक का अर्थ प्राचीन समय में वेदानुयायियों से था।
  • आधुनिक भारतीय साहित्यों में अब यह शब्द ईश्वरवादियों के लिए भी प्रयुक्त होता है।
  • आस्तिक का एक अन्य अर्थ परलोक में विश्वास करनेवाला भी होता है।
  • नास्तिक शब्द प्राचीनकाल में वेद-विरोधियों के लिए प्रयुक्त होता था।
  • आधुनिक भारतीय साहित्यों में यह शब्द अनीश्वरवादियों के लिए भी प्रयुक्त होता है।
  • इसका एक अन्य अर्थ परलोक में विश्वास न करनेवाला भी होता है।

वेदों के संदर्भ में दर्शन का वर्गीकरण

आस्तिक दर्शन

नास्तिक दर्शन

  • वे भारतीय दर्शन जो वेद-सम्मत या वेदानुकूल हैं।
  • इसमें षड्दर्शन आते हैं –
    • सांख्य
    • वैशेषिक
    • न्याय
    • योग
    • पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा )
    • उत्तर-मीमांसा ( वेदांत )
  • वे भारतीय दर्शन जो वेद-विरोधी हैं।
  • इसमें तीन दर्शन आते हैं –
    • चार्वाक
    • जैन
    • बौद्ध

वैदिक और लौकिक प्रभाव के अर्थ में ‘आस्तिक दर्शन’ का वर्गीकरण

वैदिक विचारों से उत्पन्न आस्तिक दर्शन

लौकिक विचारों से उत्पन्न आस्तिक दर्शन

  • पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा )
  • उत्तर-मीमांसा ( वेदान्त )
  • सांख्य
  • वैशेषिक
  • न्याय
  • योग

वैदिक कर्मकाण्डों और ज्ञानमार्ग के आधार पर वर्गीकरण

वैदिक कार्मकाण्डों पर आधृत दर्शन

वैदिक ज्ञान-काण्ड पर आधृत दर्शन

  • पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा )
  • उत्तर-मीमांसा ( वेदान्त )

ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के अर्थ में वर्गीकरण

ईश्वरवादी दर्शन

अनीश्वरवादी दर्शन

  • न्याय
  • योग
  • पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा )
  • उत्तर-मीमांसा ( वेदान्त )
  • सांख्य
  • वैशेषिक
  • चार्वाक
  • जैन
  • बौद्ध

परलोक की मान्यता के आधार पर वर्गीकरण

परलोकवादी दर्शन

अपरलोकवादी दर्शन

  • षड्दर्शन
  • बौद्ध
  • जैन
  • चार्वाक

भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण

आस्तिक दर्शन

( वेद-सम्मत )

सांख्य दर्शन प्रवर्तक – कपिल मुनि

आधारभूत ग्रंथ – सांख्यकारिका

सबसे प्राचीन दर्शन

योग दर्शन प्रवर्तक – महर्षि पतंजलि

आधारभूत ग्रंथ – योगसूत्र

न्याय दर्शन प्रवर्तक – महर्षि गौतम ( अक्षपाद )

आधारभूत ग्रंथ – न्यायसूत्र

वैशेषिक दर्शन प्रवर्तक – महर्षि कणाद

आधारभूत ग्रंथ – वैशेषिक-सूत्र

मीमांसा दर्शन

( पूर्व-मीमांसा )

प्रवर्तक – महर्षि जैमिनि

आधारभूत ग्रंथ – मीमांसा-सूत्र

वेदांत दर्शन

( उत्तर-मीमांसा )

आधारभूत ग्रंथ – उपनिषद, श्रीमद्भागवदगीता और ब्रह्मसूत्र।

वेदान्त पर आधारित निम्न दर्शन प्रणालियाँ विकसित हुईं –

  • अद्वैतवाद
    • प्रवर्तक – शंकराचार्य
    • भाष्य – शंकरभाष्य
  • विशिष्टाद्वैतवाद
    • प्रवर्तक – रामानुजाचार्य
    • भाष्य – श्रीभाष्य
  • द्वैतवाद
    • प्रवर्तक – मध्वाचार्य
    • भाष्य – पूर्णप्रज्ञभाष्य
  • शुद्धाद्वैतवाद
    • प्रवर्तक – बल्लभाचार्य
    • भाष्य – अणुभाष्य
  • भेदाभेदवाद
    • प्रवर्तक – निम्बार्काचार्य
    • भाष्य – वेदांत परिजात सौरभ
नास्तिक दर्शन

( वेद-असम्मत )

चार्वाक् दर्शन

( लोकायत दर्शन )

प्रवर्तक – आचार्य बृहस्पति

कोई क्रमबद्ध साहित्य नहीं मिलता है।

बौद्ध दर्शन प्रवर्तक – महात्मा बुद्ध

आधारभूत ग्रंथ – त्रिपिटक और अन्य बौद्ध साहित्य

जैन दर्शन प्रवर्तक – २४ तीर्थंकर, महावीर स्वामी

आधारभूत ग्रंथ – जैन धार्मिक साहित्य

भारतीय दर्शनों का पारस्परिक सम्बंध

भारतीय चिंतनधारा में कुल ९ दर्शन मान्य हैं। ये परस्पर आलोचना और सहकार करते हुए एक दूसरे को समृद्ध करते हैं। इनमें से कुछ चिंतनधारा में प्रगाढ़ सम्बन्ध भी दिखता है; यथा –

  • न्याय और वैशेषिक
  • सांख्य और योग
  • मीमांसा और वेदांत

यद्यपि न्याय और वैशेषिक दर्शन में न्यूनाधिक अंतर है फिरभी दोनों में काफ़ी समता है; जैसे- ईश्वर और मोक्ष सम्बंधी विचार। इसीलिए दोनों को कभी-कभी संयुक्त रूप से ‘न्याय-वैशेषिक’ कह दिया जाता है।

इसी तरह सांख्य और योग में समता को देखते हुए इसको ‘सांख्य-योग’ कह दिया जाता है। कपिल प्रणीत सांख्य को ‘निरीश्वर सांख्य’ तो पतंजलि प्रणीत योग दर्शन को ‘सेश्वर-सांख्य’ कहा जाता है।

मीमांसा और वेदांत का विकास सीधे तौर पर वेद से हुआ है। मीमांसा वेद का कर्मकांडीय स्वरूप है जबकि वेदांत ज्ञानमार्गी स्वरूप है। इस तरह ये दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं।

अब बारी आती है पारस्परिक विरोध की। तो यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि चाहे कोई दर्शन वेद सम्मत हो या वेद विरोधी परन्तु वे एक दूसरे की आलोचना और सहकार से ही विकसित हुए हैं। उनका साथ-साथ अस्तित्व बना रहा। वे स्वयं को परिष्कृत करते हुए विकसित होते गये हैं।

भारतीय दर्शन में वेद का स्थान

वेद भारत के आदि-सहित्य हैं। भारतीय दर्शन धारा को समझने के लिए वैदिक साहित्यों का अनुशीलन अनिवार्य है। आस्तिक दर्शन तो वेद-सम्मत हैं ही, परन्तु नास्तिक दर्शनों का विकास भी वैदिक विचारों के विरोध में या उन्हीं से टकराकर हुआ है।

भारतीय दर्शन में एक ओर वेद-सम्मत आस्तिक षड्दर्शन हैं तो दूसरी ओर वेद-विरोधी तीन दर्शन ( चार्वाक्, जैन और बौद्ध )।

वेद को मानने वाले षड्दर्शनों में भी चार दर्शनों का विकास ‘लौकिक विचारों’ से हुआ है। परन्तु इसका कतई यह अर्थ नहीं कि ये चार दर्शन वेद को नहीं मानते। ये चार लौकिक विचारोत्पन्न दर्शन हैं – सांख्य, वैशेषिक, न्याय और योग।

षड्दर्शनों में से दो दर्शन ( पूर्व-मीमांसा और वेदांत ) वेद विचारोपन्न हैं।

  • वेद के दो भाग हैं – एक, कर्मकाण्ड और दूसरा, ज्ञान-मार्ग।
  • इन दोनों दर्शनों में वैदिक विचारों की मीमांसा हुई है।
  • मीमांसा का अर्थ है – गंभीर मनन, चिंतन या विचार। इसलिए ये दोनों दर्शन मीमांसा कहलाये।
  • इनमें भेद करने के लिए एक को पूर्व-मीमांसा तो दूसरे को उत्तर-मीमांसा कहा गया।
  • पूर्व-मीमांसा को मीमांसा कह दिया जाता है और इसका प्रतिपाद्य विषय वैदिक कर्मकाण्ड है।
  • उत्तर-मीमांसा में उपनिषदों ( वेदांत ) के प्रतिपाद्य विषय ज्ञानमार्ग की मीमांसा की गयी है, इसलिए इसको वेदांत दर्शन कहते हैं।

आप्त-वचन और युक्ति

आप्त का अर्थ है – प्रामाणिक या विश्वास योग्य। आप्त-वचन ( वाक्य ) का अर्थ है ( ऋषि-मुनियों का ) प्रामाणिक वचन।

दर्शनशास्त्र में जो प्रश्न उठाये जाते हैं उनके समाधान के लिए कल्पना और युक्ति का सहारा लेना पड़ता है। यहाँ भी प्रत्यक्ष की सहायता से अप्रत्यक्ष को जानने का प्रयास होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन का आधार है और साधन है युक्ति।

यहाँ प्रश्न उठता है कि किसके ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाए? इसके सम्बन्ध में दो विचार हैं :—

  • जनसामान्य का प्रत्यक्ष अनुभव
  • आप्त-वचन

अधिकांश दर्शन जनसाधारण के प्रत्यक्ष अनुभव को आप्त मानते हैं या उसे अधिक महत्व देते हैं। इस श्रेणी में सम्मिलित हैं :—

  • न्याय
  • वैशेषिक
  • सांख्य
  • चार्वाक
  • बौद्ध और जैन दर्शन भी प्रत्यक्ष अनुभवजन्य ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं।

दूसरे वर्ग के दार्शनिकों की यह मान्यता है कि तत्त्व ज्ञान लौकिक ज्ञान के आधार पर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए जनसामान्य के अनुभवजन्य ज्ञान को आप्त ( प्रमाण ) नहीं मान सकते हैं। इसके लिए आप्त पुरुषों का अनुभव उपयोगी है क्योंकि इन लोगों ने तत्त्व का साक्षात् अनुभव किया होता है। इन आप्त पुरुषों के ज्ञान हमें धर्म ग्रंथों में मिलते हैं। इस श्रेणी में सम्मिलित हैं :—

  • पूर्व-मीमांसा
  • वेदांत दर्शन
  • जैन और बौद्ध दर्शन भी आप्त-वचनों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं।

युक्ति का अर्थ होता है – तर्क, ढंग या उपाय।

युक्ति को दर्शन में ज्ञान प्राप्ति के लिए साधन माना गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान का आधार चाहे जनसामान्य का अनुभव हो या आप्त-वचन दोनों में ही युक्ति का प्रयोग किया जाता है। अंतर मात्र युक्ति के प्रयोग में है :—

  • न्याय, वैशेषिक, सांख्य और चार्वाक दर्शन में युक्ति का प्रयोग लौकिक अनुभव के समर्थन और पुष्टि के लिए किया जाता है।
  • पूर्व-मीमांसा और वेदांत में युक्ति का प्रयोग आप्त-वचनों की पुष्टि और समर्थन में होता है।

भारतीय दर्शनों का विकास

यह तो स्पष्ट है कि भारतीय दर्शनों की उत्पत्ति एक साथ नहीं हुई। इनका विकास शताब्दियों से क्रमिक रूप से होता रहा है। भारत में दर्शन जीवन के अंग माने गये हैं।

जब किसी दार्शनिक मत का प्रतिपादन हुआ तो उसके साथ ही उसके अनुयायी भी अस्तित्व में आये। उनके एक सम्प्रदाय से स्थापित हो गये।

दर्शन विशेष के अनुयायी उन विचारों को जीवन का अंग बना लेते थे। उनका प्रचार-प्रसार करते थे। इन दार्शनिक सम्प्रदायों ने दर्शन की निरंतरता को बनाये रखा और पीढ़ी दर पीढ़ी विचारों की एक अविच्छिन्न परंपरा बनी रही।

भारतीय दर्शनों की प्रकृति आत्मकेंद्रित नहीं थी। वे विभिन्न दार्शनिक मतों से विचार-विनिमय ( शास्त्रार्थ ) किया करते थे। यह परम्परा उत्तर-वैदिक काल से ही चली आ रही थी जहाँ हमें विभिन्न विद्वत्समाजों में शास्त्रार्थ के उदाहरण मिलते हैं। वैदिकोत्तर काल में यह परम्परा और भी सुदृढ़ हुई। दार्शनिक अपने विचारों को दोषमुक्त, स्पष्ट और भ्रान्ति-मुक्त बनाने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि इस वाद-विवाद या आलोचना-प्रत्यालोचना से प्रत्येक दर्शन समृद्ध होते चले गये।

इसी क्रम में दार्शनिक साहित्यों का प्रणयन हुआ। आस्तिक साहित्यों में वैदिक साहित्यों के बाद सूत्र साहित्यों की रचना हुई। वैदिक साहित्यों में बिखरे हुए विचारों को सूत्र रूप में पिरोकर क्रमबद्ध रूप दिया गया। सर्वप्रथम सूत्र ग्रंथों में दर्शन का क्रमबद्ध रूप निखरकर आता है।

वैदिक साहित्यों में दर्शन के विचार यहाँ-वहाँ बिखरे थे। कोई क्रमबद्धता नहीं ंथी। इस आवश्यकता की पूर्ति सूत्र साहित्यों में की। इन विचारों को संक्षिप्त, सारगर्भित और क्रमबद्ध रूप से सूत्र रूप में पिरोया गया। दर्शन से सम्बंधित निम्न सूत्र ग्रंथ हैं :—

  • वेदांत दर्शन से सम्बंधित बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र
  • पूर्व-मीमांसा से सम्बंधित महर्षि जैमिनि कृत मीमांसा सूत्र
  • सांख्य दर्शन से सम्बंधित ईश्वर कृष्ण कृत सांख्यकारिका
  • योग दर्शन से सम्बंधित महर्षि पतंजलि कृति योगसूत्र
  • न्याय दर्शन से सम्बंधित गौतम कृत न्यायसूत्र
  • वैशेषिक दर्शन से सम्बंधित महर्षि कणाद कृत वैशेषिक-सूत्र

सूत्र ग्रंथ संक्षिप्त, सारगर्भित और व्यापक थे। ये सहज बोधगम्य नहीं थे। अतः कालान्तर में इनपर टीका और भाष्य लिखे गये। सामान्यतः टीका और भाष्य को समानार्थी अर्थ में लिया जाता है परन्तु इनमें सूक्ष्म भेद हैं। टीका का अर्थ है – आलोचनात्मक विवरण अर्थात् किसी रचना पर तर्क-वितर्क के आधार पर परीक्षण। जबकि भाष्य का अर्थ है किसी रचना पर विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करना।

दर्शन से सम्बंधित सूत्रों पर कुछ टीका और भाष्य निम्न हैं : —

  • ब्रह्मसूत्र — शंकर, रामानुज, मध्व, बल्लभ, निम्बार्क आदि ने इसपर भाष्य लिखे।
  • मीमांसा-सूत्र — शबरस्वामी ने इसपर टीका लिखी।
  • सांख्यकारिका — गौड़पाद कृत सांख्यकारिका भाष्य, वाचस्पति कृत तर्क-कौमुदी, विज्ञान भिक्षु कृत सांख्यप्रवचन भाष्य व सांख्य सार।
  • योगसूत्र — व्यास कृत व्यासभाष्य।
  • न्यायसूत्र — वात्स्यायन कृत न्यायभाष्य।
  • वैशेषिक-सूत्र — प्रशस्तपाद कृत पदार्थधर्मसंग्रह इसपर टीका है।

भारतीय दर्शनों की विशेषताएँ

दर्शन की समृद्धि किसी समाज या देश की सभ्यता और संस्कृति को गौरवान्वित करती है। दर्शन का उद्भव और विकास पर स्थान-विशेष का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भारतीय दर्शनों में वैभिन्यता के साथ-साथ भारतीयता की छाप भी दिखती है। यह भारतीयता हम इनमें नैतिकता और आध्यात्मिकता के रूप में देख सकते हैं। इन दर्शनों की सामान्य विशेषताओं को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं :—

( १ ) पुरुषार्थ साधन 

  • भारतीय दर्शन पुरुषार्थ-साधनार्थ हैं। दर्शन को जीवन का अंग माना गया है। जीवन के लक्ष्य की समझ हेतु दर्शन का अनुशीलन आवश्यक माना गया है। दर्शन का उद्देश्य मात्र मानसिक-विलास नहीं है बल्कि इससे दूरदर्शिता, भविष्य-दृष्टि और अंतर्दृष्टि की प्राप्ति के साथ-साथ जीवन पद्धति का ज्ञान भी होता है।

( २ ) दुःख से मुक्ति की छटपटाहट

  • संसार में दुःख क्यों है? दुःख के कारण मन अशांत रहता है। इस दुःख निवारणार्थ विचारों की उत्पत्ति हुई। मनुष्य के दुःख के कारणों को जानने के लिए सभी दर्शन प्रयत्नशील रहें हैं। दुःखों का नाश या निवारण के लिए सभी दर्शन पद्धतियाँ व्यापक रूप से विचार करते हैं।

( ३ ) आशावाद और नैराश्यवाद

  • आशा और निराशा मनोस्थिति है। ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि भारतीय दर्शन निराशावादी हैं। परन्तु यह छिछला निष्कर्ष है क्योंकि जहाँ ये संसार की वस्तुस्थिति से व्यथित और चिंतित होते हैं परन्तु यह भी सत्य है कि वे इनसे मुक्ति का साधन भी सुझाते हैं।
  • ध्यातव्य है कि प्राचीन भारतीय नाटक सुखांत होते थे न कि दुःखांत। विद्वानों ने इसे भारतीय दर्शन के आशावादी दृष्टिकोण का प्रभाव माना है।
  • भारतीय दर्शन की उत्पत्ति नैराश्य भाव से हुई है, परन्तु अंत में यह आशावाद का मार्ग प्रशस्त करती है।
  • महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्य भी निराशा से शुरु होकर अंत में उनसे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं : दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध, दुःख निरोध के मार्ग।
  • डॉ॰ राधाकृष्णन अपनी कृति ‘Indian Philosophy’ में लिखते हैं : युक्तिविहीन आशावाद की अपेक्षा नैराश्यवाद का प्रभाव जीवन पर श्रेयस्कर है।

( ४ ) नैतिकता

  • भारत के सभी दर्शनों में नैतिकता प्रमुख तत्त्व है। इसका अपवाद एकमात्र चार्वाक दर्शन है। चार्वाक के अलावा वैदिक हो या अवैदिक दर्शन, ईश्वरवादी हो या अनीश्वरवादी दर्शन ये सभी श्रद्धा-विश्वास से परिपूर्ण हैं।
  • ये दर्शन समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता समझते हैं।

( ५ ) ऋत्, अपूर्व, अदृष्ट और कर्म

  • ऋग्वेद में ऋत् की बड़ी उदात्त भाषा में वर्णन मिलता है। यह सार्वभौम नैतिक व्यवस्था है। ऋत् का अर्थ है सत्य और अविनाशी सत्ता। कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ में ऋत् की उत्पत्ति हुई थी। उसके बाद रात्रि और समुद्र का जन्म हुआ। समुद्र से संवत्सर का जन्म हुआ। ऋत् के द्वारा ही संसार में सुव्यवस्था स्थापित हुई। यह सांसारिक व्यवस्थाओं का नियामक है। ऋत् धर्म नहीं है परन्तु कालान्तर में ऋत् धर्म से संयुक्त हो गया और धर्म का स्वरूप नैतिक हो गया।
  • वैदिकोत्तर काल में इसे ही पूर्व-मीमांसा में अपूर्व कहा गया है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान कर्मों का उपभोग परवर्ती जीवन में ‘अपूर्व’ के द्वारा ही किया जाता है।
  • न्याय-वैशेषिक में इसे ही ‘अदृष्ट’ कहा गया है, क्योंकि या दिखायी नहीं देता। इसका प्रभाव परमाणु पर भी पड़ता है।
  • यही नैतिक व्यवस्था आगे चलकर ‘कर्मवाद’ कहलायी।
    • कर्मवाद को प्रायः सभी दर्शनों में स्वीकारोक्ति है। इसके अनुसार किये हुए कर्म का फल नष्ट नहीं होता और अनकिये कर्म का फल नहीं मिलता। कर्मफल का नाश नहीं होता
    • कर्म के दर्शन में दो अर्थ लिये जाते हैं :
      • एक, कर्म का नियम।
      • द्वितीय, कर्म से उत्पन्न शक्ति। इसी शक्ति से कर्मफल उत्पन्न होता है। इसके भी तीन भेद किये गये हैं :

⇒ संचित कर्म – अतीत के कर्मों से संचित फल जिसका उपभोग शेष हो।

⇒ प्रारब्ध कर्म – अतीत  या पूर्व जन्मोत्पन्न कर्म जिसका उपभोग वर्तमान जीवन में हो रहा हो।

⇒ संचीयमान या क्रियमाण कर्म – वर्तमान जीवन में किये जा रहे कर्म जिसका फल संचित हो रहा हो।

( ६ ) आशा और नैतिकता

  • संसार में नैतिक व्यवस्था लोगों में आशा का संसार करती है। भारतीयों का विश्वास है कि कर्म के द्वारा वह स्वयं अपना भाग्यनिर्माता है। लोग वर्तमान जीवन की स्थिति के लिए पूर्ववर्ती जीवन के कर्मों का फल मानते हैं और वर्तमान जीवन के कर्मों से भविष्य के जीवन पर पड़ता है। कर्मवाद का अर्थ भाग्यवादी या नियतवादी होना नहीं है।
  • पूर्व-जन्म में किये गये कर्म की शक्ति को ‘दैव’ कहा जाता है। कर्म के द्वारा दैव या पूर्व-कर्म संचित फल का नाश क्रिया जा सकता है। अर्थात् कर्म प्रधान है।
  • यह आशावाद का पर्याय है न कि नैराश्य का।

( ७ ) संसार एक रंगमंच है और हम सब रंगकर्मी

  • जिस तरह रंगमंच पर रंगकर्मी आकर आवंटित अपने-अपने पात्र का मंचन करते हैं। उसी तरह मनुष्य रंगकर्मी है और यह संसार रंगमंच जिसपर उसे अपनी योग्यतानुसार कर्म करना है। प्रत्येक मनुष्य से अपेक्षित है कि वह अपने कर्म नैतिक रूप से करे।
  • यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हमारा वर्तमान जीवन पूर्व कर्म फल का प्रतिरूप है और हम आगे क्या होंगे यह वर्तमान में किये जा रहे कर्म पर आधृत है।

( ८ ) अज्ञान बंधन का कारण है

  • तत्त्वज्ञान का अभाव बंधन का कारण है। अज्ञान के कारण शरीर बंधनयुक्त होता है और इससे दुःखों की उत्पत्ति। इसका( अज्ञान ) नाश सम्यक् ज्ञान से होता है। जब हमें तत्त्वज्ञान मिल जाता है तब हम शरीर-बंधन से मुक्त हो जाते हैं। अर्थात् आवागमन से मुक्ति मिल जाती है और हमें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता।
  • जैन, बौद्ध, सांख्य और अद्वैतवादी मोक्ष के लिए जीवनमुक्ति अनिवार्य नहीं मानते हैं। उनके अनुसार मोक्ष जीवनकाल में ही प्राप्त हो सकता है और जीवन समाप्त होने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता है।
  • ध्यान देने की बात है कि बंधन से मुक्ति का अर्थ संसार विमुख होना नहीं है। बल्कि कर्म सम्यक् ढंग से करें। इस सम्यक् कर्म को विभिन्न दर्शन अपने-अपने तरीके से समझाते हैं।

( ९ ) तत्त्वज्ञान मुक्ति का साधन है

  • व्यक्ति के दुःखों का मूल कारण अज्ञान है। इसलिए दुःख से मुक्ति के लिए सम्यक् ज्ञान आवश्यक बताया गया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि एक बार तत्त्व का ज्ञान मिल गया तो वो बंधन से मुक्त हो जायेंगे। बंधन मुक्ति के लिए आवश्यक है ज्ञान को अपने में रचा-बसा लेना या उन्हें आत्मसात् कर लेना। इसके लिए भारतीय दार्शनिकों ने दो तरह के अभ्यास बताये हैं :
    • निदिध्यासन
    • आत्मसंयम

( १० ) मोक्ष या मुक्ति जीव का परम लक्ष्य है

  • लोकायत ( चार्वाक ) सम्प्रदाय को छोड़कर सभी भारतीय मोक्ष को जीवन का अंतिम लक्ष्य मानते हैं।
  • हालाँकि मोक्ष का अर्थ यह तो सभी मानते हैं कि दुःखों का नाश हो जाता है परन्तु आनन्द के प्रश्न पर उनमें मतभेद है, जैसे –
    • सांख्य, न्याय और वैशेषिक दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवस्था आनन्द से परे है।

 

भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ

 

भारतीय दर्शन में देश-काल का विचार

भारतीय वाङ्मय में देश और काल को अनादि और अत्यंत विशाल माना गया है। इसकी प्रतिध्वनि हमें दर्शन में भी मिलती है।

पाश्चात्य धर्म और दर्शन के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति कोई ४००० ई॰पू॰ हुई और इसका सृजन मात्र मनुष्यों के लिए हुआ है। परन्तु भारतीय चिंतकों का चिंतन इस सम्बन्ध में कल्पना शक्ति को पराभूत कर देनेवाला है।

सृष्टि के समय की माप के लिए ब्रह्माजी के एक दिवस को मापदण्ड बनाया गया है।

ब्रह्माजी का एक दिवस = १००० महायुग = १ कल्प

= ४·३२ × १० मानव वर्ष

सृष्टि का अन्त होने पर ब्रह्माजी विश्राम करते हैं और इसे उनकी रात्रि कहते हैं। यह प्रलय का समय होता है। इस तरह ब्रह्माजी का एक दिन ( दिवस और रात्रि ) २ कल्प या २,००० महायुग या ८·६४ × १०९ मानव वर्ष के बराबर होता है।

ब्रह्माजी की आयु १०० वर्ष मानी गयी है –

अतः ८·६४ × १०९ × ३० × १२ × १०० = ३·११०४ × १०१४ मानव वर्ष

ब्रह्मा के रात्रि-दिवस अर्थात् सृष्टि-लय का क्रम निरंतर चला आ रहा है। ब्रह्माजी भी आपने आयु पूरी करके काल-कवलित होते रहे हैं। न जाने कितने ब्रह्मा आये और गये। यह क्रम अनादि काल से चल रहा है। अतः संसार( विश्व या ब्राह्माण्ड ) की रचना कब हुई? इसको भारतीय चिंतक कहते हैं कि यह अनादि काल से है।

इन विचारों का प्रभाव भारतीय तत्त्व चिंतन पर भी पड़ा :—

  • वर्तमान जगत् की उत्पत्ति पूर्ववर्ती जगत् से हुई है। अतः वर्तमान जगत् के ज्ञाते लिए पूर्ववर्ती जगत् का ज्ञान होना आवश्यक है।
  • इससे अनंत के अनुसंधान की प्रेरणा मिली।
  • जीवन को व्यापक और निर्लिप्त भाव से देखा गया।
  • परिवर्तनशील संसार की अपेक्षा नित्य और शाश्वत पर विचार करने की प्रेरणा मिली।
  • मनुष्य का शरीर क्षुद्र और क्षणभंगुर होते हुए भी महत्वहीन नहीं है क्योंकि यही शरीर एक शाश्वत शान्ति और आनन्द की अवस्था को उपलब्ध कराने वाला साधन भी है। इसीलिए इसके महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है –
    • ‘किच्छो मनुसस् पटिलभो’ ( बुद्ध )
    • ’दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर’ ( भागवत् )

भारतीय दर्शन की कुछ महत्वपूर्ण प्रणालियाँ हैं :—

चार्वाक दर्शन

जैन दर्शन

बौद्ध दर्शन

वैशेषिक दर्शन

न्याय दर्शन 

सांख्य दर्शन

योग दर्शन

मीमांसा दर्शन

वेदान्त दर्शन

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