भूमिका
चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware ) नाम से ही विदित है कि इस पात्र परम्परा के पात्र प्रधानतः धूसर अथवा स्लेटी रंग के हैं जिन पर काले रंग में चित्रण किया गया है। कहीं-कहीं काले अथवा चाकलेटी रंग के बर्तन भी मिलते हैं। इस पात्र परम्परा का सम्बन्ध लोहे से है।
चित्रित धूसर मृद्भाण्डों की प्राप्ति, सर्वप्रथम अहिच्छत्र के टीले की खुदाई के दौरान १९४०-४४ ई० में हुई। लेकिन उस समय इसके महत्त्व का सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया जा सका। तत्पश्चात् ये मृद्भाण्ड अन्य स्थलों से भी प्राप्त हो गये। उत्खनन तथा अनुसंधान के फलस्वरूप सतलज तथा ऊपरी गंगाघाटी में अब तक लगभग सात सौ चित्रित धूसर मृद्भाण्ड स्थलों की गणना हो चुकी है।
वस्तुतः हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद से लेकर बुद्धकाल के प्रारम्भ तक की अवधि की संस्कृतियों के भौतिक परिवेश को जानकारी प्राप्त करने के दृष्टि से इस पात्र परम्परा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में इस काल (१५००-६०० ई०पू०) को अन्धयुग माना जाता था जिसकी संस्कृति के ज्ञान के लिये कोई साक्ष्य नहीं था। किन्तु चित्रित धूसर भाण्डों की प्राप्ति ने इस व्यवधान को समाप्त कर दिया।
![चित्रित धूसर मृद्भाण्ड : संकेन्द्रण स्थल](https://www.prabha001.com/wp-content/uploads/2023/05/wp-1684026804367.jpg)
अन्य पात्र परम्पराओं से सम्बंध
रोपड़ तथा आलमगीरपुर में ये पात्र, हड़प्पा संस्कृति के बाद की संस्कृति के सन्दर्भ तथा उत्तरी काले ओपदार परम्परा (Northern Black Polished Ware – NBPW) के पूर्ववर्ती संस्कृति के साथ मिले है।
हस्तिनापुर में यह गैरिक मृद्भाण्ड स्तर के ऊपरी तथा एन० बी० पी० स्तर के निचले स्तरों से मिलता है।
नोह तथा अंतरंजीखेड़ा में सबसे नीचे गैरिक मृदभाण्ड, उसके ऊपर कृष्ण-लोहित भाण्ड तथा उसके ऊपरी स्तर से चित्रित धूसर मृद्भाण्ड प्राप्त होते हैं।
हरियाणा में दधेरी तथा भगवानपुरा से हड़प्पा सभ्यता के अन्तिम स्तर से ये भाण्ड मिले हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि हड़प्पा संस्कृति के अन्तिम तथा चित्रित धूसर भाण्ड को प्रारम्भिक संस्कृतियों में समकालीनता थी।
मथुरा, श्रावस्ती आदि कतिपय पुरास्थलों पर प्राप्त चित्रित धूसर पात्रों एवं उत्तरी काले ओपदार भाण्डों के आधार पर दोनों में तारतम्यता सिद्ध होती है।
भगवानपुरा तथा कुछ अन्य स्थलों पर जगपति जोशी द्वारा करायी गयी खुदाइयों से सिद्ध होता है कि हड़प्पा सभ्यता के पतन के तत्काल बाद चित्रित धूसर संस्कृति का प्रारम्भ हुआ।
अब यह संभावना प्रबल हुई कि हड़प्पा संस्कृति ईसा पूर्व १५०० के बाद भी बनी रही। इस प्रकार चित्रित धूसर मृद्भाण्डों की प्राप्ति ने ईसा पूर्व १५०० से ६०० के बीच के सांस्कृतिक शून्यता को पाटने का कार्य किया है।
विस्तार
चित्रित धूसर परम्परा के बर्तन पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के उत्तरी भागों तथा गंगा की ऊपरी घाटी में विशेष रूप से मिलते है। उत्तर में माण्डा (जम्मू क्षेत्र) से दक्षिण में उज्जैन (मध्यप्रदेश) तक ये पाये जाते हैं। पाकिस्तान में सिन्ध प्रान्त के लखियोपीर तथा नेपाल में तिलौराकोट तक इनका विस्तार दिखाई देता है।
इन पात्रों के कुछ ठीकरे कौशाम्बी, वैशाली, सोहगौरा आदि से भी मिले है किन्तु पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी बिहार में इनकी कम संख्या तथा घटिया बनावट को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि पहले इनका प्रचलन उत्तर-पश्चिम में हुआ तथा पूर्व तथा दक्षिण की ओर ये बाद में लाये गये।
गंगा-यमुना दोआब इनका मुख्य क्षेत्र था परन्तु पश्चिम में बीकानेर तथा दक्षिण में उज्जैन तक ये पात्र पाये जाते हैं। इस पात्र परम्परा से सम्बन्धित प्रमुख स्थल हैं :
- जम्मू व कश्मीर संघ राज्य क्षेत्र में
- माण्डा ( Manda ) – चिनाब नदी के दायें तट पर, जम्मू जनपद।
- पंजाब में
- नागर ( Nagar ) – सतलुज नदी के दायें तट पर, जलंधर जनपद।
- कटपालोन ( Katpalon ) – सतलुज नदी के दायें तट पर, जलंधर जनपद।
- रोपड़ ( Ropar ) – सतलुज नदी के बायें तट पर, रूपनगर जनपद।
- संघोल ( Sanghol ) – फतेहगढ़ साहिब जनपद।
- दधेरी ( Dadheri ) – फतेहगढ़ साहिब जनपद।
- हरियाणा में
- भगवानपुरा ( Bhagwanpura ) – कुरुक्षेत्र जनपद
- दौलतपुर ( Daulatpur ) – कुरुक्षेत्र जनपद।
- राजा कर्ण का किला ( Karn Ka Tila ) – कुरुक्षेत्र जनपद।
- दिल्ली में
- इन्द्रप्रस्थ ( Indraprastha ) – नई दिल्ली जनपद।
- राजस्थान में
- नोह ( Noh ) – भरतपुर जनपद।
- जोधपुरा ( Jodhpura ) – जयपुर जनपद।
- गिलुन्द ( Gilund ) – चित्तौड़गढ़ जनपद।
- मध्यप्रदेश में
- उज्जैन ( Ujjain )।
- कायथा ( Kaytha ) – उज्जैन जनपद।
- उत्तर प्रदेश में
- आलमगीरपुर ( Alamgirpur ) – मेरठ जनपद।
- हस्तिनापुर ( Hastinapur ) – मेरठ जनपद।
- अहिच्छत्र ( Ahicchatra ) – बरेली जनपद।
- हुलास ( Hulas ) – सहारनपुर जनपद।
- जखेड़ा ( Jakhera ) – एटा जनपद।
- अतरंजीखेड़ा ( Atranjikhera ) – एटा जनपद।
- मथुरा ( Mathura )
- सोंख ( Sonkh ) – मथुरा जनपद।
- कौशाम्बी ( Kaushambi )
- सोहगौरा ( Sohgaura ) – गोरखपुर जनपद।
- श्रावस्ती ( Shravasti )।
- उत्तराखंड में
- थापली ( Thapli ) – अलकनंदा नदी तट पर, पौड़ी गढ़वाल जनपद।
- नेपाल में
- तिलौराकोट ( Tilaurakot ) – कपिलवस्तु जनपद, लुम्बिनी प्रान्त।
- पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सिंधु नदी तट पर
- लखियापीर ( Lakhiyo Pir or Pir Lakhiyo ) – सिंध प्रांत।
- बिहार में
- वैशाली।
इसके अतिरिक्त बहुत सारे स्थल हैं; जैसे घग्घर-हकरा पाट में पाकिस्तान के बहावलपुर वाले क्षेत्र में, भारत के गंगानगर जनपद में। साथ ही चित्रित धूसर मृदभाण्ड का सर्वाधिक संकेंद्रण ऊपरी गंगा घाटी में मिलता है।
![चित्रित धूसर मृद्भाण्ड : वितरण स्थल](https://www.prabha001.com/wp-content/uploads/2023/05/wp-1684034541815.jpg)
तकनीक
चित्रित धूसर पात्र अत्यन्त पतली गढ़न वाले है। इन्हें इतने उच्च ताप (८००°C) पर आंवे में पकाया गया है कि इनका रंग धूसर हो गया है। गाढ़े काले रंग से कुछ अलंकरण किया गया है। इनकी मिट्टी अत्यन्त चिकनी है जिसे भलीभाँति गूँथा गया है।
अधिकांशतः पात्रों का निर्माण चाक पर किया गया है, किन्तु कुछ हस्तनिर्मित पात्र भी पाये जाते है।
चित्रित धूसर पात्रों में थाली तथा कटोरे प्रकार के पात्र प्रमुख रूप से मिलते हैं। कुछ विशेष प्रकार के पात्र विशेष स्थलों से मिलते हैं; जैसे –
- रोपड़ से लोटा,
- सरदारगढ़ से टोंटीदार पात्र,
- हस्तिनापुर से नाँद,
- अल्लाहपुर से रिम आधार का पात्र,
- अतरंजीखेड़ा, नोह तथा अहिच्छत्र से कलश एवं
- सोंख से प्राप्त घड़ा।
इन बर्तनों में थालियों तथा कटोरों की संख्या ही अधिक है जिनका प्रयोग उस काल के उच्च वर्ग के लोग भोजन अथवा धार्मिक अनुष्ठानों में किया करते थे।
इनकी चित्रण तकनीक भी उच्चकोटि की है। कुछ पात्रों पर काले रंग से स्वस्तिक तथा सर्पिल जैसे आकार बनाये गये हैं यद्यपि इनकी संख्या कम है। लाल, काले-लाल, सादे धूसर, काले-पुते भाण्ड इनसे संबद्ध है।
रहन-सहन
चित्रित धूसर संस्कृति के लोग नरकुल तथा गारे से घर बनाते थे। गेहूँ, जौ तथा चावल उनके मुख्य खाद्यान्न थे। अतरंजीखेड़ा के प्रथम स्तर से इनके अवशेष मिलते हैं।
पालतू पशुओं में भेड़, भैंस, सूअर, हिरन आदि है।
हस्तिनापुर से घोड़े की हड्डियां मिली है जिससे सूचित होता है कि इस भारवाहक पशु से चित्रित धूसर संस्कृति के लोगों का परिचय था।
भगवानपुरा, दधेरी, नागर व कटपालोन आदि स्थलों पर चित्रित धूसर मृदभाण्ड स्तर परवर्ती हड़प्पा स्तर का विस्तार है और इन स्थलों पर लोहा नहीं मिलता है। किन्तु बाद के स्थलों से लौह उपकरण बड़ी मात्रा में मिल जाते हैं। इनमें भाले, कील, फलक, कुल्हाड़ी, कुदाल, दराँती, चाकू, चिमटा आदि है। धातुमल से सूचित होता है कि लोहे की ढलाई का काम भी ज्ञात था।
अतरंजीखेड़ा से मिले कुछ पात्र खण्डों पर कपास से बने वस्त्रों की छाप मिलती है। भगवानपुरा से पक्की ईंटों के प्रयोग के प्रमाण है।
इस प्रकार चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति अत्यन्त विकसित ग्रामीण जीवन का संकेत करती है जिसकी पृष्ठभूमि पर बुद्धकाल में द्वितीय नगरीकरण का उत्कर्ष हुआ।
हस्तिनापुर का उत्खनन : तिथि निर्धारण
चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के उत्खनित स्थलों में मात्र हस्तिनापुर के उत्खनन का विवरण ही सही ढंग से प्रकाशित किया गया है। अतः इस पात्र परम्परा का तिधिक्रम निर्धारित करने में इससे सहायता मिलती है। हस्तिनापुर का उत्खनन वो बी०बी० लाल ने करवाया।
हस्तिनापुर के उत्खनन से पाँच सांस्कृतिक स्तरों का ज्ञान मिलता है जो इस प्रकार हैं :-
- प्रथम स्तर – गैरिक मृदभाण्ड संस्कृति
- द्वितीय स्तर – चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति
- तृतीय स्तर – उत्तरी काले चमकीले मृद्भाण्ड संस्कृति
- चतुर्थ स्तर – उत्तर उत्तरी काले चमकीले मृदभाण्ड संस्कृति
- पंचम स्तर – मध्यकालीन संस्कृति
उत्तरी काली चमकीली भाण्ड परम्परा की तिथि सामान्यतः ईसा पूर्व छठी शताब्दी मानी जाती है। अत चित्रित धूसर एवं उत्तरी काली चमकीली मृद्भाण्ड परम्पराओं में लगभग २०० वर्षों का अन्तर अनुमानित कर बी० बी० लाल पहली चित्रित धूसर संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व ८०० निर्धारित करते हैं।
इस संस्कृति के स्तरों का जमाव औसतन १.५० से १.२० मीटर तक मिलता है। इसके लिये तीन सौ वर्षों के समय का अनुमान लगाकर बी० बी० लाल महोदय ने चित्रित धूसर संस्कृति के प्रारम्भ की तिथि ईसा पूर्व ११०० (८०० + ३००) निर्धारित किया है।
हस्तिनापुर में इस संस्कृति का अंत गंगा में भीषण बाढ़ के आ जाने के कारण हुआ। इस निष्कर्ष के समर्थन में पुराणों के उस कथन का सहारा लिया गया है जिसके अनुसार हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद कुरुवंशी राजा निचक्षु ने उसे त्यागकर कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।१
गंगाऽपहृते तस्मिन् नगरे नागसाह्वये। त्यक्ता निचक्षु नगर कौशाम्ब्याम् स निवस्यति॥१
निचक्षु कौशाम्बी के शासक उदयन, जिसका समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी माना जाता है, के अठारह पीढ़ियों पूर्व हुए थे। पार्जिटर महाभारत युद्ध की तिथि ईसा पूर्व ९५० निर्धारित करते हैं। बी० बी० लाल उदयन से निचक्षु तक शासन करने वाले अठारह राजाओं में प्रत्येक का शासन काल औसतन अठारह वर्ष मानते हुए हस्तिनापुर की बाद की तिथि ईसा पूर्व ८०० के लगभग मानते हैं। इस प्रकार चित्रित धूसर पात्र परम्परा की तिथि ईसा पूर्व ११०० से ८०० निर्धारित की जा सकती है।
यही तिथि कौशाम्बी से प्राप्त चित्रित धूसर भाण्डों की भी है। यहाँ उत्तरी काली चमकीली परम्परा का प्रारम्भ ई० पू० ६०० माना गया है। इसकी पूर्ववर्ती चित्रित धूसर परम्परा है।
अतरंजीखेड़ा में उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा का प्रारम्भ काल ईसा पूर्व ६०० माना गया है जिसके ठीक पहले की पात्र परम्परा चित्रित धूसर है। इसका जमाव दो मीटर के लगभग है तथा इसके पाँच स्तर दिखाई देते हैं। अतः इसका प्रारम्भ काल ईसा पूर्व ११०० माना गया है।
हाल ही में भगवानपुरा (हरियाणा), दधेरी (जालंधर-पंजाब) तथा माण्डा (जम्मू क्षेत्र) में जगपति जोशी द्वारा उत्खनन करवाये जाने से चित्रित धूसर पात्र परम्परा के तिथिक्रम पर नया प्रकाश पड़ता है। यहाँ परवर्ती हड़प्पा तथा चित्रित धूसर संस्कृतियों के बीच अतिव्याप्ति (Overlapping) के साक्ष्य मिलते हैं। दूसरे शब्दों में इससे सूचित होता है कि परवर्ती हड़प्पा संस्कृति की अवधि में ही चित्रित धूसर संस्कृति का उत्कर्ष हो गया था। अब या तो यह माना जाय कि हड़प्पा संस्कृति ईसा पूर्व ११०० ( जो चित्रित धूसर के प्रारम्भ की तिथि मानी जाती है ) तक बनी रही या फिर चित्रित धूसर परम्परा का प्रारम्भ ईसा पूर्व १७०० या १५०० ( जिसे हड़प्पा संस्कृति के अन्त की तिथि माना गया है ) में हो चुका था।
भगवानपुरा के तीनों स्तरों में लोहे के उपयोग के साक्ष्य नहीं मिलते। इस आधार पर ऐसा समझा जाता है कि पहले इस संस्कृति के लोग लौह धातु से परिचित नहीं थे किन्तु बाद में परिचित हो गये।
इस संदर्भ में कुछ पुरास्थलों से प्राप्त रेडियो कार्बन तिथियाँ भी उल्लेखनीय हैं।
- अतरंजीखेड़ा की तिथियों १०२५, ७१० और ५२५ ई० पू०,
- नोह की ८२१ व ६०४ ई० पू० प्राप्त हुई हैं।
भारत के बाहर यूनान, थिसली तथा शापटेप (ईरान) से इस पात्र परम्परा की प्राप्त रेडियो कार्बन तिथियों २००० ई० पू० की मिलती है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि चित्रित धूसर पात्र परम्परा की निश्चित तिथि निर्धारित करना कठिन है।
एक बात जो स्पष्टतः दिखाई देती है वह यह है कि ये पात्र हड़प्पा संस्कृति के पतन तथा द्वितीय नगरीकरण (ईसा पूर्व छठीं शती) के प्रारम्भ के बीच की अवधि से ही संबंधित है। अतः इन्हें ईसा पूर्व १५०० से ६०० के मध्य की अवधि में रखा जाना निरापद प्रतीत होता है।
चित्रित धूसर मृदभाण्ड : उद्भव
जहाँ तक चित्रित धूसर मृद्भाण्ड परम्परा के उद्भव का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में भी कई मत प्रतिपादित किये गये हैं। बी० बी० लाल इसे आर्यों से संबद्ध करते हैं। उन्हें हषदवती घाटी से लेकर ऊपरी गंगाघाटी तक हड़प्पा संस्कृति के पश्चात् इसी संस्कृति के साक्ष्य मिले।
इस समय तक विद्वानों को मात्र दो ही पात्र परम्पराओं के विषय में ज्ञान था—
- हड़प्पा की पात्र परम्परा,
- उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा।
दूसरी ओर ईरान, यूनान तथा अफगानिस्तान के कुछ पुरास्थलों से इसी प्रकार के पात्र खण्ड प्राप्त हुए। इस आधार पर डा० बी० बी० लाल ने भारतीय चित्रित धूसर पात्र परम्परा के निर्माताओं को विदेशी मानने का मत प्रस्तावित किया।
किन्तु कालान्तर में मध्य देश के विविध पुरास्थलों से इस परम्परा के पात्रों को खोज निकाला गया जिससे इस पात्र परम्परा के देशी होने की संभावना प्रबल हुई।
पुनश्चः भारतीय तथा विदेशी पात्रों में समानता भी नहीं दिखाई देती। यह स्पष्ट होता है कि चित्रित धूसर मृद्भाण्डों का प्रचलन (प्रधानत) गंगा-सतलज नदियों के बीच के क्षेत्र में था जिसे प्राचीन साहित्य में मध्य देश कहा गया है। हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मथुरा, काम्पिल्य, पानीपत, इन्द्रप्रस्थ, कुरुक्षेत्र आदि महाभारतकालीन स्थलों के उत्खनन में निचले स्तर से ये पात्र मिलते हैं। हस्तिनापुर से घोड़े की हड्डियां चित्रित धूसर मृद्भाण्ड वाले स्तर से ही प्राप्त होती है। इस आधार पर भी इस पात्र परम्परा का आर्यों से संबंधित होने की बात की पुष्टि हो जाती है।
कुछ विद्वान् भाषा सम्बन्धी साक्ष्यों के आधार पर यह प्रस्तावित करते हैं कि चित्रित धूसर परम्परा का सम्बन्ध उत्तर वैदिक आर्यों से था। उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थ ईसा पूर्व १००० से ६०० की अवधि में उत्तरी गंगा के मैदान में लिखे गये थे। इसी भाग से सर्वाधिक चित्रित धूसर मृद्भाण्ड स्थल प्राप्त हुए है। यहाँ सर्वप्रथम बस्तियाँ बसीं थीं। ऊपरी गंगाघाटी का क्षेत्र ही मध्य देश था जिसकी प्रशंसा यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद के साथ-साथ उपनिषद ग्रन्थों में भी की गयी है।
यह भी दृष्टव्य है कि ऋग्वैदिक आर्यों को ऊपरी गंगाघाटी अथवा मध्य देश के विषय में बहुत कम ज्ञात था। यही कारण है कि इस भूभाग की प्रसिद्ध नदियों गंगा तथा यमुना का उल्लेख ऋग्वेद में क्रमशः एक तथा दो बार ही मिलता है।
इसके विपरीत उत्तर वैदिक कालीन ग्रन्थों में इनका स्पष्ट एवं व्यापक उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार चित्रित धूसर पात्र परम्परा उत्तर वैदिक काल की प्रतीत होती है। पंजाब, हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में इसका प्रारम्भ हड़प्पा सभ्यता के तत्काल बाद हो गया जबकि शेष भागों में यह बाद में प्रचलित हुई। हड़प्पा सभ्यता के साथ इसका सम्बन्ध निर्धारित करने के लिये अभी और प्रमाण अपेक्षित है।
मृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )