भूमिका
कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड के समय और स्थान दोनों में बहुत व्यापकता है। इसको काले और लाल मृदभाण्ड और नील-लोहित मृदभाण्ड ( अथर्ववेद ) भी कहा जाता है। इसको संक्षिप्त रूप से BRW ( Black & Red Ware ) कहा जाता है।
काले और लाल मृदभाण्ड को सर्वप्रथम सर मार्टीमर व्हीलर द्वारा अरिकामेडु ( १९४५ ई० में ) और ब्रह्मगिरी ( १९४७ ई० में ) में चिह्नित किया गया था।
तकनीक
कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड प्रागैतिहासिक काल की प्रमुख पात्र परम्परा है। ऐसे मृद्भाण्डों का भीतरी तथा बाहर की बारी ( rim ) के चारों ओर भाग काला तथा शेष बाहरी भाग ईंट के रंग सदृश लाल मिलता है। आकार-प्रकार एवं अलंकरण चित्रण की दृष्टि से ये मृदभाण्ड अन्य पात्रों से भिन्नता रखते है। इनके सम्पूर्ण भीतरी भाग को काला देखकर पहले कई पुराविदों का विचार था कि इन्हें औधे मुँह ( Inverted ) पकाया गया होगा जिसके परिणामस्वरूप पर्याप्त आक्सीजन न मिलने के कारण भीतरी भाग काला पड़ गया होगा।
किन्तु खुरचे जाने पर सतह की रसायनिक जाँच से ज्ञात होता है कि काला रंग जो केवल सतह पर न होकर मोटाई के आधे भाग तक फैला हुआ है वह कार्बन का परिणाम है। ऐसा लगता है कि पहले इन बर्तनों को धूप में सुखाया जाता था। तत्पश्चात् इन पर कोई कार्बनिक राल ( Organic resin ) तेल अथवा इसी प्रकार का कोई तरल पदार्थ पोत दिया जाता था। पकाये जाने पर ऊपरी भाग तथा मोटाई पर लगी लेप जल गयी तथा केवल कार्बन ही शेष रह गया जिससे पात्र का रंग काला पड़ गया।
कुछ लोगों का मानना है कि इसके लिये कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड को दो बार पकाया गया होगा।
काले-लाल मृद्भाण्ड मध्यम से लेकर छोटी कोटि के ही हैं। इनमें कहीं भी बड़े अथवा भण्डारण पात्र ( Storage pots ) नहीं मिलते। ये मेज पर सजाकर खाना रखने वाले बरतन-भाण्डे ( Table wares ) जान पड़ते हैं। अतः इन्हें विशेष प्रकार से तैयार किया गया होगा।
इन पर सफेद रंग में बहुत कम चित्रकारी की गयी है। इनके निर्माण विधि को इजिप्शियन तकनीक ( Egyptian technique ) कहा जाता है। ये नदियों द्वारा बहाकर लायी गयी चूने तथा रेत युक्त मिट्टी से बने हैं। कभी-कभी काचली मिट्टी से भी ये तैयार किये जाते थे।
विस्तार
काले लाल मृद्भाण्डों का विस्तार समूचे भारत में मिलता है। इनका विवरण इस प्रकार है-
१- सौराष्ट्र क्षेत्र में रंगपुर, लोथल आदि हड़प्पा स्थलों से ये भाण्ड प्राप्त होते हैं। इनमें कटोरे तथा सामान्य प्रकार की थालियाँ हैं। इन्हें उत्तरकालीन हड़प्पा संस्कृति से सम्बन्धित किया जाता है।
२- पंजाब तथा हरियाणा के पुरास्थलों से से मृदभाण्ड चित्रित धूसर मरद्भाण्डों के साथ मिलते हैं।
३- नोह तथा अंतरंजीखेड़ा में ये मृद्भाण्ड गैरिक मृद्भाण्डों के ऊपरी एवं चित्रित धूसर भाण्डों के निचले स्तर से प्राप्त हुए हैं।
४- उज्जैन, नवदाटोली, माहेश्वर आदि मालवा क्षेत्र के पुरास्थलों से ये पात्र उत्तरी काले चमकीले पात्रों के पूर्व एवं उनके साथ मिलते हैं। इनमें कटोरे एवं प्याले प्रमुख है। इन पर सफेद रंग में चित्रकारी की गयी है। कुछ पर हिरण एवं नृत्य करती हुई मानव आकृतियाँ हैं।
५- दक्षिण भारत, बिहार तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न पुरास्थलों पर काले-लाल मृद्भाण्ड बृहत्पाषाणिक समाधियों में पाये गये हैं।
काले और लाल मृदभाण्ड से सम्बन्धित प्रमुख क्षेत्र और स्थल इस प्रकार हैं :-
- गुजरात क्षेत्र : क्षेत्र -१
- तिथि – २४०० से ८०० ई०पू० तक। अर्थात् उत्तरवर्ती हड़प्पा के साथ यह मृदभाण्ड शुरू होकर रंगपुर और प्रभास-पाटन में ८०० ई०पू० तक अस्तित्व में रहा।
- यहाँ पर इस मृद्भाण्ड के बाहरी स्तर पर चित्रण ( Painting on exterior ) मिलता है।
- प्रमुख स्थल –
- लोथल ( Lothal ) – भोगवा नदी तट पर, अहमदाबाद।
- रोजदी ( Rojdi ) – भादर नदी तट पर, राजकोट।
- रंगपुर ( Rangpur ) – भादर नदी तट पर, सुरेन्द्रनगर।
- प्रभास पट्टन या प्रभास पाटन ( Prabhas Pattan or Prabhas Patan ) – गिर सोमनाथ ( वेरावल )।
- दक्षिण-पूर्व राजस्थान और मध्य प्रदेश : क्षेत्र -२
- तिथि – १६०० से ८०० ई०पू० तक। यहाँ यह पात्र परम्परा एरण, नवदाटोली, नागदा और बेसनगर में ८०० ई०पू० तक अस्तित्व में रही।
- मृदभाण्ड के बाहरी व आंतरिक दोनों भागों पर चित्रण मिलता है।
- प्रमुख स्थल –
- अहाड़ या अहार ( Ahar ) – उदयपुर।
- गिलुंद ( Gilund ) – चित्तौड़गढ़।
- एरण ( Eran ) – सागर।
- नवदाटोली ( navdatoli ) – खरगोन।
- नागदा ( Nagda ) – उज्जैन।
- बेसनगर ( Besnagar ) – विदिशा।
- मध्य व निम्न गंगा घाटी : क्षेत्र – ३
- तिथि – १६०० से ८०० ई०पू० तक। सोनेपुर व चिरांद में यह पात्र परम्परा ८०० ई०पू० तक अस्तित्व में थी।
- पात्र सामान्यतः अंदर से चित्रित हैं।
- प्रमुख स्थल –
- कौशाम्बी ( Kaushambi )
- राजघाट ( Rajghat ) – वाराणसी।
- सोहगौरा ( Sohgaura ) – गोरखपुर।
- खैराडीह ( Khairadih ) – बलिया।
- सोनेपुर ( Sonepur ) – गया।
- ताराडीह ( Taradih ) – गया।
- माँजी ( Manji ) – छपरा।
- नरहन ( Narhan ) – गोरखपुर।
- वैना ( Waina ) – बलिया।
- बुनाडीह ( Bunadih ) – बलिया।
- चिरांद ( Chirand ) – सारण।
- सेनुवार ( Senuwar ) – रोहतास।
- राजा नल का टीला ( Raja Nal ka Tila ) – सोनभद्र।
- झूसी ( Jhusi ) – प्रयागराज।
- मासनडीह ( Masondih ) – गाजीपुर।
- पाण्डुराजार ढिबि ( Pandurajar Dhibi ) – पूर्वी बर्धमान।
- पंजाब, हरियाणा, उ०-पू० राजस्थान और ऊपरी गंगा घाटी : क्षेत्र – ४
- तिथि – १००० से ८०० ई०पू०।
- मृदभाण्ड चित्रित नहीं हैं।
- प्रमुख स्थल –
- रोपड़ ( Ropar )
- आलमगीरपुर ( Alamgirpur ) – मेरठ।
- अल्लाहपुर ( Allahpur ) – मेरठ।
- कसेरी ( Kaseri ) – मेरठ।
- जखेड़ा ( Jakhera ) – कासगंज।
- अतरंजीखेड़ा ( Atranjikhera ) – एटा।
- श्रावस्ती ( Shravasti )
- नोह ( Noh ) – भरतपुर।
- महाराष्ट्र व कर्नाटक : क्षेत्र – ५
- तिथि – १७०० से ६०० ई०पू०। ये पात्र परम्परा बहल और प्रकाश में ६०० ई०पू० तक अस्तित्व में रही।
- मृदभाण्ड अंदर व बाहर दोनों सतह पर चित्रित मिलते हैं।
- प्रमुख स्थल –
- बहल ( Bahal ) – जलगाँव।
- प्रकाश ( Prakash ) – नंदुरबार।
- नेवासा ( Nevasa ) – अहमदनगर।
- जोरवे ( Jorwe ) – अहमदनगर।
- दैमाबाद/दायमाबाद ( Daimabad ) – अहमदनगर।
- नासिक ( Nasik )
- हल्लूर ( Hallur ) – हवेरी।
संस्कृति
इस वितरण को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि काले-लाल मृदुभाण्डों को किसी संस्कृति विशेष से संबंधित नहीं किया जा सकता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि इन्हीं पात्रों को अथर्ववेद में ‘नील-लोहित‘ कहा गया है। अमलानन्द घोष१ का विचार है कि इससे तात्पर्य काले और लाल मृद्भाण्डों से ही है।
- इण्डियन प्रीहिस्ट्री१
कुछ पुरास्थलों पर इस मृद्भाण्ड के साथ लौह उपकरण भी मिलते हैं। ऐसा लगता है कि जो लोग उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड ( Northern Black Polished Ware – NBPW ) के पूर्व काले-लाल भाण्डों का प्रयोग करते थे, उनकी संस्कृति ताम्रपाषाणिक थी। इसी से बाद में लौह संस्कृति का उदय हुआ।
काले-लाल पात्रों के प्रयोगकर्त्ताओं के पास लघु पाषाण एवं पाषाण उपकरण थे जिससे वे सीमित मात्रा में ही कृषि कर सकते थे। खोदने के लिये वे लकड़ी के उपकरणों तथा कुदालों का प्रयोग करते थे। लेकिन वे धान पैदा करते थे। काले-लाल मृद्भाण्ड संस्कृति में ताम्र उपकरणों की प्रधानता न होकर लघु पाषाणोपकरणों की ही प्रधानता दिखायी देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा के करीब पचास-साठ मील दक्षिण में छोटा नागपुर पठार के आसपास उनका निवास था जहाँ लघुपाषाणोपकरणों का स्रोत था। यहाँ से वे नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में गये होंगे।
उत्तर पूर्व भारत में भी जीविकोपार्जन के लिये उन्होंने मुख्यतः लघु एवं नव पाषाण उपकरणों का ही प्रयोग किया। प्रयागराज के पास विन्ध्य क्षेत्र की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में भी मुख्यतः लघुपाषाण उपकरण ही मिले हैं।२
- History to Prehistory – G.R. Sharma २
इस संस्कृति के लोग नील गाय, सूअर, हिरण आदि पालते थे। मछली तथा चावल उनके मुख्य खाद्यान थे। उत्तर भारत के अनेक स्थलों से लोहा, काले-लाल भाण्डों से सम्बद्ध पाया गया है किन्तु सभी जगह तिथियाँ प्राचीन नहीं मिलती।
तिथिक्रम
जहाँ तक काले और लाल मृद्भाण्ड परम्परा की तिथि का प्रश्न है, विभिन्न स्थलों के लिये भिन्न-भिन्न तिथियाँ स्वीकार करनी पड़ेगी।
- लोथल तथा रंगपुर जैसे परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के भाण्डों की तिथि ईसा पूर्व २००० से १५०० के बीच है।
- मध्यभारत के मालवा क्षेत्र के मृद्भाण्ड ईसा पूर्व १५०० से ५०० के बीच है।
- दक्षिण भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियों से प्राप्त मृद्भाण्डों को तिथि ईसा पूर्व १००० से १०० के बीच निर्धारित की जा सकती है।
डी०पी० अग्रवाल कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड के कालानुक्रम को ईसा पूर्व २२०० से ६०० की विस्तृत अवधि में रखने के पक्ष में है। कुछ विद्वानों का विचार है कि इन भाण्डों के निर्माता आर्यों की ही एक शाखा थे जो वैदिक आर्यों के पूर्व ही यहाँ पहुँच गये थे।
आर०एस० शर्मा का विचार है कि पंचविंश ब्राह्मण में पूर्वी भारत के जिन ‘व्रात्यों’ का उल्लेख मिलता है वे काले-लाल मृद्भाण्ड से संबंधित थे। बताया गया है कि वे न तो व्यापार करते थे, न हल चलाते थे। अथर्ववेद तथा पंचविंश, दोनों में मागधों को व्रात्य कहकर उनकी निन्दा की गयी है। यह इस क्षेत्र में लौह पूर्व काल की स्थिति थी। परन्तु इस संबंध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते है।
मृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )
गैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP )