भूमिका
मगध के पुनः सत्ता का परिवर्तन हुआ। इस बार एक ब्राह्मण शासक की हत्या करके दूसरे ब्राह्मण ने सत्ता का अपहरण किया था। इसलिये जो मौर्यों पर आक्षेप करके पुष्यमित्र शुंग के कृत्य को सही ठहराने का प्रयास किया जाता रहा है वही तर्क इस संदर्भ में व्यर्थ सिद्ध हो गया।
सत्य तो यह है कि राजनीति के खेल में यह सब होता रहा है जिसको वर्ण, जाति व धर्म के आवरण में सही ठहराने का प्रयास शासक वर्ग करता भी रहा है। परन्तु जब हम मगध के इतिहास को ध्यान पूर्वक देखते हैं तो ऐसी घटनाएँ हमें बार-बार देखने को मिलती है।
मगध का पहला राजवंश ही ‘पितृहंता’ के रूप में प्रसिद्ध है। तो इसमें आश्चर्य कैसा कि किसी ने सत्ता के लिये अपने स्वामी की हत्या करके सत्ता हड़प ली हो।
जो खेल मौर्य सम्राट बृहद्रथ के साथ पुष्यमित्र शुंग ने रचाया था वही उसके वंशधर देवभूति के साथ हो गया। यह रुकने वाला नहीं था क्योंकि यही वसुदेव के वंश के साथ भी आगे चलकर होने वाला था जिसका अध्ययन हम सातवाहनों के संदर्भ में करेंगे।
सामान्य परिचय
राजवंश – कण्व या कण्वायन
वर्ण – ब्राह्मण संस्थापक – वसुदेव
दूसरा शासक – भूमिमित्र
तीसरा शासक – नारायण
अंतिम शासक – सुशर्मा
राजवंश का शासनकाल – ७५ ई०पू० से ३० ई०पू० तक (≈४५ वर्ष) |
कण्व वंश की स्थापना
शुंग वंश का अन्तिम राजा देवभूति अत्यन्त निर्बल तथा विलासी था। वह अपने शासन के अन्तिम दिनों में अपने अमात्य वसुदेव के षड्यन्त्रों द्वारा मार डाला गया जिस प्रकार उसके पूर्वज पुष्यमित्र शुंग ने अपने स्वामी मौर्य सम्राट बृहद्रथ की धोखे से हत्या करके सत्ता हथिया ली थी।
हर्षचरित और विष्णु पुराण में इस घटना का विवरण सुरक्षित है —
- हर्षचरित में इस घटना का वर्णन इस प्रकार मिलता है- “शुंगों के अमात्य वसुदेव ने रानी के वेष में देवभूति की दासी की पुत्री द्वारा स्त्री-प्रसंग में अति आशक्त एवं कामदेव के वशीभूति देवभूति की हत्या कर दी।”
- विष्णु पुराण में भी इस घटना की पुष्टि इस प्रकार की गयी है- “व्यसनी शुंग वंश के राजा देवभूति को उसके अमात्य कण्व वसुदेव मारकर पृथ्वी पर शासन करेगा।”
राजनीतिक इतिहास
वसुदेव ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली वह ‘कण्व’ अथवा ‘कण्वायन’ नाम से जाना जाता है। शुंगों के समान यह भी एक ब्राह्मण वंश था। वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगों ने चलायी थी वह इस समय भी कायम रही।
दुर्भाग्यवश इस वंश के राजाओं के नाम के अतिरिक्त हमें उनके राज्यकाल की किसी भी घटना के विषय में ज्ञात नहीं है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि इस वंश में राजा सत्य और न्याय के साथ शासन करेंगे और पड़ोसियों को दबाकर रखेंगे।
“वह (वसुदेव), अर्थात् काण्वायन ९ वर्षों के लिये राजा होगा। उसका पुत्र भूमिमित्र १४ वर्षों तक शासन करेगा। उसका पुत्र नारायण १२ वर्षों तक राज्य करेगा। उसका पुत्र सुशर्मन १० वर्षों तक सिंहनारूढ़ रहेगा। ये सभी शुंग-भृत्य काण्वायन के नाम से प्रसिद्ध हैं। …. इसके बाद पृथ्वी का राज्य आन्ध्रवंश के हाथों में चला जायेगा।”
वसुदेव ने स्वयं नौ वर्षों तक राज्य किया।
वसुदेव के पश्चात् तीन राजा हुए- भूमिमित्र, नारायण तथा सुशर्मा जिन्होंने क्रमशः चौदह, बारह तथा दस वर्षों तक राज्य किया। सुशर्मा इस वंश का अन्तिम शासक था।सुशर्मा की मृत्यु के साथ ही कण्व राजवंश तथा शासन की समाप्ति हुई। इस वंश के चार राजाओं ने ईसा पूर्व ७५ से ईसा पूर्व ३० ईसा पूर्व के लगभग ४५ वर्षों तक शासन किया।
कण्व राजवंश का अंत
वायुपुराण के अनुसार वह अपने आन्ध्रजातीय भृत्य शिमुख (सिन्धुक) द्वारा मार डाला गया। परन्तु इस कथन पर संदेह है क्योंकि आंध्रजातीय भृत्य जिसे सातवाहन वंश भी कहा जाता है उसका सम्बन्ध मगध से दूर-दूर तक अप्रामाणित है। मगध पर शिमुक (सिन्धुक) के शासन का कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता है।
सम्भवतया कण्व राजवंश का उन्मूलन मगध के मित्र शासकों ने किया; परन्तु इन मित्र शासकों एवं कण्व राजाओं में सम्बन्ध अनिश्चित है।
कण्व राजवंश के बाद मगध
पाटलिपुत्र का गौरव अब समाप्त हो चुका था। कण्वों के पतन से लेकर कुषाणों द्वारा मगध की विजय तक का इतिहास बहुत धुँधला है। इस काल में मित्र नामधारी अनेक शासकों जैसे ब्रह्ममित्र, इंद्राग्निमित्र, ब्रहस्पतिमित्र एवं अन्य शासकों के नाम सिक्कों एवं बोधगया के पट्टी अभिलेखों (Railing Pillar Inscription) में मिलते हैं। इन शासकों को पांचाल, मथुरा, कौशांबी, अयोध्या के मित्र शासकों के साथ जोड़ने के प्रयास किये जाते रहे हैं। परन्तु ये अभी तक निश्चित नहीं हो पाये हैं। ये सभी स्थानीय शासक प्रतीत होते हैं।
इस काल की सर्वप्रमुख राजनीतिक घटना है बृहस्पतिमित्र के शासनकाल में कलिंगराज खारवेल का मगध पर आक्रमण।
“…… म [ । ] गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय९ पाययति [ । ] म- [ ग ] धं च राजानं बहसतिमितं पादे वंदापयति [ । ] नंदराज-नीतं चका [ लिं ] ग-जिनं संनिवेस१० [ पूजयति। कोसात ] [ गह ] रतन-पडीहारेहि अंग-मगध वसुं च नयति [ ॥ ]”
अर्थात्
“…… मगधवासियों में विपुल भय उत्पन्न करते हुए हाथियों और घोड़ों को गंगा में पानी पिलाते हैं और मगध-नरेश बृहस्पतिमित्र (बहसतिमित ) से अपने चरणों की वन्दना कराते हैं और नन्दराज द्वारा लाये गये कलिंग-जिन के संनिवेश ( मन्दिर ) की [ पूजा करते हैं ] और [कोष से ] [ गृह ] -रत्न अपहरण करके अंग और मगध का धन ( वसु ) ले आते हैं।”