नालंदा विश्वविद्यालय

भूमिका

नालंदा विश्वविद्यालय ( महाविहार ) की स्थापना ५वीं शताब्दी में कुमारगुप्त-प्रथम के शासनकाल में हुई थी। नालंदा वर्तमान समय का “बड़गाँव” है जो पटना शहर से लगभग ९५ किमी दक्षिण-पूर्व में स्थित है। वर्तमान में यह बिहार राज्य का एक जनपद भी है – नालंदा ( बिहार शरीफ )। इसका समयकाल ५वीं शताब्दी से १२ वीं शताब्दी है।

नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास 

इसके उत्खनन से इसकी विशालता का आभास होता है। यहाँ पर ८ बड़े कमरे और ३०० छोटे कमरे थे। भवन, स्तूप, विहार आदि योजना के अनुसार बनाये गये थे। ३ भवनों में धर्मगंज नामक इसका विशाल पुस्तकालय था। हुएनसांग का जीवनीकार ह्वीली ने नालंदा के भवनों का अत्यंत जीवंत वर्णन किया है। यशोवर्मन् के मन्दसोर अभिलेख ( आठवीं शताब्दी ) में भी इसके भव्यता का वर्णन मिलता है। इस तरह नालंदा मात्र शिक्षा का केंद्र ही नहीं अपितु स्थापत्य के लिए भी प्रसिद्ध था।

नालंदा का इतिहास बुद्ध और महावीर के समय तक जाता है। इसे बुद्ध के एक शिष्य सारिपुत्र का जन्मस्थान कहा जाता है। परन्तु उत्खनन से गुप्तकाल से पूर्व के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। फाह्यान ( ५वीं शताब्दी की शुरुआत ) स्तूप को छोड़कर यहाँ किसी मठ जैसे प्रतिष्ठान का उल्लेख नहीं करता है। जबकि सातवीं शताब्दी तक यह विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय बन चुका था। हुएनसांग और इत्सिंग इसकी भूरि-२ प्रशंसा करते हैं।

सर्वप्रथम कुमारगुप्त-प्रथम ( ४१५ – ४५५ ई॰ ) ने नालन्दा में एक बौद्ध विहार बनवाया था। उसके उत्तराधिकारियों का इसे संरक्षण मिलता रहा और विहार बनवाये जाते रहे। गुप्तों के बाद हर्षवर्धन और पाल शासकों का भी इसे संरक्षण मिलता रहा। 

हर्षवर्धन ने यहाँ ताम्रविहार बनवाया था और १०० ग्राम दान दिया था। जावा और सुमात्रा के शासक बालपुत्रदेव ने यहाँ एक मठ बनवाया था और तत्कालीन पाल शासक देवपाल से ५ ग्राम आग्रह करके दान दिलवाया था। पालवंशी शासक देवपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय के देखभाल के लिए ‘वीरदेव’ नामक ब्राह्मण की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है जोकि कालान्तर में नालंदा भिक्षुसंघ का अध्यक्ष भी बना।

नालंदा की शिक्षा व्यवस्था 

यहाँ भारत के कोने-कोने से ही नहीं अपितु मंगोलिया, चीन, तिब्बत, कोरिया, मध्य एशिया, जापान, श्रीलंका आदि से छात्र पढ़ने के लिए आते थे। हुएनसांग स्वयं यहाँ पर ५६ विदेशी विद्वानों से मिला था। हुएनसांग का जीवनीकार ह्वीली यहाँ पर छात्रों संख्या १०,००० और शिक्षकों की संख्या २,००० बताता है।

यहाँ पर प्रवेश की कठिन परीक्षा होती थी। सर्वप्रथम छात्र को द्वारपाल के प्रश्नों के उत्तर देने होते थे। यहाँ १० में से २ या ३ विद्यार्थी ही सफल हो पाते थे। प्रवेश के ऐसे नियम विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। यहाँ के स्नातकों का बड़ा सम्मान था।

यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। यहाँ छात्रों के आवास के लिए ३०० कमरे थे। यहाँ पर ‘छात्र संघ’ की भी व्यवस्था थी। यह छात्र संघ अपने छात्रावास का प्रबंधन स्वयं देखती थी।

इत्सिंग के अनुसार नालंदा में प्रवेश के लिए सामान्य विद्यार्थी की आयु २० वर्ष और बौद्ध संघ में प्रवेश के लिए १३ से १५ वर्ष निर्धारित थी। उसके विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि शिक्षा के दो स्तर थे – एक, प्राथमिक स्तर पर व्याकरण की शिक्षा जाती थी और द्वितीय, उच्चशिक्षा के स्तर पर छात्र विद्वान अध्यापकों के व्याख्यान और शास्त्रार्थ द्वारा शिक्षार्जन करते थे।

दूसरी ओर इत्सिंग से पहले आये चीनी यात्री हुएनसांग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय में ५ विद्यायें पढ़ायीं जाती थीं – शब्द विद्या, चिकित्सा, हेतु विद्या अर्थात् तर्कशास्त्र, शिल्प विद्या और आध्यात्म विद्या।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नालंदा में शिक्षा तीन प्रकार से दी जाती थी –

  • प्रथम पद्धति के अंतर्गत विद्यार्थियों के लिए मौलिक शिक्षा दी जाती थी।
  • द्वितीय पद्धति में छात्र विद्वानों के व्याख्यान में उपस्थित होकर ज्ञान प्राप्त करते थे।
  • तृतीय विधि में शास्त्रार्थ विधि सम्मिलित थी।

नालंदा महायान बौद्ध सम्प्रदाय की शिक्षा का केन्द्र था। फिरभी अन्य विषयों की भी शिक्षा जाती थी। पाठ्यक्रम में महायान के साथ-साथ बौद्ध धर्म की १८ शाखाओं के अतिरिक्त वेद, चिकित्सा, शब्द-विद्या, तंत्रशास्त्र, योग दर्शन, सांख्य दर्शन आदि भी सम्मिलित थे।

यहाँ के विद्वानों में उल्लेखनीय हैं – धर्मपाल ( शीलभद्र के गुरु और उनके पूर्ववर्ती कुलपति ), चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभाकरमित्र, जिनमित्र, ज्ञानचंद्र आदि।

नालंदा विश्वविद्यालय में अनेक प्राचीन ग्रंथ और पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित थीं। अनेक विदेशी विद्वान इन पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि तैयार करने हेतु खिंचे चले आते थे। स्वयं इत्सिंग यहाँ से लगभग ४०० संस्कृत पाण्डुलिपियों की प्रतिकृति तैयार करके अपने साथ ले गया था।

इस प्राचीन ग्रंथों की पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखने के लिए यहाँ धर्मगंज नामक विशाल पुस्तकालय था। इस पुस्तकालय में तीन विशाल भवन – रत्नाकर, रत्नोदधि और रत्नरंजक थे।

विश्वविद्यालय का प्रशासक कुलपति होता था और वह भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होता था। कुलपति की सहायता के लिए के लिए २ परामर्शदात्री समिति थी –

  • एक, बौद्धिक परिषद – यह शिक्षा और पाठ्यक्रम से सम्बंधित कार्य देखती थी।
  • दूसरी, प्रशासनिक परिषद – यह विश्वविद्यालय के प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करती थी। विश्वविद्यालय को मिले २०० ग्रामों से प्राप्त राजस्व का प्रबंधन यही समिति देखती थी। इसी राजस्व से छात्रों व अध्यापकों के वस्त्रों, भोजन, आवास सम्बन्धी व्यय की व्यवस्था होती थी और इसकी व्यवस्था यही समिति करती थी।

विश्वविद्यालय के खर्च राजाओं और अन्य धनाढ्य दाताओं द्वारा दिये गये ग्राम के राजस्व और दान से चलता था। इत्सिंग बताता है कि विश्वविद्यालय के अधिकार में २०० ग्राम के राजस्व थे। इस बात की पुष्टि उत्खनन में मिले गाँवों की मुहरों और पत्रों से होता है जो विश्वविद्यालय को सम्बोधित हैं।

हूएनसांग ने १८ माह यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। इस समय यहाँ के कुलपति शीलभद्र थे।

यहाँ से शिक्षित विद्वानों ने तिब्बत में बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। तिब्बत को यहाँ से जानेवाले विद्वानों में चन्द्रगोमिन, शान्तिरक्षित, पद्मसम्भव आदि का नाम प्रमुख है।

पतन

ज्ञात होता है की ११वीं शताब्दी से पाल शासकों ने नालंदा की जगह विक्रमशिला को राजकीय संरक्षण देना शुरू कर दिया। तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि नालंदा पर धीरे-धीरे तंत्रवाद का प्रभाव बढ़ने लगा। विक्रमशिला की प्रशासनिक परिषद ही यहाँ के भी प्रशासन की देखरेख करने लगी थी। इन कारणों से नालंदा की प्रतिष्ठा महत्व घटने लगा।

अन्ततः इसे १२०३ ई० में आततायी मुहम्मद बिन बख्तियार ख़लजी द्वारा नष्ट कर दिया गया। आक्रमण के समय कुछ बौद्ध भिक्षु प्राण बचाकर तिब्बत भाग गये और अपने साथ कुछ ग्रन्थ ले गये। कहा जाता है कि पुस्तकालय में लगी आग महीनों तक जलती रही थी।

यह यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर सूची में सम्मिलित है।

 

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