भूमिका
मौर्योत्तर काल में पश्चिमोत्तर में विदेशी आक्रमण का जो दौर प्रारम्भ हुआ उसमें सबसे पहले आक्रमणकारी युनानी थे। इन युनानी आक्रमणकारियों को इतिहास में विभिन्न नामों से जाना जाता है; यथा — यूनानी, यवन, हिन्द-यवन, भारतीय-यूनानी, हिन्द-यूनानी, इंडो-ग्रीक (Indo-Greeks), बैक्ट्रियन-ग्रीक (Bactrian-Greeks), इंडो-बैक्ट्रियन (Indo-Bactrians) इत्यादि।
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकेटर को परास्त करके भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तथा अफगानिस्तान को हस्तगत कर लिया था। लगभग एक शताब्दी (३०५ से २०६ ईसा पूर्व) तक सेल्युकस वंशी राजाओं का भारतीय नरेशों के साथ मैत्री सम्बन्ध बना रहा। परन्तु परवर्ती मौर्य नरेशों के निर्बल शासन काल में परिस्थिति में परिवर्तन होती गयी तथा मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त भारत पर पश्चिमोत्तर से पुनः विदेशियों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये।
यह देश का दुर्भाग्य था कि उस समय आक्रमणकारियों का प्रतिकार करने के लिये न तो पराक्रमी चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा कोई सम्राट था और न ही सम्राट अशोक जैसी सुव्यवस्था। इसमें सर्वप्रथम आने वाले बाह्लीक या बल्ख (बैक्ट्रिया) के यूनानी (यवन) शासक थे। इन यवनों ने भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर के कुछ प्रदेशों को जीत लिया। इन्हीं भारतीय-यवन राजाओं को हिन्द-यवन (Indo-Greeks) अथवा बख्त्री-यवन (Bactrian-Greeks) कहा जाता है।
इतिहास के साधन
हिन्द-यवन शासकों का इतिहास भारतीय ग्रन्थों में मिलने वाले उनके छिट-पुट विवरणों, क्लासिकल लेखकों की रचनायें, यवन राजाओं के अभिलेखों तथा बहुसंख्यक मुद्राओं के आधार पर ज्ञात किया जाता है।
महाभारत में यवन जाति का उल्लेख मिलता है। पतंजलि कृत महाभाष्य में यवन आक्रमण की चर्चा हुई है। इसमें कहा गया है कि यवनों ने साकेत और माध्यमिक (नगरी, चित्तौड़गढ़) पर आक्रमण करके रौंद डाला था। गार्गी संहिता के युग पुराण खंड में यवन आक्रमण का विवरण मिलता है। इसमें कहा गया है कि यवन आक्रान्ता साकेत, पंचाल और मथुरा को जीतते हुए कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) के निकट तक जा पहुँचे। कालिदास कृत मालविकाग्निमित्र में यवन आक्रमण का भी उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने सिंधु सरिता के दाहिने किनारे पर यवनों को पराजित किया था।
हिन्द-यवन शासक मिलिन्द (मेनाण्डर) के विषय में सूचना हमें बौद्ध विद्वान् नागसेन कृत ‘मिलिन्दपण्हो’ तथा क्षेमेन्द्रकृत ‘अवदानकल्पलता’ से भी प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों से उसके बौद्ध मतानुयायी होने की बात पुष्ट होती है।
क्लासिकल लेखकों में पोलिवियस, स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि के विवरण हिन्द-यवन इतिहास को जानने के लिये उपयोगी स्रोत हैं।
हिन्द-यवन शासकों के लेख तथा सिक्के उनके इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डालते हैं। हाल ही में फतेहपुर जनपद (उ०प्र०) के रेह नामक नामक स्थल से एक लेख प्राप्त हुआ है। इसमें राजा का नाम मिट गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जी० आर० शर्मा इस लेख के शासक की पहचान मेनान्डर के साथ करते हुये यह प्रतिपादित करते हैं कि उसने इस भाग की विजय की थी — Reh inscription of Menander and the Indo-Greek invasion of the Ganga Valley : G.R. Sharma.
परन्तु कुछ अन्य इतिहासकार एवं पुरालिपिवेत्ता इस मत से असहमत हैं। बी० एन० मुकर्जी का मत है कि यह कोई शक-पह्लव शासक है। टी० पी० वर्मा का मत है कि यह लेख किसी कुषाणवंशी शासक का है। डी० सी० सरकार तथा जी० सी० पाण्डे जैसे विद्वान् भी रेह के लेख में मेनान्डर के नामोल्लेख होने में सन्देह व्यक्त करते हैं। इस प्रकार इस लेख के आधार पर सम्प्रति कोई निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं होगा।
हिन्द-यवन शासकों के बहुसंख्यक सिक्के पश्चिमी, उत्तरी पश्चिमी तथा मध्य भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त किये गये हैं। पश्चिमोत्तर में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन सर्वप्रथम यवन शासकों ने ही करवाया था। यवनों के चाँदी के सिक्के ‘द्रम’ कहे जाते थे। यह नाम बहुत बाद तक प्रचलित रहा।
अन्य साक्ष्यों में हेलियोडोरस के बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसमें यवनों की भारतीय धर्म के प्रति निष्ठा सूचित होती है। इन सभी प्रमाणों के आधार पर हम हिन्द-यवन शासकों के इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।
हिन्द-यवन : राजनीतिक इतिहास
पार्थिया तथा बैक्ट्रिया सेल्युकस निकेटर के साम्राज्य के दो प्रान्त थे। सेल्युकस निकेटर के उत्तराधिकारी अन्तियोकस प्रथम (२८१-२६१ ईसा पूर्व) के काल तक ये दोनों प्रदेश सेल्युकस के साम्राज्य के अंग बने रहे। परन्तु अन्तियोकस द्वितीय (२६१-२४६ ईसा पूर्व) के शासन काल में २५० ईसा पूर्व के लगभग पार्थिया तथा बैक्ट्रिया के प्रदेश स्वतन्त्र हो गये।
पार्थिया के विद्रोह का नेता अर्सेक्स तथा बैक्ट्रिया के विद्रोह का नेतो डायोडोटस था। न तो अन्तियोकस द्वितीय और न ही उसके उत्तराधिकारियों — सेल्युकस द्वितीय तथा सेल्युकस तृतीय — में से कोई इतना अधिक शक्तिशाली था कि वह इन विद्रोही प्रदेशों को अपने अधिकार में कर सके। अन्ततः अन्तियोकस तृतीय (२२३-१८७ ईसा पूर्व) ने इन प्रदेशों को अधीन करने का प्रयास किया परन्तु अपने को असमर्थ पाकर उसने इन दोनों प्रान्तों की स्वाधीनता स्वीकार कर ली।
बैक्ट्रिया के स्वतन्त्र यूनानी साम्राज्य का संस्थापक डायोडोटस (Diodots) था। वह एक शक्तिशाली शासक था जिसने सोग्डिया से मार्जियाना (Margiana) तक के प्रदेश पर लम्बे समय तक शासन किया। डायोडोटस की मृत्यु के पश्चात् उसके अवयस्क पुत्र की हत्या कर यूथीडेमस नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने सत्ता हथिया ली।
यूथीडेमस (Euthydemus)
रोमन लेखक पोलिबियस के विवरण से ज्ञात होता है कि यूथीडेमस की राजधानी बेक्ट्रा अथवा जेरियस्पा को सेल्युकस वंशी अन्तियोकस तृतीय ने घेर लिया। दो वर्ष के घेरे के बाद २०६ ईसा पूर्व के लगभग दोनों में सन्धि हो गयी। अन्तियोकस तृतीय ने यूथीडेमस को बैक्ट्रिया का राजा मान लिया तथा उसके पुत्र डेमेट्रियस के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। तत्पश्चात् अन्तियोकस तृतीय ने हिन्दुकुश पार कर काबुल के मार्ग से भारतीय शासक सोफेगसेनस (सुभगसेन) के राज्य में पहुँचा। भारतीय नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार करके उसे ५०० युद्ध के हाथी उपहारस्वरूप प्रदान किये। तदुपरान्त अन्तियोकस तृतीय सीरिया लौट गया। सम्भवतः यह भारतीय राजा अशोक का कोई उत्तराधिकारी था।
यूथीडेमस का साम्राज्य हिन्दूकुश तक ही सीमित था। किसी भी लेखक ने यवनों की भारतीय विजय के प्रसंग में उसका नामोल्लेख तक नहीं किया है। वस्तुतः हिन्द-यूनानी (Indo-Greeks) की भारतीय विजय का इतिहास यूथीडेमस के शक्तिशाली पुत्र डेमेट्रियस के समय से आरम्भ होती है।
डेमेट्रियस (Demetrius)
१९० ईसा पूर्व के लगभग यूथीडेमस की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र डेमेट्रियस बैक्ट्रिया के यवन साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। वह एक महान् विजेता तथा महत्वाकांक्षी शासक था। उसने एक विशाल सेना के साथ हिन्दुकुश को पार कर सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों की विजय की।
डेमेट्रियस का भारत के साथ सम्बन्ध कुछ साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक प्रमाणों द्वारा भी सूचित होता है। सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत पर यवनों का प्रथम आक्रमण पुष्यमित्र शुंग के समय में हुआ था और इस आक्रमण का नेतृत्वकर्ता डेमेट्रियस ही था।
इस आक्रमण का उल्लेख अनेक भारतीय ग्रन्थों; यथा — पतंजलि कृत महाभाष्य, गार्गीसंहिता, कालिदास कृत मालविकाग्निमित्र आदि में हुआ है। इन ग्रन्थों के अनुसार यवन साकेत, माध्यमिका (चित्तौड़), पाञ्चाल तथा मथुरा को जीतते हुये पाटलिपुत्र तक बढ़ आये थे। परन्तु वे मध्यप्रदेश में अधिक दिनों तक न ठहर सके और उन्हें शीघ्र ही देश छोड़ना पड़ा। इसके दो कारण बताये गये हैं :
- एक; गार्गी-संहिता के अनुसार उनमें आपस में ही घोर युद्ध छिड़ा।
- द्वितीय; पुष्यमित्र शुंग के भीषण प्रतिरोध में भी यवनों के पैर उखड़ गये। उसके पौत्र वसुमित्र ने यवनों को सिन्धु नदी के दाहिने किनारे पर पराजित कर दिया।
‘यवनों ने साकेत पर आक्रमण किया, यवनों ने माध्यमिका (चित्तौड़) पर आक्रमण किया।’*
“अरुणद् यवनः साकेतम्। अरुणद् यवनः माध्यमिकाम्॥”* — महाभाष्य
गार्गीसंहिता के अनुसार ‘दुष्ट विक्रान्त यवनों ने साकेत, पञ्चाल तथा मथुरा को जीता और कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) तक पहुँच गये। प्रशासन में घोर अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी तथा प्रजा व्याकुल हो गयी। परन्तु उनमें आपस में ही संघर्ष छिड़ गया और वे मध्यदेश में नहीं रुक सके।’*
ततः साकेतमाक्रम्य पञ्चालान्मथुरान्स्तथा।
यवना दुष्टविक्रान्ता प्राप्यस्यन्ति कुसुमध्वजम्॥
ततः पुष्पपुरे प्राप्ते कर्दमे प्रथिते हिते,
आकुला विषया सर्वे भविष्यन्ति न संशयः।
मध्यदेशे च स्थास्यन्ति यवना युद्धदुर्मदाः।
तेषामन्योन्यसंभावा भविष्यन्ति न संशयः।
आत्मचक्रोत्थितं घोरं युद्धं परं दारुणम्॥”* — गार्गी संहिता
यद्यपि यवन मध्यप्रदेश पर अधिकार नहीं कर सके तथापि ऐसा लगता है कि पश्चिमी पंजाब तथा सिन्धु की निचली घाटी पर डेमेट्रियस ने अपना राज्य स्थापित कर लिया। इन प्रदेशों से उसकी ताम्र मुद्रायें मिलती हैं। इन पर यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों में लेख उत्कीर्ण मिलते हैं।*
“महारजस अपरजितस दिमे त्रियस”*
बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त एक मुद्रा पर ‘दिमित्र’ उत्कीर्ण मिलता है। क्रमदीश्वर के व्याकरण में ‘दत्तमित्री’ नामक एक नगर का उल्लेख मिलता है जो सौवीर (निचली सिन्धु घाटी) प्रदेश में स्थित था। सम्भवतः इसकी स्थापना डेमेट्रियस द्वारा की गयी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने शाकल (स्यालकोट) पर पुनः अधिकार कर लिया। कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में ‘दिमिति’ या ‘विमिक’ नामक किसी यवन राजा का उल्लेख मिलता है। काशी प्रसाद जायसवाल ने उसकी पहचान डेमेट्रियस से की है, परन्तु यह संदिग्ध है।
“एतिनं च कंमपदान संनादेन [ संवित ] सेन-वाहने विपमुचितु मधुरं अपयातो यवनरा [ ज ] [ विमिक* ]” — हाथीगुम्फा अभिलेख
इस प्रकार डेमेट्रियस ने आक्सस नदी से सिन्धु नदी तक के प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लिया था।
यूक्रेटाइडीज (Eucratides)
जिस समय डेमेट्रियस अपनी भारतीय विजयों में उलझा हुआ था उसी समय यूक्रेटाइडीज नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने उसके गृह राज्य बैक्ट्रिया में विद्रोह कर दिया तथा १७१ ईसा पूर्व के लगभग बैक्ट्रिया डेमेट्रियस के अधिकार से जाता रहा।
डेमेट्रियस एक बड़ी सेना के साथ बैक्ट्रिया पहुँचा, परन्तु चार महीने के घेरे के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली। डेमेट्रियस के अन्तिम दिनों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। या तो वह यूक्रेटाइडीज के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया अथवा विद्रोह का दमन करने में असफल होने पर उसने अपने अन्तिम दिन भारत में ही व्यतीत किये।
स्ट्रेबो के अनुसार यूक्रेटाइडीज ने अपने को बैक्ट्रिया से १,००० नगरों का शासक बना लिया। जस्टिन के अनुसार उसने भारत (सिन्ध प्रदेश) की भी विजय की। ऐसा प्रतीत होता है कि यूक्रेटाइडीज ने डेमेट्रियस की मृत्यु के पश्चात् उसके कुछ भारतीय प्रान्तों को भी जीत लिया। उसके सिक्के पश्चिमी पंजाब से पाये गये हैं। उनमें यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों में लेख उत्कीर्ण मिलते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ये सिक्के भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में चलाने के उद्देश्य से ही ढलवाये गये थे। स्ट्रैबो के अनुसार यूक्रेटाइडीज झेलम नदी तक बढ़ आया था।
यूक्रेटाइडीज की भारतीय विजयों के फलस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में दो यवन-राज्य स्थापित हो गये थे —
- यूक्रेटाइडीज तथा उसके वंशजों का राज्य – यह बैक्ट्रिया से झेलम नदी तक फैला था तथा इसकी राजधानी तक्षशिला में थी।
- यूथीडेमस के वंशजों का राज्य — यह झेलम से मथुरा तक फैला था तथा इसकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी।
जस्टिन के अनुसार जब यूक्रेटाइडीज अपनी भारतीय विजयों के पश्चात् बैक्ट्रिया जा रहा था तो मार्ग में अपने पुत्र द्वारा मार डाला गया। यह हत्यारा सम्भवतः हेलियोक्लीज (Heliocles) था। वह बैक्ट्रिया में यवनों का अंतिम शासक था। १२५ ईसा पूर्व के लगभग बैक्ट्रिया से यवन-शासन समाप्त हो गया तथा वहाँ शकों का राज्य स्थापित हो गया। हेलियोक्लीज काबुल घाटी तथा सिन्धु स्थित अपने राज्य में वापस लौट आया।
बैक्ट्रिया के हाथ से निकल जाने के पश्चात् यवनों का राज्य अब केवल मध्य एवं दक्षिण अफगानिस्तान तथा पश्चिमोत्तर भारत तक ही सीमित रह गया। इन भागों में डेमेट्रियस तथा यूक्रेटाइडीज दोनों के वंश के अनेक राजाओं ने शासन किया। सिक्कों से इन दोनों कुलों के कम से कम ३५ राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं जिन्होंने द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य से लेकर लगभग १०० वर्षों तक (हिन्द-पहृव तथा शकों के आगमन तक) इन प्रदेशों में राज्य किया। उनका शासन काल परस्पर संघर्ष एवं विद्वेष का काल था।
यूथीडेमस राजवंश
डेमेट्रियस के भारत आक्रमण के सम्बन्ध में हमें उसके दो सेनापतियों के नाम मिलते हैं:
- एक, अपोलोडोटस या एपोलोडोटस
- दो, मेनाण्डर
एपोलोडोटस
संभवतः अपोलोडोटस डेमेट्रियस का छोटा भाई था और उसी के साथ भारतीय युद्धों में भाग लिया था। क्लासिकल लेखकों ने मेनाण्डर के साथ-साथ एपोलोडोटस का नामोल्लेख किया है। सम्भव है कि उसने डेमेट्रियस के पश्चात् कुछ समय तक शासन भी किया हो परन्तु उसके राज्य-काल के विषय में हमें अधिक ज्ञात नहीं है।
मेनाण्डर (Menander) या मिलिन्द : १६०-१२० ई०पू०
हिन्द-यूनानी (Indo-Greeks) शासकों में मेनाण्डर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह डेमेट्रियस के साथ भारत आक्रमण के समय भारत आया था। बताया जाता है कि इसी के नेतृत्व में यवन सेना ने मथुरा, पांचाल, साकेत और कुसुमपुर पर आक्रमण किया था, परन्तु आपसी कलह व पुष्यमित्र शुंग के प्रतिरोध के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा था।
जब यूक्रेटाड्स ने बैक्ट्रिया में डेमेट्रियस के विरूद्ध विद्रोह करके अलग सत्ता स्थापित कर ली तो सम्भवतः मेनाण्डर को अपनी सत्ता स्थापित करने का अवसर मिल गया होगा। विद्वानों के अनुसार उसने १६०-१२० ई०पू० अथवा १७५-१४५ ई०पू० तक शासन किया।
अनेक क्लासिकल लेखकों — स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि ने मेनाण्डर की गणना महान् युनानी विजेताओं में की है। उसका एक लेख, शिवकोट (बजौर-घाटी) की धातुगर्भ मंजूषा के ऊपर अंकित प्राप्त हुआ है।
- देखें — शिनकोट धातुगर्भ मंजूषा अभिलेख
इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि बजौर क्षेत्र (पेशावर) उसके अधिकार में था।
हाल ही में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में स्थित रेह (Reh) नामक स्थान से एक अन्य अभिलेख प्राप्त हुआ है। इसको जी० आर० शर्मा ने मेनाण्डर का मानते हुए यह विचार व्यक्त किया है कि उसने इस भाग को जीता था। परन्तु यह पहचान संदिग्ध है।
‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ के अनुसार मेनाण्डर के सिक्के भरूच में चलते थे। स्ट्रेबो लिखता है कि उसने सिकन्दर से भी अधिक प्रदेश जीते थे तथा हाइफेनिस (व्यास) नदी पारकर इसेमस (कालिन्दी अथवा यमुना नदी जिसे प्राचीन साहित्य में इक्षुमती कहा गया है) तक पहुँच गया था। मथुरा से उसके तथा उसके पुत्र स्ट्रेटो प्रथम के सिक्के मिले हैं।
इस तरह मेनाण्डर एक विशाल साम्राज्य का शासक बना जो झेलम से मथुरा तक विस्तृत था तथा शाकल (स्यालकोट) उसकी राजधानी थी। नागसेन कृत मिलिन्दपण्हो में इस नगर का सुन्दर वर्णन मिलता है। तदनुसार ‘अनेक आराम, उद्यान तथा तड़ागों से यह सुशोभित था (पवनतड़ागपोक्खरणीसम्पन्नंयोनकानंनगरम्)। नगर के चारों ओर प्राकार एवं परिखा (खाईं) बनवायी गयी थी। नगर के भीतर सुन्दर सड़कें, स्वच्छ नालियाँ तथा भव्य चौराहे बनाये गये थे।’
कुछ इतिहासकारों का विचार है कि मेनाण्डर ने यूक्रेटाइडीज के वंशजों से भी कुछ प्रदेशों को छीन लिया था क्योंकि काबुल घाटी तथा सिंध क्षेत्र से उसकी मुद्रायें मिलती हैं। उसके सिक्कों का विस्तार गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। उसके पाँच प्रकार के चाँदी के सिक्के मिलते है जिनका भार ३२-३५ रत्ती के मध्य है। मुख भाग पर मुकुट धारण किये हुए राजा का सिर तथा यूनानी विरुद के साथ उसका नाम तथा पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी लिपि में मुद्रालेख ‘महरजस पतरस मिलिद्रस’ अंकित है। मेनाण्डर के कुछ ताँबे के सिक्के भी मिलते हैं जिनपर यूनानी तथा प्राकृत भाषा में लेख; यथा – ‘महरजस ध्री मिकस मिनिद्रस’, ‘बेसिलियस सौटेरस मिनिन्द्राय’, ‘बेसिलियस डिकेआय मिनिन्द्राय’ इत्यादि उत्कीर्ण मिलते हैं। ‘ध्रमिकस’ विरुद से सिद्ध होता है कि वह एक धर्मनिष्ठ बौद्ध था।
प्लूटार्क के अनुसार वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा अपनी प्रजा में बहुत अधिक लोकप्रिय था। वह अपने विशाल साम्राज्य का शासन राज्यपालों की सहायता से चलाता था। शिनकोट धातुगर्भ मंजूषा लेख में ‘वियकमित्र’ तथा ‘विजयमित्र’ नामक उसके राज्यपालों का उल्लेख मिलता है जो स्वातघाटी में शासन करते थे।
बौद्ध जनश्रुति में मेनाण्डर को बौद्ध धर्म का संरक्षक बताया गया है। क्षेमेन्द्र कृत ‘अवदानकल्पलता’ से ज्ञात होता है कि मेनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण करवाया था। मेनाण्डर का समीकरण मिलिन्द से किया जाता है जिनका उल्लेख नागसेन कृत ‘मिलिन्दपण्हो’ (मिलिन्द-प्रश्न) में किया है। इस ग्रन्थ में महान् बौद्ध भिक्षु नागसेन राजा मिलिन्द के अनेक गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं तथा अन्ततोगत्वा वह उनके प्रभाव से बौद्ध हो जाता है।
यह कहा गया है कि मेनाण्डर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर न केवल भिक्षु अपितु ‘अर्हत्’ बन गया। मिलिन्दपण्हो के अनुसार मेनाण्डर का जन्म अलसन्द (काबुल के समीप सिकन्दरिया) द्वीप के ‘कालसीग्राम’ में हुआ था। प्लूटार्क लिखता है कि उसकी मृत्यु में बाद अनेक नगरों में उसकी धातुओं (भस्मावशेष) के लिये संघर्ष हुए तथा प्रत्येक नगर में उनके ऊपर स्तूपों का निर्माण हुआ। यह विवरण हमें बुद्ध के भस्मावशेषों के विवरण की याद दिलाता है।
विद्वान टार्न के अनुसार बौद्ध मत की ओर मेनाण्डर झुकाव राजनीतिक कारणों से था क्योंकि उसकी जनसंख्या में बौद्धों का एक बड़ा भाग सम्मिलित था। जी० आर० शर्मा का विचार है कि मेनाण्डर के ही नाम का उल्लेख रामायण में कर्दम, भागवत पुराण में ‘पुष्पनिन्द्र’, विष्णु पुराण में ‘अलिसन्निभ’, दिव्यावदान में ‘यक्षकृमिश’, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में ‘महायक्ष’ तथा तारानाथ के विवरण में ‘मिनार’ रूप में हुआ है। इससे उसकी लोकप्रियता सूचित होती है।
इस प्रकार मेनाण्डर एक शक्तिशाली एवं न्यायप्रिय शासक था। एक साधारण स्थिति से ऊपर उठकर अपनी योग्यता के बल पर वह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। मिलिन्दपण्हो से ज्ञात होता है कि वह एक उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या व कला का प्रेमी था। मिलिन्दपण्हो के अनुसार उसे इतिहास, पुराण, ज्योतिष, न्याय-वैशेषिक, दर्शन, तर्कशास्त्र, सांख्य, योग, संगीत, गणित, काव्य आदि विभिन्न विद्याओं का अच्छा ज्ञान था। उसकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) तत्कालीन भारत का प्रमुख सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल बन गयी थी। मिलिन्दपण्हो से स्पष्ट होता है कि यहाँ की बाजारों में बहुमूल्य वस्तुएँ बिक्री के लिये सजी रहती थीं। नगर के भीतर हजारों की संख्या में भव्य एवं उत्तुंग प्रासाद शोभायमान थे। यहाँ के नागरिकों के पास भारी मात्रा में कार्षापण, स्वर्ण तथा रजत मुद्रायें विद्यमान थीं। इसकी शोभा को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि ‘साक्षात् स्वर्गलोक ही पृथ्वी पर उतर आया है।’
मेनाण्डर यद्यपि एक विदेशी शासक था तथापि उसने भारतीय धर्म को अपनाया तथा उसमें अपने लिये अत्यन्त आदरणीय स्थान बना लिया। निःसन्देह भारत में उसका स्थान सिकन्दर की अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचा है।
रैप्सन के शब्दों में “कुरु नरेश जनमेजय और विदेह के राजा जनक के समान मिनाण्डर की महत्ता उसके दार्शनिक होने के कारण हैं न कि एक विजेता के कारण।”
“It is thus as a philosopher and not as a mighty conqueror that Menander, like Janmjeya, King of Kuru and Janaka, King of the Videha in the Upanishads, has won for himself an abiding fame.” — Rapson
मेनाण्डर के उत्तराधिकारी
मेनाण्डर के अन्तिम दिनों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र स्ट्रेटो प्रथम अल्पवयस्क था। अतः उसकी पत्नी ‘ऐगाथोक्लिया’ ने शासन सम्हाला। उसने अपने पुत्र के साथ मिलकर सिक्के प्रचलित करवाये थे।
स्ट्रटो प्रथम ने लम्बे समय तक शासन किया (≈ ९० ई०पू० तक)। पूर्ण शासक बनने पर स्ट्रेटो प्रथम ने ‘सोटर’ (Soter) की उपाधि धारण की। इसको यूक्रेटाइड्स वंश से प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ा। यूक्रेटाइड्स वंशी हेलिओक्लीज और एंटियालकीड्स ने स्ट्रेटो प्रथम के राज्य के एक बड़े भाग को अधिकृत कर लिया। बताया गया है कि हेलिओक्लीज ने स्ट्रेटो प्रथम को पराजित करके पैरोपनिसिडाई (काबुल घाटी) से लेकर झेलम तक के भूभाग को विजित करके अपने राज्य में मिला लिया। इस क्षेत्र में हेलिओक्लीज के सिक्के प्राप्त होते हैं। अत: स्ट्रेटो प्रथम का राज्य अब झेलम से यमुना के मध्य सिमटकर रह गया। इसी समय शकों का भी अतिक्रमण प्रारम्भ हो चुका था जिसका सामना स्ट्रेटो प्रथम को करना पड़ा था।
स्ट्रेटो प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी लगभग ९०ई०पू० के आसपास स्ट्रेटो द्वितीय बना। उसके समय यूथीडेमस की सत्ता और कमजोर पड़ने लगी।
दूसरे शब्दों में स्ट्रेटो प्रथम व द्वितीय दोनों का काल यूथीडेमस साम्राज्य के पतन का काल रहा।
मित्र शासकों (मथुरा), औदुम्बरों, कुणिन्दों और अर्जुनायनों जैसे छोटे-छोटे राज्य कि यमुना से रावी नदी तक फैले हुए थे। इन राज्यों ने यमुना से रावी तक के क्षेत्रों पर अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।
इस तरह जहाँ पश्चिम से हेलियोक्लीज (यूक्रेटाइड्स वंश) ने झेलम के पश्चिमी क्षेत्रों को यूथीडेमस वंशी शासकों से झीन लिया वहीं पूर्व में व्यास से लेकर यमुना का भूभाग स्थानीय राजाओं ने स्वतंत्रत करा लिया। अतः यूथीडेमस वंशी शासकों का राज्य अब पश्चिम में झेलम से लेकर पूर्व में रावी तक तक सिमटकर रह गया।
लगभग ३० ई०पू० के आसपास शकों ने झेलम से रावी तक के राज्य पर अधिकार कर लिया और इस तरह यूथीडेमस वंश के शासन का अंत हो गया।
यूक्रेटाइडीज वंश
इस वंश के संस्थापक यूक्रेटाइड्स के नाम पर ही इसका नाम ‘यूक्रेटाइड्स वंश’ पड़ा है। इतिहासकार स्ट्रैबो और जस्टिन के विवरणों से इसके सम्बन्धित जानकारी प्राप्त होती है। यह सीरिया के शासक ‘अंतियोकस चतुर्थ’ का चचेरा भाई था। जिस समय डेमेट्रियस भारत के अभियान पर निकला था उसी का लाभ उठाकर यूक्रेटाइड्स ने बैक्ट्रिया में विद्रोह कर दिया। जस्टिन के अनुसार दमित्र (डेमेट्रियस) ६०,००० सैन्य बल के साथ इस विद्रोह को कुचलने लौटा परन्तु वह असफल रहा।
इस तरह लगभग १७१ ई०पू० के आसपास बैक्ट्रिया की सत्ता यूक्रेटाइड्स के हाथों में आ गयी। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने डेमेट्रियस समर्थक सोग्डियाना (बुखारा) से भी युद्ध किया। इस पारस्परिक संघर्ष से दोनों की सत्ता कमजोर होने लगी। इसका लाभ उठाकर पार्थिया (ईरान) शासक मिथ्रिदेट्स ने बैक्ट्रिया के कुछ भागों को विजित कर लिया। इसी क्रम में यूक्रेटाइड्स के उत्तराधिकारों ने दमित्र (डेमेट्रियस) के उत्तराधिकारियों से पूर्व की ओर भारत में अपनी सत्ता का विस्तार किया। यूक्रेटाइड्स के उत्तराधिकारों ने कपिशा और पूर्वी गांधार अधिकृत कर लिया।
इस कुल के निम्न राजाओं के नाम मिलते हैं – हेलियोक्लीज, एन्तियालकीड्स (Antialcidas) तथा हर्मियस (Hermaeus)।
हेलिओक्लीज
लगभग १५९-१५८ ई०पू० में यूक्रेटाइड्स के पुत्र हेलिओक्लीज ने अपने पिता की हत्या कर सत्ता हथिया ली। जस्टिन के विवरण के अनुसार हेलिओक्लीज अपने पिता के साथ संयुक्त शासक था। उसने अपने पिता को अपने रथ के पहियों के नीचे कुचल कर मार डाला। टार्न इस पितृहंता की पहचान दमित्र प्रथम के पुत्र दमित्र द्वितीय से करते हैं, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मानना है कि यूक्रेटाइड्स का हत्यारा उसका पुत्र हेलिओक्लीज ही था।
प्राप्त सिक्कों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि यूथीडेमस वंश के शासकों पर प्रारम्भिक सफलता प्राप्त करने के बाद उसे पार्थियनों (ईरानियों) और शकों से संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि बैक्ट्रिया उसके हाथों से जाता रहा।
बैक्ट्रिया के हाथ से निकल जाने पर हेलिओक्लीज ने पैरोपनिसिडाई (काबुल घाटी) और भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया। इस क्षेत्र में उसे डेमेट्रियस के उत्तराधिकारियों से संघर्ष करना पड़ा। उसने संभवतः पैरोपेनिसडाई से झेलम तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र से हेलिओक्लीज के सिक्के मिलते हैं।
एन्तियालकीडस
यूक्रेटाइड्स के वंश का अन्तिम महत्त्वपूर्ण राजा एन्तटियालकीड्स था। वह सम्भवतः १२५ या ११२ ई०पू० में राजा बना। उसके समय का एक अभिलेख बेसनगर (विदिशा) से मिला है। अभिलेख एक गरुड़स्तम्भ पर खुदा हुआ है। इस अभिलेख के अनुसार तक्षशिला निवासी हेलिओडोरस, जिसे महाराज एन्तटियालकीड्स ने अपने राजदूत के रूप में शुंग वंशी भारतीय राजा काशीपुत्र भागभद्र की राजसभा में भेजा था, ने भागवत वासुदेव के सम्मान में गरुड़स्तम्भ की स्थापना करवायी। इस मैत्रों सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं :
- इस अभिलेख से ऐसा प्रतीत होता है कि एंटिआलकिड्स ने यूथीडेमस वंश के शासकों के विरुद्ध शुंग राजाओं से मैत्री स्थापित की। शुंगों की ब्राह्मण धर्म के प्रति अनुरक्ति को तुष्ट कर उनसे सहायता के लिये ही गरुड़ध्वज की स्थापना करवायी गयी। परन्तु इसका पर्याप्त लाभ उसे नहीं मिल सका होगा; क्योंकि स्वयं शुंगों की सत्ता ही दुर्बल हो चली थी।
- एक अन्य मतानुसार इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब यवनों की शक्ति पर्याप्त क्षीण हो गयी थी और वे आक्रमण का मार्ग छोड़कर भारतीय नरेशों के साथ मैत्री-सम्बन्ध बनाये रखने के इच्छुक थे।
इसमें से कौन सा मत सही है हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते हैं।
- विस्तृत विवरण के लिये देखें — बेसनगर गरुड़ स्तम्भ-लेख
एंटिआलकिड्स अपना प्रभाव पश्चिमी एवं पूर्वी गांधार पर बनाये रखने में सफल रहा। उस समय इस क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण नगर कपिशा, पुष्कलावती और तक्षशिला पर उसका नियंत्रण था।
लिसियस
एंटियालकिड्स का समकालीन राजा लिसियस था। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसके नाम के साथ एंटियालकिड्स का भी नाम और चित्र मिलता है।
कुछ विद्वान लिसियस को यूथीडेमस वंश का मानते हैं परन्तु रैप्सन के अनुसार वह यूक्रेटाइडस के वंश का ही था।
संभवतः शकों से सुरक्षा के दृष्टिकोण से दोनों ने आपस में मैत्री कर ली अथवा दोनों सह-शासक के रूप में गांधार के विभिन्न भागों पर राज्य करते थे।
डी० सी० सरकार का मानना है कि एंटिअलकिडस, लिसियस और हेलियोक्लीज एक ही साथ क्रमशः तक्षशिला, कपिशा और पुष्कलावती पर शासन करते थे।
हर्मियस
हर्मियस यूक्रेटाइडीज वंश का अन्तिम हिन्द यूनानी शासक था। उसकी सत्ता ऊपरी काबुल घाटी तक सिमट कर रह गयी थी। उसका छोटा राज्य चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। पश्चिमोत्तर सीमा क्षेत्र पर शक-पार्थियन और कुषाणों का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था।
हर्मियस ने अपनी सुरक्षा के लिये यूथीडेमस वंश के हिप्पोसट्रेटस की पुत्री कैलिपो से विवाह भी किया, परन्तु इसका कोई लाभ उसे नहीं मिल सका। प्रत्येक आक्रांता अपनी सीमा एवं राज्य का विस्तार करना चाहता था। यूक्रेटाइडस वंश की सत्ता समाप्तप्रायः हो चली थी।
उसके कुछ सिक्कों के ऊपर कुषाण वंश के प्रथम शासक कुजुल कडफिसेस का नाम अंकित मिलता है। यह इस बात का सूचक है कि बैक्ट्रिया में कुजुल उसकी अधीनता स्वीकार करता था।
कुषाण नेता कुजुल कडफिसेस ने पहले तो हर्मियस की अधीनता स्वीकार कर ली, परन्तु बाद में उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। एक अन्य मतानुसार पार्थियन या पह्लव राजा ‘गोण्डोफर्नीज’ ने इस वंश (यूक्रेटाइड्स वंश) की सत्ता समाप्त की।
हर्मियस ने ५० ईसा पूर्व से ३० ईसा पूर्व के लगभग तक शासन किया। उसके साथ ही पश्चिमोत्तर भारत से यवनों का लगभग दो सौ वर्षों का शासन समाप्त हुआ।
यवन प्रभाव या यवन सम्पर्क का भारत पर प्रभाव