सूर्य-पूजा
उद्भव और विकास
सूर्य-पूजा की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। सम्भवतः सूर्य प्रकृति के उन शक्तियों में से एक है जिसे सर्वप्रथम देवत्व प्रदान किया गया। विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य-पूजा का प्रचलन था ( मिश्र, पारसी सभ्यता आदि )।
प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से कुछ प्रतीकात्मक मांगलिक चिह्न ( स्वास्तिक, चक्र आदि ) मिले हैं जिनका सम्बन्ध विद्वानों ने सूर्य-पूजा से लगाया है और यह प्रस्तावित किया है कि भारत में सूर्योपासना प्रस्तर युग से लेकर आद्यैतिहासिक काल तक प्रचलित रही है।
- हड़प्पा सभ्यता से स्वास्तिक, चक्र, किरण-मण्डल के साक्ष्य सूर्य-पूजा का प्रमाण है।
कीथ महोदय का विचार है कि सूर्य-पूजा की परम्परा में आर्य और अनार्य दोनों तत्वों का योगदान है।
ऋग्वैदिक देवमण्डल में सूर्य द्युस्थान ( आकाश ) मण्डल के देव समूह में सम्मिलित था। यहाँ हम सूर्य की पूजा ५ रूपों में पाते हैं :—
- सूर्य
- सविता / सवितृ
- मित्र
- पूषन्
- विष्णु
सूर्य दिन में दिखाई देने वाला रूप था। यह आकाश में चमकता है, अंधकार दूर करता है और प्राणियों का मार्गदर्शन करता है।
सविता / सवितृ सूर्य के स्फूर्ति और प्रेरणा शक्ति का प्रतीक है। इसमें सूर्य के व्यक्त ( चमकता सूर्य ) और अव्यक्त दोनों रूप शामिल थे। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल का गायित्री मंत्र इसी को समर्पित है—
ॐ भूर्भुवः स्वः, तत्सवितुर्वरेण्यम्,
भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्र का अर्थ है सुहृद या सहायक। यह सूर्य के रक्षण शक्ति का प्रतिनिधि है। पारसी धर्म में इसी को मिथ्र कहा गया है।
पूषन् अर्थात् पोषणकर्ता। यह सूर्य के पोषण शक्ति का प्रतीक है।
विष्णु का अर्थ है व्यापकता / व्यापनशीलता। यह सूर्य के क्रियाशील रूप का प्रतीक था। कालान्तर में विष्णु की प्रतिष्ठा स्वतन्त्र देवता के रूप में त्रिदेवों में हुई।
ऋग्वेद में सूर्य की अनेक विशेषताओं का वर्णन है। इसमें कहा गया है कि वह एक श्वेत अश्व हैं जिसे उषा लाती है। वह रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करता है। उसके रथ में एक या अधिक अश्व जुते होते हैं। कालान्तर में यह संख्या सात हो गयी और इसी आधार पर इसे ‘भगवान सप्त सप्ति’ कहा गया है। ऋग्वेद में सूर्य के विषय में इस तरह वर्णन मिलता है :—
उत्वेति सुभणो विश्वचक्षाः साधारणः सूर्यो मानुषाणाम्।
चतुर्मित्रस्य वरुणस्य देवेश्चर्मेव, यः सम्य विव्यक् तमांसि ॥
वैदिक काल में सूर्य प्रतिमा का आविर्भाव नहीं हुआ था। रामायण और महाभारत में सूर्य के मानवीय रूप का ही विवरण मिलता है।
मूर्तिपूजा की शुरुआत कुषाण काल से मानी जाती है परन्तु व्यापक प्रचलन गुप्तकाल में हुआ जब बड़े पैमाने पर मंदिर बनाकर उसमें मूर्तियाँ स्थापित की गयीं। गुप्तकाल से ही सूर्य की प्रतिमाओं में सात अश्व प्रदर्शित किये जाने लगे।
कालान्तर में सूर्य आराधकों का अलग सम्प्रदाय बन गया जिसे ‘सौर सम्प्रदाय’ कहा गया। सूर्य के अनुयायी मस्तक पर लाल चन्दन लगाते हैं, लाल पुष्प की माला पहनते हैं तथा गायित्री मन्त्र का जाप करते हैं।
प्रथम शताब्दी ईसवी से सूर्यपूजा पर विदेशी प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। आ०जी०भण्डारकर महोदय का कहना है कि इसका कारण ईरान से ‘मग’ नामक पुरोहितों का आगमन था। अपने मत के साक्ष्यों भण्डारकर महोदय ‘भविष्य पुराण’ का उदाहरण देते हैं । इसमें श्रीकृष्ण पुत्र ‘साम्ब’ ने चन्द्रभागा नदी के तीर पर एक सूर्य मंदिर बनवाया परन्तु कोई भारतीय ब्राह्मण यहाँ पूजा करने को तैयार नहीं हुआ तब साम्ब ने शक-द्वीप के मग / मघ पुजारियों को बुलाकर इस मंदिर में नियुक्त किया। इस बात की पुष्टि गोविन्दपुर ( गया – बिहार ) से प्राप्त लेख ( ११३७ – ३८ ई० ) से भी होती है। ह्नेनसांग ने भी चन्द्रभानु नदी तट पर साम्ब द्वारा स्थापित सूर्य मंदिर का उल्लेख किया है। वाराह पुराण से भी पता चलता है कि उसने ( साम्ब ) ने मथुरा में एक सूर्य की मूर्ति स्थापित करवायी थी। कनिष्क के सिक्कों पर मिइरो या ईरानी मिहिर ( सूर्य ) का अंकन इस बात का साक्ष्यों कि मगों का प्रवेश प्रथम शती में भारत में हुआ। बृहत्संहिता कहती है की मगों के प्रभाव से भारत में सौर सम्प्रदाय की स्थापना हुई। ललितविस्तार ( कुषाणकालीन ग्रंथ ) में सूर्योपासना का वर्णन मिलता है। पूर्व-मध्यकाल विद्वान ‘अलबेरुनी’ मगों को सूर्य प्रतिमा का सच्चा पुजारी कहता है। इन ईरानी मग पुजारियों को उत्तरी भारत में ‘शाकलद्वीपी या शाकद्वीपी ब्राह्मण’ कहा गया है।
कुमारगुप्तकालीन मन्दसोर अभिलेख से पता चलता है कि दशपुर की तन्तुवाय श्रेणी ( रेशम वस्त्र बुनकर ) ने सूर्य का एक मंदिर बनवाया और क्षतिग्रस्त होने पर उसका पुनर्निर्माण करवाया था। इस लेख का प्रारम्भ सूर्य की स्तुति से होती है। स्कंदगुप्त के समय क्षत्रिय अचलवर्मा और भूकंठ सिंह ने इन्द्रपुर ( बुलन्दशहर स्थित इन्दौर ) में सूर्य मंदिर बनवाया था इसकी जानकारी इन्दौर ताम्रपत्र से मिलती है। इस लेख की शुरुआत सूर्य की स्तुति से होती है। हूण शासक मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहाँ की पहाड़ी पर ‘मातृचेटि’ ने सूर्यमंदिर बनवाया था।
हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन सूर्य के उपासक थे। हर्षवर्धन ने प्रयाग महामोक्षपरिषद में शिव, बुद्ध और सूर्य की पूजा की थी। बाणभट्ट उज्जैन में सूर्यपूजा की बात बताता है। ह्नेनसांग मूलस्थानपुर के सूर्यमंदिर का उल्लेख करता है।
राजपूतकाल :- गहड़वालकालीन कन्नौज दानपत्र ( ११७७ ई० ) में सूर्य मंदिर का उल्लेख है। चाह्मान नरेश चण्डमहासेन सूर्य भक्त था। मीनमल में सूर्य सम्प्रदाय लोकप्रिय था। मोडेरा-गुजरात, ओसिया और सिरोही – राजस्थान एवं कोणार्क-ओडिशा के सूर्यमंदिर सूर्योपासना की लोकप्रियता बताते हैं। पालकाल में कई सूर्य मूर्तियाँ बनायी गयी। सेन नरेश ‘विश्वरूप’ और ‘केशवसेन’ सूर्य के उपासक थे और उनकी उपाधि ‘परमसोर’ थी। दीनाजपुर से प्राप्त लेख जोकि सूर्य प्रतिमा पर अभिलिखित है, में कहा गया है कि सूर्य की उपासना से समस्त रोगों का नाश होता है। कश्मीर नरेश लालितादित्य ने मार्तण्ड मंदिर बनवाया था। पाटन दानपत्र ( ११९९ ई० ) पता चलता है कि चौलुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय ने अनलेश्वर देव ( सूर्य ) के मंदिर को दान दिया था।
दक्षिण भारत में एकमात्र सूर्य का मंदिर तंजोर से मिलता है।
प्रबंधचिन्तामणि से पता चलता है कि पश्चिमी भारत में सूर्य पूजा जैनियों द्वारा भी की जाती थी।
प्राचीन ग्रंथों – बृहत्संहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण आदि में सूर्य-प्रतिमा निर्माण की विधि का विविरण दिया गया है। प्रायः सूर्य के दो रूपों का विवरण मिलता है :—
- उदीच्च ( उत्तरी ) प्रतिमा – यह वेशभूषा विदेशी तत्वों से प्रभावित है। कुषाणकालीन प्रतिमा पर गन्धार कला का प्रभाव पड़ाना। ये प्रतिमाएँ पूर्णता ‘आवृत्त’ दिखायी गयी हैं। उषा और प्रत्यूषा दायें एवं बाएँ दिखायी गयी हैं।
- दक्षिणी प्रतिमा – इसका विवरण अंशुद्भेदागम्, सुप्रभेदागम् आदि में मिलता है। इन प्रतिमाओं पर विदेशी प्रभाव अत्यल्प है। इन प्रतिमाओं को ‘अनावृत्त’ प्रदर्शित करने पर बल दिया गया है। उषा और प्रत्यूषा दायें एवं बाएँ दिखायी गयी हैं।
वर्तमान में नैष्ठिक हिन्दू प्रातःकाल स्नानोपरांत सूर्य को ‘अर्ध्य’ देते हैं और गायत्री मन्त्र से उसकी स्तुति करते हैं। पूर्वांचल क्षेत्रों में ( बिहार, उ०प्र० ) में सूर्यपूजा अत्यंत लोकप्रिय है और इसे “छठ या डाला छठ” कहा जाता है। इसमें कार्त्तिक माह के शुक्ल पक्ष को अस्त व उदित होते सूर्य की पूजा की जाती है ।