संस्थापक |
पालवंशी शासक ‘धर्मपाल’ ( ७७० – ८१० ई॰ )। |
स्थान |
पथरघाट पहाड़ी, भागलपुर जनपद; बिहार। |
समय |
इसकी स्थापना आठवीं शताब्दी में हुई। यह आठवीं से १२वीं शताब्दी के अंत तक अस्तित्व में रहा। |
प्रसिद्ध विद्वान |
दीपंकर श्रीज्ञान ‘अतीश’, अभयांकर गुप्त, ज्ञानपाद, वैरोचन, रक्षित, जेतारी, शान्ति, रत्नाकर, मित्र, ज्ञानश्री, तथागत, रत्नवज्र आदि। |
पतन |
तुर्की आततायी आक्रांता मु॰ बिन बख्तियार खिलजी ने इसे १२०३ ई॰ में जलाकर नष्ट कर दिया। बौद्ध भिक्षुओं की सामूहिक नृशंस हत्या की गयी। इस समय यहाँ के कुलपति शाक्यश्रीभद्र थे और वे किसी तरह अपने अनुयायियों के साथ बच-बचाकर तिब्बत भाग गये। |
भूमिका
धर्मपाल ( पाल वंश ) द्वारा स्थापित विक्रमशिला विश्वविद्यालय बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित है। यह १२०३ ई० में मु० बिन बख़्तियार खिलजी द्वारा नष्ट कर दिया गया। इस आक्रमण के समय यहाँ के कुलपति शाक्यश्रीभद्र थे । इसके ध्वंसावशेष भागलपुर जनपद के पथरघाट पहाड़ी से मिलते हैं। इसका समयकाल ८वीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी माना जाता है।
इसकी स्थापना पालवंशी शासक धर्मपाल ( ७७५ – ८०० ई॰ ) के शासनकाल में हुई थी। परवर्ती पाल शासकों के संरक्षण में यह ११वीं और १२वीं शताब्दी में अंतरराष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय बनकर उभरा। एक समय तो यह आया कि इसने नालंदा विश्वविद्यालय को भी पीछे छोड़ दिया और उसका प्रबंधन भी यहीं से होने लगा था।
शिक्षा व्यवस्था
यहाँ पर लगभग १६० विहार और व्याख्यान के लिए अनेक कक्ष बने हुए थे। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में ६ महाविद्यालय थे। प्रत्येक महाविद्यालय में १ केन्द्रीय कक्ष और १०८ शिक्षक थे। केन्द्रीय कक्ष को ‘विज्ञान कक्ष’ कहा जाता था। हर एक महाविद्यालय के प्रवेश-द्वार पर एक विद्वान बैठता था जिसे ‘द्वार-पंडित’ कहा जाता था। प्रवेश के इच्छुक छात्र की यह विद्वान परीक्षा लेता था और इसके बाद ही विद्यार्थी यहाँ प्रवेश पा सकता था। पालवंशी शासक ‘कनक’ के शासनकाल में निम्न द्वार-पंडितों के नाम मिलते हैं :-
( १ ) पूर्वी द्वार – आचार्य रत्नाकर शान्ति
( २ ) पश्चिमी द्वार – वागीश्वर कीर्ति ( वाराणसेय )
( ३ ) उत्तरी द्वार – आचार्य नरोप
( ४ ) दक्षिणी द्वार – आचार्य प्रज्ञाकरमति
( ५ ) प्रथम केन्द्रीय द्वार – कश्मीरी विद्वान रत्नवज्र
( ६ ) द्वितीय केन्द्रीय द्वार – गौड़ीय विद्वान ज्ञानश्रीमित्र
विक्रमशिला विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम नालंदा की भाँति विस्तृत नहीं था। यहाँ के पाठ्यक्रम में व्याकरण, तर्कशास्त्र, मीमांसा, तंत्रविद्या, विधि आदि सम्मिलित थे। यह बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के आचार्यों में हमें दीपंकर श्रीज्ञान, अभयंकर गुप्त, ज्ञानपाद, वैरोचन, रक्षित, जेतारी, रक्षित, शान्ति, ज्ञानश्रीमित्र, रत्नवज्र, तथागत, रक्षित आदि के नाम मिलते हैं।
- अतीश दीपंकर ‘श्रीज्ञान’ यहाँ के कुलपति रह चुके थे। ये ओदंतपुरी विद्यालय के छात्र थे और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य बने। आचार्य दीपंकर हीनयान, महायान, वैशेशिक और तर्कशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। ११वीं शताब्दी में तिब्बत के शासक ‘चनचुब’ के बुलावे पर दीपंकर श्रीज्ञान तिब्बत गये। उन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। तिब्बती स्रोत उन्हें लगभग २०० रचनाओं का श्रेय देते हैं।
- १२वीं शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य ‘अभयंकर गुप्त’ थे। ये तंत्रविद्या के विद्वान थे। इन्होंने संस्कृत और तिब्बती भाषा में कई रचनाएँ की।
१२वीं शताब्दी में यहाँ लगभग ३,००० विद्यार्थी थे। इनमें अधिकांश तिब्बती छात्र होते थे। यहाँ पर एक विशाल पुस्तकालय भी था। विश्वविद्यालय का प्रबंधन के लिए —
- सामान्य प्रशासन के लिए संघ के अध्यक्ष की देखरेख में एक परिषद थी। यह परिषद इस विश्वविद्यालय के सामान्य प्रशासनिक कार्य करती थी।
- शैक्षणिक व्यवस्था के लिए छः द्वार-पंडितों की समिति द्वारा होती थी। इस समिति का एक अध्यक्ष होता था।
- तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार कालान्तर में नालंदा विश्वविद्यालय का प्रबंधन भी विक्रमशिला विश्वविद्यालय की प्रशासनिक परिषद करने लगी थी।
छात्रों को उपाधियाँ देने का कार्य पूर्व-मध्यकाल में पाल शासकों ने शुरू किया। तिब्बती स्रोतों से ज्ञात होता है कि जेतारी और रत्नवज्र ने पाल शासकों से महीपाल व कनक के हाथों से उपाधियाँ प्राप्त की थीं। यहाँ के स्नातकों के पण्डित, महापण्डित, उपाध्याय और आचार्य जैसी उपाधियाँ दी जाती थीं। ये उपाधियाँ क्रमशः उच्चतर उपाधियाँ थीं।
ऐसा अनुमान है कि वर्तमान की भाँति उस समय ‘दीक्षान्त समारोह’ हुआ करते थे और इसमें पालवंशी शासक कुलाधिपति ( Chancellor ) की तरह सम्मिलित होते थे।
११वीं और १२वीं शताब्दी में विक्रमशिला विश्वविद्यालय भारत का सर्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। इसने तिब्बत में भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहाँ पर तिब्बती विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक थी। उनके लिए यहाँ पर पृथक अतिथिशाला भी थी।
पतन
१२०३ ई॰ में मुस्लिम आततायी आक्रांता मु॰ बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया। यहाँ के भिक्षुओं की निर्दयी रूप से सामूहिक हत्या कर दी गयी। इस समय यहाँ के कुलपति ‘शाक्यश्रीभद्र’ थे। वे अपने अनुयायियों के साथ बच-बचाकर तिब्बत भाग गये।
इस आक्रमण के सम्बन्ध में हमें मिनहाजुद्दीन सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी’ से जानकारी मिलती है।
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था कैसी थी ?