भूमिका
मौर्य इतिहास के स्रोत साहित्य और पुरातत्त्व दोनों हैं। साहित्य में स्वदेशी और विदेशी विद्वानों व इतिहासकारों की रचनाओं को सम्मिलित किया जाता है। इस तरह मौर्य राजवंश के तीन प्रकार के स्रोत हो जाते हैं। मौर्य राजवंश और तत्कालीन समाज व संस्कृति के इतिहास जानने के लिये हमें तीनों ही साधनों से पर्याप्त सहायता उपलब्ध होती है। इनका विवरण इस प्रकार है।
मौर्य इतिहास के स्रोत : वर्गीकरण
मौर्य राजवंश का इतिहास साहित्यिक एवं पुरात्तात्विक दोनों ही साधनों से जाना जाता है। इन साधनों को अध्ययन की सुविधा के लिये वर्गीकृत कर लेना आवश्यक है।
- साहित्यिक स्रोत
- स्वदेशी स्रोत
- संस्कृत साहित्य
- पालि साहित्य
- प्राकृत साहित्य
- तमिल साहित्य
- विदेशी स्रोत
- क्लासिकल लेखक
- चीनी वृत्तांत
- स्वदेशी स्रोत
- पुरातात्त्विक स्रोत
- मौर्यकालीन अभिलेख
- अशोक पूर्व अभिलेख
- अशोक के अभिलेख
- परवर्ती मौर्य शासकों के अभिलेख
- रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
- आहत सिक्के
- मृद्भाण्ड
- विभिन्न पुरातात्त्विक अवशेष, जैसे – कला अवशेष, स्तूप, गुहा इत्यादि।
- मौर्यकालीन अभिलेख
साहित्यिक स्रोत
मौर्य इतिहास के निर्माण में स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रकार के साहित्यों से सहायता प्राप्त होती है। इन साहित्यों को क्रमवार अनुशीलन करना आवश्यक है।
स्वदेशी साहित्य
इसमें सम्मिलित हैं – संस्कृत साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य, तमिल साहित्य।
- संस्कृत साहित्य में सम्मिलित है – कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस, पतंजलि कृति महाभाष्य, सोमदेव कृत कथासरित्सागर, क्षेमेन्द्र कृत वृहत्कथामंजरी, विष्णुपुराण इत्यादि।
- बौद्ध साहित्य – दीपवंश, महावंश, दिव्यावदान, अशोकावदान, मंजूश्रीमूलकल्प, मिलिन्दपण्हो इत्यादि।
- जैन साहित्य – भद्रबाहु कृत कल्पसूत्र, हेमचन्द्र कृत परिशिष्टपर्वन और स्थाविरावलिचरित आदि।
- तमिल लेखक मामुलार और परणार के विवरण।
अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र के लेखक विष्णुगुप्त है। इसके अन्य नाम चाणक्य और कौटिल्य भी मिलते हैं। अर्थशास्त्र की तुलना प्रायः अरस्तू कृत पॉलिटिक्स ( Politics ) और मैकियावेली कृत प्रिंस ( Prince ) से की जाती है।
इनको भारत का मैकियावेली कहा जाता है। मैकियावेली इटली के प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक थे। जब इंग्लैंड में लोकतंत्र की बयार बह रही थी उस समय वह राजतंत्र के घोर सम्रर्थक थे। कौटिल्य भी राजतंत्र के समर्थक थे इसलिये इन्हें भारत का मैकियावेली कहा जाता है।
अर्थशास्त्र पर कालान्तर में भट्टस्वामी ने प्रतिपदापंचिका नाम से टीका लिखी।
अर्थशास्त्र को डॉ० शामशास्त्री ने १९०९ ई० में प्रकाशित किया। तबसे लेकर अर्थशास्त्र पर अब तक इस ग्रंथ के अनेक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। इस पर टीकाएँ भी लिखी गयीं और शोध प्रकाशित किये गये। कुछ विद्वानों ने तो कम्प्यूटर की सहायता से इसकी तिथि निर्धारित करने का भी प्रयास किया है।
अर्थशास्त्र से सम्बन्धित प्रमुख ऐतिहासिक तथ्य :
- अर्थशास्त्र राजनीति और लोक प्रशासन पर लिखी गयी प्रथम महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
- इसमें कुल १५ अधिकरण ( भाग ) १८० प्रकरण ( उपभाग ) और ६,००० श्लोक हैं।
- इसमें किसी राजा, उसकी राजधानी, नगर प्रशासन और सैन्य प्रशासन इत्यादि का विवरण नहीं प्राप्त होता है। सामान्य रूप से लेखक ने इसमें एक राज्य, और उसकी व्यवस्था से सम्बन्धित अपने निजी विचार व्यक्त किये हैं।
- अर्थशास्त्र से राज्य के ७ अंगो की जानकारी मिलती है जिसको ‘सप्तांग सिद्धांत’ कहा गया है –
- राजा – अर्थशास्त्र में राजा की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसके अनुसार राजा को कुछ भी देने से पूर्व उसकी जाँच कुत्ता या बिल्ली से चखाकर करना चाहिए।
- अमात्य – यह अधिकारियों का एक वर्ग था। इसमें से योग्यतम् अधिकारियों की नियुक्ति मंत्रिपरिषद में की जाती थी। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि ‘राज्य रूपी रथ का पहिया बिना योग्य अमात्यों के नहीं चल सकता है।’
- जनपद – राज्यक्षेत्र।
- दुर्ग – किले।
- कोष – धन।
- दण्ड – सेना।
- मित्र – पड़ोसी मित्र राज्य।
- अर्थशास्त्र में १८ तीर्थ और २६ अध्यक्षों का उल्लेख है। तीर्थ राज्य के उच्च पदस्थ अधिकारी होते थे।
- अर्थशास्त्र पहली पुस्तक है जिससे गुप्तचर व्यवस्था पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है। गुप्तचर को ‘गूढ़ पुरुष’ कहा गया है। गुप्तचरों में वेश्याओं/गणिकाओं के नियुक्ति की भी बात कही गयी है।
- अर्थशास्त्र में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति तब तक बौद्ध संघ में सम्मिलित नहीं हो सकता है जब तक कि वह अपने ऊपर आश्रित स्त्रियों और बच्चों की समुचित व्यवस्था न दे।
- अर्थशास्त्र में चारों वर्णों को अपने-अपने नियत कर्मों को करने का सुझाव दिया गया है।
- अर्थशास्त्र में शुद्रों को आर्य कहा गया है और उन्हें सेना में सम्मिलित होने एवं कृषि कार्य की अनुमति दी गयी है। यह निश्चय ही एक प्रगतिशील विचार था।
- अर्थशास्त्र में चतुरंगिणी सेना का उल्लेख मिलता है। साथ ही इसमें जहाजरानी का भी विवरण मिलता है।
- अर्थशास्त्र में भूराजस्व के लिये ‘भाग’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसमें भूराजस्व की मात्रा उपज का १/६ बताया गया है और यह सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के लिये आदर्श था।
- अर्थशास्त्र में दो व्यापारिक मार्गों का विवरण मिलता है – एक, उत्तरापथ और दूसरा, दक्षिणापथ। इसमें दक्षिणापथ की अपेक्षाकृत अधिक प्रशंसा की गयी है क्योंकि वहाँ सुवर्ण, चाँदी और बहुमूल्य पत्थर मिलते थे।
- अर्थशास्त्र में हमें ९ प्रकार के दासों का विवरण मिलता है जिसमें से अहितक दास ( धरोहर दास ) का विवरण ध्यान देने योग्य है।
अर्थशास्त्र के तिथि निर्धारण का विवाद :
अर्थशास्त्र की तिथि एवं इसके लेखक के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इसमें से कुछ प्रमुख मत इस तरह हैं —
- अधिकतर विद्वानों; यथा – डॉ० शामशास्त्री, के० पी० जायसवाल, फ्लीट, स्मिथ, जैकोबी आदि के मतानुसार इस ग्रंथ की रचना मौर्य काल में हुई थी एवं इसके रचयिता चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री कौटिल्य या चाणक्य थे।
- विद्वानों का दूसरा वर्ग; यथा – विण्टरनीज, जॉली, कीथ, भंडारकार इत्यादि इसका रचनाकाल ईसा की पहली से तृतीय शताब्दी मानते हैं।
- एक विद्वान यू० एन० घोषाल ने तो इसे प्राक्-मौर्य ग्रंथ बताया है।
इन सभी मतों की अपनी विशिष्टताएँ एवं कमजोरियाँ है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मूल रूप से यह ग्रंथ चाणक्य या कौटिल्य द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के समय में लिखा गया परन्तु इसका अन्तिम संकलन ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में हुआ।
निष्कर्ष :-
यह सत्य है कि इस ग्रंथ में मौर्य शासकों को नामावली देखने को नहीं मिलती है, फिर भी अन्य तत्कालीन विवरणों (मेगास्थनीज) एवं अर्थशास्त्र में कुछ साम्यता पायी जाती है जिससे मौर्य प्रशासन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इसमें राज्य या राजा की उत्पत्ति, राज्य के तत्त्व, राजा की स्थिति, उसके अधिकार एवं कर्तव्य, राज्य की नीति-निर्धारण सम्बन्धी प्रश्न, युद्ध एवं शांति के समय राजा के कर्तव्य, नगर-प्रशासन, गुप्तचर एवं न्याय, सैन्य व्यवस्था इत्यादि विषयों पर विचार किया गया है। इसके साथ-साथ राज्य के आर्थिक आधार एवं सामाजिक-धार्मिक अवस्था की भी जानकारी इस ग्रंथ से मिलती है। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्राचीन राजनीतिशास्त्र पर यह प्राचीनतम् उपलब्ध ग्रन्थ है। इसके साथ ही यह धार्मिक पूर्वाग्रह से भी बचने की कोशिश करता है। अनेक त्रुटियों के बावजूद मौर्य प्रशासन के अध्ययन के लिये इस ग्रन्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
मुद्राराक्षस
मुद्राराक्षस से भी मौर्य वंश के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है। विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस नाटक चंद्रगुप्त मौर्य एवं उनके प्रधानमंत्री चाणक्य पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। यह संस्कृत साहित्य का संभवतः प्रथम जासूसी नाटक है। इस नाटक से उन परिस्थितियों एवं घटनाक्रम की जानकारी मिलती है जिसने नन्दवंश का पतन एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ‘वृषल’ का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ कुछ विद्वानों ने शुद्र बताया है। राजनीति के अतिरिक्त इस नाटक से मौर्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति की भी जानकारी मिलती है।
आगे चलकर ‘घुण्डिराज’ ने मुद्रारक्षस पर टिका लिखी इसमें चन्द्रगुप्त मौर्य को धनानन्द का पौत्र बताया गया है।
पुराण
कुछ पुराणों से भी मौयों के विषय में जानकारी मिलती है। उदाहरणार्थ विष्णुपुराण से पता लगता है कि मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त का जन्म नंद राजा की मुरा नामक पत्नी से हुआ था। इस प्रकार यह ब्राह्मण ग्रंथ चंद्रगुप्त मौर्य को शुद्र या नीच कुल में उत्पन्न बताता है।
अन्य संस्कृत ग्रंथ
कुछ अन्य ग्रंथों से भी मौर्य वंश के विषय में जानकारी प्राप्त होती है :
- पाणिनि की अष्टाध्यायी मूल रूप से व्याकरण से संबद्ध है, फिर भी इससे पूर्वमौर्य तथा मौर्यकालीन राजनीतिक अवस्था की यथेष्ट जानकारी मिलती है।
- पतंजलि का महाभाष्य भी अप्रत्यक्ष रूप से मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी का साधन बन जाता है।
- सोमदेव की कथासरितसागर, क्षेमेंद्र की वृहत्कथामंजरी जैसी रचनाएँ भी मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी देती है।
यह सत्य है कि इन ग्रंथों में बहुधा अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही गयी हैं, फिर भी इन ग्रंथों की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता साथ ही इसे एकबारगी नकार देना स्वस्थ ऐतिहासिक दृष्टि नहीं है।
बौद्ध साहित्य
विभिन्न बौद्ध ग्रंथ मौर्य शासकों के विषय में हमारा ज्ञान बढ़ाते हैं। मौर्य सम्राट अशोक के विषय में तो इन ग्रंथों में प्रचूर सामग्री भरी पड़ी है। बौद्ध ग्रंथ पालि और संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखे गये।
दीपवंश, महावंश, दिव्यवदान, अशोकावदान, मंजूश्रीमूलकल्प, मिलिन्दपण्हो इत्यादि ग्रंथों से, मौयों के कुल के निर्धारण में सहायता मिलती है। अशोक की जीवनी एवं बौद्ध धर्म के प्रति उसका लगाव भी इन ग्रंथों से परिलक्षित होता है।
महावंश टीका के अनुसार चाणक्य ने नंद वंश का नाश करके चंद्रगुप्त मौर्य को जम्बूद्वीप का सम्राट बना दिया। इसमें चंद्रगुप्त की प्रथम असफलता का भी उल्लेख है। चंद्रगुप्त की तुलना एक ऐसे बालक से की गयी है जो चपाती को किनारे से खाने के बदले बीच से खाना प्रारम्भ कर देता है।
मिलिन्दपण्हो में भी मगध के सेना के विनाश का विस्तृत वर्णन किया गया है।
दिव्यवदान में चंद्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार को मूर्धन्यभिषिक्त क्षत्रिय बताया गया है। अशोक भी इस ग्रंथ में अपने आपको क्षत्रिय घोषित करता है। इसी प्रकार महापरिनिब्बानसुत से भी मौर्यो के क्षत्रिय होने का आभास मिलता है।
मंजूश्रीमूलकल्प में तो प्राक्-मौर्य काल से लेकर हर्षवर्द्धन के समय तक की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं का जिक्र किया गया है जिससे मौर्यकालीन इतिहास पर भी प्रकाश पड़ता है।
अशोकावदान, दिव्यावदान, महावंश और दीपवंश से अशोक की प्रारम्भिक जीवनी पर प्रकाश पड़ता है। इन्हीं ग्रंथों से यह भी पता चलता है कि अशोक अपने ९९ भाइयों की हत्या करवाकर कर सिंहासन पर बैठा। इन ग्रंथों से अशोक के हृदय परिवर्तन एवं बौद्धधर्म को प्रश्रय देने की भी बात मालूम होती है।
तिब्बती लामा तारनाथ के बौद्ध धर्म का इतिहास भी मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी का एक बहुमूल्य साधन है।
जैन साहित्य
कतिपय जैन ग्रंथों से भी मौर्य राजवंश के इतिहास की जानकारी मिलती है। इस संदर्भ में परिशिष्टपर्व तथा कल्पसूत्र विशेष महत्त्व के है।
चंद्रगुप्त तथा अंतिम नंद शासक के संघर्ष की कहानी परिशिष्ठपर्व में उल्लिखित है।
कल्पसूत्र से भी चंद्रगुप्त मौर्य के विषय में जानकारी मिलती है। भद्रबाहुचरित से भद्रबाहु के साथ-साथ चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है।
हेमचंद्र की कृति स्थविरावलिचरित भी चंद्रगुप्त मौर्य के प्रारंभिक जीवन की जानकारी देती है।
तमिल साहित्य
यद्यपि तमिल साहित्य से मौयों के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती, तथापि तमिल साहित्य से चंद्रगुप्त के दक्षिण में साम्राज्य विस्तार पर कुछ प्रकाश पड़ता है। तमिल लेखकों ममुलनार तथा परणार के विवरणों से ऐसा ज्ञात होता है कि संभवतः चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण में त्रिचनापल्ली जिले की पोदियिल पहाड़ी तक आक्रमण किया था।
विदेशियों के यात्रा विवरण
इन स्वदेशी साहित्यिक सामग्रियों के अतिरिक्त यूनानी-रोमन एवं चीनी यात्रियों के वृत्तांतों से भी मौर्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है।
यूनानी और रोमन वृत्तांत
क्लासिकल ( यूनानी-रोमन ) लेखकों के विवरण से मौर्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है।
- यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये सैन्ड्रोकोटस तथा एन्ड्रोकोटस नाम का प्रयोग किया है। सर्वप्रथम सर विलियम जोन्स ने इन नामों का तादात्म्य चन्द्रगुप्त के साथ स्थापित किया था। इससे यह महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने में सहायता मिली कि चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर का समकालीन थे।
- सिकन्दर के समकालीन लेखकों — नियार्कस, आनेसिक्रिटस तथा आरिस्टोलस के विवरण चन्द्रगुप्त के विषय में कुछ सूचनायें देते हैं।
- सिकन्दर के बाद के लेखकों में मेगस्थनीज का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जिसकी पुस्तक इंडिका (Indica) मौर्य-इतिहास का प्रमुख स्रोत है। इसका विदेशी विवरण में वही महत्त्व है जो भारतीय साहित्य में अर्थशास्त्र का है। दुर्भाग्यवश यह ग्रन्थ अपने मूलरूप में प्राप्त नहीं है। इसके अंश उद्धरण के रूप में परवर्ती लेखकों के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। इनमें स्ट्रैबो (Strabo), डियोडोरस (Diodorus), प्लिनी (Pliny), एरियन (Arrian), प्लूटार्क (Plutarch) तथा जस्टिन (Justin) के नाम उल्लेखनीय हैं।
मेगस्थनीज
मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र आये और लगभग ५ या ६ वर्षों ( ३०४ ई०पू० से २९९ ई०पू० ) तक यहाँ रहे थे। उसने चंद्रगुप्त मौर्य के विषय में तथा तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था का आँखों-देखा विवरण अपनी पुस्तक इंडिका (Indika) में किया है। इंडिका मूलतः यूनानी भाषा में लिखी गयी थी।
यद्यपि मेगास्थनीज की पुस्तक अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, परंतु बाद के यूनानी यात्रा विवरणों में यह उद्धरण के रूप में वर्तमान है।
मेगास्थनीज को आधार बना कर ही बाद के बहुत से यूनानी एवं रोमन लेखकों ने भारतवर्ष का वर्णन किया है जिससे तत्कालीन अवस्था का अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है। इन लेखकों में एरियन ( Arrian ), स्ट्रैबो ( Strabo ), प्लिनी ( Pliny ), प्लूटार्क ( Plutarch ), जस्टिन ( Justine ), डियोडोरस ( Diodorus ) के नाम प्रमुख हैं।
आगे चलकर सन् १८४६ ई० में डॉ० स्वानबेग ने इन उद्धरणों को संग्रहित करके प्रकाशित किया। १८९१ ई० में मैक्रिण्डल महोदय ने इसका अँग्रेजी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया।
यह बात ध्यान रखने की आवश्यक कि ‘इंडिका’ नाम से ही एक अन्य यूनानी लेखक एरियन ने भी एक पुस्तक लिखी है।
मेगस्थनीज की ‘इंडिका’ की कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक बातें :
- कहीं-कहीं पर तो मेगास्थनीज के इंडिका एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समानता भी मिलती है। यह सच है कि इंडिका में बहुधा अतिशयोक्तिपूर्ण बातें लिखी गयी हैं, फिर भी चंद्रगुप्त मौर्य के प्रशासन पर इस ग्रंथ से अच्छा प्रकाश पड़ता है।
- इंडिका में चन्द्रगुप्त के लिये ‘सैंड्रोकोटस’ नाम प्रयुक्त है।
- इंडिका के अनुसार ‘सैंड्रोकोटस’ की सुरक्षा सशस्त्र अंगरक्षिकाएँ करती थीं।
- इंडिका में सैंड्रोकोटस की राजधानी पोलिब्रोथा ( पाटलिपुत्र ) का विवरण मिलता है। इसके अनुसार पोलिब्रोथा गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। यह पूर्वी भारत का सबसे बड़ा नगर था। सैन्ड्रोकोटस ( चन्द्रगुप्त मौर्य ) का राजप्रासाद लकड़ी का बना था और सुरक्षा के लिये इसके चारों ओर गहरी खाईं थी।
- मेगस्थनीज नगर के प्रमुख अधिकारी का नाम ‘एस्टोनोमोई’ बताते हैं।
- नगर प्रशासन का विवरण इंडिका में मिलता है। इसके अनुसार नगर प्रशासन हेतु ३० सदस्यों का एक समूह था जिसे ५ – ५ सदस्यों की ६ समितियों में विभाजित किया गया था।
- मेगस्थनीज ने जिले के अधिकारी के लिये ‘एग्रोनोमोई’ नाम का प्रयोग किया है। वह सड़क निर्माण और भू-राजस्व एकत्रित करनेवाला अधिकारी था।
- इसमें सैन्य प्रशासन का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ३० सदस्यों का एक समूह था जिसको ५ – ५ सदस्यों की ६ समितियों में विभाजित किया गया था।
- मेगस्थनीज के अनुसार मौर्यकाल में भू-राजस्व की मात्रा उपज की १/४ थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कौटिल्य ने इसे १/६ बताया है। इसलिये भूराजस्व की मात्रा १/६ से १/४ माना जाता है।
- मेगस्थनीज ने उस राजमार्ग का विवरण दिया है जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने निर्मित कराया था। यह राजमार्ग बंगाल के सोनारगाँव को सिंध से जोड़ता था। इसी को उत्तरापथ कहा जाता था। मध्यकाल में इसको शेरशाह सूर ने पक्की सड़कछाप रूप दिया तक इसको ‘सूर मार्ग’ या ‘सड़क-ए-आजम’ नाम दिया गया। आधुनिक काल में गवर्नर जनरल ऑकलैण्ड ने इसका पुनर्निर्माण कराया और ग्रांड ट्रंक रोड ( Grand Trunk – GT road ) नाम दिया।
- मेगस्थनीज बताते हैं कि भारत में अनेक सोने की खानें हैं। वह एक ऐसी सुवर्ण खान का उल्लेख करते हैं जो कश्मीर के दर्दिस्तान में स्थित थी। उनके अनुसार इसमें सोना निकालने वाली लाल रंग की चींटियाँ होती थीं।
मेगस्थनीज के कुछ भ्रामक विवरण :
किसी भी विदेशी लेखक के वर्णन को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए। इसका कारण यह है कि वे यहाँ की सामाजिक और धार्मिक दशा को सही ढंग से समझ पाने में प्रायः ट्रुटि करने की सम्भावना बनी रहती है और यह स्वाभाविक भी है। इसलिये इसका प्रयोग करने के लिये आवश्यक है कि इसको अन्य तात्कालिक विवरणों से तुलनात्मक समीक्षा करने के उपरान्त ही स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए।
मेगस्थनीज के कुछ भ्रामक विवरण निम्न हैं —
- मेगस्थनीज के अनुसार भारत में ७ जातियाँ थीं। इसका क्रम था – दार्शनिक, कृषक, अहीर, शिल्पी, सैनिक, निरीक्षक एवं सभासद। आगे वे हमें बताते हैं कि किसान की संख्या सर्वाधिक थी, उसके बाद सैनिकों की संख्या थी, जबकि पार्षदों की संख्या सबसे कम थी। परन्तु हम जानते हैं कि भारत में इस तरह का सामाजिक विभाजन कभी भी नहीं रहा है।
- मेगस्थनीज के अनुसार भारत में ‘दास-प्रथा’ नहीं थी। इस भ्रमात्मक विवरण का कारण सम्भवतया यह हो सकता है कि युनान में दासों के साथ अमानवीय व कठोर व्यवहार किया जाता था जबकि भारत में मृदु। इसलिये वह यहाँ की दास प्रथा को पहचान ही न पाये हों। उन्हीं के समकालीन कौटिल्य ९ प्रकार के दासों का विवरण प्रस्तुत करते हैं।
- मेगस्थनीज के अनुसार भारत में अकाल नहीं पड़ते हैं। परन्तु जैन साहित्य हमें चन्द्रगुप्त मौर्य के समय पाटिलपुत्र में १२ वर्षीय अकाल का विवरण देता है। साथ ही सोहगौरा और महास्थान अभिलेख के साथ-साथ अशोक के अभिलेखों से अकाल की सूचना मिलती है।
- मेगस्थनीज के अनुसार भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं था। परन्तु हम जानते हैं कि मौर्यकाल से पहले ही वैदिक साहित्य, सूत्र साहित्य, बौद्ध धर्म के दो पिटकों का संकलन हो चुका था। साथ ही अन्य मौर्यकाल से पहले ही लिपि के अभिलेखीय साक्ष्य भी उपलब्ध हैं जिसका उदाहरण हमें पिपरहवा अस्थि कलश मंजूषा पर अंकित लेख है।
अन्य यूनानी राजदूत
मेगस्थनीज के बाद डाइमेकस और डायोनीसस (Dionisus) मौर्य राजसभा में आये।
- स्ट्रैबो हमें बताते हैं कि सीरिया नरेश अन्तियोतस ने डाइमेकस नामक राजदूत बिन्दुसार की राज्य सभा में भेंजा था। वह मेगस्थनीज के स्थानापन्न थे।
- प्लिनी के अनुसार मिस्र के राजा टॉलमी द्वितीय फिलाडेल्फस ( २८५-२४७ ई०पू० ) ने डायोनीसस नामक राजदूत मौर्य राज्य सभा में भेंजा था। परन्तु यह अस्पष्ट है कि वह किसके समय आये थे क्योंकि टॉलमी द्वितीय सम्राट बिन्दुसार और सम्राट अशोक दोनों के समकालीन थे।
- मेगास्थनीज की ही है तरह डायोनीसस का भी मूल ग्रंथ अप्राप्य है, परंतु परवर्ती लेखकों के विवरणों में इसके नाम का भी उल्लेख हुआ।
अन्य यूनानी-रोमन लेखक
इनके अतिरिक्त एथेनिसस, स्ट्रैबो (Strabo), डायोडोरस (Diodorus), ऐरियन (Arrian) आदि के ग्रंथों से भी इस काल का विवरण प्राप्त होता है। यद्यपि ये ग्रंथ अपने आप में मौर्य साम्राज्य के इतिहास के स्रोत के रूप में पूर्ण नहीं है, फिर भी अन्य देशी सामग्रियों के साथ इनके अध्ययन से समकालीन स्थिति की अच्छी जानकारी मिलती है।
चीनी वृत्तांत
यूनानी एवं रोमन यात्रा वृत्तांतों के अतिरिक्त चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों से भी मौर्य काल के विषय में कुछ जानकारी मिल जाती है। इन चीनी यात्रियों में फाहियान और ह्वेनसांग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
ये दोनों ही यात्री बौद्ध ग्रंथों की खोज में भारत आये थे और उस संदर्भ में अशोक की भी चर्चा करते हैं। उदाहरणस्वरूप, दोनों ही यात्री अशोक के हृदय परिवर्तन के पूर्व उसके क्रूर स्वभाव का उल्लेख करते हैं।
फाहियान के अनुसार अशोक ने पाटलिपुत्र के पास एक ‘नरक‘ की स्थापना की थी जिसमें वह निर्दोष लोगों को नित्य सताया करता था। ह्वेनसांग का तो यह भी दावा है कि उसने स्वयं अपनी आँखों से ‘नरक की दीवारों‘ को देखा था। ये यात्री अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूपों (stupas) का भी उल्लेख करते हैं।
इस प्रकार यद्यपि चीनी यात्रियों के वृत्तांत धार्मिक भावना से प्रेरित है, फिर भी इनसे मौर्य काल के विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
साहित्यिक स्रोतों की कमी
इन साहित्यिक सामग्रियों में अनेक त्रुटियों है।
- सबसे पहली समस्या तो काल-निर्धारण सम्बन्धी है। इनका काल निश्चित करना बहुत कठिन है।
- दूसरे, ज्यादातर ग्रंथ धार्मिक भावना से प्रभावित है, इसलिये भी इनसे निष्पक्ष जानकारी नहीं मिल पाती है। जैसे सभी ब्राह्मण ग्रन्थ मौर्यों के प्रति दुर्भाव रखते हैं और उसे हीन जाति और शुद्र घोषित करते हैं। दूसरी ओर बौद्ध साहित्य अशोक का महिमामंडन करते नहीं थकते परन्तु यह भी बताते हैं कि उसमें जो भी हृदय परिवर्तन हुआ उसका कारण बौद्ध धर्म था। बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व अशोक को क्रूर शासक के रूप में चित्रित करते हैं।
- विदेशी यात्रियों के विवरणों में अतिशयोक्तिपूर्ण और अनेक भ्रामक बातें बतायी गयी हैं। जैसे – मेगस्थनीज द्वारा भारत में दास प्रथा का न होना, सात वर्गीय सामाजिक विभाजन, अकाल का न पड़ना इत्यादि।
इसलिये आवश्यक है की इन सभी स्रोतों का प्रयोग सावधानी पूर्वक किया जाये। साथ ही तुलनात्मक अध्ययन और विभिन्न स्रोतों के मिलान व जाँच-परख करके इतिहास का निर्माण करना एक स्वस्थ परम्परा है जिसे अपनाना अपरिहार्य है।
पुरातात्त्विक प्रमाण
इतिहास के निर्माण में पुरातात्त्विक सामग्रियों का सर्वाधिक महत्त्व है। ये ऐतिहासिक स्रोत सर्वाधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। इन पुरातात्त्विक साक्ष्यों में हम सर्वप्रथम स्थान अभिलेखों को दे सकते हैं।
अभिलेख
एकमात्र पिपरहवा अस्थिकलश अभिलेख ( लगभग ४८३ ई०पू० ) को छोड़कर मौर्यकाल से ही भारतीय इतिहास में अभिलेख प्राप्त होने प्रारम्भ होते हैं।
मौर्य इतिहास के निर्माण के लिये हम अभिलेखों को मौर्यकालीन अभिलेख और मौर्योंत्तर अभिलेख में विभाजित कर सकते हैं।
- मौर्यकालीन अभिलेख
- अशोक पूर्व अभिलेख
- अशोक के अभिलेख
- अशोक के बाद के अभिलेख
- मौर्योत्तर काल के अभिलेख
मौर्यकालीन अभिलेख
- अशोक पूर्व अभिलेख :
इन दोनों अभिलेखों से अकाल और अन्न भण्डारण की जानकारी मिलती है।
- अशोक के अभिलेख
मौर्य-काल और उसमें भी मुख्यतया सम्राट अशोक के शासन एवं उसकी नीति की जानकारी उसके अभिलेखों से ही होती है। अशोक पहले ऐसे भारतीय सम्राट थे जिन्होंने राजाज्ञाओं को शिलालेखों पर खुदवाकर जनता के समक्ष रखा। अशोक के अभिलेख न सिर्फ भारतवर्ष में बल्कि अफगानिस्तान में भी पाये गये हैं।
अशोक के अभिलेखों में प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया गया है। पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी, आरामेइक तथा यूनानी लिपि में भी मिलते हैं। शरेकुना ( अफगानिस्तान ) अशोक का एक द्विभाषीय अभिलेख भी मिला है। कुल मिलाकर अशोक के अभिलेखों में ४ लिपियों ( ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामेइक और यूनानी ) और दो भाषाओं ( प्राकृत और यूनानी ) का प्रयोग देखने को मिलता है। खरोष्ठी, अरामेइक और यूनानी लिपि एवं यूनानी भाषा का प्रयोग वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से मिले अभिलेखों देखने को मिलता है। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा का प्रयोग किया गया है।
इन अभिलेखों को पत्थर के शिला-खंडों, स्तम्भों पर खुदवाया गया था। ये अभिलेख मुख्यतः प्राचीन राजमार्ग पर जगह-जगह स्थापित करवाये गये थे। अशोक के अभिलेखों से उनकी गृह एवं विदेश नीति, साम्राज्य विस्तार एवं प्रशासन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
अशोक के अभिलेखों को मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त किया गया है—
- शिलालेख ( Rock -Edicts ) : इसे दो भागों में बाँटा गया है –
- बृहद् शिलालेख ( Major Rock-Edicts ) : ये आठ स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इन बृहद् शिला प्रज्ञापनों की संख्या १४ है इसीलिये इसको ‘चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन’ कहा जाता है। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि धौली और जौगढ़ से मिले बृहद् शिलालेखों में प्रज्ञापन संख्या ११, १२ और १३ नहीं है उसके स्थान पर दो पृथक कलिंग शिलालेख ( या प्रथम व द्वितीय कलिंग शिलालेख ) अंकित हैं। ये जहाँ-जहाँ से मिले हैं वे आठ स्थल हैं –
- शाहबाजगढ़ी
- गिरनार
- मानसेहरा
- कालसी
- धौली
- जौगढ़
- सोपारा
- एर्रगुडी
- बृहद् शिलालेख ( Major Rock-Edicts ) : ये आठ स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इन बृहद् शिला प्रज्ञापनों की संख्या १४ है इसीलिये इसको ‘चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन’ कहा जाता है। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि धौली और जौगढ़ से मिले बृहद् शिलालेखों में प्रज्ञापन संख्या ११, १२ और १३ नहीं है उसके स्थान पर दो पृथक कलिंग शिलालेख ( या प्रथम व द्वितीय कलिंग शिलालेख ) अंकित हैं। ये जहाँ-जहाँ से मिले हैं वे आठ स्थल हैं –
क्र० सं० | चतुर्दश बृहद् शिला प्रज्ञापन और दो पृथक कलिंग शिलालेख |
१. | प्रथम बृहद् शिलालेख |
२. | द्वितीय बृहद् शिलालेख |
३. | तृतीय बृहद् शिलालेख |
४. | चतुर्थ बृहद् शिलालेख |
५. | पंचम् बृहद् शिलालेख |
६. | षष्ठम् बृहद् शिलालेख |
७. | सप्तम् बृहद् शिलालेख |
८. | अष्टम् बृहद् शिलालेख |
९. | नवम् बृहद् शिलालेख |
१० | दशम् बृहद् शिलालेख |
११. | एकादश बृहद् शिलालेख |
१२. | द्वादश बृहद् शिलालेख |
१३. | त्रयोदश बृहद् शिलालेख |
१४. | चतुर्दश बृहद् शिलालेख |
१५. | प्रथम पृथक कलिंग शिलालेख |
१६. | द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख |
- लघु शिलालेख ( Minor Rock-Edicts ) निम्न स्थलों से मिले हैं –
- रूपनाथ
- गुर्जरा
- साहसाराम
- भाब्रू
- मास्की
- ब्रह्मगिरि
- सिद्धपुर
- जटिंगरामेश्वर
- एर्रगुडि
- गोविमठ
- पालकिगुण्डु
- राजुलिमंडगिरि
- अहरौरा
- सारोमारो
- पनगुडरिया
- नेत्तूर
- उडेगोलम
- सन्नाती
- स्तम्भ लेख ( Pillar-Edicts )
- वृहद् स्तम्भलेख ( Major Pillar-Edicts ) : बड़े-बड़े स्तम्भों पर अंकित ये अभिलेखों ६ स्थलों से मिले हैं। इन पर खुदे अभिलेखों की संख्या ७ है इसलिये इनको ‘सप्त स्तम्भलेख’ कहते हैं। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है की मात्र दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर ७ लेख अंकित हैं, जबकि शेष पर ६ लेख ही मिलते हैं। ये स्थल हैं –
- दिल्ली-टोपरा
- दिल्ली-मेरठ
- लौरिया अरराज
- लौरिया नंदनगढ़
- रामपुरवा
- प्रयाग
- वृहद् स्तम्भलेख ( Major Pillar-Edicts ) : बड़े-बड़े स्तम्भों पर अंकित ये अभिलेखों ६ स्थलों से मिले हैं। इन पर खुदे अभिलेखों की संख्या ७ है इसलिये इनको ‘सप्त स्तम्भलेख’ कहते हैं। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है की मात्र दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर ७ लेख अंकित हैं, जबकि शेष पर ६ लेख ही मिलते हैं। ये स्थल हैं –
क्र० सं० | सप्त बृहद् स्तम्भलेख ( Seven Major Pillar-Edicts ) |
१. | पहला स्तम्भलेख |
२. | दूसरा स्तम्भलेख |
३. | तीसरा स्तम्भलेख |
४. | चौथा स्तम्भलेख |
५. | पाँचवाँ स्तम्भलेख |
६. | छठवाँ स्तम्भलेख |
७. | सातवाँ स्तम्भलेख |
- लघु स्तम्भलेख ( Minor Rock-Edicts ) : ये निम्नलिखित स्थलों से मिलते हैं –
- साँची
- सारनाथ
- कौशाम्बी
- रुम्मिनदेई
- निग्लीवा
- गुहालेख ( Cave Inscriptions ) :
- परवर्ती मौर्य अभिलेख
मौर्योत्तर काल के अभिलेख
मौर्य इतिहास के निर्माण में शक शासक रूद्रामन के गिरनार अभिलेख का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है।
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मौर्य शासन के सम्बन्ध में हमें निम्न बातें ज्ञात होती हैं :
- चन्द्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र का प्रशासक ‘पुष्यगुप्त वैश्य’ थे। उसने इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया था और इसपर बाँध बनवाकर सिंचाई की व्यवस्था की थी।
- अशोक के समय उसके राज्यपाल ‘तुषास्फ’ ने सुदर्शन झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवाया था।
कुछ मध्यकालीन शिलालेखों में मौर्यों को सूर्यवंशी बताया गया है। इन विभिन्न अभिलेखों से मौयों के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
सिक्के
मौर्यकालीन सिक्के चूँकि अभिलिखित नहीं हैं, इसलिये सिक्कों से कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती है; परंतु इस काल में आहत सिक्के (punchmarked coins) बहुत पाये गये हैं। अनेक विद्वानों की यह मान्यता है कि चाँदी के आहत सिक्के जिन पर मोर, पर्वत और अर्द्धचंद्र है मौर्यो के सिक्के हैं परंतु इनकी पहचान संदिग्ध हैं। मौर्यकाल में चाँदी और ताँबे के सिक्के बनते थे। राज्य का टकसाल पर नियंत्रण था। मौर्यकालीन सिक्कों से अंनुमान लगाया जा सकता है। कि मौर्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी रही होगी।
अन्य पुरातात्त्विक अवशेष
मौर्यकालीन स्थलों की खुदाइयों से अनेक ऐसी वस्तुएँ प्रकाश में आयीं हैं जो तत्कालीन सभ्यता की झाँकी प्रस्तुत करती हैं।
- इस काल में उत्तरी ओपदार काले मृदभाण्ड (Northern Black Polished Ware) काफी अच्छे बनाये जाते थे।
- भवनों में पक्की ईंटों का भी व्यवहार होने लगा था।
- कुम्हरार एवं उसके आस-पास के स्थलों की खुदाइयों से भवनों के निर्माण में लकड़ी एवं पत्थर के प्रयोग का भी पता चलता है।
- इसी प्रकार अशोक के स्तंभों की बनावट से मौर्यकालीन कला की भी झाँकी मिलती है। मौर्यकालीन कला के जो नमूने प्राप्त हुए उनसे भी इस काल को सांस्कृतिक प्रगति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
- गुहा निर्माण
- स्तूप निर्माण
निष्कर्ष
इस प्रकार विभिन्न साहित्यिक—देशी एवं विदेशी एवं पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर हम मौर्यकालीन इतिहास, सभ्यता, संस्कृति की जानकारी प्राप्त करते हैं। मौर्य इतिहास के जानने वाले स्वदेशी साधनों में कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, विदेशी साधनों में मेगस्थनीज कृत इंडिका सर्वप्रमुख हैं।
परन्तु मौर्य इतिहास और वो भी सम्राट अशोक के इतिहास के जानने का सर्वप्रमुख साधन अशोक के स्वयं के अभिलेख हैं। एक चोटी के इतिहासकार डी० आर० भण्डारकर महोदय ने तो अशोक के अभिलेखों के आधार पर इतिहास लिखने का श्लाघ्य प्रयास किया है।