महावीर स्वामी
सामान्य परिचय
- इनका जन्म ५९९ ई०पू० अथवा ५४० ई०पू० वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था।
- इनके पिता का नाम सिद्धार्थ ( श्रेयाम्स, यसाम्स ) था जोकि ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रमुख थे। यह संघ वज्जि संघ का अंग था।
- इनकी माता त्रिशला ( विदेहदत्ता, प्रियकारिणी ) वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थीं।
- इनके अग्रज का नाम नन्दिवर्धन था और पिता की मृत्यु के बाद यही राजा बने थे।
- इनका विवाह कुण्डिन्य गोत्री कन्या यशोदा से हुआ था।
- इनकी पुत्री का नाम अणोज्जा ( प्रियदर्शना ) था।
- इनके जामाता का नाम जामालि था। जामालि प्रारम्भ में महावीर स्वामी का शिष्य बना परन्तु उसी ने संघ में प्रथम भेद भी उत्पन्न किया था। जामालि महावीर स्वामी की बहन सुदर्शना का पुत्र था।
- इनकी मृत्यु ५४० ई० पू० या ४६८ ई० पू० पावा में हुई थी। पावा राजगृह ( बिहार ) के पास है जबकि कुछ विद्वान इसे वर्तमान कुशीनगर जनपद ( उ० प्र० ) के वीरभारी से इसकी पहचान करते हैं। यह उल्लेख मिलता है की महावीर स्वामी की मृत्यु मल्ल राजा सुस्तपाल के राज्य में हुई थी। मृत्यु के समय इनकी आयु ७२ वर्ष की थी।
जैन अनुश्रुतियाँ बताती हैं कि प्रारम्भ में महावीर ब्राह्मण कुल के ऋषभदत्त की पत्नी देवनन्दा के गर्भ में थे और बाद में इन्द्र ने इन्हें त्रिशला के गर्भ में प्रतिस्थापित किया। कल्पसूत्र में बताया गया है कि इनके जन्म के समय ज्योतियों ने इनके चक्रवर्ती राजा बनने या महान् संन्यासी बनने की भविष्यवाणी की थी। ( यह दोनों बातें गौतम बुद्ध के बारे में भी मिलती हैं )
ज्ञान की खोज
महावीर स्वामी के बचपन का नाम ‘वर्धमान’ था। पिता की मृत्यु के बाद उनके अग्रज नन्दिवर्धन राजा बने। अपने बड़े भाई की अनुमति लेकर उन्होंने ३० वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया। आचारांग सूत्र में वर्घमान के कठोर तप का वर्णन मिलता है। नालन्दा में इनकी भेंट मक्खलिपुत्त गोशाल से हुई और वह महावीर के अनुयायी बन गये परन्तु बाद में उन्होंने इनका साथ छोड़कर आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की। १२ वर्षों की कठोर तपस्या के बाद वैशाख मास के १०वें दिन जृम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिता नदी के तट पर एक सालवृक्ष के नीचे वर्धमान को कैवल्य ( ज्ञान ) की प्राप्ति हुई। अब वे महावीर स्वामी कहलाये।
ज्ञान प्राप्ति के बाद इन्हें निम्न संज्ञाओं से विभूषित किया गया :—
- केवलिन्
- जिन अर्थात् विजेता
- अर्हत् अर्थात् योग्य
- निर्ग्रंथ अर्थात् बंधन-मुक्त
- महावीर (अपनी साधना में निरत रहते हुए अतुल पराक्रम प्रदर्शन करने के कारण यह संज्ञा मिली )
महावीर स्वामी द्वारा ज्ञान का प्रचार-प्रसार
कैवल्य प्राप्ति के बाद महावीर ने अपना प्रथम उपदेश राजगृह में विपुलाचल पहाड़ी पर वाराकर नदी के तट पर दिया। इनका प्रथम शिष्य इनका जामाता जामालि बना।
अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए महावीर वर्ष के ८ महीने तक भ्रमण करते और वर्षा ऋतु के शेष ४ महीने में पूर्वी भारत के विभिन्न नगरों में विश्राम करते थे।
महावीर स्वामी की माँ त्रिशला लिच्छवि सरदार चेटक की बहन थीं और चेटक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार से हुआ था। इसके अतिरिक्त जैन साहित्य से पता चलता है कि चेटक की पुत्रियों विवाह अन्य राजवंशों ( सौवर, अंग, वत्स, अवन्ति ) में हुआ था। इस तरह स्वयं राजवंशी होने और तत्कालीन शासकों से सम्बंध होने के कारण जैन धर्म के प्रचार में सहायता मिली थी।
चम्पा नरेश दधिवाहन और उनकी पुत्री चन्दना महावीर के अनुयायी बन गये। चन्दना महावीर की प्रथम शिष्या / भिक्षुणी थी।
तत्कालीन शासक बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदयन, चण्ड प्रद्योत आदि की जैन धर्म में आस्था थी। परन्तु यहाँ उल्लेखनीय है कि इन सब राजाओं को बौद्ध धर्म भी अपना अनुयायी बताता है।
महावीर का विरोध
महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १४वें वर्ष में उनके प्रथम शिष्य और जामाता ने एक विद्रोह का नेतृत्व किया था। इस मतभेद का कारण क्रियमाणकृत सिद्धान्त था। क्रियमाणकृत सिद्धान्त का अर्थ है कार्य करते ही पूरा हो जाना। इस सिद्धान्त पर मतभेद के कारण जामालि ने संघ छोड़ दिया और एक नये सिद्धान्त बहुरतवाद का प्रतिपादन किया। बहुरतवाद सिद्धान्त के अनुसार कार्य करते ही नहीं नहीं पूरा होता अपितु कार्य पूरा होने पर पूरा होता है।
इसके दो वर्षों के बाद तीसगुप्त ने महावीर का विरोध किया था।
मक्खलिपुत्त गोशाल ने महावीर के तपस्याकाल में ही इनकी शिष्यता ग्रहण की थी परन्तु ६ वर्ष के बाद उन्होंने अलग होकर आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की थी।