भक्ति आन्दोलन का उद्भव
भूमिका
ऐतिहासिक दृष्टि से भक्ति-आन्दोलन के विकास को ‘दो चरणों’ में विभक्त किया जा सकता है।
- प्रथम चरण के अन्तर्गत दक्षिण भारत में भक्ति के आरम्भिक प्रादुर्भाव से लेकर १३वीं शताब्दी तक के काल को रखा जा सकता है
- दूसरे चरण में १३वीं से १६वीं शताब्दी तक के काल को रख सकते हैं। उत्तरी भारत में यह आन्दोलन इसी समय इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलित हुआ।
विद्वानों के मध्य सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्नों में से एक है कि भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के क्या कारण थे? विद्वानों में प्रायः यह सहमति है कि ६ठवीं – ७वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में ‘अलवार’ परम्परा से भक्ति का जन्म हुआ और यह शनैः शनैः बढ़ते हुए १४वीं शताब्दी में उत्तर भारत पहुँची।
विवाद का प्रश्न यह है कि ऐसे कौन से कारक थे? जिससे कि उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन ने अचानक विराट आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। विभिन्न विद्वानों ने अपने-२ इतिहासबोध के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। इसे हम निम्न भागों में बाँटकर समझ सकते हैं :—
- विदेशी प्रभाव के आधार पर व्याख्या
- मार्क्सवादी व्याख्या
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्याख्या
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की व्याख्या
- निष्कर्ष
विदेशी प्रभाव के आधार पर व्याख्या
विदेशी प्रभाव के आधार पर भक्ति आन्दोलन की व्याख्या की गयी जिसका समर्थन जार्ज ग्रियर्सन, ताराचन्द और आबिद हुसैन जैसे विद्वानों ने किया है।
जार्ज ग्रियर्सन
जार्ज ग्रियर्सन का मत है कि भक्ति आन्दोलन अचानक एक ‘बिजली की कौंध‘ की तरह फैला और यह वैसे ही हुआ जैसे पश्चिम में ‘सन्त थेरेसा’ के आन्दोलन में हुआ था। इसका कारण वे यह बताते हैं कि दूसरी-तीसरी शताब्दी में मद्रास तट ( कोरोमण्डल तट ) पर ‘नेस्टोरियन ईसाई’ आकर बसे थे जो ईसाई परम्परानुसार ईश्वर-भक्ति में लीन रहते थे। इन्हीं की परम्परा से आगे चलकर रामानुज प्रभावित हुए जिसके परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ।
ताराचन्द और आबिद हुसैन
ये दोनों विद्वान भक्ति आन्दोलन को ‘इस्लाम की देन’ बताते हैं। ताराचन्द का दावा है कि कुछ सूफी मुसलमान भारत के पश्चिमी तट पर आकर बसे थे जो ख़ुदा की इबादत करते हुए ‘हाल’ की अवस्था तक पहुँच जाते थे। इन्हीं की प्रेरणा से ईश्वर की भक्ति का भाव प्रचलित हुआ जिसके परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ।
समालोचना
वस्तुतः विदेशी प्रभाव के आधार पर भक्ति आन्दोलन की व्याख्या करना उचित नहीं है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन के मत को कठोर शब्दों में खारिज करते हुए कहा है कि —
जिस बात को ग्रियर्सन ने अचानक बिजली की कौंध की तरह फैल जाना लिखा है, वह ऐसा नहीं है। उसके लिए सैकड़ों वर्षों से मेघखण्ड एकत्र हो रहे थे।
ताराचन्द के मत के सम्बन्ध का खण्डन दिनकर जी ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृत के चार अध्याय’ में किया है। वे लिखते हैं कि पश्चिमी तट पर सूफी मुसलमानों के आगमन से पूर्व ही भारत में भक्ति परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था। अतः ताराचन्द और आबिद हुसैन का मत अमान्य है।
मार्क्सवादी व्याख्या
मार्क्सवादी व्याख्या के केन्द्र में ‘आर्थिक कारण’ हैं। यह व्याख्या मुख्य रूप से इरफान हबीब और के॰ दामोदरन ने की है।
इरफान हबीब
इरफान हबीब के अनुसार दिल्ली सल्तनत की स्थापना के पश्चात बड़े पैमाने पर भवन एवं सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ जिसमें निम्न वर्ग के लोग सम्मिलित हुए। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और जाति व्यवस्था का शिकंजा भी कमजोर हुआ। आर्थिक स्थिति में आये इस परिवर्तन से उनके भीतर ‘आत्मसम्मान एवं सामाजिक प्रतिष्ठा’ की भूख पैदा हुई और इसी बेचैनी ने ‘संत काव्यधारा’ को जन्म दिया। ध्यातव्य है कि संत काव्यधारा भक्ति आन्दोलन की शुरुआती काव्यधारा है और इसमें सुन्दरदास को छोड़कर शेष सभी कवि अवर्ण हैं।
के॰ दामोदरन
के॰ दामोदरन का मत है कि भक्ति आन्दोलन सामन्तवाद के विरुद्ध व्यापारी और दस्तकार वर्ग का विद्रोह है। दामोदरन ने पश्चिमी ढाँचे का प्रयोग करते हुए ही भक्ति आन्दोलन की व्याख्या करने का प्रयास किया है।
समालोचना
मार्क्सवादी व्याख्या पूर्णतः सही नहीं मानी जा सकती है। वस्तुतः भक्तिकाल का एक भी कवि ऐसा नहीं था जो सीधे तौर पर भवन या सड़क निर्माण की प्रक्रिया से प्रभावित रहा हो। पुनश्च इस काल के व्यापारियों या दस्तकारों के पक्ष में कोई तर्क दिये गये हों ऐसा भी नहीं है। आर्थिक कारणों का प्रभाव भक्ति आन्दोलन में रहा होगा किन्तु इसे मूल कारण नहीं माना जा सकता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की विधेयवादी व्याख्या
आचार्य शुक्ल अपने विधेयवादी इतिहासबोध के आधार पर भक्ति आन्दोलन के उद्भव की व्याख्या करते हैं। वे इस सम्बन्ध में जनता की चित्तवृत्तियों का विश्लेषण करते हैं। उनके मत का समर्थन डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, बाबू गुलाबराय और डॉ॰ रामकुमार वर्मा जी करते हैं।
आचार्य शुक्ल ने भक्ति आन्दोलन के उद्भव को ‘इस्लामी आक्रमण के प्रतिक्रिया’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं। वे लिखते हैं :—
जब मुस्लिम साम्राज्य दूर-२ तक स्थापित हो गया, तब परस्पर लड़ने वाले राज्य नहीं रह गये। इतने भारी उलटफेर के पीछे हिन्दू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाया रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति एवं करुणा की ओर ध्यान जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?
शुक्ल जी दक्षिण की भक्ति धारा से अपरिचित नहीं थे :-
भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदयक्षेत्र में फैलने का पूरा स्थान मिला।
शुक्ल जी यह भी कहते हैं कि आदिकाव्य में सिद्धों और नाथों के कारण जनता की धर्म भावना काफी दब गयी थी। इसलिए जब भक्ति की धारा यहाँ पहुँची तो इस मनः स्थिति में भी उसे उभरने का पूरा मौका मिला।
डॉ॰ राम स्वरूप चतुर्वेदी ने शुक्ल जी की व्याख्या का समर्थन वल्लभाचार्य के प्रसिद्ध कथन के आधार पर किया है। वल्लभाचार्य का कथन है :-
देश म्लेच्छाक्रांत है, गंगादि तीर्थ दुष्टों द्वारा भ्रष्ट हो रहे हैं……ऐसी स्थिति में एकमात्र कृष्णाश्रय में ही जीवन का कल्याण है।
आचार्य हजारी प्रासाद द्विवेदी की परम्परावादी व्याख्या
द्विवेदीजी ने परम्परावादी इतिहासबोध के अनुसार भक्ति आंदोलन की भी व्याख्या भी ऐतिहासिक समझ के अनुसार की है। उनका दावा है कि भक्ति आंदोलन भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का स्वत:स्फूर्ति विकास है।
द्विवेदी ने इस्लामिक आक्रमण के आधार पर व्याख्या का दृढ़ता से खंडन किया है। वे लिखते हैं कि – यह बताया गया है कि जब मुसलमानों ने हिंदुओं को सताना शुरू कर दिया, तो हिंदू निराश होकर भगवान का भजन करने लगे। यह बात अत्यंत हास्यास्पद है … मुसलमानों के अत्याचारों के कारण यदि भक्ति की धारा को उमड़ना ही था तो यह पहले सिंध और फिर उत्तर भारत में दिखाई देना चाहिए था, फिर यह प्रकट हुई दक्षिण में।
द्विवेदी जी का दावा है कि इस्लाम के आगमन को एक सामान्य प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए न कि एक बड़ी घटना या समस्या के रूप में। वे कहते हैं, ‘अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी भक्ति साहित्य “बारहआना” वैसा ही होता जैसा कि आज है।… हिदी साहित्य में इस प्रभाव को एक प्रभाव के ही रूप में देखना चाहिए, प्रतिक्रिया के रूप में नहीं।’
द्विवेदी जी के अनुसार, ‘भक्ति साहित्य हताशा का नहीं जिजीविषा का काव्य है, उदासीनता का नहीं क्रांतिकारिता का काव्य है।’
आदिकाल की बौद्ध परम्परा में धर्म को बेहद शास्त्रीय बना दिया था। बौद्ध परंपरा सामाजिक रूप से प्रगतिशील थी, लेकिन उसमें धार्मिक सहजता एवं भावुकता कुचली जा रही थी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह था कि समाज धर्म के सहज मार्ग की ओर बढ़ता। दक्षिण से आने वाली भक्ति ने इसे संभव बनाया और भक्ति आंदोलन का जन्म हुआ। इस दृष्टिकोण से भक्ति आन्दोलन भारतीय चिन्तनधारा का ही स्वाभाविक विकास है।
डॉ॰ नामवर सिंह ने भी इस व्याख्या का समर्थन किया है। उनका मानना है कि भक्ति आंदोलन का उद्भव ‘धर्म के शास्त्रीय पक्ष के टूटने‘ और ‘धर्म के लोकोन्मुख होने’ की प्रक्रिया का परिणाम है। उनका कथन है- ‘मध्यकालीन भारतीय इतिहास में मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच का संघर्ष।’
निष्कर्ष
इन सभी मतों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि विदेशी प्रभाव वाली व्याख्या को स्वीकार करना तो सम्भव नहीं है किन्तु शेष व्याख्याएँ किसी न किसी अनुपात में ठीक हैं। कोई भी ‘जटिल सांस्कृतिक घटना’ किसी एक कारण से जन्म नहीं लेती वह कई कारणों का संश्लिष्ट परिणाम होती है। यह सही है कि सिद्धों-नाथों के शुष्क धार्मिक परम्परा में सरसता की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। यह भी सही है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने निम्न वर्गों को आत्मसम्मान की प्रेरणा दी थी और यह भी सही है कि कम से कम उच्च वर्गीय हिन्दू जनसमुदाय इस्लामी आक्रमण की हताशा महसूस कर रहे थे। इस तरह भक्ति आन्दोलन इन सभी कारकों की जटिल अंतर्क्रिया का परिणाम है न कि किसी एक कारक का।
भक्ति आन्दोलन से जुड़े व्यक्तित्व
- रामानुज ( १०१७ – ११३७ ई० )
- रामानन्द ( १३६० – १४७० ई०? )
- कबीरदास ( १३९८ – १५१८ ई० )
- रैदास ( १३८८ – १५१८ ई० )
- नानक ( १४६९ – १५३९ ई० )
- दादू ( १५४४ – १६०३ ई० )
- सुन्दरदास ( १५९६ – १६८९ ई० )
- रज्जब ( १५६७ – १६८९ ई० )
- चैतन्य ( १४८५ – १५३३ ई० )
- शंकरदेव ( १४६३ – १५६८ ई० )
- कुतुबन ( १५वीं – १६वीं शताब्दी )
- जायसी ( १४९२ – १५४२ ई० )
- मंझन ( १६वीं शताब्दी )
- वल्लभाचार्य ( १४७७ – १५३० ई० )
- सूरदास ( १४७८ – १५८३ ई० )
- मीराबाई ( १४९८ – १५४६ ई० )
- रसखान ( १५४८ – १६२८ ई० )
- रहीम ( १५५६ – १६२७ ई० )
- तुलसीदास ( १५३२ – १६२३ ई० )
- चैतन्य महाप्रभु ( १४८६ – १५३३ ई० )
- नामदेव ( १२७० – १३५० ई० )
- तुकाराम ( १५९८ – १६५९ ई० )
- एकनाथ ( १५४८ – १६०० ई० )