प्राचीन भारत में विज्ञान का विकास

विज्ञान

 

भूमिका

हमें ‘प्रागैतिहासिक काल’ से ही भारतीयों की वैज्ञानिक बुद्धि का परिचय मिलने लगता है। वस्तुतः ‘प्रस्तरकालीन मानव’ ही विज्ञान की कुछ शाखाओं — प्राणि-शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र, ऋतु-शास्त्र आदि का जनक है। उदाहरणार्थ —

  • पशुओं के चित्र बनाने के लिए मानव ने उनके शरीरिक संरचना की जानकारी प्राप्त की।
  • खाद्य-अखाद्य पदार्थों की जानकारी प्राप्त की।
  • कौन-२ से खाद्य पदार्थ किस स्थान और ऋतु में पाये जाते हैं इसकी जानकारी प्राप्त की।
  • कौन सा पशु कब और कहाँ पाया जाता है इसकी जानकारी प्राप्त की।
  • अग्नि पर नियंत्रण प्राप्त किया।
  • औजार / हथियार और उपकरणों का निर्माण आदि की जानकारी।

 

इस सम्बन्ध में विद्वान गार्डन चाइल्ड ने लिखा है :—

वन परम्परा में वनस्पति विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान और जलवायु विज्ञान का मूल अन्तर्निहित है। अग्नि पर नियन्त्रण और उपकरणों का आविष्कार उन परम्पराओं का प्रारम्भ करते हैं जिनसे कालान्तर में भौतिकी एवं रसायन शास्त्र का उद्भव हुआ।

 

वैज्ञानिक प्रगति के स्पष्ट प्रमाण हमें ‘सैन्धव सभ्यता’ में दिखायी देता है :—

  • सैन्धव नगरों का निर्माण एक सुनिश्चित योजनान्तर्गत किया गया था।
  • भार-माप प्रणाली का मानकीकरण जैसे- सम्भवतः उन्हें फुट और क्यूबिक का ज्ञान था, वे ‘दशमलव प्रणाली’ से परिचित थे, तौल की ईकाई १६ की संख्या और उसके आवर्त्तकों का प्रयोग करते थे।
  • पाषाण एवं धातु उद्योग दोनों अत्यंत उन्नत थे।
  • कालीबंगन और लोथल से प्राप्त कपालों से शल्य चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं।

 

भौतिक विज्ञान

भौतिक विषयक भारतीय विचार धर्म और आध्यात्म के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बंधित थे। अतः इस शास्त्र का स्वतंत्र रूप से विकास नहीं हो पाया।

पकुधकच्चायन

आधुनिक भौतिकी का सर्वप्रमुख सिद्धान्त परमाणुवाद ( Atomic theory ) है। बुद्ध के समकालीन पकुधकच्चायन ( ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी ) ने यह बताया कि सृष्टि का निर्माण सात तत्त्वों — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुःख और जीव से मिलकर हुआ है। इसमें से कम से कम चार तत्त्वों का अस्तित्त्व सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। आस्तिक हिन्दुओं तथा जैनियों ने इसमें ‘आकाश’ नामक पाँचवाँ तत्त्व जोड़ दिया और इस प्रकार ये पञ्चतत्त्व सृष्टि रचना अथवा मानव शरीर के रचनात्मक तत्त्व स्वीकार कर लिये गये।

महर्षि कणाद का परमाणुवाद

भारत में परमाणुवाद के संस्थापक वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद ( ई॰ पू॰ छठीं शताब्दी ) को माना जाता है जिन्होंने भारत में भौतिक शास्त्र का आरम्भ किया। उनका कहना था कि :—

  • समस्त वस्तुएँ परमाणुओं के संयोग से ही बनती हैं।
  • तत्त्व के सूक्ष्मतम और अविभाज्य कण को परमाणु कहते हैं।
  • परमाणु नित्य और अविभाज्य होते हैं।
  • दो परमाणुओं का प्रथम संयोग द्वयणुक ( Dyad ) कहते हैं। यह अणु ( Minute ), ह्रस्व ( Short ) और अगोचर होता है।
  • तीन द्वयणुक मिलकर त्र्यणुक ( Tryad ) का निर्माण करते हैं। यह महत्, दीर्घ और दृष्टिगोचर होता है।
  • परमाणुओं के संयोग का यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु नामक महाभूतों का निर्माण नहीं हो जाता है।

निष्कर्ष

१९वीं शताब्दी के वैज्ञानिक जॉन डाल्टन को परमाणुवाद का जनक माना जाता है परन्तु शताब्दियों पूर्व भारतीय मनीषियों द्वारा इसकी कल्पना की जा चुकी थी। भारतीय परमाणुवाद यूनानी प्राभाव से मुक्त था क्योंकि बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीनपकुधकच्चायन ने सर्वप्रथम परमाणुओं की कल्पना की थी और ये यूनानी डेमोक्रिटस ( ईसा पूर्व पाँचवीं- छठवीं शताब्दी ) के पहले हुए थे।

भारतीय परमाणु सिद्धान्त परीक्षण पर आधारित न होकर अन्तर्दृष्टि एवं तर्क पर आधारित था। इसी कारण उन्हें विश्व में मान्यता नहीं मिल सकी।

 

रसायन शास्त्र

प्राचीन काल में रसायन शास्त्र का विकास औषधि शास्त्र के सहयोगी के रूप में हुआ। इसे रसविद्या / रसशास्त्र  कहा गया है। प्राचीन मनीषियों ने अधिकांशतः औषधियों, आयु-वर्धक रसायनों, वाजीकारों ( Aphrodisiacs ), विषों और उनके प्रतिकारों आदि के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित किया है। ये रसायनज्ञ विचूर्णन ( Calcination ) और आसवन ( Distillation ) जैसी प्रक्रिया द्वारा विविध प्रकार के अम्ल, क्षार और धातु लवण बनाने में सफल रहे हैं। उन्होंने एक प्रकार के बारूद का भी आविष्कार कर लिया था। महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में भी रसायनिक प्रक्रिया की कल्पना की गयी है।

रसविद्या पराविद्या त्रैलोक्येऽपि तु दुर्लभाः ।

भुक्तिमुक्तिकारी यस्मात् तस्माद्देया गुणान्वितैः ॥

अर्थात् रसविद्या ‘पराविद्या’ है जोकि तीनों लोकों में दुर्लभ भोग एवं मुक्ति प्रदाता है।

( रसार्णव )

नागार्जुन

बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन कनिष्क के समकालीन थे। ये रसायन शास्त्र में निष्णात् थे। इन्होंने आयुवर्धक एक सिद्धवटी का आविष्कार किया था। सोने, चाँदी, ताँबे, लोहे आदि के भस्मों द्वारा उन्होंने विविध रोगों की चिकित्सा का विधान भी प्रस्तुत किया। पारा की खोज उनकी रसायन शास्त्र में युगान्तरकारी घटना थी।

मेहरौली का लौह स्तम्भ

मेहरौली का लौह स्तम्भ  ( गुप्तकालीन ) भारतीय धातु वैज्ञानिकों का जीता-जागता प्रमाण है। विगत १५०० वर्षों से यह धूप और वर्षा को सहता हुआ खुले आकाश के नीचे जंग रहित खड़ा है। इसकी पालिश आज भी धातु वैज्ञानिकों लिए आश्चर्य का विषय है।

 

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