बौद्ध और जैन धर्म क्या वैदिक धर्म का सुधारवादी रूप है?
कुछ विद्वानों का विचार है कि जैन तथा बौद्ध — ये दोनों ही धर्म वैदिक धर्म के सुधारवादी स्वरूप थे तथा इस प्रकार उसमें कोई नवीनता नहीं थी।
परन्तु कुछ विद्वानों का विचार इसके विपरीत है।
सत्य तो यह है कि दोनों ही मतों पर अवैदिक विचारधारा का पर्याप्त प्रभाव है।
जैन धर्म तो स्पष्टतः अवैदिक श्रवण विचारधारा से उद्भूत हुआ है। जैनियों की नास्तिकता, कर्म, आवागमन का सिद्धान्त, संसार के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण, तपस्या और काया-क्लेश पर अत्यधिक बल आदि निश्चय ही उन्हें वैदिक परम्परा के विरुद्ध सिद्ध कर देता है।
बौद्ध धर्म की साधना-पद्धति, कर्म के सिद्धान्त तथा संसार के प्रति निवृत्ति-मार्गी दृष्टिकोण के ऊपर श्रवण विचारधारा का ही प्रभाव परिलक्षित होता है।
इन दोनों ही धर्मों ने ब्राह्मणों की सामाजिक उत्कृष्टता को स्पष्ट रूप से चुनौती दी और उनके दो मूलभूत सिद्धांतों — यज्ञीय कर्मकाण्ड और जातिवाद — का विरोध किया।
यद्यपि उपनिषदों ने यज्ञो की आलोचना की परन्तु वे न तो वेदों की प्रामाणिकता और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को उस तरह चुनौती नहीं देते जैसाकि बुद्ध और महावीर करते हैं।
अतः बौद्ध और जैन धर्मों को वैदिक धर्म का सुधारात्मक स्वरूप नहीं कह सकते हैं।