नृजाति और प्रजाति संकल्पना

भूमिका

भारतीय सभ्यता व संस्कृति के अध्ययन के लिए नृजाति और प्रजाति की संकल्पना का सूक्ष्म अवगाहन आवश्यक हो जाता है। क्योंकि विभेदकारी शक्तियाँ भारतीय एकता व अखंडता को कमजोर करने के लिए सदैव क्रियाशील रही है। अतः नृजाति और प्रजाति की संकल्पना के पीछे छुपे कुत्सित प्रयास को समझना आवश्यक है।

आदिकाल से ही भारत में विविध जातीय समूह निवास करते आये हैं जिनकी भाषा, रहन-सहन, सामाजिक और आर्थिक परम्पराओं व मान्यताओं में वैविध्य रहा है।

भारत में नृजातीय तत्वों की पहचान प्रधानतः भौतिक, भाषाई तथा सांस्कृतिक लक्षणों पर आधारित है। नृतत्व विज्ञान मानव की शारीरिक बनावट के आधार पर उसकी प्रजाति का निर्धारण करता है। इसके दो मुख्य मानक हैं —

१ — सिर सम्बन्धी ( Cephalic Index )

२ — नासिका सम्बन्धी ( Nasal Index )

हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि प्राचीन जनजाति में लम्बे और चौड़े दोनों ही सिरों वाली मानव प्रजातियाँ विद्यमान थीं जैसा कि प्राचीन कंकालों और कपालों से ज्ञात होता है।

भारत में प्रागैतिहासिक मानवों के प्रस्तरित अवशेष बहुत कम प्राप्त होते है किन्तु नृतत्व और भाषा विज्ञान की सहायता से यहाँ रहने अथवा आव्रजित होने वाली प्रजातियों तथा भारतीय संस्कृति के विकास में उनके योगदान का अनुमान लगाया गया है।

नृजाति और प्रजाति

नृजाति और प्रजाति सामान्य बोलचाल की भाषा में पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। परन्तु नृजाति और प्रजाति में अन्तर है :

नृजाति ( Ethnicity ) — सांस्कृतिक कारक है जिसके आधार पर मानवीय समूह की पहचान की जाती है जिसमें राष्ट्रीयता, स्थानीय संस्कृति, भाषा, वंशावली आदि आते हैं। अर्थात् ‘एक जातीय समूह अथवा जातीयता एक जनसंख्या समूह है जिसके सदस्य साझी सांस्कृतिक परम्पराओं या राष्ट्रीयता के आधार पर एक-दूसरे के साथ पहचान करते हैं।’

प्रजाति ( Race ) — इसका निर्धारण मानव के भौतिक लक्षणों आधार पर होता है; यथा – त्वचा का रंग, आँख का रंग, बाल के प्रकार, अस्थि की बनावट इत्यादि। अर्थात् ‘प्रजाति भौतिक विशेषताओं के आधार पर जनसंख्या या समूह को पहचान करने की अवधारणा को संदर्भित करती हैं जो कि आमतौर पर आनुवंशिक वंशानुक्रम की देन होती है।’

आदिम जातियों का वर्गीकरण

डॉ० बी० एस० गुहा ने प्रागैतिहासिक अस्थिपंजरों का अध्ययन करने के उपरान्त यहाँ की आदिम जातियों को छः भागों और नौ उप-भागों में विभाजित किया है।

१ — नेग्रिटो ( The Negrito )

२ — प्रोटोऑस्ट्रलायड ( The Proto-Australoid )

३ — मंगोलियन ( The Mangoloid )

४ — भूमध्य सागरीय ( The Mediterranean )

५ — पश्चिमी ब्रेकाइसेफलस ( Brachycephals )

६ — नार्डिक ( The Nordics )

इनका विवरण इस प्रकार है-

नेग्रिटो ( The Negrito )

यह भारत की सबसे प्राचीन प्रजाति थी। अब यह स्वतन्त्र रूप से तो कहीं नहीं मिलती लेकिन इसके तत्व अण्डमान निकोबार, कोचीन तथा त्रावनकोर की कदार एवं पलियन जनजातियों, असम के अंगामी नागाओं, पूर्वी बिहार की राजमहल पहाड़ियों में बसने वाली बांगड़ी समूह तथा ईरुला में देखे जा सकते हैं।

विशेषताएँ : ये नाटे कद, चौड़े सिर, मोटे होंठ, चौड़ी नाक तथा काले रंग के होते हैं।

योगदान : इनकी प्रमुख देन धनुष-बाण को खोज एवं आदिवासियों में मिलने वाले कुछ धार्मिक आचारों तथा दो-चार शब्दों तक सीमित है। हदन का विचार है कि वट-पीपल पूजा, मृतक की आत्मा और गर्भाधान सम्बन्धी मान्यता, स्वर्ग पथ पर दानवों की पहरेदारी सम्बन्धी विश्वास आदि नेग्रिटो प्रभाव से ही प्रचलित हुए हैं।

प्रोटोऑस्ट्रलायड ( The Proto-Australoid )

ये भारतीय जनसंख्या के आधारभूत अंग थे तथा उनकी बोली आस्ट्रिक भाषा समूह की थी। यह नेग्रीटो के बाद भारत की दूसरी सबसे प्राचीन प्रजाति है। इसका कुछ उदाहरण आदिम कबीलों की मुण्डा बोली में आज भी पाया जाता है। तिन्वेल्ली से प्राप्त प्रागैतिहासिक कपालों में इस प्रजाति के तत्व मिलते है। संस्कृत साहित्य में उल्लिखित निषाद जाति’ इसी वर्ग की है।

विशेषताएँ : ये छोटे कद, लम्बे सिर, चौड़ी नाक, मोटे होंठ, काली-भूरी आँखें, घुंघराले बाल एवं चाकलेटी त्वचा वाले होते हैं।

वितरण : अधिकांश दक्षिणी भारत तथा मध्य प्रदेश की कुछ जनजातियों में इस प्रजाति के लक्षण पाये जाते हैं।

योगदान : इन्हें मृदभाण्ड बनाने तथा कृषि का ज्ञान था। चावल, कदली, नारियल, कपास आदि का ज्ञान था। मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, धार्मिक कार्यों में ताम्बूल, सिन्दूर और हल्दी का प्रयोग, लिंगोपासना, निछावर प्रथा का प्रारम्भ, चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार तिथिगणना, नाग, मकर, हाथी, कच्छप आदि की पूजा का प्रारम्भ भारतीय संस्कृति को इस प्रजाति की प्रमुख देन स्वीकार की जाती है।

मंगोलियन ( The Mangoloid )

इस जनजाति ने पूर्व की ओर से भारत में प्रवेश किया। इस प्रजाति के तत्व मौरी, नागा, बोडो, गोंड, भोटिया तथा बंगाल- असम की जातियों में मिलते हैं।

विशेषताएँ : ये छोटी नाक, मोटे होंठ, लम्बे-चौड़े सिर, पीले अथवा भूरे चेहरे वाले होते थे। इनकी भाषा चीनी-तिब्बती समूह की भाषा से मिलती है।

योगदान : संभवतः मंगोल जाति के प्रभाव से ही भारतीय संस्कृति में तंत्र, वामाचार, शक्ति-पूजा एवं कुछ अश्लील धार्मिक कृत्यों का आविर्भाव हुआ। मोहेनजोदड़ो की कुछ छोटी-छोटी मृण्मूर्तियों तथा कपालों में इस जाति के शारीरिक लक्षण दिखाई देते है।

भूमध्य सागरीय ( The Mediterranean )

इस प्रजाति की तीन शाखायें भारत में आयी तथा अन्तर्विवाह के फलस्वरूप परस्पर घुल-मिल गयीं। मिश्रित रूप से उनके वंशज बड़ी संख्या में भारत में विद्यमान है। इनकी एक शाखा कन्नड़, तमिल, मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश में, दूसरी पंजाब तथा गंगा की ऊपरी घाटी में तथा तीसरी सिन्ध, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाये जाते हैं। सामान्यतः भूमध्यसागरीय प्रजाति का सम्बन्ध द्रविड़ जाति से बताया जाता है। इसके अस्थिपंजर सिंधु घाटी सभ्यता में भी मिलते है।

विशेषताएँ : ये लम्बे सिर, मध्यम कद, चौड़े मुँह, पतले होंठ, घुंघराले बाल, भूरी त्वचा वाले होते हैं।

योगदान : नौ परिवहन, कृषि एवं व्यापार वाणिज्य, नगर सभ्यता का सूत्रपात आदि।

कुछ विद्वान् द्रविड़ों को हो सैन्धव सभ्यता का निर्माता मानते है किन्तु यह संदिग्ध है। भाषाविदों का विचार है कि भारत में भारोपीय भाषा में जो परिवर्तन दिखायी देता है वह भूमध्यसागरीय अथवा द्रविड़ सम्पर्क का ही परिणाम था।

पश्चिमी ब्रेकाइसेफलस ( Brachycephals )

इसके तीन उप-भाग हैं – अल्पाइन ( The Alpanoid ), डिनारिक ( The Dinaric ) और आर्मीनॉयड ( The Arminoid )।

यूरोप में आल्प्स पर्वत शृंखला के आसपास रहने के कारण इस प्रजाति को अल्पाइन कहा जाता है। गुजरात, बिहार, उत्तर तथा मध्य भारत में यह प्रजाति पायी जाती है।

विशेषताएँ  : चौड़े कन्धे, गहरी छाती, लम्बी व चौड़ी टाँग, चौड़ा सिर, छोटी नाक, पीली त्वचा आदि। इनकी डिनारिक शाखा बंगाल, उड़ीसा, काठियावाढ, कन्नड़ तथा तमिल भाषी क्षेत्र में रहती है। तीसरी शाखा आर्मीनायड है जिसके तत्त्व मुम्बई के पारसियों में दिखाई देते हैं। भारतीय संस्कृति को इनका योगदान स्पष्ट नहीं है।

नार्डिक ( The Nordics )

इस प्रजाति को आर्यों का प्रतिनिधि तथा हिन्दू सभ्यता का जनक माना जाता है।

विशेषताएँ : ये लम्बे सिर, श्वेत व गुलाबी त्वचा, नीली आँखें, सीधे और घुंघराले बालों वाले लक्षणों से युक्त थे।

सर्वप्रथम यह प्रजाति पंजाब में बसी होगी और वहाँ से धीरे-धीरे देश के अन्य भागों में फैल गयी।

परन्तु ‘आर्य’ वस्तुत एक भाषिक पद है जिससे भारोपीय मूल की एक भाषा-समूह का पता चलता है। यह नृवंशीय पद नहीं है। अतः आर्य आव्रजन की अवधारणा भ्रामक है

भाषाई वर्गीकरण

भाषाविदों ने उपर्युक्त छः प्रजातियों को चार भाषा समूहों के अन्तर्गत समूहित किया है :-

१ — आस्टिक

२ — द्रविडियन

३ — इण्डो-यूरोपीयन

४ — तिब्बतो- चायनीज

प्रजाति को परिकल्पना

किसी भी देश को हराना हो तो राजनीतिक नहीं उसे सांस्कृतिक रूप से कमतर प्रमाणित करना होता है। इसी षड्यन्त्र के तहत औपनिवेशिक लेखकों ने आर्य आव्रजन और आक्रमण की झूठी संकल्पना को प्रचारित किया। वे यह प्रमाणित करने में लगे रहे कि भारत में जो कुछ भी अवगाहनीय है, सांस्कृतिक उन्नति हुई वह बाहर से आये आप्रवासियों की देन है न कि यहाँ के लोगों की।

इन्हीं विद्वानों की मान्यता है कि भारत में सभ्यता का जन्म नहीं हुआ, यहाँ तो बाहर से ही लोग आये और बस गये। संस्कृत भारत को भाषा नहीं थी। यह तो मध्य एशिया से भारत में आयी थी।

मैक्समूलर तथा सर विलियम जोन्स के अनुसार ‘आर्य’ प्रजाति भारत की नहीं थी। उन्हीं के अनुकरण पर कुछ तथाकथित भारतीय प्रगतिवादी इतिहासकारों ने आर्यों को घुमक्कड़, घुसपैठिया तथा आक्रमणकारी सिद्ध कर दिया। द्रविड़ों को भी भूमध्यसागरीय माना गया। इलियट स्मिथ का तो कहना है कि विश्व की समस्त सभ्यतायें मिस्र में जन्मी तथा वहीं से अन्य देशों में फैली थीं।

किन्तु पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित ‘प्रजाति का सिद्धान्त’ अत्यन्त भ्रामक और कुटिलतापूर्ण है। यूरोपीय ईसाई मिशनरियों तथा विद्वानों ने भारत को सदा औपनिवेशिक दृष्टि से देखा। यह सिद्ध करने के लिये अनेक तर्क गढ़े गये कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अपना कोई वैशिष्ट्य नहीं है तथा ईसा के २००० वर्ष पहले यूरोप और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियाँ ही भारत में विभिन्न मार्गों से आयीं एवं अपनी सभ्यता स्थापित किया।

पाश्चात्य विद्वानों ने ‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़ शब्दों को प्रजाति तथा स्थानवाची माना जिसका प्रतिकार भारतीय विद्वानों ने नहीं किया। भारत और उसकी संस्कृति को जाति, प्रजाति, नृवंश, स्थान, भाषा, भूगोल आदि के आधार पर विभाजित करने का जो षड्यन्त्र अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये रचा था उसे ही प्रगतिवादी विद्वानों ने प्रायः मान्यता प्रदान कर दी तथा संस्कृति शब्द की मूल अवधारणा को हो आयातित स्वीकार कर लिया गया।

‘आर्य’ और ‘द्रविड़ जैसे शब्द प्रजातिगत न होकर गुणवाचक है और इसी अर्थ में इनका प्रयोग वैदिक साहित्य में हुआ है।

‘आर्य’ का अर्थ है — बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न श्रेष्ठ पुरुष, स्वामी, विद्वान्, समाज का अग्रणी वर्ग आदि।

इसी तरह ‘द्रविड’ का अर्थ है — समृद्ध वर्ग, धन-धान्य से सम्पन्न व्यक्ति, ऐश्वर्यवान् पुरुष आदि।

अतः इन शब्दों के आधार पर प्राचीन भारत में जाति, प्रजाति, नृवंश आदि की परिकल्पना करना उचित नहीं होगा।

मानव उद्विकास ( Human Evolution )

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