नास्तिक सम्प्रदायों का उद्भव और विकास

नास्तिक सम्प्रदायों का उद्भव और विकास

 

ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में उत्तरी भारत के मध्य गंगा घाटी में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। बौद्ध ग्रंथ ‘ब्रह्मजाल सूत्र’ में इनकी संख्या ६२ बतायी गयी है जबकि जैन ग्रंथ ‘सूत्रकृतांग’ में यह संख्या ३६८ बतायी गयी है। वैश्विक स्तर पर भी यह समय बौद्धिक रूप से आंदोलित था। परन्तु इनमें कोई सम्पर्क था या नहीं स्पष्ट नहीं है।

  • चीन – कन्फ्यूशियस, लाओत्से
  • ईरान – जरथ्रुष्ट
  • जूडिया – जेरेमिया
  • यूनान – पाइथागोरस

 

उद्भव का कारण

 

वैदिक धर्म का कर्मकाण्ड और यज्ञीय विधि-विधान अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा था जिसकी प्रतिध्वनि उपनिषदों में मिलती है। मुण्डकोपनिषद में यज्ञों टूटी हुई नौका के समान कहा गया जिससे भवसागर पार नहीं किया जा सकता है।

 

सामाजिक दृष्टि से वर्ण व्यवस्था कठोर जाति व्यवस्था में बदल चुकी थी। इस व्यवस्था में ब्राह्मण व्यवस्थाकारों ने स्वयं को सर्वोच्च स्थान दिया।

शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो चली थी।

स्त्रियों को पुरुषों के अधीन बना दिया गया और उनके सामाजिक व शैक्षणिक अधिकार जाते रहे।

वैश्यों व क्षत्रियों को यह व्यवस्था स्वीकार्य नहीं थी।

 

आर्थिक सम्पन्नता ने वैश्यों को इस योग्य बनाया की वो ब्राह्मणों को चुनौती दे सकें।

 

ब्राह्मण श्रेष्ठता को सबसे बड़ी चुनौती क्षत्रियों ने प्रस्तुत की। उपनिषदीय ज्ञानमार्ग के विकास में क्षत्रिय शासकों का विशेष योगदान था।

  • कुरु नरेश उद्दालक आरुणि और उनके पुत्र श्वेतकेतु
  • पाञ्चाल नरेश प्रवाहण जाबालि
  • कैकेय नरेश अश्वपति
  • काशी के अजातशत्रु
  • विदेहराज जनक

यह भी उल्लेखनिय है कि वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय थे।

 

आर्थिक दृष्टि से यह समय गंगा घाटी में ‘आर्थिक क्रांति’ का समय था जिसके दूरगामी परिणाम हुए। इस क्रांति का तकनीकी आधार था “लोहे” का बढ़ता प्रयोग।

लोहे के प्रयोग से कृषि अधिशेष प्राप्त होने लगा।

कृषि अधिशेष ने नागर जीवन का पोषण किया।

इससे “नगरीय क्रांति” हुई जिसे भारतीय उपमहाद्वीप की द्वितीय नगरीय क्रांति कहा गया। ( प्रथम हड़प्पा थी )

नगरीय क्रांति शब्द का प्रयोग गार्डन चाइल्ड ने अपनी पुस्तक ‘The Urban Revolution’ यें प्रथम बार किया और उसके कुछ प्रमुख तत्व गिनाये हैं जोकि निम्न हैं :—

    • शासक वर्ग का उदय,
    • धर्म का उदय और धार्मिक इमारतें,
    • मुद्रा का प्रचलन,
    • व्यापार-वाणिज्य का विकास,
    • लेखन कला का ज्ञान,
    • सुव्यवस्थित राजस्व व्यवस्था जिससे कि अधिशेष उत्पादन शासक वर्ग तक सुचारू रूप से पहुँचता रहे आदि।

बढ़ते आर्थिक क्रिया-कलाप में व्यापार, सम्पत्ति और सूदखोरी ( Usury ) उदित नवीन मतों ने मान्यता दी जबकि ब्राह्मण धर्म में इसकी आलोचना की गयी थी।

यज्ञीय कर्मकाण्डों से पशुधन की हानि हो रही थी जिसका प्रभाव कृषि कार्यों पर पड़ रहा था। नवीन मतों ने इसकी आलोचना की।

बड़े-बड़े यज्ञों ( अश्वमेघ ) से पशुधन की हानि भी होती थी और इसकी निस्सारता को उपनिषदों ने भी उठाया था।

 

वेदों को अपौरुषेय और नित्य मान लेने से वैचारिक स्वतंत्रता बाधित हो रही थी। जिसका कि प्रबुद्ध वर्ग ने जमकर विरोध किया।

 

राजनीतिक कारण में यह उल्लेखनीय है कि जहाँ मध्य गंगा घाटी में वैचारिक क्रांति का सूत्रपात हुआ वहीं मगध साम्राज्य का उदय हो रहा था। इस परिप्रेक्ष्य में लोहे की महती भूमिका थी।

 

कुछ विद्वान लोहे की भूमिका पर अत्यधिक देते हैं उनका मानना है कि लोहे के शस्त्रास्त्र ने क्षत्रियों को सशक्त बनाया साथ ही कृषि अधिशेष की प्राप्ति होने से एक स्थायी और मजबूत सैन्य व्यवस्था का होना सम्भव हुआ।

 

एक तरह से देखा जाए तो मध्य गंगा घाटी में नयी कृषि मूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार था। इसके मूल में लोहे के बढ़ते प्रयोग से था। जिससे जंगल साफ़ करके कृषि करना आसान हुआ। दूसरी ओर कृषि में पशुओं की अधिक आवश्यकता होती थी।

 

जबकि वैदिक कर्मकांडों में पशुधन की अत्यधिक हानि होती थी। इसलिए नवीन अहिंसावादी धर्मों को जनसमर्थन मिला। बौद्ध ग्रंथों में पशुओं को अन्नदा और सुखदा कहा गया है।

 

जैन धर्म

बौद्ध धर्म

 

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