भूमिका
हीनयान की शाखायें दो हैं। एक – वैभाषिक उपसम्प्रदाय और द्वितीय- सौत्रान्तिक उपसम्प्रदाय। जिनका विवरण निम्नवत है।
वैभाषिक उपसम्प्रदाय
यह बौद्ध धर्म के हीनयान शाखा का उपसम्प्रदाय है।
इसकी उत्पत्ति कश्मीर में हई। विभाषाशास्त्र पर आधृत होने के कारण इसे वैभाषिक नाम दिया गया।
वैभाषिक मतानुयायी ‘चित्त और बाह्य वस्तु’ के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। वे यह मानते हैं कि वस्तुओं का ज्ञान केवल प्रत्यक्ष ही सम्भव है और इसके अतिरिक्त कोई अन्य साधन नहीं है। अतः इस मत को ‘बाह्य प्रत्यक्षवाद’ कहा जाता है। वैभाषिक ‘सम्यक् ज्ञान’ को प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु का निर्माण परमाणुओं से हुआ है जो प्रतिक्षण अपना स्थान बदलते रहते हैं। उनके अनुसार जगत् का अनुभव इन्द्रियों द्वारा होता है।
इस उपसम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य — वसुमित्र, बुद्धदेव, घोषक, धर्मत्रात आदि हैं।
सौत्रान्तिक उपसम्प्रदाय
इस मत का आधार सुत्त ( सूत्र ) पिटक होने के कारण यह सौत्रान्तिक मत कहलाया।
सौत्रान्तिक चित्त और बाह्य जगत् दोनों की सत्ता में विश्वास करते हैं। परन्तु वाह्य वस्तुओं के अनुभव में उनका वैभाषिकों से मतभेद है। सौत्रान्तिक यह नहीं मानते हैं कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है। सौत्रान्तिकों का मानना है कि बाह्य जगत् की वस्तुओं का जो अनुभव हम करते हैं वह वास्तव में हमारे मन का विकल्प मात्र है। वह हमारे विचारों के ही प्रतिरूप हैं। मन में बाह्य वस्तुओं के आकार बनते हैं जो हमें बाह्य सत्ता का बोध कराते हैं। बाह्य वस्तुओं के अनेक आकार होने के कारण ही ज्ञान के भी भिन्न-भिन्न आकार होते हैं। ज्ञान दीपक के समान अपने को स्वतः प्रकाशित करता है।
सौत्रान्तिक मत के प्रवर्तक ‘कुमारलात’ थे। ‘श्रीलाभ’ इसके अन्य आचार्य थे।