हड़प्पा-कालीन धार्मिक दशा
प्रत्येक धर्म के दो पहलू होते हैं : प्रथम आध्यात्मिक / संकल्पनात्मक / दार्शनिक / तत्त्वमीमांसक , और द्वितीय व्यावहारिक / कर्मकाण्डीय। प्रथम की जानकारी पुस्तकों से तो द्वितीय की जानकारी भौतिक अवशेषों से होती है। चूँकि हड़प्पाई लिपि अपठित है अंतः उसके आध्यात्मिक पहलू से अभी तक हम अनभिज्ञ हैं। दूसरी ओर पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर हम इस काल के व्यावहारिक पक्का अनुमान लगा सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि सैंधव लोग एक ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते थे जिनके दो रूप थे, परम पुरुष और परम नारी। इसी द्वंद्वात्मक धर्म का उन्होंने विकास किया। प्राप्त साक्ष्यों से विदित होता है कि इस सभ्यता के निम्न धार्मिक विशेषताएँ थीं :-
- मातृ देवी की उपासना — सैंधव सभ्यता में यह सर्वाधिक प्रचलित था । हड़प्पा से एक ऐसी मुहर मिली है जिसमें स्त्री को उल्टा दिखाया गया है और उसके गर्भ से पौधा निकल रहा है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि यह पृथ्वी की उर्वरा शक्ति का प्रतीक है और सैंधव लोग इसकी पूजा करते थे। ऐसा हमें अन्य संस्कृतियों में भी देखने को मिलता है जैसे कि मिश्र सभ्यता के लोग नील नदी की देवी आइरिस की पूजा करते थे।
- शिव की उपासना — मोहेनजोदड़ो से एक पशुपति की मुहर मिली है जिस पर एक योगी के साथ कुछ जानवर ( दायीं ओर बाध व हाथी, बायीं ओर गैंड़ा व भैंसा जबकि नीचे दो हिरन ) अंकित हैं। इसको मार्शल ने आदिशिव कहा है।
- पशुपूजा — इस सभ्यता में कूबड़ वाले वृषभ और एकशृंगी पशु की महत्ता थी यद्यपि मुहरों पर एकशृंगी पशु का सर्वाधिक अंकन है।
- इसके अतिरिक्त सैंधववासियों में लिंग और योनि पूजा, नागपूजा, सूर्यपूजा ( मोहेनजोदड़ो से स्वास्तिक के प्रमाण मिले हैं और यह सूर्यपूजा का संकेत है। ), वृक्षपूजा, मूर्तिपूजा, भूत-प्रेत में विश्वास, जल का महत्व ( मोहेनजोदड़ो से विशाल स्नानागार ), अग्नि का महत्व ( कालीबंगन, लोथल व बनावली से अग्निवेदिकाओं का मिलना ), क्रीमोथीइज्म ( धूपदान ) आदि का प्रचलन था।
वैसे यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूर्तिपूजा की शुरुआत प्रथम शताब्दी ई० में कनिष्क के काल ले मानी जाती है जब मथुरा कला में सर्वप्रथम बैठी और खड़ी हुई मुद्रा में मूर्तियों का निर्माण हुआ। फिरभी मूर्तिपूजा का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है जब पहली बार मंदिर बनाकर उसमें मूर्तियाँ स्थापित की गयीं।