भूमिका
साकेत अयोध्या ( उत्तर प्रदेश ) का एक उपनगर था। इसकी स्थापना का विवरण हमें रामायण में मिलता है। इसकी स्थापना बौद्धकाल से पहले या निकट पूर्व बौद्धकाल में बना हुआ नगर था। बौद्ध ग्रंथ ‘महापरिनिर्वाण सूत्र’ में इसकी गणना छठीं शताब्दी ई० पू० के छः महानगरों में की गयी है।सामान्य लोक अनुश्रुति में साकेत को अयोध्या का ही पर्याय माना जाता है।
साकेत की पहचान
वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि श्रीराम के स्वर्गारोहण के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी। जान पड़ता है कि कालांतर में, इस नगरी के गुप्तकाल में फिर से बसने के पूर्व ही साकेत नामक उपनगर स्थापित हो गया था। वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत के प्राचीन भाग में साकेत का नाम नहीं है।
बौद्ध साहित्य में अधिकतर, अयोध्या के उल्लेख के स्थान पर सर्वत्र साकेत का ही उल्लेख मिलता है, यद्यपि दोनों नगरियों का साथ-साथ वर्णन भी है।*
- देखें – Buddhist India by T. W. RHYS DAVIDS, p. 39.*
गुप्तकाल में साकेत और अयोध्या दोनों ही का नाम मिलता है। इस समय तक अयोध्या पुनः बस गयी थी और चंद्रगुप्त द्वितीय ने यहाँ अपनी राजधानी भी बनायी थी।
कुछ लोगों के मत में बौद्धकाल में साकेत तथा अयोध्या दोनों पर्यायवाची नाम थे किंतु यह सत्य नहीं जान पड़ता। अयोध्या की प्राचीन बस्ती इस समय भी रही होगी किंतु उजाड़ होने के कारण उसका पूर्वगौरव विलुप्त हो गया था।
वेबर के अनुसार साकेत नाम के कई नगर थे (Indian Antiquary, Vol. II, p. २०८)। कनिंघम ने साकेत की पहचान फाह्यान के शाचे (Shache) और युवानच्चांग की विशाखा नगरी से किया है परन्तु अब यह पहचान अशुद्ध प्रमाणित हो चुका है।
इन सब बातों का निष्कर्ष यह जान पड़ता है कि रामायणकालीन बस्ती अयोध्या के उजड़ जाने के पश्चात् बौद्धकाल के प्रारम्भ में ( ६ठीं-५वीं शती ई०पू० ) साकेत नामक अयोध्या का एक उपनगर बस गया था जो गुप्तकाल तक प्रसिद्ध रहा और हिंदू धर्म के उत्कर्षकाल में अयोध्या की बस्ती फिर से बस जाने के पश्चात् धीरे-धीरे उसी का अंग बनकर अपना पृथक् अस्तित्व खो बैठा।
ऐतिहासिक दृष्टि से साकेत का सर्वप्रथम उल्लेख सम्भवतः बौद्ध जातक कथाओं में मिलता है। नंदियमिग जातक में साकेत को कोसल-राज की राजधानी बताया गया है। महावग्ग ( ७/११ ) में साकेत को श्रावस्ती से ६ कोस दूर बताया गया है।
पतंजलि ने द्वितीय शती ई० पू० में साकेत में ग्रीक ( यवन ) आक्रमणकारियों का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा साकेत के आक्रांत होने का वर्णन किया है।*
‘अरुणद् यवनः साकेतम्। अरुणद् , यवनः मध्यमिकाम्’॥महाभाष्य, ३/२, १११॥*
अधिकांश विद्वानों के मत में पंतजलि ने यहाँ मेनाण्डर ( बौद्ध साहित्य का मिलिंद ) अथवा डेमेट्रियस के भारत आक्रमण का उल्लेख किया है। परन्तु इन दोनों की पहचान के सम्बन्ध में बहुत विवाद है।
गार्गीसंहिता में भी साकेत का उल्लेख मिलता है जहाँ कहा गया है कि – ‘दुष्ट विक्रांत यवनों ने साकेत, पंचाल, और मथुरा को जीता और पाटलिपुत्र तक पहुँच गये। प्रशासन में घोर अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी और प्रजा व्याकुल हो गयी। परन्तु उनमें आपस में संघर्ष छिड़ गया और वे मध्यदेश में नहीं रुक सके’।*
“ततः साकेतमाक्रम्य पञ्चालान्मथुरान्स्तथा।
यवना दुष्टविक्रान्ता प्राप्यस्यन्ति कुसुमध्वजम्॥
ततः पुष्पपुरे प्राप्ते कर्दमे प्रथिते हिते,
आकुला विषया सर्वे भविष्यन्ति न संशयः।
मध्यदेशे च स्थास्यन्ति यवना युद्धदुर्मदाः।
तेषामन्योन्यसंभावा भविष्यन्ति न संशयः।
आत्मचक्रोत्थितं घोरं युद्धं परं दारुणम्॥*
गार्गीसंहिता।
कालिदास कृत रघुवंश ( ५, ३१ ) में महाराज रघु की राजधानी को साकेत कहा है – ‘जनस्य साकेतनिवासिनस्तौ द्वाप्यभूता-मनिन्द्य सत्वो, गुरुप्रदेयाधिक निःस्पृहोऽर्थी नृपोऽथिकामादधिकप्रदश्च’।
रघुवंश ( १३, ६२ ) में श्रीराम की राजधानी के निवासियों को साकेत नाम से अभिहित किया गया है ‘यां सैकतोत्संगसुखोचितानाम्’। रघुवंश ( १३, ७९ ) में साकेत के उपवन का उल्लेख किया गया है जिसमें लंका से लौटने के पश्चात् श्रीराम को ठहराया गया था — ‘साकेतोपवनमुदारमध्युवास’। रघुवंश ( १४, १३ ) में साकेत की पुरनारियों का वर्णन है — ‘प्रासादवातायनदृश्यबंधैः साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः’। उपर्युक्त उद्धरणों से जान पड़ता है कि कालिदास ने अयोध्या और साकेत को एक ही नगरी माना है।
यह स्थिति गुप्तकाल अथवा कालिदास के समय में वास्तविक रूप में रही होगी क्योंकि इस समय तक अयोध्या की नई बस्ती फिर से बस चुकी थी और बौद्धकाल का साकेत इसी में सम्मिलित हो गया था। कालिदास ने अयोध्या का तो अनेक स्थानों पर उल्लेख किया ही है ( देखें – अयोध्या )। कालिदास का समय गुप्तकाल ही सिद्ध होता है और वे चन्द्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों में से एक थे।