शैव धर्म : उत्पत्ति और विकास
शिव से सम्बंधित धर्म को ‘शैव धर्म’ और उनकी इष्ट मानकर पूजा करनेवाले ‘शैव’ कहलाये। इस धर्म की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। मोहनजोदड़ो से एक मुद्रा मिली है जिसपर पद्मासन पर विराजमान एक योगी का अंकन है। सर जॉन मार्शल ने इस देवता का सम्बन्ध ऐतिहासिक काल के शिव से बताया है। हड़प्पा के अन्य कई स्थलों से योनि और लिड़्ग प्राप्त हुए हैं। अतः यह भारत का प्राचीनतम् धर्म है।
ऋग्वैदिक काल में शिव को रुद्र कहा गया है। वह अपने क्रोधी स्वभाव के लिए जाना जाता था। इस काल में रुद्र एक गौण देवता थे और उनको मात्र ३ सूक्त समर्पित हैं। ये अंतरिक्ष देवमंडल में शामिल थे। क्रोधित होने पर ये रोग फैला देते थे। इनके पास सहस्त्रों औषधियाँ थी।
उत्तर–वैदिक काल से इनके महत्व में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगती है।
- वाजसनेयी संहिता के शतरुदीय मन्त्र में रुद्र को समस्त लोकों का स्वामी कहा गया है।
- अथर्ववेद में इन्हें भव, शर्व, पशुपति, भूपति आदि कहा गया है।
- इन्हें व्रात्यों का स्वामी कहा गया है।
- रुद्र का सम्बंध अग्नि और सवितृ के साथ स्थापित किया गया।
- ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र की गणना सर्वप्रमुख देवता के रूप में की जाने लगी और इनकी शक्ति से देवता भी डरते थे। इन्हें सहस्राक्ष कहा गया है। रुद्र के ८ नाम बताये गये — रुद्र, सर्व, उग्र, अशनि, भव, पशुपति, महादेव और ईशान। इसमें से प्रथम चार नाम उग्र जबकि अंतिम चार मंगल रूप के द्योतक हैं।
- ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि, प्रजापति ने अपनी कन्या से समागम किया जिससे क्रुद्ध होकर देवताओं ने अपने रौद्र रूपों से “भूतपति” का सृजन किया जिसने प्रजापति का वध कर डाला और इस कार्य से वह प्रजापति संज्ञा विभूषित हुए।
- श्वेताश्वतर और अथर्वशिरस् उपनिषदों में रुद्र की महिमा का प्रतिपादन है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र की समता परमब्रह्म से स्थापित की गयी है।
महाकाव्य काल में शैवधर्म को व्यापक लोकप्रियता मिली।
- रामायण से ज्ञात होता है की शिव भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक यहाँ तक की श्रीलंका में भी पूजे जाते थे। उन्हें महादेव, शम्भु, त्र्यम्बक, भूतनाथ आदि कहा गया है।
- महाभारत में शिव की प्रतिष्ठा का विवेचन मिलता है। इसके द्रोणपर्व में कृष्ण और अर्जुन हिमालय पर जाकर पाशुपत्रास्त्र के लिए आराधना करते हैं। स्वयं श्रीकृष्ण ने पुत्र प्राप्ति के लिए हिमालय पर जाकर शिवाराधना करते हुए बताया गया है। एक स्थान पर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि शिव सभी चल-अचल वस्तुओं के स्रष्टा हैं और उनसे बढ़कर कोई अन्य नहीं है।
शिव की उपासना के साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों साक्ष्य प्राप्त होते हैं :—
साहित्यिक साक्ष्य
यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ‘डायनोसस’ ( Diynosus ) के नाम से शिव पूजा का उल्लेख करता है जोकि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित थी। पतञ्जलि के महाभाष्य में शिवमूर्ति पूजन का उल्लेख है। महाभाष्य में शिव के कई नाम मिलते हैं; यथा – रुद्र, गिरीश, महादेव, त्र्यम्बक, भव, सर्व आदि।
गुप्तकालीन विभूति कालिदास शैव थे। उन्होंने कुमारसम्भव की रचना की है जिसमें शिव-पार्वती पुत्र कुमार कार्तिकेय के जन्म की कथा है। पुराणों का अंतिम संकलन गुप्तकाल में हुआ। पुराणों में उन्हें “देवेषु महान् देवों महादेवः” कहा गया है। पुराणों में लिंगपूजा का भी उल्लेख है परन्तु सम्भवतः लिंगपूजा का प्रचलन/प्रसार गुप्तकाल में ही हुआ था।
बाणभट्ट अपने हर्षचरित में लिखते हैं कि थानेश्वर में “गृहों-गृहे अपूज्यत भगवान खण्डपरशुः”। हुएनसांग वाराणसी में शैव धर्म और उज्जैन के महाकाल मन्दिर का उल्लेख करता है। हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ नरेश शशांक और कामरूप शासक भास्करवर्मन् शैव थे।
दक्षिण भारत में पल्लव काल में ६३ नायनार भक्त संतों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने शैव धर्म का प्रचार-प्रसार किया। कुछ प्रमुख नायनार संत हैं :— अप्पार, तिरुज्ञान, सम्बंदर, सुन्दरमूर्ति, मणिक्कवाचगर आदि। इन सभी नायनार संतों ने भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ और उपदेशों के द्वारा तमिल समाज में शिव भक्ति का प्रचार किया। ये जाति-पाँति, ऊँच-नीच के विरोधी थे।
पुरातात्विक साक्ष्य
भारत के प्राचीनतम् आहत मुद्राओं पर शैव मत से सम्बंधित प्रतीक वृषभ, नन्दिपद आदि चिह्न मिलते हैं। इनमें से कुछ की तिथि ईसा पूर्व छठी-पाँचवीं शती तक जाती है। शक, पह्लव, कुषाण आदि शासकों के सिक्कों पर शिव, वृषभ, त्रिशूल की आकृतियाँ मिलती हैं।
गुप्तकाल में चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के मंत्री वीरसेन शैव ने उदयगिरि पहाड़ी ( विदिशा के समीप, मध्य प्रदेश ) पर एक शैव गुफा का निर्माण कराया था। जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहालेख में हुआ है, “भक्त्या भगवतश्शम्भोंः गुहामेकामकारयत्”। कुमारगुप्त प्रथम के समय करमदंडा और खोह में शिवलिंगों की स्थापना हुई। इसी समयावधि में भूमरा में शिव मंदिर और नचनाकुठार में पार्वती मंदिर का निर्माण हुआ।
राजपूत काल ( ७०० – १२०० ई० ) चंदेल शासकों ने खजुराहो में कंदारिया का प्रसिद्ध महादेव मंदिर बनवाया। सोमनाथ का शिव मंदिर और भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर सर्वप्रसिद्ध है। सोमनाथ के मंदिर पर महमूद गजनवी के आक्रमण का उल्लेख अलबेरुनी करता है।
दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटों के समय एलोरा का कैलास मंदिर निर्मित हुआ। पल्लव काल में निर्मित महाबलीपुरम् का तटीय मंदिर, काँची का कैलाशनाथ मंदिर आदि शिव को समर्पित हैं। चोलकाल में तंजोर का राजराजेश्वर मंदिर ( राजराज प्रथम ) और बृहदीश्वर मंदिर ( राजेन्द्र प्रथम ) प्रमुख शिव मंदिर हैं।
भारतीय इतिहास में धार्मिक सहिष्णुता का अनुकरणीय उदाहरण मिलता है फिरभी कुछेक अपवाद भी मिल जाते हैं :—
- गौड़ नरेश शशांक कट्टर शैव था जिसने बोधगया के बोधिवृक्ष को कटवाकर गंगा नदी में फिकवा दिया ( हुएनसांग ) ।
- चोल नरेश कुलोतुंग द्वितीय ने चिदम्बरम् मंदिर में स्थापित विष्णु की प्रतिमा को समुद्र में फिकवा दिया।
- किसी चोल शासक ने रामानुज को प्रताड़ित किया था जिससे उनको कुछ समय के लिए चोल राज्य से बाहर जाना पड़ा था। सम्भवतः यह राजा कुलोत्तुंग द्वितीय था।
इस तरह शैव धर्म का विकास प्रागैतिहासिक काल से शुरु होकर वर्तमान तक पहुँचा है। वर्तमान में ब्रह्मा और विष्णु के साथ शिव त्रिदेवों में सम्मिलित हैं। इनसे सम्बंधित व्रत महाशिवरात्रि और सोमवार है। तीसरे वर्ष मलमास लगता है। शिव-पूजा आसेतुहिमालय तक होती है। शिव में आर्य और आर्येत्तर तत्वों का समामेलन मिलता है।
देश के विभिन्न भागों में १२ ज्योतिर्लिंग हैं :—
- सोमनाथ ( गुजरात )
- केदारनाथ ( उत्तराखंड )
- विश्वनाथ ( काशी, उ०प्र० )
- वैद्यनाथ ( देवघर, झारखंड )
- मल्लिकार्जुन ( कुर्नूल, आंध्र प्रदेश )
- नागेश्वर ( द्वारका, गुजरात )
- महाकालेश्वर ( उज्जैन, म०प्र० )
- रामेश्वरम् ( तमिलनाडु )
- ॐकारेश्वर ( म०प्र० )
- भीमेश्वर ( महाराष्ट्र )
- त्रयम्बकेश्वर ( नासिक, महाराष्ट्र )
- घुमेश्वर ( महाराष्ट्र )
“सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोड़्कारममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशड़्करम्।
सेतुबन्धे यु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशंत्र्यम्बकमं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालयों॥
एतानि ज्योतिर्लिड़्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं संमरणेन विनश्यति॥”