शाक्त धर्म
उद्भव और विकास
शक्ति को इष्टदेव मानकर पूजा करने वालों का समुदाय ‘शाक्त सम्प्रदाय’ कहलाता है। शक्ति–उपासना के उद्भव में वैदिक और अवैदिक दोनों प्रवृत्तियों का योगदान है। शाक्त और शैव धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध है। शाक्त धर्म की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। लोहदा नाला, उत्तर प्रदेश से पूर्व–पुरापाषाण काल का अस्थि निर्मित मातृदेवी की प्रतिमा इस बात का प्रमाण है कि यह धर्म कितना प्राचीन है। सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना प्रचलित थी।
वैदिक साहित्य में अदिति, ऊषा, सरस्वती, श्री, लक्ष्मी आदि देवियों का विवरण मिलता है।
शक्ति–पूजा का प्रथम ऐतिहासिक पुरातात्विक साक्ष्य कुषाण शासक हुविष्क के सिक्कों पर देवी के चित्रों के अंकन से मिलता है।
गुप्तकाल में पौराणिक धर्म की पर्याप्त उन्नति हुई और शाक्त सम्प्रदाय इसका अपवाद नहीं था। नचना–कुठार में पार्वती–मन्दिर का निर्माण हुआ। दुर्गा, गंगा, यमुना आदि की बहुसंख्यक मूर्तियाँ इस समय के विभिन्न स्थलों से मिलती हैं। मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना का अंकन इस समय के मन्दिरों के प्रवेश द्वारों ( चौखटों पर ) की विशेषता बन गये।
हर्षचरित में देवी दुर्गा के पूजा के कई उल्लेख हैं। हुएनसांग से पता चलता है कि शाक्त मतावलंबी मनुष्यों की बलि देते थे। वह स्वयं इसका शिकार होते–होते बचा था।
पूर्व–मध्यकाल ( राजपूत काल ) में शाक्त धर्म अत्यधिक लोकप्रिय था। अधिकांश मंदिरों का निर्माण इस समय किया गया। चौंसठ योगिनी मंदिर, भेंड़ाघाट ( जबलपुर, म०प्र० ) मंदिर ९वीं–१०वीं शती में निर्मित हुआ। इस मंदिर में दुर्गा और सप्तमात्रिकाओं की ४४ मूर्तियाँ हैं। प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल के लेखों में दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, कांचनदेवी, अंबा आदि नामों की स्तुति मिलती है। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था। संजन लेख से पता चलता है कि उसने एक बार अपने बायें हाथ की अंगुली काटकर देवी को अर्पित कर दी थी।
कल्हण के विवरण से पता चलता है कि शारदा देवी के दर्शनार्थ गौड़ नरेश के अनुयायी कश्मीर आये थे। अबुल फ़ज़ल भी शारदा देवी के मन्दिर का उल्लेख करता है।
धार्मिक साहित्यों में वर्णित शक्ति का स्वरूप
ऋग्वेद के १०वें मण्डल में ‘देवीसूक्त’ है। इसमें वाक्शक्ति की उपासना में कहा गया है :—
अहं राष्ट्री संगमनीं वसूनां चिकितुषी प्रथमा याज्ञियानाम्।
तां मां देव्या व्यादधु: पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तः॥
- इसी तरह अदिति को देवमाता कहा गया है :—
अदितिद्यौंरदितिरन्तरिक्षम् आदिनिर्माता स पिता स पुत्राः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
- सरस्वती देवी को सौभाग्यदायिनी कहकर स्तुति की गयी है :—
सरस्वती न सुभगामयस्यकरत।
अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहकर उसकी पुत्र, धन, मधुर वचन प्रदान करने वाली कहकर स्तुति की गयी है।
महाभारत के भीष्म पर्व में विवरण मिलता है कि श्रीकृष्ण के सलाह पर अर्जुन ने युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए देवी दुर्गा की स्तुति की थी। इसमें कहा गया है कि प्रातःकाल शक्ति की उपासना करने से व्यक्ति युद्ध में विजय प्राप्त करता है और उसे लक्ष्मी प्राप्ति होती है :—
य इयम् पठते स्तोत्रं कस्य उत्थाय मानवः।
संग्राम विजयेन्नित्यं लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलम्॥
- विराट पर्व में युधिष्ठिर ने देवी को विन्ध्यवासिनी, महिषासुरमर्दिनी, यशोदा के गर्भ से उत्पन्न, नारायण को परमप्रिया तथा श्रीकृष्ण की बहन कहकर उनकी स्तुति की गयी है। स सम्बन्ध में कहा गया है:—
यसोदागर्भ संभूता………नन्दगोपकुले जातां………।
शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रतिगामिनीम् ॥
मार्कण्डेय पुराण में देवी की स्तुति इस प्रकार की गयी है:—
सर्वस्व बुद्धिरूपेण जनस्य हृद संस्थिते । स्वापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तुते ॥
सृष्टिस्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातानि । गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तुते ॥
- मार्कण्डेय पुराण में देवी की उत्पत्ति कैसे हुई वर्णित है। इसमें कहा गया है कि महिषासुर का वध करने के लिये त्रिदेवों और अन्य देवताओं के मुख से निःसृत तेजपुञ्ज से शक्ति की उत्पत्ति हुई। इन्हीं देवों ने शक्ति को अपने–२ अस्त्र दिये। तदुपरान्त उस शक्ति ने महिषासुर का वध किया और महिषासुरमर्दिनी कहलायीं।
- दुर्गाशप्तशती मार्कण्डेय पुराण का ही भाग है।
एक अन्य कथानुसार शुम्भ व निशुम्भ के वध हेतु देवों की आराधना पर देवी ने स्वयं को प्रकट किया था।
शक्ति के तीन रूप
देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती है :—
- शान्त या सौम्य रूप — उमा, पार्वती, लक्ष्मी आदि। कटरा, जम्मू में वैष्णोदेवी का मंदिर जिसमें शारदादेवी की मूर्ति है; मैहर देवी का मंदिर, सतना– म०प्र० आदि देवी के सौम्य रूप को समर्पित मंदिर हैं।
- उग्र या प्रचण्ड रूप — चण्डी, कापाली, भैरवी आदि। कापालिक और कालमुख सम्प्रदाय के लोग इन्हीं रूपों की आराधना करते हैं। इसमें पशु बलि, सुरा, मत्स्य आदि का प्रयोग होता है। कलकत्ता का काली मंदिर।
- कामप्रधान रूप — आनन्द भैरवी, त्रिपुर सुन्दरी, ललिता आदि। असम का कामाख्या देवी मंदिर।