शाक्त-धर्म की तान्त्रिक विचारधारा
परिचय
पूर्व-मध्यकाल तक आते-आते शाक्त-धर्म पर तान्त्रिक विचारधारा का व्यापक प्रभाव पड़ा। मात्र शाक्त सम्प्रदाय ही नहीं अपितु तत्कालीन सभी धर्मों और मत-मतान्तरों पर तन्त्रवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है; यथा — वैष्णव, शैव, बौद्ध और जैन धर्म आदि।
जैन धर्म में ‘सचिवा देवी’ की उपासना शाक्त ढंग से की जाने लगी। यहाँ तक की कुछ जैन आचार्यों ने चौसठ योगिनियों पर सिद्धि प्राप्त कर आधिदैविक शक्तियों का दावा किया। श्रीहर्ष कृत ‘नैषधचरित’ सरस्वती मन्त्र की महत्ता का प्रतिपादन किया करते हैं। गुजरात का चौलुक्य नरेश ‘कुमारपाल’ जैन नमस्कार मन्त्र में अटूट विश्वास करता था और उसका विश्वास था कि उसकी सफलता का कारण यही मन्त्र है।
लाभ
तन्त्रवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण समाज में अन्धविश्वास दृढ़ होता गया। परन्तु इसके कुछ लाभ भी हुए :—
- बारहवीं शताब्दी की रचना ‘रसार्णव’ से स्पष्ट है कि तन्त्रवाद ने ‘रसायन शास्त्र’ के विकास में भूमिका निभायी।
- महिलाओं की स्थिति को सुधारने में इसका योगदान रहा।
- जाति-पाँति के बंधन इसके कारण शिथिल हुए।
- शाक्त-तान्त्रिक विचारधारा में एक ही इष्ट की पूजा पर बल दिया गया।
- तान्त्रिक विचारधारा ने भक्ति आन्दोलन को संवेग प्रदान किया।
- इसी विचारधारा से ‘नाथ सम्प्रदाय’ का उदय हुआ जिसने मध्यकाल में कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
विशेषताएँ
शाक्त के तान्त्रिक विचारधारा की निम्न विशेषताएँ हैं :—
- यह विचारधारा ‘शक्तिवाद’ पर आधृत है।
- कश्मीरी शैवमत शक्ति को शिव की अन्तर्निहित प्रकृति तथा सर्वोच्च शक्ति मानता है।
- यही शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है।
- तान्त्रिक धर्म का लक्ष्य ‘ज्ञान समुच्चयवाद’ पर केन्द्रित है।
- तन्त्रवाद में जप, तप और मंत्र पर विशेष ध्यान दिया गया है और इन्हीं के द्वारा साधक मनोवांछित फल प्राप्त करता है।
तीन मुख्य केन्द्र
शाक्त उपासना के तीन प्रमुख केन्द्र हैं :—
- कश्मीर
- काञ्ची
- असम स्थित कामाख्या मंदिर
इसमें से कश्मीर और काञ्ची श्रीविद्या के प्रमुख केन्द्र हैं जबकि कामाख्या मंदिर कौल मत का प्रमुख केन्द्र है।