शंकराचार्य और उनका दर्शन

शंकराचार्य और उनका दर्शन

परिचय

भारतीय दर्शन में जिस तत्त्व चिंतन की शुरुआत ऋग्वैदिक काल से हुई थी वह उपनिषदों में अपने पूर्णता को प्राप्त हुई। उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र प्रस्थानत्रयी कहलाते हैं। इनकी व्याख्या हर दार्शनिक अपनी-२ तरह से करता है। किसी को इसमें कर्म-मार्ग सूझती है तो किसी को भक्ति-मार्ग और किसी को ज्ञान-मार्ग। इनमें शंकर ज्ञान-मार्ग देखते हैं। शंकर का अद्वैत दर्शन भारतीय अद्वैत वेदान्त का चरमोत्कर्ष है।

शंकराचार्य का जीवन परिचय

जन्म – ७८८ ई॰।

मृत्यु – ८३२ ई०, ३२ वर्ष की अवस्था में।

माता – आर्यम्बा।

पिता – शिवगुरू ( नम्बूतिरि ब्राह्मण )।

जन्म स्थान – कलादी ग्राम, अल्वर नदी के किनारे मालाबार तट – केरल।

बचपन में ही पिता की मृत्यु के कारण इनका पालन-पोषण इनकी माता ने किया। बचपन से ही प्रखर बुद्धि के थे। इनका पाँच वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार हुआ और इन्होंने आठ वर्ष की आयु में माँ की अनुमति लेकर संन्यास ग्रहण लिया। संन्यास की अनुमति के समय शंकर की माँ ने उनसे वचन लिया था कि वे ही उनका अन्तिम संस्कार करें और शंकर ने अपना संन्यास तोड़कर इसका पालन भी किया था। गृहत्याग के बाद ये नर्मदा नदी के तट पर गोविन्द योगी ( गौड़पाद के शिष्य ) से संन्यास की दीक्षा ली। गोविन्द योगी ने उन्हें ‘परमहंस’ की उपाधि दी। गुरू के निर्देश पर वे काशी गये। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने स्वयं उन्हें अद्वैत मत का ज्ञान कराया।

शंकर ने भारतीय उपमहाद्वीप के तीर्थस्थलों की व्यापक यात्रा की ( कश्मीर – कन्याकुमारी )। इस दौरान उन्होंने तत्कालीन लगभग सभी सम्प्रदायों के विद्वानों ( बौद्ध, जैन, कापालिक, स्मार्त आदि ) से शास्त्रार्थ किया और पराजित कर आध्यात्मिक दिग्विजय प्राप्त किया। शंकर के जीवनीकार आनन्दगिरि ने ऐसे लगभग ५० सम्प्रदायों के आचार्यों का उल्लेख किया है। प्रयाग के दार्शनिक ‘कुमारिल भट्ट’ से उनका शास्त्रार्थ हुआ और उन्होंने शंकर के मत को स्वीकार कर लिया परन्तु कुछ विद्वान इसे नहीं मानते हैं क्योंकि उनका समय शंकर से पहले का है। शंकर का इतिहास प्रसिद्ध शास्त्रार्थ माहिष्मती में नर्मदा तट पर ‘मण्डन मिश्र’ और उनकी पत्नी ‘भारती’ से हुआ। इन दोनों ने भी शंकर के मत को स्वीकार कर लिया।

शंकर ने मालाबार से सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया और उनके सुधारों से ही कोल्लम् सम्वत् – ८२५ ई॰ का प्रारम्भ माना जाता है।

उनके द्वारा हिन्दू धर्म के प्रबल प्रचार-प्रसार से बौद्ध धर्म को गहरा धक्का लगा और भारतीय उपमहाद्वीप से उसका विलोपन हो गया।

हिन्दू धर्म को संगठित और स्वयं के कार्यों को स्थायित्व व मूर्त रूप देने के लिए शंकर ने देश के चारों दिशाओं में चार प्रसिद्ध मठों की स्थापना की जो निरन्तर तबसे कार्य कर रहे हैं :—

  • उत्तर में ज्योतिर्मठ, बद्रीनाथ; उत्तराखंड
  • दक्षिण में शृंगेरी मठ; कर्नाटक
  • पूर्व में गोवर्धन पीठ, पुरी; ओडिशा
  • पश्चिम में शारदा पीठ, द्वारका; गुजरात

अद्वैतवाद

शंकराचार्य का दर्शन ‘अद्वैतवाद’ कहलाता है। इसमें पारमार्थिक / वास्तविक स्तर पर मात्र एक ही सत्ता ‘ब्रह्म’ है।

अद्वैत वेदान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं :—

  • निखिल सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। ( ब्रह्म सत्यं )
  • यह दृश्यमान जगत् माया का कार्य होने के कारण मिथ्या है। ( जगन्मिथ्या )
  • जीव ( आत्मा ) और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ( जीवोब्रह्मैव नापरः )

इसे ही शंकर ने सूत्र-वाक्य में इस तरह लिखा है – 

”ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवोब्रह्मैव नापरः।”

( यही वेदान्त सार है।)

आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। जगत् में आत्माओं का वैविध्य प्रतीत होता है, किन्तु यह वैविध्य अवास्तविक है। विभिन्न आत्माएँ ब्रह्म के प्रतिबिम्ब या आभास मात्र हैं।

सत्य के तीन स्तर हैं :— 

  • पारमार्थिक 
  • व्यावहारिक 
  • प्रातिभासिक

पारमार्थिक स्तर पर केवल एक ही सत्ता है — ‘ब्रह्म’। ब्रह्म और आत्मा में अभेद है।

व्यावहारिक स्तर पर तीन सत्ताएँ हैं — ईश्वर, जीव और जगत्।

  • ईश्वर ब्रह्म का सगुण रूप है और वह माया में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है।
  • जीव आत्मा का अविद्या में प्रतिबिम्ब है, जोकि शरीर-युक्त होने के कारण अपने मूल ‘आत्म-स्वरूप’ को भूल गया है।
  • जगत् ब्रह्म का विवर्त मात्र है। इसकी रचना ईश्वर माया के माध्यम से करता है।

प्रातिभासिक स्तर पर जगत् में होने वाले सामान्य भ्रम आते हैं; यथा — रस्सी में सर्पाभास इत्यादि प्रातिभासिक सत्य हैं।

प्रातिभासिक सत्य का खण्डन व्यावहारिक सत्य से और व्यावहारिक सत्य का खण्डन पारमार्थिक सत्य से होता है। 

जिस रस्सी को हम सर्प मान बैठे थे, जैसे ही हमें रस्सी होने का ज्ञान होता है हमारा भ्रम टूट जाता है और हम प्रातिभासिक स्तर से व्यावहारिक स्तर पर पहुँच जाते हैं।

व्यावहारिक सत्य भी व्यापक प्रकार का भ्रम ही है। यह सत्य इसलिए है कि इसका अनुभव सभी लोग करते हैं और जीवन-पर्यंत करते हैं। परन्तु जो व्यक्ति अपनी साधना से व्यावहारिक स्तर का अतिक्रमण करके पारमार्थिक सत्य ( ब्रह्म ) का साक्षात्कार लेते हैं वे समझ जाते हैं कि व्यावहारिक सत्य भी भ्रम है।

आत्मा और ब्रह्म मूलतः और तत्त्वतः एक ही हैं। बन्धन का कारण यह है कि शरीर-युक्त आत्मा स्वयं का मूल ब्रह्म-स्वरूप को विस्मृत कर बैठा है। बन्धन का कारण ‘अजान’ है अतः मोक्ष प्राप्ति ज्ञान-मार्ग से ही हो सकती है। जैसे ही आत्मा को ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का बोध होता है, वैसे ही उसे मोक्ष मिल जाता है। मोक्षावस्था में किसी प्रकार का द्वैत नहीं है।

शंकर के अद्वैतवाद का भक्ति-मार्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। भक्ति के लिए आराधक ( भक्त ) और आराध्य में द्वैत आवश्यक है जबकि शंकर के अनुसार पारमार्थिक दृष्टि से दोनों एक ही हैं। शंकर व्यावहारिक स्तर पर भक्ति को स्वीकार करते हैं परन्तु ज्ञान-मार्ग के सहायक के रूप में। शंकर का स्पष्ट मत है कि भक्ति से परमसत्ता का ज्ञान नहीं हो सकता है और न ही उसकी उपलब्धि। मोक्षावस्था में तो सम्पूर्ण अद्वैत है अतः वहाँ भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रतिक्रियास्वरूप अनेक वैष्णव आचार्यों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने शंकर के मत को चुनौती दी इसमें प्रमुख हैं — रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, बल्लभाचार्य आदि।

वेदान्त दर्शन

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