परिचय
शंकर के अद्वैतवाद का भक्ति-मार्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। भक्ति के लिए आराधक ( भक्त ) और आराध्य में द्वैत आवश्यक है जबकि शंकर के अनुसार पारमार्थिक दृष्टि से दोनों एक ही हैं। शंकर व्यावहारिक स्तर पर भक्ति को स्वीकार करते हैं परन्तु ज्ञान-मार्ग के सहायक के रूप में। शंकर का स्पष्ट मत है कि भक्ति से परमसत्ता का ज्ञान नहीं हो सकता है और न ही उसकी उपलब्धि। मोक्षावस्था में तो सम्पूर्ण अद्वैत है अतः वहाँ भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।
प्रतिक्रियास्वरूप अनेक वैष्णव आचार्यों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने शंकर के मत को चुनौती दी इसमें प्रमुख हैं — रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, बल्लभाचार्य आदि।
वल्लभाचार्य का जीवनवृत्त
जन्म – १४७९ ई०
मृत्यु – १५३१ ई०
पिता – लक्ष्मण भट्ट
माता – इल्लमागारू
पत्नी – महालक्ष्मी
पुत्र – गोपीनाथ और विट्ठलनाथ
गुरू – विल्वमंगलाचार्य, स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ
शिष्य – सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास और परमानन्ददास।
वल्लभाचार्य जी एक तैलंग ब्राह्मण थे। इनके जन्म के समय काशी तुर्क आक्रमण से आक्रांत था अतः इनके माता-पिता दक्षिण यात्रा पर थे। रास्ते में इनका जन्म रायपुर ज़िले के चम्पारण्य नामक वन में हुआ। इनको विल्वमंगलाचार्य से ‘अष्टदशाक्षर गोपाल मंत्र’ की दीक्षा मिली जबकि संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से मिली थी।
शुद्धाद्वैतवाद
वल्लभाचार्य जी एक वैष्णव वेदान्ती दार्शनिक हैं और इनका दर्शन शुद्धाद्वैतवाद कहलाया। शुद्धाद्वैतवाद ( शुद्ध + अद्वैत + वाद ) भी एक तरह से अद्वैतवाद ही है। इसमें शब्द में ‘शुद्ध’ शब्द विशेषण की तरह प्रयुक्त हुआ है।
इस दर्शनानुसार सृष्टि ३ गुणों से बनी है — सत्, चित् और आनन्द। इन्हीं त्रिगुणों के आधार पर ईश्वर, जीव और जगत् की व्याख्या की गयी है।
- ईश्वर = सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द, अर्थात् ईश्वर में तीनों गुण हैं।
- जीव = सत् + चित् अर्थात् जीव में दो गुण हैं और उसमें आनन्द नामक गुण नहीं है।
- जगत् = सत्, अर्थात् जगत् में मात्र एक गुण है।
जिन गुणों से जीव और जगत् बने हैं उन्हीं से ईश्वर भी। अतः जिस प्रकार ईश्वर शुद्ध है उसी तरह जीव और जगत् भी सत् है मिथ्या नहीं है।
वल्लभ के इसी दर्शन के आधार पर एक विशेष मार्ग की स्थापना हुई जिसे “पुष्टिमार्ग” कहते हैं। इसमें कहा गया कि ईश्वर के अनुग्रह से ही भक्ति की उपलब्धि होती है :—
“पोषणम् तदनुग्रह।”
वल्लभ ने भगवान विष्णु के श्रीकृष्णावतार की भक्ति का विकल्प रखा।
वल्लभ से मिलने से पूर्व सूरदास दास्य भाव से भक्ति करते थे, जिसमें भक्त स्वयं को निरीह और दीन-हीन मानता है। वल्लभ ने सूर को प्रेरित किया कि – ‘सूर ह्वैकै काहे घिघियात हो।’ यहाँ से सूरदास ने श्रीकृष्ण भक्ति का नया स्वरूप स्वीकार किया, जिसमें प्रेम और माधुर्य केन्द्र है।
वल्लभ के बाद उनके पुत्र विट्ठलनाथ ने अष्टछाप ( १५६५ ई० ) की स्थापना की जिसमें ८ कृष्ण भक्त कवि शामिल थे। ये अष्टकवि थे :— कुम्भनदास, सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, गोविन्ददास, छीतस्वामी, नंददास और चतुर्भुजदास। इन कवियों ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण की भक्ति में रचनायें की है।