महाकाव्य युगीन धार्मिक दशा
कर्मकाण्डीय ( पूर्ववैदिक ) और ज्ञानमार्गीय ( उत्तर वैदिक, विशेषकर उपनिषदीय ) धर्मों के सामंजस्य से महाकाव्यों ने एक लोकधर्म का विकास किया जो सर्वसाधारण को सुलभ था। देवसमूह में त्रिदेवों [ ब्रह्मा ( सर्जक ), विष्णु ( पालक ), महेश ( संहारक ) ] को सर्वोच्च प्रतिष्ठा दी गयी। कालान्तर में ब्रह्मा की अपेक्षा विष्णु और शिव की लोकप्रियता बढ़ती गयी। श्रीराम और श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया और ‘अवतारवाद’ का विकास हुआ। जनसाधारण के समक्ष मोक्ष-प्राप्ति का सरल उपाय भक्ति मार्ग प्रस्तुत किया गया जोकि बिना भेदभाव के सर्वजन सुलभ था। भक्ति के बारे में श्रीमद्भागवदगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं :-
“सर्वधर्मान् परित्याग मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचिः॥”
भगवान अपने भक्त को आश्वासन देते हुए कहते हैं कि :-
“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनासाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभावामि युगे-युगे॥”
महाकाव्य युगीन धर्म में वैदिक और अवैदिक विश्वासों का समावेश दिखता है। विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है। शासकों द्वारा विशाल अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किये जाते थे। महाकाव्यों के माध्यम से समाज में सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा की गयी है और सत्य की असत्य पर विजय दिखाया गया है।