भारत और मध्य एशिया
भूमिका
भारत और मध्य एशिया का सम्पर्क प्राचीनकाल से ही था। भारत का बाहरी दुनिया से सम्पर्क के साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता से ही मिलने लगते हैं। इस सभ्यता के लोगों के व्यापारिक सम्पर्क समकालीन सभ्यताओं से थे; यथा – मेसोपोटामिया।
शनैः शनैः भारत और विश्व के अन्यान्य भागों में सभ्यता का विकास हुआ और बड़े-२ साम्राज्य स्थापित हुए। ये सभ्यताएँ परस्पर सांस्कृतिक व राजनयिक सम्पर्क बनाने लगी। इस विकास क्रम में भारत और मध्य एशिया का सम्पर्क विशेष महत्व का है।
प्राचीन भारतीयों के मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के क्षेत्रों से सम्पर्क महत्वपूर्ण हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये सम्पर्क विजय अभियानों से नहीं बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आदान-प्रदान से हुआ था ( कुछेक अपवादों को छोड़कर )।
‘वृहत्तर भारत’ का अर्थ भारत से बाहर उस क्षेत्र है जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रभाव पड़ा और प्राचीन भारतीयों ने उपनिवेशों की स्थापना की थी।
पश्चिमी देशों के साथ भारत का सम्पर्क मुख्यतः व्यापारिक था।
उत्तरी-पूर्व और दक्षिणी-पूर्वी देशों के साथ न केवल सांस्कृतिक सम्पर्क हुआ अपितु कुछेक में भारतीयों ने अपने राज्य भी स्थापित किये थे।
भारत और मध्य एशिया के देश
भौगोलिक रूप से यह हिन्दूकुश के उत्तर, कैस्पियनसागर के पश्चिम, रूस के दक्षिण और चीन के पश्चिम में स्थिति है।
वर्तमान में इसके तहत पाँच देश हैं — उजबेकिस्तान, कजाखस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजकिस्तान और किर्गिजस्तान।
पूर्वकाल में इसके अन्तर्गत निम्न राज्य आते थे :
- काशगर ( शैलदेश ),
- यारकन्द ( कोक्कुक ),
- खोतान ( खोतुम्न ),
- शानशान,
- तुर्फान ( भरुक ),
- कुची ( कूचा ),
- करसहर ( अग्निदेश ) और
- बजक्लिक आदि।
मध्य-एशिया क्षेत्र में भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख क्षेत्र थे — उत्तर में कूँची और दक्षिण में खोतान।
सम्राट अशोक के प्रयासों से बौद्ध धर्म मध्य एशिया में पहुँचा।
गुप्तकाल तक बौद्ध धर्म मध्य एशिया के सभी भागों तक फैल चुका था।
यहाँ के लोगों ने भारतीय भाषा और लिपि को भी अपनाया था।
खोतान
यह कुनलुन पर्वत शृंखला के उत्तर में तारिम द्रोणी में स्थित है।
वर्तमान में यह चीन के जिनजियांग प्रांत में स्थित है।
खोतान को होतान भी कहते हैं।
बौद्ध परम्परानुसार अशोक के पुत्र कुणाल ने यहाँ हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। तिब्बती साहित्य में कुणाल को ‘कुस्तन’ कहा गया है। भारतीय शासकों की एक लम्बी सूची मिलती है।
कुणाल के बाद उसका पुत्र येउल ( Ye-u-la ) और पौत्र विजितसम्भव शासक हुए। विजितसम्भव के बाद के सभी शासकों के नाम के साथ प्रारम्भ में ‘विजित’ लगने लगे। विजितसम्भव के शासनकाल में ही विरोचन ने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
चौथी शताब्दी तक यहाँ बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार-प्रसार हो चुका था।
फाहियान के विवरण से खोतान में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की जानकारी मिलती है। उसके अनुसार यहाँ के गोमती विहार में ३००० भिक्षु निवास करते थे और यह महायान शिक्षा केन्द्र था। वह यहाँ के रथ यात्रा विवरण देता है।
यहाँ की राजा और प्रजा सभी बौद्ध धर्म में निष्ठा रखते थे। यहाँ के विहारों में बौद्ध धर्म की कुछ ऐसी दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ थीं जोकि भारत में भी अप्राप्य थीं। ४३३ ई॰ में चीन से ‘धर्मक्षेम’ नामक बौद्ध विद्वान महापरिनिर्वाणसूत्र की पाण्डुलिपि की खोज में यहाँ आया था।
गुप्तकाल तक यह विकास की चोटी पर पहुँच गया था।
खोतान से प्राप्त पाण्डुलिपियों, मूर्तियों और चित्रकारियों से स्पष्ट है कि ८वीं शताब्दी तक यहाँ भारतीय बौद्ध संस्कृति व्याप्त थी।
खोतान से शानशान होती हुई भारतीय सभ्यता का चीन में प्रवेश हुआ।
कूची
इसे कूचा ( Kucha or Kuqa ) भी कहते हैं।
यह तिएन शान पर्वत शृंखला के दक्षिण में जबकि तारिम द्रोणी में तकलामकान रेगिस्तान के उत्तरी शिरे पर स्थित है।
यहाँ के शासक सुवर्णपुष्प, हरिपुष्प, हरदेव, सुवर्णदेव जैसे भारतीय नाम धारण करते थे।
यहाँ की प्रजा और राजा बौद्ध मतानुयायी थी।
यहीं से प्रसिद्ध विद्वान ‘कुमारजीव’ ( ३४४ – ४१३ ई॰ ) का नाम जुड़ा हुआ है। इनका जन्म कूचा में हुआ था। शिक्षा इन्होंने कश्मीर में ली और जीवन के अन्तिम १२ वर्ष ये चीन में रहे। वे भारतीय विद्वान कुमारायण और कूची की राजकुमारी जीवा के पुत्र थे। कुमारजीव ने भारत, मध्य एशिया और चीन में यश पाया था। वे चीन गये और वहाँ १२ वर्षों ( ४०१ -४१३ ई॰ ) तक रहकर बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार किया।
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