परिचय
तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन में बौद्ध धर्म की अनेक संदर्भों में उपादेयता थी। बौद्ध धर्म की सफलता में अनेक कारकों का योगदान था।
जिस वैदिक समाज ने उत्पादन में लौह तकनीक के प्रयोग तथा प्रसार में महती भूमिका का निर्वहन किया था, उसी समाज की अनेक प्राचीन मान्यताएँ आर्थिक–और सामाजिक प्रगति के अनुकूल नहीं थीं।
- ब्राह्मण और क्षत्रिय को व्यापार करने की मनाही थी।
- वैश्य वर्ग वर्ण व्यवस्था में तृतीय स्थान पर आता था।
- शुद्र को ब्राह्मण व्यवस्था में सबसे निम्न स्थान दिया गया था।
- स्त्रियों के सभी अधिकार जाते रहे।
- समुद्री व्यापार को वैदिक परंपरा निंदित मानती थी।
- सूद पर धन देना वैदिक परंपरा अमान्य करती थी ( आपस्तम्ब और बौधायन धर्मसूत्र )।
- भोजन–सम्बंधित आचार–विचार नागरिक जीवन के क्रिया–कलापों के प्रति समयानुकूल न रहे।
- गणिकाओं के प्रति ब्राह्मण धर्म का दृष्टिकोण नागर जीवन के प्रतिकूल था।
- वैदिक कर्मकांडों ने जहाँ पूर्व में बृहद् सामाजीकरण में भूमिका का निर्वहन किया था वही अब रूढ़ बनकर हानिप्रद होने लगी थी।
- यज्ञादिक कर्मकांडों में पशुधन की हानि से कृषि पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था।
- सबसे बढ़कर सामाजिक विभेदमूलक व्यवस्था आर्थिक व सामाजिक विकास में बाधा बन रही थी।
बौद्ध धर्म की सफलता के कारणों को हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत देख सकते हैं :—
महात्मा बुद्ध का आकर्षक और महान् व्यक्तित्व
स्वयं महात्मा बुद्ध का महान् एवं आकर्षक व्यक्तित्व बौद्ध धर्म की सफलता के पीछे एक प्रमुख कारक था। ज्ञान की प्राप्ति के बाद, उन्होंने अपने धर्म के प्रचार के लिए व्यापक भ्रमण किया। उनकी शिक्षाएँ बहुत व्यावहारिक और सरल थीं और कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अमीर हो या गरीब, उसका अनुसरण कर सकता था। इसके लिए, जाति–पाँति, छूआ–छूत और ऊँच–नीच के बीच कोई विभेद नहीं था। लोगों को प्रभावित करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। वे जहाँ जाते लोगों का मन मोह लेते थे। वे सरल और आसान भाषा में अपनी बात कहते जो लोगों के समझ में आती थीं। वे गूढ़ दार्शनिक बातों में नहीं उलझें। उनका उरुवेला में साथ छोड़ चुके पाँच ब्राह्मण हो या अंगुलिमाल हो जिस तरह से वे बुद्ध से प्रभावित हुए यह बुद्ध के महान् और आकर्षक व्यक्तित्व का प्रमाण है।
बौद्ध धर्म की सरलता
बुद्ध के व्यक्तित्व के साथ-२ उनके मत सरलता भी बौद्ध धर्म की सफलता के प्रमुख कारणों में से एक थी। उन्होंने जटिल वैदिक कर्मकाण्डों को निःसार बताया और आचरण की शुद्धता और सरलता पर विशेष बल दिया। उनके मत में कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं था। यह सभी के लिए समान रूप से खुला था। अपनी बात बुद्ध ने जनसाधारण की भाषा पालि ( मागधी) में कही जो प्राकृत का एक रूप था। बुद्ध ने कभी भी अपनी राय को बल देने की कोशिश नहीं की। वह दर्शन का प्रतिपादन नहीं करते थे। वह कहते थे कि यदि उसकी शिक्षाएँ अच्छी हैं, तभी उसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
जनभाषा का प्रयोग
जहाँ एक ओर ब्राह्मण धर्म संस्कृत भाषा का प्रयोग करता था और जनसाधारण की समझ से परे था। यद्यपि उपनिषदीय विचारधारा पर्याप्त समयोनुकूल थी परन्तु संस्कृत भाषा के प्रयोग और दर्शन के बोझ से दबी हुई विद्वान तक ही सीमित थी दूसरी ओर बुद्ध ने जनभाषा ( पालि ) का प्रयोग किया जिससे लोगों को उनकी बातें सुग्राह्य लगीं।
सामाजिक कारण : जनसाधारण का सहयोग
ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था में शुद्रों को सबसे निम्न स्थान दिया गया था और स्त्रियों के सम्बंध में भी उनपर अनेक अयोग्यताएँ लाद दी गयी थीं। समाज के अर्थव्यवस्था के आधार वैश्य वर्ग अपने तीसरे स्थान से असंतुष्ट था तो शस्त्रधारी वर्ग ब्राह्मण श्रेष्ठता को कदापि मान्यता देने को तैयार नहीं था।
बौद्ध मत में वर्ण एवं जाति व्यवस्था को ही चुनौती दे दी और बुद्ध ने उद्बाहु उद्घोषणा की कि सभी मनुष्य समान हैं। भोजन सम्बंधित विचार हो या गणिकाओं के प्रति दृष्टिकोण, बुद्ध के विचार अत्यन्त उदार थे।
बुद्ध ने संघ के द्वार बिना भेदभाव के सभी के लिए खोल दिये।
इस समय अनेक परिव्राजक और अतिवादी सम्प्रदाय अपने–अपने अनैतिक अव्यवस्थाजनक मतवादों के प्रचार में लगे हुए थे। बुद्ध ने इनका खण्डन करके एक नैतिक और समतामूलक समाज में व्यवस्थामूलक विधि–नियमों का प्रतिपादन किया।
आर्थिक कारण : तत्कालीन धनी वर्ग का सहयोग
बौद्ध मत ने इन बदलती आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नयी विचारधारा दी। समुद्री व्यापार हो या ब्याज पर धन देना बौद्ध धर्म ने मान्यता दी। इससे तत्कालीन समृद्धशाली वर्ग ने बौद्ध धर्म अपनाया और इसके प्रचा-प्रसार में महती भूमिका का निर्वाह किया। कुछ प्रसिद्ध व्यापारियों के नाम निम्न हैं :—
- यश, वाराणसी का प्रसिद्ध व्यापारी
- घोषितराम, कौशाम्बी का प्रसिद्ध व्यापारी
- मण्डक, अंग का प्रसिद्ध व्यापारी
- अनाथपिण्डक, श्रावस्ती का प्रसिद्ध व्यापारी
युद्धों से व्यापारी वर्ग को हानि उठानी पड़ती थी। अहिंसामूलक बौद्ध मत के ये सिद्धान्त व्यापार और व्यापारी वर्ग के अनुकूल थे।
समाज के धनाढ्य वर्ग को ऐसे नियमों और सिद्धांतों की आवश्यकता थी जो व्यक्तिगत सम्पत्ति की सुरक्षा और सम्पत्ति के अधिकारों को को मान्यता दे। ‘अस्तेय’ का सिद्धान्त और ‘ऋणग्रस्त व्यक्ति’ का बौद्ध संघ में अप्रवेश का नियम सम्पत्ति के अधिकार को अप्रत्यक्ष रूप से मान्यता देता था।
बुद्ध ने नवीन कृषि–प्रणाली में बाधक ‘वैदिक यज्ञीय कर्मकाण्डों’ का विरोध किया। इन कर्मकाण्डों को उन्होंने निःसार बताया।
शासक वर्ग का सहयोग
तत्कालीन शासकों; यथा— मगधराज बिंबिसार और अजातशत्रु, कोशलनरेश प्रसेनजित और वत्सराज उदयन आदि का उन्हें समर्थन मिला और इन राज्यों के लोगों ने भी खुले हृदय से बुद्ध और उनके मत का स्वागत किया।
लोहे के बढ़ते प्रयोग से सैनिक साजो–सामान और अस्त्र निर्माण में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। आजातशत्रु की सेना में ‘रथमूसल’ और ‘महाशिलाकण्टक’ जैसे नवीन उपकरणों का प्रयोग इसका उदाहरण है। परिणामस्वरूप शस्त्रधारी क्षत्रिय वर्ग अधिक शक्तिशाली हुआ। यद्यपि उपनिषद् काल से ही ब्राह्मण–क्षत्रिय तनाव के सूत्र मिलते हैं। ज्ञानमार्गी उपनिषदीय विचारधारा का नेतृत्व मुख्यरूप से क्षत्रिय वर्ग ने किया था। बुद्धकाल तक शस्त्रधारी क्षत्रिय वर्ग अपनी सामाजिक और राजनीतिक महत्ता के प्रति अधिक सचेत हो गया।
समाज में व्यवस्था स्थापित करना, कलह का अंत करना, कृषि भूमि की सुरक्षा आदि क्षत्रिय वर्ग का कर्तव्य माना जाने लगा। इसके बदले राजा कर लेने का अधिकारी समझा जाता था।
व्यापार के लिए आवश्यक था राजा के सम्बन्ध पड़ोसी राज्य से अच्छा हो, व्यापारिक मार्ग सुरक्षित हो, चोर–लुटेरों का आतंक न हो और यह सब एक सुरक्षित, शक्तिशाली और विस्तृत राज्य ही उपलब्ध करा सकता था। इस संदर्भ में यह ‘ उल्लेखनीय है कि बुद्ध राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध न थे। स्वयं अजातशत्रु ने लिच्छिवियों को पराजित करने के लिए उनसे विचार–विमर्श किया था। परन्तु बुद्ध का ‘चक्रवर्ती धार्मिक धम्म राजा’ का आदर्श आकर्षक अवश्य था।
संघ का योगदान
अपने मत को स्थिरता देने के लिए उन्होंने भिक्षुओं का एक संघ स्थापित किया। संघ का संगठन और कार्यप्रणाली गणराज्यों की प्रणाली के अनुकूल थी। प्रारंभ में, संघ में केवल पुरुष ही भिक्षु हो सकते थे, लेकिन बाद में महिलाओं के लिए भी द्वार खोल दिया। बुद्ध की मृत्यु के बाद, उनके विचारों को इस बौद्ध संघ और बुद्ध, धम्म और संघ द्वारा व्यापक रूप से प्रचारित किया गया — इन तीनों को बौद्ध धर्म के ‘त्रिरत्न‘ के रूप में स्वीकार किया गया। बौद्ध भिक्षु इन तीनों को अपनी दैनिक प्रार्थना में इस प्रकार दोहराते हैं —
बुद्धं शरणम् गच्छामि।
धम्मं शरणम् गच्छामि।
संघ शरणम् गच्छामि।
बौद्ध धर्म की समयानुकूलता
यहां यह उल्लेखनीय है कि तत्कालीन बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया। यह अवधि आर्थिक दृष्टिकोण से गंगा-घाटी में नगरीय क्रांति का दौर था। उत्तर-पूर्वी भारत में कौशाम्बी, कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली, राजगृह आदि कई शहर स्थापित किए गए जहाँ बहुसंख्यक व्यापारी और कारीगर बस गए। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था ने पहली बार द्रव्य युग ( Money age ) में अवतीर्ण हुई। सिक्के ( पंच मार्क ) व्यापक रूप से प्रसारित किए गए थे। आर्थिक समृद्धि और व्यापार-वाणिज्य की प्रगति ने कारण लोगों के दृष्टकोण में बदलाव आने लगा।
ब्राह्मण धर्म अपने ग्रामीण आधार के कारण इस प्रकार की क्रांति के लिए अनुपयुक्त था। इसलिए लोग बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए जो पूरी तरह से बदले हुए सामाजिक दृष्टिकोण और नवीन आर्थिक परिवेश के अनुकूल था। यही कारण है कि उस समय के कई धनी व्यापारियों और साहूकारों ने बुद्ध और उनके धर्म को संरक्षण और सहायता प्रदान की। कौशाम्बी घोषित, अंग के मण्डक, श्रावस्ती के अनाथपिण्डक आदि इस काल के समृद्ध श्रेष्ठि थे। उनके माध्यम से उनके सामने कोई आर्थिक कठिनाई नहीं आई और उनका धर्म व्यापक आधार प्राप्त कर सका। इसके सिद्धांत नई अर्थव्यवस्था और अधिशेष उत्पादन के आधार पर विकसित हो रहे नागर जीवन के अनुकूल थे।
उपर्युक्त सभी कारणों का बौद्ध धर्म की सफलता में न्यूनाधिक योगदान था।
इतिहासविद् रामशरण शर्मा के अनुसार बौद्ध धर्म के नये सिद्धान्त, नई आर्थिक व्यवस्था और उपज के अधिशेष पर विकसित हो रहे नागर जीवन के अनुकूल थे। नई कृषि प्रणाली, सिक्कों का प्रचलन, व्यापार की प्रगति से शासक और व्यापारी दोनों धनाढ्य हो रहे थे।
बौद्ध और जैन धर्म क्या वैदिक धर्म का सुधारवादी रूप है?