बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार

बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार

परिचय

बोधगया में ज्ञानोदय बाद महात्मा बुद्ध ने प्राप्त ज्ञान को लोगों तक पहुँचाने का निर्णय लिया। इसके लिए वे जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे। बुद्ध वर्षा ऋतु में विभिन्न नगरों में विश्राम करते और शेष आठ माह एक स्थान से दूसरे स्थान भ्रमण करके अपने मत का प्रचार करते।

 

धर्मचक्रप्रवर्तन

गया से महात्मा बुद्ध ऋषिपत्तन / मृगदाव / सारनाथ गये और यहाँ पर उन्होंने अपना प्रथम उपदेश दिया। इसी प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ कहा गया है। यह उपदेश उन्होंने उन पाँच तपस्यारत ब्राह्मणों को दिया जिन्होंने उरुवेला में उनका साथ छोड़ दिया था। इन पाँच ब्रह्मणों के नाम — कौण्डिन्य, अस्सजि, वप्प, ऑज और भद्दिय मिलता है। ऑज और भद्दिय के स्थान पर कहीं कहीं महानाम और भद्रिका नाम मिलता है।

 

बुद्ध का व्यापक भ्रमण

 

सारनाथ से बुद्ध वाराणसी पहुँचे और यहाँ पर ‘यश’ नामक व्यापारी के यहाँ रुके। यश सपरिवार और साथ में अपने सहयोगियों के साथ बुद्ध का अनुयायी बन गया। यश की माँ और पत्नी महात्मा बुद्ध की प्रथम उपासिकाएँ थीं।

अपना प्रथम वर्षाकाल बुद्ध ने ऋषिपत्तन में व्यतीत किया।

ऋषिपत्तन से महात्मा बुद्ध राजगृह गये। राजगृह में उन्होंने अपना द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ वर्षाकाल बिताया। मगध नरेश ‘बिम्बिसार’ ने बुद्ध का स्वागत किया और इनके लिए वेलुवन नामक विहार बनवाया। मगध में इनका अनेक आचार्यों से शास्त्रार्थ हुआ जिनमें ब्राह्मण, ब्राह्मणेत्तर और अन्य संन्यासी शामिल थे। इनमें से अनेकों ने बुद्ध की शिष्यता ग्रहण कर ली जिनमें प्रमुख हैं — सारिपुत्र, मौद्गल्यायन, उपाधि, अभय आदि। बुद्ध ने राजगृह से ही गया, नालन्दा पाटलिपुत्र आदि की यात्रा की और अनेकों को अपना शिष्य बनाया।

राजगृह से ही वे अपने गृहनगर कपिलवस्तु गये और अपने परिवार को दीक्षित किया। शाक्यों ने उनसे नवनिर्मित संस्थागार का उद्घाटन कराया।

कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ‘अनुपिय’ नामक स्थान पर ठहरे थे। यहीं पर शाक्य राजा; भद्रिक, अनिरुद्ध, उपाधि, आनन्द, देवदत्त को साथ लेकर मिले थे। बुद्ध ने इन सभी को अपने मत में दीक्षित किया। आनन्द को उन्होंने अपना व्यक्तिगत सेवक बना लिया। देवदत्त ने कालान्तर में बुद्ध का विरोध किया था।

राजगृह से बुद्ध लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली गये और यहाँ पर उन्होंने अपना पाँचवा वर्षाकाल व्यतीत किया। लिच्छिवियों ने उनके निवास के लिए महावन में प्रसिद्ध ‘कुटाग्रशाला’ का निर्माण कराया था। वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू ‘आम्रपाली’ उनकी शिष्या बनी और उसने भिक्षु-संघ को अपनी ‘आम्रवाटिका’ प्रदान की थी। वैशाली में ही बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को संघ में प्रवेश दिया और भिक्षुणिओं के संघ की स्थापना की थी। संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की मौसी / विमाता प्रजापति गौतमी थीं जो शुद्धोधन की मृत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वैशाली पहुँची थीं। महिलाओं को संघ में प्रवेश बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ के कहने पर दिया था।

वैशाली से बुद्ध ‘भग्गों’ की राजधानी ‘सुमसुमारिगिरि’ गये। ‘बोधिकुमार’ ने उनकी शिष्यता ग्रहण की। ( ८वाँ वर्षाकाल)

सुमसुमारगिरि से बुद्ध कौशाम्बी गये। यहाँ उन्होंने ९वाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। प्रारम्भ में वत्सराज उदयन ने बौद्ध धर्म में अनिच्छा व्यक्त की परन्तु कालान्तर में वह बौद्ध भिक्षु ‘पिण्डोला भारद्वाज’ के प्रभाव से बौद्ध बन गया। उसने ‘घोषिताराम विहार’ बौद्ध संघ को दान में दिया।

कौशाम्बी से बुद्ध मथुरा के समीप ‘विरन्जा’ नामक स्थान पर गये और यहाँ पर उन्होंने १२वाँ वर्षाकाल का वास किया।

चम्पा और कजंगल की भी यात्रा बुद्ध ने की थी और ्अनेक लोगों को दीक्षित किया था।

अवन्ति के शासक चण्ड प्रद्योत ने बुद्ध को आमन्त्रित किया था परन्तु वृद्धावस्था के कारण वे वहाँ नहीं जा सके और अपने शिष्य ‘महाकच्चायन’ को वहाँ भेंजा।

बुद्ध ने अपने मत का सर्वाधिक प्रचार कोशल राज्य में किया था और यहाँ बुद्ध के सर्वाधिक अनुयायी थे। यहाँ उन्होंने २१ वर्षाकाल बिताये थे। यहाँ का प्रसिद्ध व्यापारी ‘अनाथपिण्डक’ उनका शिष्य था और उसने ‘जेतवन विहार’ बौद्ध संघ को दान किया था। यह विहार उसने राजकुमार ‘चेत’ से १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में क्रय किया था।

कोशल नरेश ‘प्रसेनजित’ ने सपरिवार बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की थी और ‘पूर्वाराम’ ( पुब्बाराम ) नामक विहार का निर्माण संघ के लिए करवाया था।

बुद्ध जेतवन और पुब्बारम विहार में बारी-२ से निवास करते थे।

श्रावस्ती में निवास करते हुए ही बुद्ध ने ‘अंगुलिमाल’ डाकू को आपने पंत में दीक्षित किया था।

 

महापरनिर्वाण

विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए और लोगों को दीक्षित करते हुए महात्मा बुद्ध मल्लों की राजधानी ‘पावा’ पहुँचे। यहाँ ‘चुन्द’ नामक लुहार की आम्रवाटिका में वे रुके। चुन्द ने उन्हें भोजन में “सुकरमाद्दव” दिया। जिसे ग्रहण करने के बाद बुद्ध के उदर में पीड़ा प्रारम्भ हो गयी जिसे सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुँचे। यहीं पर ४८३ ईसा पूर्व ८० वर्ष की अवस्था में महात्मा बुद्ध की मृत्यु हुई जिसे “महापरिनिर्वाण” कहा जाता है।

सुकरमाद्दव — विद्वानों का मत मत है कि यह कोई वनस्पति है जोकि सुअर के मांद के समीप उगती है।

महापरनिर्वाण से पूर्व महात्मा बुद्ध ने अपने अंतिम सम्बोधन में भिक्षुओं से कहा — “सभी संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है। अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो।”

 

अंतिम संस्कार

मल्लों ने अत्यंत सम्मानपूर्वक महात्मा बुद्ध की अंत्येष्टि की। महापरिनिर्वाण सूत्र से ज्ञात होता है कि बुद्ध के शरीर-धातु को ८ भागों में विभक्त किया गया। प्रत्येक भाग पर स्तूप बनाये गये। ८ दावेदारों की सूची इस प्रकार है —

  1. पावा और कुशीनारा के मल्ल,
  2. कपिलवस्तु के शाक्य,
  3. वैशाली के लिच्छवि,
  4. अलकप्प के बुलि,
  5. रामगाम के कोलिय,
  6. पिप्पलिवन के मोरिय,
  7. वेठद्वीप के ब्राह्मण और
  8. मगधराज अजातशत्रु।

 

इस तरह बुद्ध के जीवनकाल में ही उनके मत का प्रसार भारत के समस्त मध्य क्षेत्र में हो गया। यह पूर्व में चंपा से लेकर पश्चिम में अवन्ति तक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मगध तक फैल चुका था। अब इस धर्म को मौर्य वंश के महान सम्राट अशोक की प्रतीक्षा थी जिन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का धर्म बना दिया। 

 

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