परिचय
महात्मा बुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्तन किया वह उनके जीवनकाल में ही उत्तरी भारत का एक लोकप्रिय धर्म बन गया। सम्राट अशोक ने इसे उठाकर अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। बौद्धधर्म का उत्थान और पतन विस्मयकारी है। लगभग सातवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म की निरन्तर प्रगति होती रही तत्पश्चात् उसका क्रमिक ह्रास की शुरुआत हो गयी। अन्ततोगत्वा बारहवीं शताब्दी तक यह धर्म अपनी मूलभूमि से ही विलुप्त हो गया।
उत्थान
इसकी सफलता के लिए निम्न कारण हैं :—
- महात्मा बुद्ध का व्यक्तित्व
- सरलता
- जनभाषा का प्रयोग
- मितव्ययिता और सर्वसुलभता
- बौद्ध संघ
- राजकीय संरक्षण
- सम्राट अशोक का योगदान
- व्यापारी वर्ग का योगदान
बुद्ध का व्यक्तित्व
बौद्ध धर्म की सफलता के पीछे स्वयं महात्मा बुद्ध का आकर्षण एवं प्रभावी व्यक्तित्व एक महत्वपूर्ण कारिका था। ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने स्वयं व्यापक परिभ्रमण किया। वे अपनी बात को सरल व स्पष्ट रूप से कहते थे। साथ ही स्पष्ट कहते थे कि यदि ये बातें उन्हें सही लगती हैं तभी स्वीकार करें। उनके ओजपूर्ण तर्क से लोग प्रभावित होते और शिष्यता ग्रहण कर लेते थे। उरुवेला में उनसे मतभेदोपरांत साथ छोड़कर चले गये पञ्च ब्राह्मण द्वारा ऋषिपत्तन में शिष्यता ग्रहण करना हो या श्रावस्ती के अंगुलिमाल को दीक्षित करना हो, बुद्ध के प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही उदाहरण है।
सरलता
बौद्ध धर्म का दार्शनिक एवं क्रिया पक्ष अत्यन्त सरल था। ब्राह्मण धर्म की कर्मकाण्डीय व्यवस्था से लोग ऊब चुके थे। ऐसे समय में बौद्ध धर्म ने जनता के समक्ष एक सरल एवं आडम्बररहित धर्म का विधान प्रस्तुत किया। इसके पालनार्थ किसी पण्डित-पुरोहित की आवश्यकता नहीं थी और न ही जाति एवं सामाजिक स्तर पर कोई भेद-भाव था। अतः सामाज के उपेक्षित वर्गों ने उत्सुकतापूर्वक इस धर्म का स्वागत किया।
जनभाषा का प्रयोग
महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश जनभाषा ‘पाली’ में दिये और कालान्तर में यही बौद्ध की साहित्यिक भाषा बन गयी। दूसरी ओर संस्कृत भाषा और पाण्डित्य से बोझिल ब्राह्मण धर्म था। बौद्धों की भाषाई सुगमता और बोधगम्यता ने इसे लोकप्रियता प्रदान करने में भूमिका निभाई।
मितव्ययिता और सर्वसुलभता
ब्राह्मणीय कर्मकाण्ड और क्रियाओं के अनुष्ठान में धन का अपव्यय होता था। इसे कुलीन और समृद्ध वर्ग ही सम्पादित कर पाते थे। दूसरी ओर बौद्ध धर्म था जिसमें सच्चरित्र और नैतिकता पर बल था एवं धन-व्ययिता न होने के कारण सर्वजन-सुलभ था।
संघ
बुद्ध ने ऋषिपत्तन में अपने प्रथम उपदेश ( धर्मचक्रप्रवर्तन ) के समय ही संघ की स्थापना कर दी थी। संघ ने नैतिकता एवं सच्चरित्र उच्च मापदण्ड स्थापित किये और समाज की प्रेरणा का श्रोत बन कर उभरा। संध में भिक्षु निवास करते थे और वे घूम-घूमकर धम्म का प्रचार करते रहते थे।
राजकीय संरक्षण
स्वयं बुद्ध राजपरिवार से थे और समकालीन शासकों का संरक्षण उन्हें प्राप्त हुआ। ( बिम्बिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित, उदयन, चण्ड प्रद्योत आदि )
सम्राट अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर से उठाकर अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। अशोक ने तत्कालीन ज्ञात विश्व के अनेक भागों में धर्म प्रचारक भेजे।
कनिष्क, हर्षवर्धन, पालवंशी शासकों आदि ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया।
व्यापारी वर्ग का समर्थन
बुद्ध ने बदलती परिस्थितियों के अनुसार व्यापार अनुकूल विधि-नियमों को मान्यता दी जोकि ब्राह्मण धर्म में त्याज्य था,जैसे — ब्याज पर धन देना। इसके अतिरिक्त अहिंसा, अस्तेय आदि व्यापार और व्यापारी वर्ग को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लाभ पहुँचाते थे। बुद्ध के समय से ही अनेक समृद्ध वर्ग ( अनाथपिण्डक, घोषिताराम, मण्डक, यश आदि ) इस मत से जुड़नेवाले जिससे कभी भी धनाभाव नहीं रहा।
पतन
७वीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध धर्म की निरन्तर प्रगति होती रही। तत्पश्चात् उसका क्रमिक ह्रास प्रारम्भ हुआ और अन्ततोगत्वा १२वीं शताब्दी तक यह धर्म अपनी मूलभूमि से विलुप्त हो गया। बौद्ध धर्म के अवनति काल में बिहार तथा बंगाल के पालवंशी शासकों ने उसे संरक्षण प्रदान किया परन्तु उसके बाद बौद्ध धर्म को कोई उल्लेखनीय संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। बौद्ध धर्म के पतन के निम्न कारण उत्तरदायी थे :—
- बौद्ध धर्म का विभाजन
- हिन्दू धर्म की पूजा-पद्धतियों और संस्कारों को अपनाना
- संघ में महिलाओं का प्रवेश
- वज्रयान का उदय
- प्रभावी व्यक्तियों का अभाव
- शंकराचार्य का उदय
- तुर्की आक्रमण
बौद्ध धर्म का विभाजन
बौद्ध धर्म में शनैः शनैः मतभेद की शुरुआत हो गयी और प्रथम शताब्दी ( चतुर्थ बौद्ध संगीति, कनिष्क के समय ) में यह स्पष्ट रूप से दो भागों ( हीनयान और महायान ) में विभक्त हो गया। इसके बाद यह १८ उपसम्प्रदायों में बंट गया।
हिन्दू धर्म की पूजा-पद्धति और संस्कारों को अपनाना
बौद्ध धर्म की महायान शाखा ने हिन्दु धर्म की पूजा-पद्धतियों एवं संस्कारों को अपना लिया और बुद्ध को देवता मानकर उनकी पूजा की जाने लगी। पहले बुद्ध से सम्बंधित प्रतीक चिह्नों की पूजा शुरू हुई, उसके बाद बुद्ध की मूर्ति बनायी गयी। बोधिसत्वों की कल्पना की गयी और उन्हें भी पूजा जाने लगा। बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियाँ मंदिरों में स्थापित करके पूजा की जाने लगी। इस प्रकार बौद्ध-धर्म हिन्दु धर्म के अत्यंत निकट आ गया।
संघ में महिलाओं का प्रवेश
आनन्द के आग्रह पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में प्रवेश दिया था पर यह भी कहा था कि, “नारी प्रवेश से संघ चिरस्थायी नहीं हो पाएगा।” कालान्तर में बुद्ध की यह बात सत्य सिद्ध हुई। प्रारम्भ में संघ के भिक्षु और भिक्षुणियों ने चारित्रिक उदात्तता के उदाहरण प्रस्तुत किये जो कि जनसाधारण के लिए प्रेरणास्रोत थे परन्तु शनैः शनैः उनके चरित्रिक पतन हो गये।
वज्रयान का उदय
बौद्ध धर्म में नैतिकता का स्थान तंत्र-मंत्र लेने लगा और भिक्षु अनेक गूढ़ व तान्त्रिक साधनाओं की ओर आकर्षित होने लगे। तान्त्रिक भिक्षुओं का सम्प्रदाय ‘वज्रयान’ कहलाया। ये वज्रयानी सुरा-सुन्दरी और चमत्कारों को प्राथमिकता देने लगे।बौद्ध तान्त्रिक तारादेवी की उपासना करते थे। नालन्दा उनके प्रचार का केन्द्र बनकर उभरा। धीरे-२ बौद्ध धर्म ने अपना मौलिक स्वरूप ही खो दिया।
प्रभावी व्यक्तित्व का अभाव
बौद्ध धर्म में किसी ऐसे महापुरुष का अकाल पड़ाया जो उसमें व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करके उसे नयी दिशा दे सके। दूसरी ओर हिन्दू धर्म में शङ्कराचार्य, कुमारिल, रामानुज जैसे महान आचार्यों का उदय हुआ। इन महापुरुषों ने हिन्दू धर्म की नये सिरे से व्याख्या की जिससे अधिकाधिक लोग इस धर्म की ओर आकृष्ट हुए। बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया। फलस्वरूप बहुसंख्य लोगों ने हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया।
तुर्की आक्रमण
जिस समय बौद्ध धर्म उत्तरी भारत में विभिन्न कारकों के कारण पतनावस्था की अग्रसर था उसी समय तुर्की आक्रमण हुआ। इस आक्रमण ने बौद्ध धर्म को स्थायी क्षति पहुचायी जिससे वह उभर नहीं सका और अपनी मूलभूमि से ही विनाश हो गया। नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसे बौद्ध धर्म के केन्द्रों को तुर्कों ने आक्रमण करके जलाकर नष्ट कर दिया। अनेक भिक्षुओं की की नृशंस हत्या कर दी। जो बचे वे किसी तरह प्राण बचाकर तिब्बत भाग गये। पूर्वी भारत के इन विश्वविद्यालयों पर आक्रमण का नेतृत्व मु० बिन बख्तियार खिलजी ने किया था ( १२०३ ई० )। बचे हुए कई बौद्धों ने हिन्दु या इस्लाम धर्म अपना लिया। बाद में बौद्ध धर्म को किसी प्रकार का संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। फलस्वरूप बौद्ध धर्म अपनी मूलभूमि से ही विलुप्त हो गया।
एक अन्य विचार
जी०सी०पाण्डेय कृत ‘बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास’ में एक अलग ही तर्क दिया है :—
- वे बौद्ध धर्म के पतन में तन्त्रवाद और हिन्दु धर्म के दार्शनिकों का हाथ स्वीकार नहीं करते।
- उनका कहना है कि यदि तन्त्रवाद के कारण बौद्ध धर्म का पतन हुआ तो शाक्त और शैव मत के कई उपसम्प्रदाय भी तंन्त्रवाद से प्रभावित होने के कारण इनका पतन क्यों नहीं हुआ?
- वे कहते हैं कि यदि तर्क के आधार पर बौद्ध धर्म का पतन हो जाता तो अन्य धर्म के साथ भी यह देखा गया परन्तु उनका पतन तो नहीं हुआ?
इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि वस्तुतः बौद्ध धर्म मुख्यरूप से भिक्षुओं का धर्म था जिनका जीवन विहारों में केंद्रित था।……बौद्ध विहार प्रायः राजकीय अनुदान पर निर्भर रहते थे। अतः विहारों के लोप के साथ-साथ उपासकों की क्षीण बौद्धता का विलोप अनिवार्य था।
सम्प्रति भारत में महाबोधि सभा बौद्धधर्म को पुनरुज्जीवित करने का श्लाघ्य प्रयास कर रही है।
महाबोधिसभा की स्थापना सिंहल के स्वर्गीय देवमित्र धर्मपाल ने की थी।
बौद्धधर्म के उत्थान और पतन एक जटिल प्रक्रिया का परिणाम थी। इसमें उपर्युक्त सभी कारकों ने न्यूनाधिक भूमिका निभाई।