बौद्ध दर्शन
परिचय
बुद्ध अनेक पेचीदे दार्शनिक प्रश्नों पर मौन रहे; जैसे — यह संसार नित्य और शाश्वत है अथवा नहीं। बुद्ध की मान्यता थी कि किसी रोग के कारण के बारे में जानने या वाद-विवाद में समय व्यतीत करने से उत्तम है कि उसके निदान का प्रयास तुरंत किया जाय। इस सम्बन्ध में बौद्ध धर्म अत्यंत व्यावहारिक है।
प्रमुख सिद्धान्त
अनीश्वरवाद
बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है। सृष्टि का कारण ईश्वर को नहीं माना गया है। इस सम्बन्ध में तर्क यह है कि यदि सृष्टि का रचयिता ईश्वर को माना जाय तो दुःख को उत्पन्न करने वाला भी उसे ही मानना होगा। वस्तुतः ईश्वर के स्थान पर बुद्ध ने मानव प्रतिष्ठा पर बल दिया है।
अनात्मवाद
बौद्ध धर्म में आत्मा की कल्पना नहीं है अतः यह अनात्मवादी दर्शन है। अनत्ता अथवा अनात्मवाद में यह मान्यता है कि व्यक्ति में जो आत्मा है वह उनके अवसान के साथ ही समाप्त हो जाती है। आत्मा शाश्वत या चिरस्थायी वस्तु नहीं है जो अगले जन्म में भी विद्यमान रहे। बाद में इसकी एक शाखा सामित्य में आत्मा को मान्यता दी गयी है।
कर्मफल और पुनर्जन्म
बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म को माना गया है। पुनर्जन्म के कारण ही कर्मफल का सिद्धान्त तर्कसंगत होता है। यह धर्म अनात्मवादी है तो प्रश्न यह उठता है कि इस कर्मफल का अगले जन्म में वाहक कौन है ? इसका उत्तर मिलिन्दपण्हो में मिलता है। इसमें कहा गया है कि जिस प्रकार पानी में एक लहर उठ कर दूसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है उसी प्रकार कर्मफल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है।
प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों से मिलकर बना है :-प्रतीत्य और समुत्पाद। ‘प्रतीत्य’ का अर्थ है किसी वस्तु के होने पर, ‘समुत्पाद’ का अर्थ है किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति।
इसे पालि भाषा में पटिच्च सम्मुपाद कहा जाता है।
प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है ‘संसार की सभी वस्तुएँ किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई हैं और इस तरह वे इस पर निर्भर हैं’।
इस कार्य-कारण सिद्धान्त को महात्मा बुद्ध ने सम्पूर्ण जगत् पर लागू किया।
जैसे दुःख समुदाय का कारण जन्म है उसी तरह जन्म का कारण भी कर्मफल उत्पन्न करने वाला अज्ञान रूपी चक्र है। इसी को पारिभाषिक शब्दावली में ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा गया है। इस चक्र में १२ चक्र हैं जो एक-दूसरे के उत्पन्न होने के कारण हैं। यह एक वर्तुल की तरह कार्य करते हैं। ये हैं :— (१) अविद्या, (२) संस्कार, (३) विज्ञान, (४) नाम-रूप, (५) षडायतन, (६) स्पर्श, (७) वेदना, (८) तृष्णा, (९) उपादान, (१०) भव, (११) जाति और (१२) जरा-मरण।
जीवन-चक्र के इन १२ कारणों को तीन वर्ग में बाँटा जा सकता है :—
- अविद्या और संस्कार पूर्वजन्म से सम्बंधित कारण हैं
- जाति और जरा-मरण भावी जीवन से सम्बंधित हैं।
- शेष ८ वर्तमान जीवन से सम्बंधित हैं।
यह जीवन-मरण का चक्र मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हो जाता है। मृत्यु तो केवल नवीन जीवन के प्रारम्भ होने का कारण मात्र है।
इस चक्र का अंत करने के लिए अविद्या का नाश आवश्यक है और ज्ञान ही अविद्या का उच्छेद करके मनुष्य को निर्वाण की ओर ले जाने में सक्षम है।
प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन और सिद्धान्त का मूल तत्व है। अन्य सिद्धान्त इसी में समाहित हैं और इसी से व्याख्यायित होते हैं।
जन्म का कारण ‘कर्मफल’ का सिद्धान्त इसी पर आधृत है।
अविद्या और कर्म एक-दूसरे को उत्पन्न करने में सक्रिय रहते हैं।
बौद्ध दर्शन के क्षणभंगवाद और नैरात्मवाद की व्याख्या प्रतीत्यसमुत्पाद से ही होती है।
क्षणभंगवाद
संसार की प्रत्येक वस्तु विशिष्ट परिस्थिति और कारण से उत्पन्न होती है, इसलिए संसार की सभी वस्तुएँ सापेक्ष और परिस्थिति एवं कारण विशेष पर निर्भर हैं। इसलिए सभी वस्तुएँ अस्थायी और परिमित हैं। इस कारण सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं। यही क्षण-भंग-वाद का सिद्धान्त है।
नैरात्मवाद
सभी वस्तुएँ अस्थायी और परिमित हैं। इस कारण सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं। इसी सिद्धांत से नैरात्मवाद भी सिद्ध होता है। क्योंकि सभी सांसारिक वस्तुएँ क्षणिक हैं इसलिए आत्मा भी क्षणिक और सापेक्ष है साथ ही मिथ्या भी है।
निर्वाण / मोक्ष
बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य का चरम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। निर्वाण का अर्थ है दीपक का बुझ जाना अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पा लेना। निर्वाण की प्राप्ति इसी जीवन में सम्भव है परन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।
वैदिक धर्म का मोक्ष, बौद्ध धर्म के मोक्ष से भिन्न है। वैदिक मोक्ष में आत्मा और परमात्मा का एकाकार होना मोक्ष है क्योंकि आत्मा नित्य, अविनाशी और और शुद्ध रूप में परमात्मा ही है। जबकि बौद्ध दर्शन अनात्मवाद पर आधृत है और यहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध का उच्छेदन करके जन्म मृत्यु के चक्र को समाप्त करना मोक्ष है। जन्म-मृत्यु का बंधन वैदिक मोक्ष में भी समाप्त होता है परन्तु वहाँ आत्मा और परमात्मा का एकत्व हो जाता है।