भारतीय पुरुषार्थ व्यवस्था और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं महत्त्व

भूमिका

‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’ अर्थात् ‘पुरुषार्थ’ का तात्पर्य पुरुष के लिए जो अर्थपूर्ण है, अभीष्ट है, उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करना ही पुरुषार्थ है। एक विवेकशील मनुष्य इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। इनकी संख्या चार है अतः इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्ट्य’ कहा गया है।

पुरुषार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है – पुरुष + अर्थ। शब्दकोशों में इसके दो प्रमुख अर्थ मिलते हैं — १. पुरुष के उद्देश्य एवं लक्ष्य का विषय, २. मनुष्योचित बल, पौरुष। इस संदर्भ में प्रथम अर्थ ग्रहण किया गया है। अर्थात् एक प्रज्ञावान् व्यक्ति जिन उद्देश्यों और लक्ष्यों को तक पहुँचने के लिए प्रयत्नशील रहता है वही पुरुषार्थ हैं।

मनुष्य और समाज की उन्नति के लिए प्राचीन भारतीय शास्त्रकारों ने चार पुरुषार्थों का विधान किया है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति और समाज  के सामन्जस्यपूर्ण विकास के लिए पुरुषार्थों का विधान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। यह समाज से व्यक्ति के सम्बन्ध का निर्धारण करता है और साथ ही उनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या, नियमन एवं नियंत्रण भी करता है।

पुरुषार्थों का महत्त्व

पुरुषार्थ व्यवस्था का व्यक्ति और समाज के लिए अपना एक विशेष महत्त्व है। जिसे हम निम्न प्रकार व्याख्यायित कर सकते हैं :—

  • पुरुषार्थों का क्रम तार्किक रूप से किया गया है न कि बेतरतीब।
    • बालक सबसे पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म की शिक्षा प्राप्त करता है। क्योंकि यही धर्म आने वाले समय में उसके लौकिक पुरुषार्थों ( अर्थ और काम ) को विनियमित और संयमित करने वाला होता है।
    • बालक पूर्ण वयस्क होकर गुरुकुल से निकलता है तब उसे धर्मानुसार सामाजिक व पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करना होता है। यहाँ पर वह एक साथ त्रिवर्गों का पालन करता है।
    • अपने सभी सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत दायित्वों के निर्वहन करने के बाद वह जीवन के तृतीय सोपान ( वानप्रस्थ ) में प्रवेश करता है जहाँ धर्म और मोक्ष साध्य होते हैं।
    • जीवन की अंतिम अवस्था में व्यक्ति का एकमात्र ध्येय मोक्ष हो जाता है।
  • इस तरह भारतीय व्यवस्थाकारों ने पुरुषार्थों की ऐसी क्रमिक व्यवस्था की है कि जीवन के एक निश्चित काल में एक या साथ में अन्य पुरुषार्थों की साधना की जाये।
  • यहाँ पर लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के उद्देश्य के महत्त्व को समझा गया है। इसीलिए इनका समन्वय है न कि किसी के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण।

इसके अलावा हम पुरुषार्थ-व्यवस्था के महत्त्व को उनके उद्देश्य, आश्रम व्यवस्था से सम्बंध और समाजिक संबंध को निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं :—

पुरुषार्थों का उद्देश्य

पुरुषार्थों का उद्देश्य मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक सुखों के मध्य सामंजस्य की स्थापना करना था। भारतीय परम्परा न तो  भौतिक सुखों के प्रति अत्यधिक आसक्ति की बात करती है न ही विरक्ति के मार्ग पर सरपट दौड़ की हिमायत। हमारे शास्त्रकारों ने भौतिक सुखों को आध्यात्मिक सुखों में बाधक नहीं, साधक माना है। भौतिकवाद और आध्यत्मवाद परस्पर सम्बन्धित हैं और इन दोनों के समन्वित रूप ही हमें पुरुषार्थों में मिलते हैं।

पुरुषार्थ और आश्रम व्यवस्था

पुरुषार्थों का आश्रम व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बंध है :—

  • ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का प्रमुख स्थान होता है। इसी आश्रम में वह शेष तीन पुरुषार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है जोकि उसे आगामी जीवन में काम आने वाले होते हैं।
  • गृहस्थ आश्रम में अर्थ और काम प्रमुख साध्य होते हैं, परन्तु यह धर्म द्वारा विनियमित होते हैं। इस तरह जीवन के द्वितीय सोपान में ‘त्रिवर्ग’ का एक साथ पालन किया जाता है।
  • वानप्रस्थ आश्रम में धर्म और मोक्ष साध्य हो जाते हैं। हालाँकि धर्म का प्रथम स्थान होता है।
  • संन्यास आश्रम में एकमात्र साध्य मोक्ष होता है। मोक्ष में में ही धर्म का विलय हो जाता है।

आश्रम व्यवस्था

पुरुषार्थ और उसकी समाजिक उपादेयता

इन पुरुषार्थों का समाज और मनुष्य दोनों से सम्बंध है। ये पुरुषार्थ व्यक्ति का समाज से सम्बंध को व्याख्यायित करते हुए उन्हें न्यायसंगत बनाते हैं। वास्तव में पुरुषार्थ व्यक्ति का समाज से उसके संबंधों के नियामक हैं। जब व्यक्ति उपनयन संस्कार के द्वारा विद्यार्थी जीवन में प्रवेश करता है तो वहाँ से वह चारों पुरुषार्थों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके निकलता है। एक धर्म ज्ञाता व्यक्ति ही समाज व परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों का सुचारु रूप से निर्वहन कर सकता है।

गृहस्थ आश्रम में वह काम और अर्थोपार्जन द्वारा परिवार और समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करता है। काम के द्वारा वह कुल परंपरा को बढ़ाता है।

समाज के प्रति व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन गृहस्थ आश्रम में ही करता है। इस समय वह अन्य तीन आश्रम का आधार होता है। यहीं पर वह त्रि-ऋणों से उऋण होता है और पंचयज्ञों का संपादन करता है। इस कर्त्तव्य के निर्वहन के लिए धन की आवश्यकता होती है। जिससे वह परिवार और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। इसके लिए धनार्जन के लिए वह वार्ता ( कृषि, पशुपालन, वाणिज्य-व्यापार ) करता है। परन्तु यह धनार्जन उच्छृंखल और धर्म विरुद्ध नहीं होना चाहिए।

इन्हीं कर्त्तव्यों में पितृ ऋण से मुक्ति का भी विधान किया गया है। जिसके लिए व्यक्ति विवाह करता है और संतान वृद्धि करके वंश परंपरा को बढ़ाता है। इसको काम पुरुषार्थ कहा जाता है। यह पुरुषार्थ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि से सम्बंध रखता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि काम के उच्छृंखल प्रयोग की वर्जना की गयी है। व्यक्ति अपनी विवाहिता से सम्बंध रखें और उसी से संतानसुख की प्राप्त करे।

इस तरह हम देखते हैं कि दोनों लौकिक पुरुषार्थों ( अर्थ और काम ) पर धर्म की पाबंदी लगाकर उसे विनियमित किया गया है। जिससे समाज और परिवार का संतुलित विकास होता रहे।

जीवन के तृतीय चरण ( वानप्रस्थ ) में वह परिवार और समाज के सलाहकार की भूमिका में होता है। संन्यासावस्था में वह बिल्कुल विरक्त हो व्यक्तिगत हो जाता है।

इस तरह पुरुषार्थ का समाज से गहरा सम्बन्ध है।

पुरुषार्थों का वर्गीकरण और विवरण

पुरुषार्थों की संख्या चार है :—

  • धर्म
  • अर्थ
  • काम
  • मोक्ष

भौतिकता के अंतर्गत अर्थ और काम आते हैं जबकि आध्यात्मिक श्रेणी में धर्म और मोक्ष। धर्म प्रथम पुरुषार्थ है जबकि मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य। मोक्ष की प्राप्ति में शेष तीन पुरुषार्थ सहायक माने गये हैं।

मोक्षावस्था को उपलब्ध होना सभी के लिए सम्भव नहीं है अतः कालान्तर में गृहस्थों के लिए सुसाध्य त्रिवर्ग के पालन पर बल दिया गया। इस त्रिवर्ग में धर्म, अर्थ और काम सम्मिलित हैं; दूसरे शब्दों में त्रिवर्ग में मोक्ष नहीं आता है।

सभी पुरुषार्थों के सम्यक् पालन से ही मानव जीवन का विकास सम्भव है।

यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि चार्वाक चिंतनधारा में मात्र दो पुरुषार्थों — अर्थ और काम की ही मान्यता है। इसमें धर्म और मोक्ष को मान्यता नहीं दी गयी है।

इन चारों का पुरुषार्थों का विवरण निम्नलिखित है :—

धर्म

पुरुषार्थ व्यवस्था में धर्म का प्रथम स्थान है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है — ‘धारण करना’ या ‘अस्तित्व बनाये रखना।’ धर्म मानव व समाज के अस्तित्व को क़ायम रखता है। धर्म सामाजिक व्यवस्था का नियामक है।

महर्षि कणाद के अनुसार — ‘यतोऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः।’( वैशेशिक सूत्र ) अर्थात् धर्म वह है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो। यहाँ पर अभ्युदय का अर्थ लौकिक जबकि नि:श्रेयस का अर्थ पारलौकिक उन्नति व कल्याण से है।

महाभारत के अनुसार :— ‘धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है, सभी को सुरक्षित रखता है। यह सृष्टि के संतुलन को बनाये रखता है।’( १ ) … ‘धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के लिए कल्याण के लिए की गयी है, जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है।’( २ )

‘धारणात् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।

यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥’( १ )

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’प्रभवार्थम् च भूतानाम् धर्म प्रवचनम् कृतम्।।’( २ )

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प्राचीन साहित्यों में सदाचार या आचार को धर्म का लक्षण बताया गया है। मनुस्मृति में कहा गया है कि, ‘धर्म के चार स्रोत हैं — वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मतुष्टि अर्थात् जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे।’( ३ )

’वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतत् चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥’( ३ )

वास्तव में धर्म का अर्थ उस ‘आचरण संहिता’ से है जिसके द्वारा मनुष्य संयमित होकर, विकास करते हुए अंततः ‘मोक्ष’ को उपलब्ध होता है।

भारतीय चिंतनधारा में धर्म कोई पूजा या उपासना पद्धति नहीं है। यह एक जीवन पद्धति है। धर्म एक प्रकार से आचरणात्मक औषधि है जिसके सेवन से वह अपने अंतर्निहित विकारों से मुक्त हो मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य को प्राप्त करता हुआ उन्नति व जीवन के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।

धर्म एक व्यापक शब्द है। इसमें सदाचार, सामाजिक कर्त्तव्य, व्यक्तिगत गुण आदि समाहित हैं। धर्म ‘religion’ का पर्याय नहीं है। धर्म व्यक्ति को नियंत्रित करता है और समाजिक कर्त्तव्यों के निष्ठापूर्वक पालन हेतु उसे प्रेरित करता है। धर्म द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता जिससे कि वह व्यक्तिगत और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन सम्यक् रूप से कर सके। धर्म व्यक्ति के साथ आद्योपांत रहता है। इसको कहीं-कहीं कर्त्तव्यों का संग्रह कहा गया है।

अर्थ

पुरुषार्थ व्यवस्था में धर्म के बाद अर्थ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। अर्थ का संकुचित मतलब धन या सम्पत्ति से लगाया जाता है। परन्तु प्राचीन शास्त्रकारों अर्थ की व्याख्या व्यापक रूप से की है।

मनुष्याणां वृत्तिः अर्थः।( अर्थशास्त्र ) अर्थात् जो भी विचार और क्रियाएँ भौतिक जीवन से जुड़ी हैं उन्हें अर्थ कहा गया है।

अर्थ उन समस्त साधनों और आवश्यकताओं से है जिनके माध्यम से व्यक्ति भौतिक या लौकिक सुखों एवं ऐश्वर्य की उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है। साधनों में वार्ता, राजनीति आदि समाहित है। वार्ता से धन की व्यवस्था जबकि राजनीति से शक्ति प्राप्त की जाती है। वार्ता में कृषि, पशुपालन और वाणिज्य सम्मिलित है। इस तरह अर्थ से उसे समस्त सुख-सुविधा के संसाधन उपलब्ध होते हैं।

‘धन परमधर्म है, जिस पर सभी वस्तुएँ निर्भर करती हैं। जिसके पास अर्थ नहीं है वे मृतक तुल्य हैं जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुखपूर्वक निवास करते हैं।’( ४ ) अर्थाभाव में जीवनयापन सम्भव नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि, ‘धनं मूलम् जगत्।’( आचार्य बृहस्पति ) प्रसिद्ध आचार्य चाणक्य ‘अर्थ को प्रधान तत्त्व के रूप में निरूपित करते हैं।’( ५ ) ‘जिसके पास धन है वही कुलीन है, पण्डित है, वेदों का ज्ञाता है, गुणवान् है, वक्ता हैं और दर्शनीय है। सभी गुण धन में ही होते हैं।’( ६ )

’धनमाहुः परमं धर्म धने सर्वम् प्रतिष्ठम्।

जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः॥’( ४ ) 

( उद्योगपर्व, महाभारत )

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‘अर्थ एव प्रधानः। अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति।’( ५ )

( आचार्य चाणक्य )

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‘यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्त्ता स च दर्शनीयः सर्वेगुणाः काञ्चनमाश्यन्ति॥’( ६ )

( नीतिशतक )

यहाँ यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है प्राचीन शास्त्रकारों ने अर्थ के उच्छृंखल प्रयोग की बात नहीं की है। अर्थ का उपयोग धर्म द्वारा विनियमित करने की बातें बार-बार दुहरायी गयी है। धर्मविरुद्ध अर्थोपार्जन का निषेध किया गया है। जिस अर्थ से धर्म की हानि होती है वह अस्वीकार्य है। मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है — ‘मनुष्य को धर्मानुकूल सभी सुखों का उपभोग करना चाहिए।’ ( ७ ) आपस्तम्ब ने कहा है कि धर्मानुसार सभी सुखों का उपभोग करना चाहिए।

’परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।

धर्मचाप्य सुखोदर्कं लोक विक्रुष्टमेव च॥’( ७ )

निष्कर्ष रूप में भारतीय जीवन दर्शन में ‘अर्थ’ वहीं तक स्वीकार्य है जहाँ तक वह धर्मसंगत है।

काम

भारतीय शास्त्रकारों के अनुसार तृतीय पुरुषार्थ ‘काम’ है। इसका तात्पर्य इंद्रिय सुख और वासना है। व्यापक अर्थ में काम की व्याख्या मानव की सहज प्रवृत्तियों और इच्छाओं से है। ‘काम मन और हृदय का वह सुख है जो इंद्रियों के विषयों से संयुक्त होने पर निःसृत होता है।’( ८ )

’इंद्रियाणां च पञ्चामाम् मनसो हृदयस्य च।

विषये वर्तमानानां या प्रीतिरूप जायते।

स काम इति मे बुद्धिः कर्मणां फलमुक्तम्॥’( ८ )

( वनपर्व, महाभारत )

‘काम’ संसार की प्रथम और प्रमुख प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति के वशीभूत हो व्यक्ति संतानोत्पत्ति करता है, गृहस्थ जीवन के विभिन्न आनन्दों का उपभोग करता है और परस्पर आकर्षित होता है।

प्राचीन शास्त्रों में काम के धर्मानुकूल आचरण की बात की गयी है। उच्छृंखल काम का उपभोग करने से व्यक्ति का अधःपतन हो जाता है और व्यक्ति के पतन से समाज भी पतनावस्था की ओर बढ़ चलता है।

काम के निरंकुश उपयोग करने के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवदगीता का स्पष्ट कथन है कि — ‘काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है। काम की तृप्ति न होने पर क्रोध और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है। मोह से स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धनाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है।’( ९ ) आगे श्रीकृष्ण स्वयं को सभी प्राणियों में ‘धर्मयुक्त काम’ बताया है।( १० ) मत्स्यपुराण के अनुसार — ‘धर्मरहित काम बन्ध्या पुत्र के समान है।’( ११ ) महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि, ‘जो व्यक्ति धर्मविहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है और कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र बनाया जाता है।’( १२ )

’ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥’( ९ )

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‘धर्माऽविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।’( १० )

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’धर्महीनस्य कामार्थो बन्ध्यासुत समौ ध्रुवम्।’( ११ )

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‘धर्मार्थावभिसंत्यज्य संरम्भं योऽनुमान्यते।

हसन्ति व्यसने तस्य दुर्हदो न चिरादिव॥’( १२ )

स्पष्टरुपेण हिन्दू शास्त्रकारों ने धर्म संवलित काम के आचरण पर दिया है। इससे व्यक्ति का सम्यक् विकास होता है। काम के उच्छृंखल उपभोग व्यक्ति और समाज दोनों के लिए घातक है।

मोक्ष

भारतीय चिंतन धारा में मोक्ष को जीवन का अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया गया है। चार्वाक दर्शन के अलावा सभी विचारधाराओं में इसे मान्यता प्राप्त है।

मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म या आवागमन के चक्र से मुक्त हो परमात्मा से आत्मा का एकाकार हो जाना। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का ही अंश है अतः उसमें भी वही गुण विद्यमान हैं। इस तरह वह भी अजर, अमर और नित्य है।

शरीर को बंधन का कारण बताया गया है और जगत् को मायाजाल। जब व्यक्ति इस तथ्य को जान लेता है तब वह सभी लौकिक विषयों से स्वयं को हटाकर परमात्मा में ध्यान लगाता है।

मोक्ष प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं — ज्ञान, भक्ति और कर्म। गीता में इन तीनों मार्गों का समन्वय मिलता है।

उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के बारे में सूक्ष्म विश्लेषण मिलता है। उपनिषद् मुख्यतया ‘ज्ञानमार्गी’ हैं। यहाँ पर आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य ही मोक्ष कहा गया है। ज्ञान प्राप्ति के लिए इंद्रिय और मन का संयम आवश्यक है। व्यक्ति को सांसारिक भोगों से विरक्त होना होता है। व्यक्ति को संसार की अनित्यता का ज्ञान और मुमुक्षु होना चाहिए। इन सब गुणों से युक्त व्यक्ति को एक योग्य गुरू के पास जाना चाहिए जहाँ गुरू उसे ‘तत् त्वम् असि’ का ज्ञान कराता है। इसका मनन करते हुए वह जब ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अवस्था को उपलब्ध होता है तब उसे पूर्ण ज्ञान होता है और यही मोक्ष है। मोक्षावस्था में सभी दुःखों का नाश हो जाता है और मनुष्य को परमानन्द की प्राप्ति होती है। इस अवस्था में ज्ञानी ( आत्मा ) और ज्ञेय ( परमात्मा ) में कोई भेद नहीं होता है।

सामान्यतः सभी भारतीय दर्शनों में अविद्या और अज्ञान को बंधन का कारण माना गया है। इसलिए मुक्ति के लिए अज्ञान का नाश आवश्यक माना गया है।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘काम व क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं। इंद्रिय, मन और बुद्धि पर नियंत्रण प्राप्त व्यक्ति को स्वयमेव मोक्ष उपलब्ध हो जाता है।’( १३ ) इसमें भक्ति के महत्व को रेखांकित करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर की कृपा वांछनीय बताया गया है — ‘सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा।’( १४ ) फिरभी गीता ज्ञान और कर्म के महत्व को नकारती नहीं है बल्कि इसका सुंदर समन्वय स्थापित करती है।

’काम क्रोध विमुक्तानां यतीनां यत चेतसाम्।

अभितो ब्रह्म निर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥’

यतेन्द्रिय मनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्ष परायणः॥

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥’( १३ )

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‘सर्व धर्मान् परित्यज मामेकं शरणं ब्रज।

अहं त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥’( १४ )

मनुस्मृति के अनुसार इंद्रिय निरोधी, राग-द्वेष रहित और अंहिसा परायण मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त करता है।( १५ ) पुराणानुसार दया, समभाव, क्षमा, अक्रोध, सत्य, लोभ-मोह-कामादिक दुराचरणों से निवृत्ति को मोक्ष के लिए आवश्यक बताया गया है।

’इंद्रियाणाम् निरोधेन रागद्वेष क्षयेण च।

अहिंसया च भूतानां अमृतत्वाय कल्पते॥’( १५ )

जैन और बौद्ध धर्म में भी अविद्या को बंधन का कारण बताया गया है। जैन चिंतनधारा में त्रिरत्न तो बौद्धधर्म में अष्टांगिक मार्ग से अविद्या के नाश का विधान किया गया है।

अतः हिन्दू जीवन दर्शन का परम लक्ष्य मोक्ष था। इसका ज्ञान विद्यार्थी को उसके ब्रह्मचर्य आश्रम में ही करा दिया जाता था। व्यक्ति जीवन-पर्यंत अपनी समस्त क्रियाओं को इसी दिशा में नियोजित करता था। मनुष्य अपने सभी सामाजिक दायित्वों के निर्वाह के बाद अपने जीवन के अंतिम सोपान ( संन्यास आश्रम ) में स्वयं को मोक्ष प्राप्ति के लिए नियोजित कर देता था।

निष्कर्ष

पुरुषार्थ जैसी व्यवस्था संसार के किसी अन्य संस्कृति में अप्राप्य है। यह भारतीयों की अपनी अद्वितीय प्रणाली है।

इसमें भौतिकता का आध्यात्म के साथ समन्वय मिलता है। यहाँ न तो प्रवृत्ति का निषेध है न ही निवृत्ति की अंधदौड़। आसक्ति और त्याग के दो कूलों के मध्य जीवन निर्झरिणी कल-कल बहती हुई अंततः परमात्मा रूपी सागर में अपनी यात्रा पूर्ण करती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त करती है।

मनुस्मृति के अनुसार — ‘कुछ लोगों के अनुसार व्यक्ति का लाभ केवल धर्म और अर्थ में है, कुछ के मतानुसार यह काम और अर्थ में है, जबकि कुछ लोग केवल धर्म में ही लाभ देखते हैं। परन्तु वास्तव में मानव का कल्याण त्रिवर्ग के समुचित समन्वय में निहित है।’( १६ )

’धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च।

अर्थ एवेह वा श्रेयस् त्रिवर्ग इति तु स्थितिः॥’( १६ )

दूसरी ओर कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि लौकिक दृष्टि से अर्थ एवं काम महत्वपूर्ण हैं जबकि पारलौकिक दृष्टि से मोक्ष एकमात्र अभीष्ट है और शेष तीन पुरुषार्थ इसमें सहायक मात्र हैं।

काम और अर्थ साधन जबकि धर्म और मोक्ष साध्य हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म प्रमुख रहता है। गृहस्थ आश्रम में अर्थ और काम का उपभोग धर्म द्वारा विनियमित होता है अर्थात् जीवन के इस द्वितीय सोपान में त्रिवर्ग ( तीन पुरुषार्थ ) का एक साथ उपभोग होता है।  तृतीय आश्रम में धर्म और मोक्ष अनुशीलन किया जाता है जबकि संन्यास आश्रम में मोक्ष ही एकमात्र ध्येय रह जाता है।

 

आश्रम व्यवस्था

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