दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत
भूमिका
दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत की सभ्यता और संस्कृति से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। यह प्रभाव शासन व्यवस्था, समाज, भाषा और साहित्य, धर्म एवं कला आदि क्षेत्रों पर वर्तमान में भी देखा जा सकता है।
शासन व्यवस्था पर प्रभाव
- इस क्षेत्र के शासक ‘महाराज’ की उपाधि धारण करते थे।
- शासक ‘दैवी उत्पत्ति’ में विश्वास करते थे। चम्पा के एक लेख में राजा को ‘पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता’ कहा गया है। मृत्यु के उपरान्त शासकों की मूर्तियाँ लगायी जाती थीं।
- शासक प्रशासन, सैन्य व न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
- यहाँ पर भी चतुरंगिणी सेना रखने का प्रचलन था। सेनापति को महासेनापति कहा जाता था।
- सैद्धांतिक रूप से शासक निरंकुश था परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा नहीं था।
- शासन व्यवस्था धर्मशास्त्रानुसार चलाये जाते थे। इस सम्बन्ध में मनु, नारद और भार्गव जैसे धर्मशास्त्रों का अनुसरण किया करते थे।
- सम्राट को ‘वर्ण व्यवस्था का व्यवस्थापक’ और ‘धर्मज्ञ’ होना आवश्यक बताया गया था।
- प्रजापालन और प्रजारक्षण सम्राट का प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया है।
- यहाँ के साम्राज्यों को प्रांतों में विभाजित किया जाता था और इन प्रांतों के राज्यपाल राजपुत्रों को नियुक्त किया जाता था।
- दिग्विजय का आदर्श सम्राट रखते थे।
समाज
- दक्षिण-पूर्व एशियाई समाज में चातुर्वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का प्रचलन था। इण्डोनेशिया के लेखों में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। जावा के साहित्य और लेखों में ब्राह्मण और क्षत्रियों का वर्णन मिलता है।
- ’तत्व निंग व्यवहार’ नामक प्राचीन ‘जावानी रचना’ में चातुर्वर्ण की उत्पत्ति ऋग्वेद के पुरुष सूक्त जैसी बतायी गयी है।
- चातुर्वर्ण के व्यवसायों का वर्णन भी यहाँ के अभिलेखों और रचनाओं में मिलता है।
- ब्राह्मण अध्ययन-अध्यापन जबकि क्षत्रिय युद्ध व शासन के कार्यों में लगे रहते थे। इनकी गणना समाज के उच्च वर्गों में होती थी।
- दासत्व का प्रचलन था।
- स्त्रियों की दशा सम्माननीय थी। यहाँ पर्दा-प्रथा अप्रचलित थी। स्त्रियाँ शासन और राजनीति में भाग लेती थीं। जावा के शासक ऐरलंग के लेख से पता चलता था कि वह अपनी रानियों के साथ राजसभा में बैठता था। इसी तरह विष्णुवर्धन के बाद उसकी पुत्री ने शासन कार्य सम्भाला। इन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता थी। ये अपना जीवनसाथी चुनती थीं।
- सती प्रथा का प्रचलन था।
- विवाह एक पवित्र संस्कार था। सामान्यतः सवर्ण विवाह किये जाते थे परन्तु अन्तर्जातीय विवाह का अप्रचलन भी नहीं था।
- यहाँ के लोगों की भेष-भूषा भारतीयों से प्रभावित थी। स्त्री व पुरुष दोनों आभूषण प्रेमी थे।
- संगीत, नाटक, नृत्य, स्त्रियों का सामूहिक नृत्य, शतरंज, कठपुतली आदि मनोरंजन के साधन थे। वीणा, मृदंग, सितार, बांसुरी आदि प्रमुख वाद्ययंत्र थे।
- मदिरापान और पान खाने का प्रचलन था।
- चावल मुख्य खाद्यान्न था।
भाषा और साहित्य पर प्रभाव
इस क्षेत्र के विभिन्न राज्यों की शिक्षा और साहित्य पर संस्कृति भाषा का व्यापक प्रभाव पड़ा। यहाँ से पर्याप्त संख्या में संस्कृति भाषा में लिखे अभिलेख मिलते हैं। यहाँ पर ब्राह्मण, बौद्ध और जैन ग्रंथों का अध्ययन किया जाता था। यहाँ के विद्वानों ने भारतीय साहित्यों के अनुकरण पर ‘इण्डो-जावानी साहित्य’ का विकास किया। इण्डो जावानी साहित्य मूल भारतीय साहित्य और उनके अनुवाद से भरी पड़ी हैं।
- जावा में महाभारत और कालिदास की रचनाओं के आधार पर अनेक रचनाओं का प्रणयन किया गया; जैसे — अर्जुन विवाह, भारत युद्ध, स्मरदहन, सुमनसान्तक आदि।
- भारतीय स्मृति और पुराणों के आधार पर अनेक ग्रंथों का की रचना की गयी।
- ‘अर्जुन विवाह’ की रचना ऐरलंग ( १०१९ – १०४२ ई० ) के शासनकाल में की गयी थी।
- ‘कृष्णायन’ में श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण और जरासंघ-वध का वर्णन है। यह रचना कडिरि के शासनकाल में की गयी थी।
- कालिदास की रचना रघुवंश, कुमारसंभव के आधार पर क्रमशः ‘सुमन सान्तक’ और ‘स्मरदहन’ की रचना की गयी थी।
- महाभारत के उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि पर्वों के आधार पर ‘भारत युद्ध’ नामक ग्रंथ की रचना की गयी।
धर्म और धार्मिक जीवन पर प्रभाव
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में हिन्दू और बौद्ध धर्म का बोलबाला था। बर्मा और स्याम में बौद्ध धर्म का प्रचलन था जबकि अन्य क्षेत्रों में पौराणिक हिन्दू धर्म का बोलबाला था।
हिन्दू धर्म
यहाँ पर त्रिदेवों ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) की पूजा लोकप्रिय थी।
शिव के विभिन्न प्रतीकों की पूँजी की जाती थी। महेश के रौद्र और सौम्य दोनों रूपों की पूजा की जाती थी। महादेव व महाकाल के नाम से पूजा की जाती थी। शिव की शक्ति, पार्वती / उमा साथ ही उनके पुत्र गणेश और कार्तिकेय की भी पूजा की जाती थी। गणेश को विध्न-विनायक के रूप में पूजा जाता था।
विष्णु की पूजा पुरुषोत्तम, नारायण, माधव आदि नामों से की जाती थी। उनकी विभिन्न स्थानों से चतुर्भुजी मूर्तियाँ मिलती हैं। उनके प्रतीक के रूप में शंख, चक्र, गदा और पद्म का अंकन मिलता है। चम्पा से शेषशायी विष्णु की मूर्ति मिलती है। कम्बुज के अंकोरवाट में विष्णु मन्दिर का निर्माण कराया गया। राम, कृष्ण, मत्स्य, वाराह, नृसिंह आदि की मूर्तियाँ बनवायी गयीं।
ब्रह्मा की मूर्तियाँ चतुर्मुखी बनायी गयीं। उनके वाहन को हँस के रूप में अंकित किया गया है। उनके हाथ में माला, चमर, कमल और कमण्डल दिखाया गया है। ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती की भी मूर्तियाँ मिलती हैं।
तीनों देवताओं को एक साथ मिलाकर ‘त्रिमूर्ति’ की पूजा का भी प्रचलन था।
इन देवताओं के अतिरिक्त यम, वरुण, अग्नि, इन्द्र, कुबेर, सूर्य, चन्द्र आदि की भी पूजा की जाती थी।
बौद्ध धर्म
इस धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों का प्रचलन इस क्षेमेन्द्र हुआ। इत्सिंग के अनुसार श्रीविजय बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। आठवीं शताब्दी से महायान मत का प्रचलन होने लगा और यह मलाया के अलावा सुमात्रा एवं जावा में तेजी से फैलने लगा। बौद्ध धर्म के प्रचार में शैलेंद्र वंशी शासकों को प्रमुख योग था। जावा का ‘बोरोबुदूर स्तूप’ यहाँ पर बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का स्मारक है।
निष्कर्ष
धीरे-२ ब्राह्मण और बौद्ध धर्म के समन्वय का प्रयास भी किया जाने लगा। विष्णु, शिव और बुद्ध को परस्पर संयुक्त कर पूजा करके पूजा करने की भावना बलवती होती गयी। जैन धर्म को छोड़कर भारत के लगभग सभी सम्प्रदायों का प्रचलन इस क्षेत्र में हुआ। यहाँ के निवासी वैदिक यज्ञादि करते थे, दान और पुण्य करते थे। यहाँ रामायण और महाभारत पर्याप्त रूप से लोकप्रिय था।
कला और स्थापत्य
मंदिरों, स्तूपों और मूर्तियों सेदक्षिण-पूर्व एशिया के कला और स्थापत्य के वैभव की झलक मिलती है। प्रसिद्ध कला विशेषज्ञ कुमारस्वामी ने तो दक्षिण-पूर्व एशियाई कला को भारतीय कला का ही एक अंग माना है। इनमें से कुछ प्रमुख निम्न हैं :—
- जावा का बोरोबुदूर स्तूप, प्रांबोनन घाटी के मंदिर और लोरोजोंगरम् मंदिर
- कम्बोज में अंकोरवाट का विष्णु मंदिर
- ब्रह्मदेश का आनंद मंदिर
- चम्पा में स्थित माईसेन और पोनगर का मंदिर
- अंकोरथोम का बेयोन मंदिर
अंकोरथोम
अंकोरथोम का अर्थ ‘महान नगर’ है। इसकी स्थापना १२वीं शताब्दी में जयवर्मन् सप्तम ( ११८१ – १२१८ ई० ) ने की थी। यह कम्बुज की राजधानी बना। यह ९ वर्ग किमी॰ का वर्गाकार नगर था। यह गहरी खाई और दीवारों से सुरक्षित था। प्रवेश के लिए खाई पर ५ पुलों का निर्माण किया गया था और इनपर उत्तुंग शिखरयुक्त तोरणद्वार निर्मित थे। इनके परिसर में राजमहल, तड़ाग, मंदिर आदि बनाये गये थे।
अंकोरवाट का विष्णु मंदिर
अंकोरथोम के निकट स्थित अंकोरवाट का मंदिर विष्णु को समर्पित था। इसका निर्माण १२वीं शताब्दी में कम्बुज के ख्मेर वंशी शासक सूर्यवर्मन् द्वितीय ने कराया था।
इसका परिसर ०·९९ किमी॰² है ( १००५ × ९८७ मी॰ )। परिसर खाई और दीवार से घिरा है। मंदिर ६६ × ७० मी॰ के क्षेत्र में निर्मित है। मंदिर का मुख्य शिखर ७० मी॰ ऊँचा है। मंदिर की की दीवारों पर रामायण व महाभारत की कथाओं को लेखबद्ध किया गया है। सम्पूर्ण मंदिर प्रस्तर निर्मित है और कहीं भी चूने या पलस्तर का उपयोग नहीं किया गया है।
वर्तमान कम्बोडिया के राष्ट्रध्वज में इसे स्थान मिला है और यह यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में भी सम्मिलित है।
जावा का बोरोबुदूर स्तूप
इसका निर्माण शैलेंद्र वंशी शासकों के संरक्षण में ८वीं से ९वीं शताब्दी के मध्य हुआ। इसमें कुल ९ चबूतरे हैं जिनमें से ६ वर्गाकार और शेष ऊपरी ३ गोलाकार हैं। ऊपरी चबूतरे पर मध्य में एक बड़ा स्तूप है और उसके चारों ओर ७२ छोटे स्तूप हैं। यहाँ पर बुद्ध की कई मुद्राओं ( जैसे – भूमिस्पर्श, वरद, अभय, घर्मचक्रप्रवर्तन, ध्यान आदि ) में मूर्तियाँ मिलती हैं। इनकी संख्या कोई ४३२ है।
केन्द्रीय स्तूप में बुद्ध की ध्यान मुद्रा की एक मूर्ति है। चबूतरों की दीवारों पर जातक कथाओं का अंकन मिलता है। मजूमदार ने इसे ‘विश्व का ८वाँ आश्चर्य’ बताया है। वर्तमान में यह यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में सम्मिलित है।
प्रांबोनन घाटी के हिन्दू मंदिर
प्रांबोनन घाटी, जावा में स्थित त्रिदेवों समर्पित एक विशाल मंदिर परिसर है। यह यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में सम्मिलित है। इसमें त्रिदेवों के वाहनों का भी अंकन है। मंदिर की दीवारों पर रामायण की कथा का अंकन किया गया है।
म्यांमार का आनंद मंदिर
इसका निर्माण १२वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में बगान साम्राज्य काल में किया गया था। यह बर्मा के पगान में स्थित है। इसका क्षेत्रफल ५६४ फुट के वर्गाकार परिसर में हुआ है। मुख्य मंदिर ईंटों से निर्मित है। मध्य में एक विशाल बुद्ध प्रतिमा ( ≈ ९·५ मी॰ ऊँची ) है और दीवारों पर जातक कथाएँ अंकित हैं।
निष्कर्ष
इस प्रकार दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत के सम्बन्ध प्राचीन काल से शुरू हो गये थे। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रभाव आज भी इन देशों में दिखता है।
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध
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