जैन धर्म के सिद्धांत या शिक्षाएँ

जैन धर्म की शिक्षाएँ

जैन धर्म में संसार को दुःख-मूलक माना गया है। मनुष्य जरा ( वृद्धावस्था ) और मृत्यु से ग्रस्त है। मानव को सांसारिक तृष्णाएँ घेरे रहती हैं।

संसार का त्याग एवं संन्यास ही मानव को सच्चे सुख की ओर ले जाता है।

संसार नित्य है जोकि अनादि काल से विद्यमान है और इसका सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है।

सभी प्राणी संचित कर्मों का फल भोगते हैं और यही कर्मफल जन्म और मृत्यु का कारण है। इस कर्मफल से मुक्ति या छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है।

कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है कि संचित कर्म समाप्त हों और वर्तमान जीवन में कर्मफल का संचय न हो। इसके लिए महावीर स्वामी त्रिरत्न अनुशीलन का विधान देते हैं :—

  • सम्यक् दर्शन
  • सम्यक् ज्ञान
  • सम्यक् आचरण

सत् में विश्वास को सम्यक् दर्शन कहा गया है। सद्रूप का शंकारहित और वास्तविक ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहा गया है। सांसारिक विषयों से उत्पन्न दुःख-सुख के प्रति समभाव रखना सम्यक् आचरण है।

इन त्रिरत्नों में सम्यक् आचरण पर सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इस सम्बंध में स्वामी महावीर ने पञ्च महाव्रतों का विधान किया है जोकि निम्न हैं :—

  • सत्य
  • अहिंसा
  • अस्तेय
  • अपरिग्रह
  • ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य को छोड़कर शेष चार पार्श्वनाथ की शिक्षा में शामिल थे। पाँचवा, ब्रह्मचर्य को स्वामी महावीर ने जोड़ दिया।

अहिंसा जैन धर्म में अव्यावहारिक स्तर तक पहुँच जाती है।

पञ्च अणुव्रत :-  गृहस्थ जीवन के लिए पञ्च महाव्रत की कठोरता को सरल किया गया था और इसे अणुव्रत कहा गया है।

तीन गुणव्रत :- गृहस्थ के लिए पञ्च अणुव्रत के अलावा तीन गुणव्रत को अनिवार्य बताया गया है :—

  • कार्यक्षेत्र सीमा निर्धारण
  • योग्य और अनुकरणीय कार्य करना
  • भोजन एवं भोग की सीमा का निर्धारण

चार शिक्षा व्रत :— गृहस्थों के लिए चार शिक्षा व्रतों का निर्धारण किया गया है जो निम्न है :—

  • देशविरति
  • सामयिक व्रत
  • प्रोपोद्योपवास
  • वैया वृत्य

कायाक्लेश  का जैन धर्म में विशेष महत्व है। इसके अन्तर्गत उपवास द्वारा आत्महत्या तक का विधान है। महावीर स्वामी ने स्वयं कठोर काया-क्लेश द्वारा कैवल्य को प्राप्त किया था। काया-क्लेश द्वारा आत्मोत्सर्ग को संलेखना या निषिद्ध पद्धति कहा जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला में इसी पद्धति से प्राणोत्सर्ग किया था।

दिगम्बर सम्प्रदाय में सल्लेखना जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे संथारा प्रथा कहा गया है।

 

पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं में अंतर

पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं में मुख्य रूप से दो अंतर है :—

  • पार्श्वनाथ ने ‘चतुर्याम धर्म’ की व्यवस्था की थी। महावीर ने उसमें ब्रह्मचर्य को जोड़कर ‘पञ्च महाव्रत’ बना दिया।
  • पार्श्वनाथ वस्त्र पहनने के विरुद्ध नहीं थे परन्तु महावीर स्वामी ने सांसारिकता से सम्पूर्ण विरक्ति के लिए नग्नता को अनिवार्य माना। कालांतर में वस्त्र पहनने और नग्नता के प्रश्न पर जैन धर्म श्वेतांबर और दिगंबर साम्प्रदाय में विभाजित हो गया।

 

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