भूमिका
एलोरा महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जनपद में स्थित है। यह औरंगाबाद से २९ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम और अजन्ता से १३५ किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में है। पास में ही ‘वेलगंगा नदी’ प्रवाहित होती है। यहाँ से मिले उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार इसका प्रचीन नाम ‘एलापुर अंचल’ था। इसका एक अन्य नाम ‘वैरूल’ भी मिलता है। प्राचीन समय में इसकी ख्याति अजंता के समान ही थी और आज भी इसका नाम साथ-साथ लिया जाता है ( अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ )।
खड़ी बेसाल्ट पहाड़ी को काटकर यहाँ अनेक गुफा मंदिरों ( Cave Temple ) का निर्माण कराया गया जिसमें से ३४ आमजन के लिए खुली हुई हैं और इनके कलात्मक विवरण उपलब्ध हैं। इस पहाड़ी का नाम चरणांद्री पहाड़ी ( Charanandri Hills ) है। ये मंदिर ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इन गुहा मंदिरों का निर्माण राष्ट्रकूटकाल में कराया गया। इसपर चालुक्य और पल्लव कला का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
इतिहास
वातापी के चालुक्यों के बाद दक्कन में राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हुई। राष्ट्रकूट अपने पूर्ववर्ती चालुक्यों के समान ही उत्साही निर्माता और कला व संस्कृति के प्रश्रयदाता थे। इन्हीं के संरक्षण में एलोरा, एलीफैंटा, जागेश्वरी, मण्डपेश्वर जैसे स्थान कला और संस्कृति के स्थान बनकर उभरे। ये कलात्मक गतिविधियाँ राष्ट्रकूट शासकों के कला प्रेम और संस्कृति के संरक्षक, राज्य की सम्पन्नता एवं राजनीतिक सत्ता के सामर्थ्य के द्योतक हैं।
राष्ट्रकूट राजवंश की स्थापना दंतिदुर्ग ( ७३५ – ७५६ ई० ) ने वातापी के चालुक्यों को पराजित करके की। दंतिदुर्ग ने मान्यखेत ( मालखेड़ ) को अपनी राजधानी बनायी। मान्यखेत कर्नाटक राज्य के गुलबर्गा जनपद में स्थित है। इसी के संरक्षण में दशावतार गुफा मन्दिर का निर्माण हुआ था।
दंतिदुर्ग के बाद उसके चाचा कृष्ण प्रथम ( ७५६ – ७७३ ई० ) सिंहासनारूढ़ हुए। इन्हीं के शासनकाल में एलोरा के विश्वविख्यात ‘कैलाश मन्दिर’ का निर्माण हुआ। कैलाश मन्दिर के सूक्ष्मावलोकन से विदित होता है कि इस मन्दिर का मौलिक निर्माण तो कृष्ण प्रथम के समय हुआ परन्तु इसमें तक्षण कला, चित्रकारी, सजावट व अन्य अलंकरण का कार्य लगभग एक शताब्दी तक चलता रहा था।
एलोरा – विश्व विरासत स्थल
यूनेस्को ने एलोरा की गुफाओं को सांस्कृतिक वर्ग’ में सन् १९८३ ई० में ‘विश्व विरासत स्थल’ के रूप में घोषित किया।
यूनेस्को द्वारा निर्धारित १० मानदण्डों में से यह स्थल तीन मानदण्डों ( criterion ) को पूरा करता है –
- मानदण्ड – एक
- मानदण्ड – तीन
- मानदण्ड – छह
एलोरा : विश्वदाय स्थल एलोरा को प्राचीन समय में वेरूल नाम से जाना जाता था और यह एक प्रचीन तीर्थस्थल रहा है। एलोरा की ३४ गुहाओं का निर्माण ६०० वर्षों की अवधि में हुआ है — ५वीं से ११वीं शताब्दी तक )। एक सीधी रेखा में स्थित इन गुहाओं में बौद्ध मठ और विहार ( गुफाएँ १ – १२ ) दक्षिणी सिरे पर स्थित हैं; हिन्दू मन्दिर ( गुफाएँ १३ – २९ ) मध्य भाग में स्थित हैं; और जैन मन्दिर ( गुफाएँ ३० – ३४ ) उत्तरी सिरे पर स्थित हैं। एलोरा का अद्भुत कैलाश मन्दिर ( गुहा १६ ), यहाँ सबसे आकर्षक है। यह विश्व की सबसे बड़ी एक शिला ( monolithic ) संरचना है। बौद्ध गुफाओं में महात्मा बुद्ध, बोधिसत्वों और बौद्ध धर्म के देवी-देवताओं के चित्र बनाये गये हैं। गुफा की दीवारों पर गोलाकार चित्रों, बेलबूटों और पुष्पों से सुन्दर कलात्मक नक्काशियाँ की गयीं हैं। हिन्दू गुहा मन्दिरों में वास्तुकला की पराकाष्ठा दिखायी देती है। यहाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश और अन्य देवी-देवताओं ( गुफा संख्या १५ ) को विविध भाव-भंगिमाओं के साथ बनाया गया है। भक्ति व श्रद्धा भाव से पूरित ये चित्र एक तरह से अलौकिकता लिए हुए हैं। जैन गुफाएँ महावीर स्वामी और अन्य तीर्थंकरों के साथ-साथ अन्य पूजनीय आराध्य संतों का मूर्तियों से अलंकृत हैं। यहाँ चित्रों में स्वर्गीय दृश्य और बादलों से गुजरते देवदूत, विषयवस्तु को कल्पना को एक समृद्ध के शिखर तक ले जाते हैं और कला को एक नया आयाम देते हैं। — एलोरा में लगी पट्टिका। |
भारतीय मुद्रा पर चित्रण
नई सिरीज के भारतीय मुद्रा के ₹२० पर कैलाश मन्दिर का चित्र देखने को मिलता है। जिसमें एक स्तम्भ स्पष्ट रूप से दिखता है। उसपर देवनागरी लिपि में ‘एलोरा की गुफाएँ’ लिखा गया है और उसके आगे आँग्ल भाषा में Ellora caves लिखा है।
एलोरा की गुफाएँ
एलोरा अपनी गुफाओं के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ पर बेसाल्ट की खड़ी चट्टानों को काटकर ३४ गुफाओं का निर्माण दक्षिण से उत्तर की दिशा में एक क्रम से किया गया है। वर्तमान में गुफाओं को १ से लेकर ३४ तक जो क्रमसंख्या दी गयी है वह दक्षिण से उत्तर की दिशा में दी गयी है। इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार है :—
- प्रथम समूह – १२ दक्षिण में स्थित ‘बौद्ध धर्म’ से सम्बद्ध गुफाएँ हैं। गुफा संख्या १ से लेकर १२ तक कुल १२ गुफाओं का निर्माण लगभग ३५० ई० से ७०० ई० के मध्य कराया गया।
- द्वितीय समूह – १७ मध्य की ‘हिन्दू धर्म’ से जुड़ी गुफाएँ हैं। गुफा संख्या १३ से २९ तक की कुल १७ गुफाओं का उत्खनन कार्य लगभग ७०० ई० से ९७२ ई० के बीच किया गया।
- तृतीय समूह – ५ उत्तर में स्थित गुफाएँ ‘जैन धर्म’ से सम्बंधित हैं। गुफा संख्या ३० से ३४ तक कुल ५ गुफाओं का निर्माण ९वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य हुआ।
परन्तु यह उल्लेखनीय है कि यह वर्गीकरण की तीनों धर्मों की गुफाएँ उपर्युक्त वर्गीकृत समय में ही हुआ हो कहना सही नहीं। हाँ मोटे तौर पर यह समय विभाजन मान्य है, परन्तु इनमें अतिव्याप्ति है। इस तरह एलोरा में कलात्मक गतिविधियों का कालखण्ड लगभग ९०० वर्षों तक फैला हुआ है।
साथ ही धार्मिक वर्गीकरण भी मोटे-मोटे तौर पर ही किया जा सकता है। ये तीनों धर्मों की गुफाएँ एक दूसरे से प्रभावित तो हैं ही साथ ही एक ही स्थान पर एक साथ निर्माण और उपस्थिति सर्वधर्मसमभाव की भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता का वहन भी करती हैं।
एलोरा : प्रमुख गुफाएँ
बौद्ध गुफाएँ
गुफा संख्या १ से १२ तक कुल १२ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित गुफा मंदिर हैं। इन गुफाओं में महात्मा बुद्ध और अन्य बोधिसत्वों की मनोहारी रूप को दर्शाया गया है। पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, ध्यानस्थ बौद्धों की विशाल मूर्तियाँ बड़ी ही सजीव लगती हैं। एक गुफा में एक देवी अपने बायें हाथ में कमल पुष्प धारण किये हुए हैं और नीचे उपासक पुस्तक में तल्लीन है। ये गुफाएँ बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय की वज्रयान उप-सम्प्रदाय के विकास को चिह्नित करती हैं।
गुफा संख्या – ६ : इसमें विद्या की देवी सरस्वतीजी की मूर्ति बनी है, जिसको कुछ विद्वानों ने महापुरुष की प्रतिमा बताया है। इसी में सात मानस बुद्धों की प्रतिमा बोधिवृक्षों के साथ बनायी गयी हैं।
गुफा संख्या – १० : यह ‘विश्वकर्मा की गुफा’ ( अन्य नाम – सुतार की झोपड़ी, बढ़ई की गुफा ) नामक मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यह विशाल चैत्य के प्रकार का है और इसमें ऊँचे स्तम्भों पर अनेक बौनों की प्रतिमायें उकेरी गयी हैं।
गुफा संख्या – ११ और १२ : इनमें मूर्तियों और अलंकरणों के साथ-साथ कुछ चित्र ऐसे भी हैं जिसपर तांत्रिक प्रभाव दिखायी देता है।
देवी शक्ति यह बात विशेष रूप से ध्यान देने वाली है कि एलोरा की प्रायः सभी गुफाओं में देवी शक्ति की प्रतिमाएँ मिलती हैं। बौद्ध गुफाओं में ये चतुर्भुजी पायी गयी हैं। इनके हाथों में अक्षमाला और कमल उत्कीर्ण हैं। ये देवियाँ कमलासना हैं। एक स्थान पर कमल से सम्पूरित सरोवर में नागगण खड़े हैं। |
ब्राह्मण मंदिर
एलोरा की पहाड़ी को काटकर कुल १७ ब्राह्मण मंदिरों का निर्माण कराया गया है। ये हिन्दू गुहा मन्दिर क्रम संख्या १३ से लेकर २९ तक हैं। इन गुहा मन्दिरों की मूर्तियाँ, अलंकरण, भित्ति चित्रण, वास्तुकला इत्यादि में शास्त्रोक्त विधियों से किया गया है। जिनमें से कुछ प्रमुख का विवरण इस प्रकार है –
- रावण की खाईं – गुफा संख्या १४
- दशावतार मन्दिर – गुफा संख्या १५
- कैलाश मंदिर – गुफा संख्या १६
- रामेश्वर – गुफा संख्या २१
- ध्रूमरलेण मन्दिर या डूमर लेण – गुफा संख्या २९
- देववाड़ा
- लम्बोदर
- नीलकण्ठ
रावण की खाईं : गुफा संख्या – १४
रावण की खाईं एक आयताकार मंदिर है — ८७ फीट × ५२ फीट। इस पर्वत गुफा में एक स्तम्भयुक्त मण्डप और गर्भगृह बनाया गया है। मंदिर के गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ बनाया गया है। स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट के सदृश हैं। दीवारों पर वैष्णव और शैव देवी-देवताओं की उभरी हुई आकृतियों को बनाया गया है।
‘रावण की खाईं’ मंदिर का बरामदा ४ स्तम्भों पर टिका हुआ है। इसके पीछे १२ स्तम्भों पर टिका हुआ मण्डप है। प्रदक्षिणापथ की उत्तरी और दक्षिणी दीवारों पर विभिन्न पौराणिक कथाओं और देवी-देवताओं की मूर्तियों को अंकित किया गया है। इस मंदिर में मुख्य मूर्ति में भगवान शिव नृत्य कर रहे हैं और रावण कैलाश पर्वत को उठाये हुए है।
अन्य प्रमुख मूर्तियाँ हैं – रावणानुग्रह, अन्धकारि नरेश, उमा-महेश्वर, नवग्रह, लक्ष्मी व भूदेवी से वेष्टित भगवान श्रीहरि विष्णु, सप्तृ मातृकाएँ, विनायक, महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा, गजलक्ष्मी और गंगा-यमुना आदि की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं।
दशावतार मन्दिर : गुफा संख्या – १५
‘दशावतार मन्दिर’ का निर्माण राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ( ७३५ – ७५६ ई० ) के शासनकाल में हुआ।
दशावतार मन्दिर पूर्ववर्ती बौद्ध-विहारों से प्रेरित और प्रभावित है, अर्थात् इस मन्दिर में एक स्तम्भयुक्त बरामदा और गर्भगृह बनाया गया है। यह मन्दिर दुतल्ला बना है। ऊपरी मंजिल १०५ फीट लम्बी है जबकि चौड़ाई ९५ फीट है। इसकी चपटी छत ४४ स्तम्भों पर टिकी हुई है।
अंतराल के समक्ष के दो स्तम्भों को छोड़कर शेष स्तम्भ सादे हैं, अर्थात् यहाँ के केवल दो स्तम्भों पर नक्काशी की गयी है।
इस मन्दिर के द्वार पर नन्दिमण्डप निर्मित है। दीवारों पर चारों ओर भित्ति स्तम्भों के बीच पौराणिक आख्यानों से सम्बन्धित देवी-देवताओं की आकृतियों को उकेरी गयी हैं — एक ओर वैष्णव जबकि दूसरी ओर शैव।
इसके अधिष्ठान में १४ स्तम्भ लगे हुए हैं। मन्दिर की मूर्ति सम्पदा विपुल है। जैसा कि नाम से ही विदित होता है इस मन्दिर में भगवान विष्णु के १० अवतारों की कथा को अंकित किया गया है। इसकी कुछ रचनाएँ बहुत अच्छी हैं —
- उत्तर की दीवार पर शिवलीला के विविध रूपों को अंकित किया गया है।
- दक्षिण की दीवार पर भगवान विष्णु से सम्बन्धित विविध आख्यानों को अंकित किया गया है।
- मन्दिर के द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियों को बनाया गया है।
- हिरण्यकशिपु का वध करते हुए भगवान नृसिंह रूप का दृश्यांकन अत्यंत मनमोहक है।
अन्य प्रमुख मूर्तियों में निम्न उल्लेखनीय हैं – रावणानुग्रह, भैरव, नरेश लिंगोद्भव, कल्याण सुन्दर, श्रीहरि विष्णु, नृसिंह अवतार, गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण, विनायक, देवी सरस्वती, गजलक्ष्मी, शेषशायी श्रीहरि विष्णु, गजेन्द्र मोक्ष, सूर्य, महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमा उल्लेखनीय हैं।
कैलाश मंदिर : गुफा संख्या – १६
अपनी आश्चर्यजनक शैली के लिए एलोरा के मंदिरों में ‘कैलाश मंदिर’ विश्वविख्यात है। प्रस्तर शिलाओं को काटकर भवन निर्माण के विकास की पराकाष्ठा है – एलोरा का कैलाश मन्दिर। कैलाश मन्दिर को बनाते समय पूर्ववर्ती मन्दिर निर्माण की परम्पराओं को छोड़कर चट्टान को तराशकर स्वतंत्र मन्दिर बनाया गया। कैलाश मन्दिर का आकार पट्टडकल के चालुक्ययुगीन विरुपाक्ष मन्दिर की तरह तो है परन्तु उससे आकार में लगभग दोगुणा है। कैलाश मन्दिर द्रविड़ शैली के नियमित क्रमबद्ध विकास का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ( ७५६ – ७७३ ई० ) ने इसका निर्माण अत्यधिक धन व्यय कराके कराया था। कृष्ण प्रथम के पास विजय अभियान से प्राप्त प्रभूत धन-सम्पदा थी। इसके साथ यह शासक धार्मिक भावनाओं से भी ओतप्रोत था। इस धार्मिक भावना और सम्पन्नता से सुखद संयोग से कैलाश मन्दिर का निर्माण सम्भव हो पाया। पाश्चात्य विद्वान अल्तेकर का कहना है कि कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण पल्लवों की राजधानी काँची से बुलाये गये कलाकारों ने किया था।
कैलाश पर्वत तिब्बत में स्थित है। पुरातनकाल से ही श्रद्धालु वहाँ जाते रहें हैं। इसको भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। इसी के नाम पर भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही मन्दिर बनते आये हैं। स्वयं भगवान शिव को कैलाशनाथ, कैलाशपति जैसे नाम से सम्बोधित किया जाता है। एलोरा का कैलाश मन्दिर भी इसी परिपाटी का अनुपालन करता है।
कैलाश मन्दिर की सबसे बड़ी विशेषता है — इसको बनाने के लिए पर्वत को नीचे से भीतर की ओर नहीं खोदा गया गया है वरन् इसकों शीर्ष भाग से तराशते हुए क्रमशः नीचे की ओर आया गया है। अर्थात् शिल्पकारों ने पर्वत को ऊपर से नीचे की ओर तराशकर मन्दिर के सभी अंगों को बनाया है।
इस मंदिर को एक ही पाषाण को काटकर निर्मित करने के लिए सबसे पहले एक अनुकूल विशाल प्रस्तर खण्ड का चुनाव करके उसके बीच के अंश को छोड़कर चारों ओर से तराशकर अतिरिक्त प्रस्तर को निकाल दिया गया। बचे हुए बीच के प्रस्तर अंश को बड़ी सावधानी से तराशा गया। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि इस प्रस्तर को ऊपर से नीचे की दिशा में तराशा गया। दूसरे शब्दों में इस मंदिर का निर्माण कार्य ऊपर से नीचे की दिशा में किया गया है। यहाँ पर स्थापत्य के साथ-साथ तक्षण ( मूर्तिकारी ) और अलंकरण का भी कार्य साथ-साथ चलता रहा। स्तूपी ( शिखर ) से जगती ( आधार ) का निर्माण पूर्वयोजना के अनुसार किया गया।
कैलाश मंदिर के विशाल प्रांगण २७६ फीट लम्बा × १५४ फीट चौड़ा है। इसमें विशाल स्तम्भ लगाये गये हैं और छत को मूर्तियाँ से अलंकृत किया गया हैं। मंदिर में प्रवेश द्वार, विमान और मण्डप निर्मित हैं।
विमान और मण्डप का क्षेत्रफल १५० × १०० फीट का है। अर्थात् कैलाश मन्दिर का विमान एक समानान्तर चतुर्भुज के आकार में बना है।
विमान २५ फीट ऊँचे चबूतरे ( चौकी ) पर बना है। अर्थात् मंदिर की चौकी २५ फीट ऊँची है। चबूतरे का ऊपरी और निचला भाग काफी ढला हुआ है। चबूतरे के बीच वाले हिस्से के बगल के दोनों भागों के बीच के भाग में चित्रवल्लरी अर्थात् पट्टी है, जिसमें शेरों एवं हाथियों की उभरी हुई आकृतियाँ बनी हुई हैं। इन चित्रवल्लरियों में उकेरी गयी शेरों और हाथियों की आकृतियाँ विमान को धारण करने का आभास देती है। दूसरे शब्दों में चौकी पर सिंह और हाथी की पंक्तियों को ऐसी जीवंतता से उकेरा गया है कि प्रतीत होता है कि इन्हीं के ऊपर देव विमान एवं मण्डप आधार दिये हुए हैं।
मन्दिर में बरामदे तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। मण्डप, अंतराल और गर्भगृह अन्य दूसरे मन्दिरों की तरह ही है।
मण्डप की सपाट छत १६ स्तम्भों पर टिकी हुई है। ये १६ स्तम्भ ४-४ के समूहों में लगाये गये हैं। मंदिर का विमान दुतल्ला है। मण्डप और विमान को अर्धमण्डप ( अन्तराल ) से जोड़ा गया है। विमान का चौतल्ला शिखर ९५ फीट ऊँचा है और इसके तीन ओर प्रदक्षिणापथ बना है। विमान के चारों ओर ५ छोटे-छोटे मन्दिरों या देव प्रकोष्ठों का निर्माण किया गया है।
गर्भगृह का शिखर २५ फीट ऊँचा बनाया गया है। शिखर पिरामिडाकार है। शिखर के ऊपर स्तूपिका बनायी गयी है। इस मंदिर की द्रविड़ शैली में निर्मित मामल्लपुरम् के रथों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
मन्दिर के मुख्य भवन के बाद या यूँ कहें मण्डप के समक्ष ‘नंदी मन्दिर’ या ‘नन्दीमण्डप’ का निर्माण किया गया है। इसके ( मन्दिर या मण्डप ) दोनों ओर ( पार्श्व में ) ५१ फीट ऊँचे दो ‘ध्वजस्तम्भ’ या ‘ध्वाजास्तम्भ’ निर्मित किये गये हैं जिसपर ‘त्रिशूल’ स्थापित है। स्तम्भ द्रविड़ शैली में निर्मित हैं। स्तम्भों का आधार चतुर्भुजी या बहुभुजी बनाये गये हैं और ऊपर अष्टभुजाकार लाट है। लाट का ऊपरी आकार मसनद रूपी शीर्ष है। नंदी मन्दिर के आगे प्रवेश के लिए द्वार बनाया गया है।
मन्दिर के अहाते में अंदर चारों ओर आँगन में स्तम्भयुक्त बरामदे काटकर बनाये गये हैं। जिसमें से कुछ स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट के आकार के हैं।
मंदिर के ही निकट प्रस्तर को काटकर एक लम्बीं पंक्तिबद्ध हाथियों की मूर्तियों को बनाया गया है। मंदिर की वीथियों ( रास्ते ) में विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों को उत्कीर्ण किया गया है; यथा – गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण, भगवान विष्णु, शिवजी के विविध रूप, महिषासुर मर्दन करती देवी दुर्गा, कैलाश पर्वत उठाये हुए रावण, रावण द्वारा सीता हरण और जटायु से युद्ध इत्यादि दृष्यों का कुशलतापूर्वक अंकन किया गया है।
रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने का दृष्य इस पौराणिक आख्यान का दृश्यांकन कई गुहा मन्दिरों में किया गया है, परन्तु कैलाश मन्दिर में यह दृश्य शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। रावण अपने 10 भुजाओं पर कैलाश मंदिर को उठाते हुए दिखाया गया है। भगवान शिव गंभीर मुद्रा में कैलाश पर्वत पर माता पार्वती सहित विराजमान हैं। शिवजी अपने पैर से कैलाश पर्वत को दबा रहे हैं। कैलाश पर्वत हिलने से माता पार्वती शंकाकुल होकरके भगवान शंकर के विशाल व सुदृढ़ भुजाओं का अवलंब ग्रहण कर रही हैं । पार्वती जी की सखियाँ भयभीत होकर इधर-उधर भाग रही हैं। रावण के १० सिर और २० भुजाएँ दिखायी गयी हैं। रावण में अत्यंत शक्ति झलकती है। दृश्य में पूर्ण सजीवता है। |
एलोरा के कैलाश मन्दिर का निर्माण लगभग एक शताब्दी में हुआ। पार्श्ववर्ती वीथिकाएँ और मूर्तियाँ मूल मन्दिर के १०० वर्ष के बाद की प्रतीत होती हैं। इसीलिए कैलाश मन्दिर में मिली मूर्तियों में पृथक-पृथक शैलियाँ मिलती हैं। रावण-अनुग्रह, कल्याण सुन्दर और अन्यान्य कई प्रतिमाओं की रूपसज्जा, भावाभिव्यक्तियों के स्तर पर स्पष्ट अन्तर दृष्टिगोचर होता है। कुछ प्रतिमाओं की शरीर रचना पतली और हल्की है।
कैलाश मन्दिर के विभिन्न अंगों का कलात्मक संयोजन का ढंग इतना बखूबी किया गया है कि वे एक ही भवन के अविच्छिन्न अंग लगते हैं। सम्बद्ध कलाकारों ने कैलाश मन्दिर को मन्दिर की भाँति प्रतिष्ठित करने का सफल और सुन्दर प्रयास किया किया है जिसमें वे सफल भी रहे हैं। इस मन्दिर के विभिन्न अंगों में बनायी गयी मूर्तियों से भी कैलाश के रूप को दिखाने का सफल और श्लाघ्य प्रयास किया गया है।
यह मंदिर प्राचीन भारतीय वास्तु और तक्षण कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। कैलाश मन्दिर पाषाण कला का विश्व में महान् एवं अद्वितीय कृतित्व है। पूरा मन्दिर तक्षण कला से अलंकृत किया गया है।
अपने समग्रता में यह मंदिर एक अद्भुत कलाकृति है। पाषाण को काटकर बनाये गये मंदिरों में इसका स्थान अद्वितीय है। कर्कराज के बड़ौदा अभिलेख में इसको ‘अद्भुत सन्निवेश’ बताया गया है जिसे देखकर देवतागण अचम्भे में पड़ गये और इसको मानव निर्माण क्षमता से परे बताया। कलाविद् पर्सी ब्राउन ने कैलाश मंदिर की तुलना मिस्र के वास्तु और यूनानी पोसीडान मंदिर से किया है और इसको प्रकृत शैलवास्तु का सबसे विलक्षण उदाहरण बताया है।
रामेश्वर : गुफा संख्या – २१
‘रामेश्वर गुहामन्दिर’ गुफाशैली-मन्दिर निर्माण के शुरुआत का द्योदक है। गुफा के समक्ष प्रांगण में एक ऊँचे चबूतरे पर नन्दीपीठ बनाया गया है। मण्डप के पीछे गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ निर्मित है। द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियों को बनाया गया है। इसके स्तम्भों पर गणों की मूर्ति उकेरी गयी है। इस गुहा मन्दिर के स्तम्भों की लाट नालीदार है और शीर्ष मसनद के आकार का बनाया गया है।
इस गुहा मन्दिर में आम्र वृक्ष के टोडों और वितानों पर नारी आकृतियों को बनाया गया है, जोकि प्रजनन अथवा मातृशक्ति का द्योतक है। इस गुफा मन्दिर में केवल शिव-शक्ति के विविध रूपों की प्रतिमाओं को बनाया गया है।
दूमारलेणा : गुफा संख्या – २९
दूमारलेणा नाम से प्रसिद्ध यह गुफा भगवान शिव को समर्पित है। यह गुफा मन्दिर की लम्बाई और चौड़ाई क्रमशः ३७.५० × ४०.५० मीटर है। दीवार पर उत्कीर्ण यमुनाजी की प्रतिमा को भ्रमवश सीताजी के नाम से पहचानने के कारण इसको ‘सीता की नहानी’ के नाम से भी जाना गया।
यह गुफा मन्दिर ८वीं शती के अंत की कृतित्व है। इस मन्दिर के तीन ओर प्रंगण है। प्रमुख प्रांगण में दोनों ओर दो प्रकोष्ठ निर्मित किये गये हैं। जिसमें ७ स्तम्भों की पंक्तियाँ बनायी गयी हैं। ये स्तम्भ गोल आकार के हैं जबकि शीर्ष गुम्बद के आकार के हैं। गुहा के द्वार पर दो विशालकाय सिंह निर्मित किये गये हैं। प्रदक्षिणापथ में कई मूर्तियों का अंकन किया गया है जिसमें से शिवजी के नृत्य ( ताण्डव ) का अंकन सबसे अच्छा है।
जैन गुफाएँ
गुफा संख्या ३० से ३४ तक कुल ५ गुफा मन्दिर जैन धर्म से सम्बंधित हैं। ये सभी पाँच गुफाएँ एलोरा गुहा शृंखला में अन्तिम छोर पर एक साथ निर्मित की गयीं हैं। यह जैन गुफाएँ ‘दिगम्बर सम्प्रदाय’ से जुड़ी हुई हैं। एलोरा के ५ जैन गुहा-मन्दिरों में से इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा सबसे उल्लेखनीय है।
गुफा संख्या – ३० : इसको ‘छोटा कालाश’ भी कहा जाता है।
गुफा संख्या – ३२ : इसका नाम ‘इन्द्रसभा’ है क्योंकि इसमें इन्द्रसभा सभा का अंकन किया गया है। यह दुतल्ला है। इसे एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है। इसमें एकाश्मक हाथी, ध्वजास्तम्भ और लघु स्तम्भ बनाया गया है। इसमें जो प्रतिमाएँ बनायी गयीं हैं वो हैं – इन्द्र, इन्द्राणी, जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ ( शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ आदि ) इत्यादि। गुफा के स्तम्भ आधार पर चतुष्कोण आकार के, मध्य में अष्टकोणीय जबकि शीर्ष पर गोलाकार हैं। सबसे ऊपर आमलक बनाया गया है।
गुफा संख्या – ३३ : इस गुहा मन्दिर का नाम ‘जगन्नाथ सभा’ है। इस गुहा-मन्दिर का वास्तु विन्यास इन्द्रसभा से लगभग मिलता-जुलता है।
इन गुफा मन्दिरों के भित्तियों पर पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी और अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ बनायी गयीं हैं। इसके साथ ही ‘बाहुबली गोमतेश्वर’ का अंकन भी लोकप्रिय है।
पार्श्वनाथ और बाहुबली को आपने-सामने बनाया गया है, जो अर्थपूर्ण एवं मनोरम है। दोनों को कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है साथ ही वे निर्वस्त्र और शान्त भाव से तपस्यारत हैं। पार्श्वनाथ के अलंकरणों के अंकन में उनकी भावभिव्यक्ति में अन्तर और एकरसता का परिहार किया गया है। तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ निश्चल, शान्त, ध्यानावस्था में तपस्यारत दिखायीं गयीं हैं।
एलोरा के जैन गुहा मन्दिर अलंकृत होते हुए भी कल्पनाशीलता के अभाव के चिह्न दिखाती हैं। कलाविद् पर्सी ब्राउन के विचार से जैन गुफाओं के बाद ही शिलाओं को काटकर गुहा मन्दिरों का निर्माण समाप्तप्राय हो गया, जिसका कारण धार्मिक विचारधारा में परिवर्तन था।