भूमिका
भारतीय भित्तिचित्र कला ने अपनी पराकाष्ठा गौरवशाली गुप्तकाल में देखी जिसकी अभिव्यक्ति अजन्ता और बाघ के गुफा चित्रों में हुई। इसमें से भी गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अजंता से प्राप्त होते हैं। विश्व कला के इतिहास में अजंता की अनुपम चित्रशाला अद्वितीय है। गुप्त व वाकाटक राज्यों के संयुक्त सांस्कृतिक प्रभाव के द्वारा उच्चतम कुशलता ५वीं और ६ठवीं शताब्दी की कलाकृतियों में मिलती है ।
उत्कृष्ट रैखिक निरूपण एवं रंगों के गतिशील विस्तार ने अजंता के भित्तिचित्रों को भारत की सर्वोत्कृष्ट कलाकृतियों का रूप प्रदान किया है।
अजन्ता के तीस गुफाओं में से अब केवल छः गुफाओं ( ९, १०, १६, १७, १ और २ ) के चित्र ही अवशिष्ट हैं, अन्य नष्ट हो गये हैं। इनका समय ईसा पूर्व द्वितीय / प्रथम शती से लेकर सातवीं शती ईस्वी तक निर्धारित किया गया है।
अजन्ता में कुल ३० गुफाओं में से ५ चैत्यगृह तथा शेष विहार हैं। हालाँकि इनको क्रम संख्या २९ तक ही दिया गया है क्योंकि गुफा संख्या १४ और १५ के मध्य एक अन्य गुफा मिलने पर उसको ‘१५अ’ ( 15A ) क्रम संख्या दे दिया गया।
इनका निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ईस्वी तक किया गया था। प्रारम्भिक गुफायें हीनयान तथा बाद की महायान सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।
९वीं और १०वीं गुफाओं के चित्र सबसे प्राचीन हैं जिसका समय ईसा पूर्व द्वितीय / प्रथम शती है। इन गुफाओं के चित्रों में एक राजकीय जुलूस का चित्र प्रसिद्ध है।
तीन गुफायें ( १६वीं, १७वीं और १९वीं ) गुप्तकालीन मानी जाती हैं। १६वीं और १७वीं गुफाओं के चित्र कला की दृष्टि से सर्वोत्तम हैं। ‘मरणासन्न राजकुमारी’ ( Dying Princess ) और ‘माता व शिशु’ ( Mother and Child ) नामक चित्र अत्यन्त सुन्दर, आकर्षक तथा प्रभावोत्पादक है। भारतीय और विदेशी दोनों ही कलाविदों ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
वासुदेवशरण अग्रवाल१ के शब्दों में गुप्तयुग में चित्रकला अपनी पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी। गुप्तकाल के पूर्व चित्रकला के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। प्रारम्भिक चित्र प्रागैतिहासिक युग की पर्वत कंदराओं की दीवारों पर प्राप्त होते हैं। कुछ गुहा-मन्दिरों की दीवारों पर भी चित्रकारियाँ मिलती हैं। गुप्तकाल तक आते-आते चित्रकारों ने अपनी कला को पर्याप्त रूप से विकसित कर लिया था।
- १The art of painting reached reached its perfection in the Gupta age.
पहली और दूसरी गुफाओं के चित्र ७वीं शती के हैं। यहाँ के चित्रों में चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय द्वारा फारसी दूत-मण्डल का स्वागत करते हुए दिखाया गया चित्र प्रसिद्ध है।
इस प्रकार समग्ररूप से अजन्ता की चित्रकला बड़ी प्रशंसनीय है। यहाँ के भित्तिचित्र विश्व इतिहास में सर्वथा बेजोड़ हैं।
चित्रकला के अतिरिक्त अजन्ता से मूर्तिकला के भी सुन्दर उदाहरण मिलते हैं।
अजन्ता : संक्षिप्त परिचय
नाम – अजन्ता या अजंता की गुफाएँ ( Ajanta Caves )
स्थिति – औरंगाबाद जनपद, महाराष्ट्र
समय – ई०पू० द्वितीय शताब्दी से लेकर सातवी शताब्दी ईसवी तक
विषय – बौद्ध धर्म
महत्त्वपूर्ण जानकारी – अजन्ता की प्रमुख बातें निम्न हैं –
- यहाँ कुल ३० बौद्ध गुफाएँ हैं; जिनमें ५ चैत्य और २६ विहार हैं।
- गुफा संख्या ९, १०, १९, २६ और २९ चैत्य गुफा है; शेष सभी विहार गुफाएँ।
- गुप्तकालीन गुफाओं ( १६वीं व १७वीं ) के चित्र सर्वोत्कृष्ट हैं।
- अजन्ता को १९८३ ई० में यूनेस्को के तहत ‘विश्व धरोहर स्थल’ घोषित किया गया।
- कुछ प्रमुख चित्र –
- गुफा संख्या ९ : ‘एक बैठी हुई स्त्री’; ‘स्तूप पूजा’; ‘नागपुरुष’; ‘पशुओं को हाँकते चरवाहे’ इत्यादि।
- गुफा संख्या १० : ‘राजकीय जुलूस’; ‘छदन्त जातक’; ‘साम जातक’ ( अपने बालक के साथ अंधे तपस्वी माता-पिता ) इत्यादि।
- गुफा संख्या १६ : ‘मरणासन्न राजकुमारी’; ‘बुद्ध उपदेश’; ‘महाभिनिष्क्रमण’; ‘मायादेवी का स्वप्न’; ‘सुजाता का खीर अर्पण’; ‘नन्द का वैराग्य’; ‘अजातशत्रु और बुद्ध की भेंट’; ‘गौतम बुद्ध के जीवन के चार प्रमुख दृश्य’; ‘राजगृह की गलियों में भिक्षाटन करते बुद्ध’; ‘आषाढ़ में सिद्धार्थ की प्रथम तपस्या’; ‘हस्ति जातक’; ‘महाउम्मग जातक’ इत्यादि।
- गुफा संख्या १७ : ‘माता और शिशु’ ( राहुल का समर्पण ); ‘महाभिनिष्क्रमण’; ‘हंस से बातें करता राजकुमार’ विभिन्न जातक कथायें; जैसे – मातृपोषक, हस्ति, वेस्सान्तर, महाहंस, महाकपि, सिंहलावदान, मृगादि जातकों के दृश्यांकन; आदि।
- गुफा संख्या २ : ‘मायादेवी का स्वप्न’; ‘बुद्ध का जन्म’; ‘दो बायें अँगूठे वाली स्त्री’; ‘तूषित स्वर्ग’; ‘सर्वनाश’; ‘महाहंस जातक’; ‘क्षन्तिवादी जातक’; ‘विदुर पण्डित जातक’; ‘पूर्णक इन्दरवती की प्रेमकथा’ ( झूला झूलती राजकुमारी ) इत्यादि।
- गुफा संख्या १९ : ‘गौतम बुद्ध का चित्र’।
- गुफा संख्या ११ : ‘हस्ति जातक’; ‘नन्द की कथा और विरह-व्याकुल रानी’; ‘सरोवर में स्नान करते बालक व स्त्रियाँ’; ‘राक्षस’ इत्यादि।
- गुफा संख्या ६ : ‘केश संस्कार युक्त सुन्दरी’; ‘भिक्षु’, ‘द्वारपाल’ आदि।
- गुफा संख्या १ : विभिन्न जातक कथाओं का दृश्यांकन; ‘नन्द और सुन्दरी की कथा’; ‘अवलोकितेश्वर बोधिसत्व’; ‘नागराज सभा’; ‘बोधिसत्व पद्मपाणि’; ‘मार विजय’; ‘श्रावस्ती का चमत्कार’; ‘चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय की राजसभा में ईरानी राजदूत’; ‘काली राजकुमारी’ इत्यादि।
अजन्ता का नामकरण
एक प्राचीन ग्रन्थ ‘महामयूरी’ में ‘अजिताञ्जेय’ नामक एक स्थान का उल्लेख मिलता है।२ गुफाओं से कुछ दूरी पर ‘अजिष्ठा’ नामक ग्राम है। सम्भवतः इसी नाम का वर्तमान उच्चारण ‘अजन्ता’ हो गया।
- २वी०एस०अग्रवाल : जर्नल ऑफ द यूनाटेड प्रोविन्स, हिस्टोरिकल सोसाइटी, १५, भाग – २; १९४५
अजन्ता नाम को विद्वानों ने एक और संदर्भ से जोड़ा है। ‘यो मैत्रेय बुद्ध’ को ‘आजित’ कहा जाता है। अतः बौद्ध धर्म से सम्बद्ध इन गुफाओं के नाम पर सम्भवतः ‘अजन्ता’ पड़ गया।
महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जनपद में अजन्ता नाम की पहाड़ी है। जलगाँव नामक रेलवे स्टेशन से लगभग ५५ किलोमीटर दक्षिण की ओर फरदापुर ( फर्दापुर ) नामक ग्राम है। यहाँ से कुछ दूरी पर दक्षिण-पश्चिम की ओर अजन्ता नामक ग्राम बसा है। सम्भवतः इसी के नाम पर पहाड़ी का नाम अजन्ता पड़ गया।
अजन्ता गुफा की स्थिति
अजन्ता के ‘३० गुफा मन्दिर’ ‘अजंता की पहाड़ी’ को काट कर बनाये गये हैं। ये पहाड़ियाँ बेसाल्ट चट्टानों की बनी हुई हैं।
अजन्ता महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जनपद में स्थित है। अजन्ता की पहाड़ियों के पास ही वाघुर नदी बहती है। अजन्ता की ये विश्वप्रसिद्ध गुफाएँ फरदारपुर ग्राम के दक्षिण में लगभग ३.५ किमी० की दूरी पर और औरंगाबाद जनपद मुख्यालय से लगभग १०० किमी० उत्तर की दिशास्थित है। मध्य रेलवे के जलगाँव स्टेशन के दक्षिण में लगभग ५६ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है।
अजन्ता की बौद्ध गुफाएँ हरि शृंगार से आच्छादित मनोरम नीरव एकाकी घाटी में स्थित हैं। यह घाटी सतपुड़ा से क्रमश: ७ कुण्डों में गिरती हुई वाघुर नदी ( Waghur River ) पहाड़ियों को काटती व उसके पैरों में साँप सी लौटती हुई कमान की भाँति मुड़ गयी है। इस नदी के घुमाव से घाटी का रूप अर्धचन्द्राकार ( या घोड़े नाल सदृश ) के समान बन गया है। इसके बायीं या उत्तर की ओर से एक मोड़ पर लगभग २५० फुट ऊँची पहाड़ी खड़ी है और इसी पहाड़ी में एक अर्धचन्द्राकार पंक्ति में ये गुफाएँ काट कर बनायी गयी हैं।
इसी शान्त व नीरवता के वातावरण को देखकर बौद्ध भिक्षुओं ने अपनी कला साधना के लिये यह स्थान उपयुक्त समझा होगा। अजन्ता की प्रत्येक गुफा में मूर्तियाँ, स्तम्भ और द्वार काटे गये हैं। भित्तियों पर चित्रकारी की गयी है। इस प्रकार अजन्ता की ये गुफाएँ ‘वास्तुकला’, ‘मूर्तिकला’ और ‘चित्रकला’ का एक उत्तम संगम स्थल है।
चीनी बौद्ध यात्री ‘युवान च्वांड्ग’ ( ह्वेनसांग ) ने भी अपनी पुस्तक ‘ट्रेवल्स इन इंडिया’ ( Travels in India ) में अजन्ता की कलाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।३ इसी प्रकार ‘फाह्यान’ ने पाँचवीं शताब्दी ई० ( गुप्तकाल ) में इन कला मंदिरों का उल्लेख किया है। सम्राट हर्ष के समय ‘बाणभट्ट’ ने गुफा चित्रों का जो वर्णन किया है, वह भी अजन्ता के ही समान है।
- ३On Yuan Chwang’s Travels In India ( 629 – 645 A.D. ) : Thomas Watters M.R.A.S.
अजन्ता की खोज एवं जीर्णोद्धार
‘रॉबर्ट लॉरेन्स बिनयॉन’ ( Robert Laurence Binyon ) के अनुसार अजन्ता की कला एशिया तथा एशिया की कला के इतिहास में उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, जितना कि यूरोप और यूरोप की कला के इतिहास में ‘आसिसी’ ( Assisi ); ‘सियना’ ( Sienna ) और ‘फ्लोरेंस’ ( Florence ) की कला का है। ये तीनों स्थान इटली में हैं।
अजन्ता की ये महत्त्वपूर्ण बौद्ध कलाकृतियाँ लगभग १००० वर्षों तक कला जगत् की अनभिज्ञता का शिकार रहकर एकाएक सन् १९१८ ई० में कैसे प्रकाश में आयी? इसकी भी अजब कहानी है। यदि मद्रास सेना का एक सेवानिवृत्त अफसर इनका पता हमें न देता, तो पता नहीं कब तक और ये कला भंडार हमारे लिये विस्मृत के अन्धकार में खोये रहते।
सन् १८१९ ई० में सेना की एक टुकड़ी ‘अजिष्ठा गाँव’ के पास घेरा डाले पड़ी थी, उन्हीं में से एक ब्रिटिश अफसर शिकार की टोह में अजन्ता गाँव के पास तक पहुँच गया। अचानक उसे एक लड़के की कर्कश सी आवाज सुनाई पड़ी और वह तेज कदम से उस तक पहुँच गया। लड़के ने यूरोपियन साहब को देख पैसे पाने की लालसा में उसे थोड़ी दूर चलने के लिये कहा और वहाँ जाकर सामने पेड़ों के झुरमुट के बीच एक स्थान की ओर संकेत किया और बोला, साहब यह देखो चीता। परन्तु आश्चर्य की बात कि वह चीता नहीं, बल्कि घनी हरीतिमा के बीच बैंगनी पत्थरों के खम्भों के मध्य सुनहरे लाल रंग में कुछ ऐसी चीज थी, जिसे देख कप्तान साहब उछल पड़े और तुरन्त गाँव वालों से कुल्हाड़ी, भाले, ढोल तथा टॉर्च आदि लेकर आने के लिये बुला भेजा। इस प्रकार सदियों से भूले गुफा मंदिरों तक पहुँचने का रास्ता साफ हो गया और कला जगत् व कला मर्मज्ञों के लिये बौद्ध कला की इस महान् उपलब्धि से परिचय हो सका।
यह सूचना पाकर सर्वप्रथम एक कम्पनी के अंग्रेज अधिकारी ‘विलियम एरिकसन’ ( William Ericson ) ने एक लेख तैयार किया और उसे ‘बाम्बे लिटरेरी सोसाइटी’ ( Bombay Literary Society ) में पढ़ा।
इसके बाद १८२४ ई० में लेफ्टीनेन्ट जेम्स ई० अलेक्जेन्डर’ ( Lieutant James E. Alexander ) ने इन गुफाओं को देखा और ‘रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, लन्दन’ ( Royal Asiatic Society, London ) को इनका विवरण प्रकाशित कराने हेतु भेजा। परन्तु फिरभी सन् १८४३ ई० तक इन गुफाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं गया।
सन् १९४३ ई० में ‘जेम्स फर्ग्युसन’ ( James Fergusson ) ने चार वर्षों तक अजन्ता के चित्रों का अध्ययन कर पहला शोधपूर्ण विवरण ‘रॉयल ऐशियाटिक सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैंड ( Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland ) की सभा में पढ़ कर सुनाया। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के आग्रह पर ईस्ट इंडिया कम्पनी के निर्देशक ने तत्कालीन भारत सरकार को अजन्ता भित्ति चित्रों की सुरक्षा हेतु उचित कदम उठाने को कहा।
सन् १८४४ ई० में ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के निवेदन पर इंग्लैण्ड की सरकार ने एक कुशल चित्रकार ‘मेजर राबर्ट गिल’ ( Major Robert Gill ) को १८४७ ई० में अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने के लिये भारत भेजा। परन्तु सन् १८५७ ई० के विद्रोह की चिंगारी के भड़कते ही मेजर गिल ने चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने का काम छोड़ दिया। इन दस वर्षो के दौरान तीस या इससे अधिक चित्रों की अनुकृतियाँ बनकर तैयार हो चुकी थीं, जिन्हें मेजर गिल ने स्वदेश ( इंग्लैण्ड ) को भेज दिया।
अजन्ता के चित्रों की इन अनुकृतियों को ‘सिडिहोम के क्रिस्टल पैलेस’ ( Crystal Palace ) की प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया। परन्तु दुर्भाग्यवश इस भवन में भीषण आग लग जाने के कारण इनमें से पच्चीस चित्र आग में जलकर स्वाहा हो गये। मात्र पाँच अनुकृति चित्र, कुछ छोटे-छोटे एनग्रेविंग प्रिन्ट, ‘मिसेज इस्पियर’ ( Mrs. Ispiyar ) की ‘एन्सेन्ट इंडिया’ ( Ancient India ) नामक पुस्तक में प्रकाशित किये गये।
तत्पश्चात् सन् १८७२ ई० से १८७६ ई० के मध्य सर जे०जे० स्कूल ऑफ आर्ट के तत्कालीन प्राचार्य ‘मिस्टर जॉन ग्रिफिथ्स’ ( Mr. John Griffiths ) और उनके शिष्यों ने अजन्ता कलाकृतिओं की सैकड़ों सुन्दर प्रतिकृतियाँ बनायी, जो दो भाग में ‘दी पेंटिंग्स ऑफ बुद्धिस्ट केव टेम्पल ऑफ अजन्ता’ ( The Paintings of Buddhist Cave Temples of Ajanta ), ‘खानदेश इंडिया’ शीर्षक से सन् १८९६ ई० में प्रकाशित की गयी।
सन् १८७४ ई० के इंडियन एन्टीक्यूरी नाम की शोध पत्रिका में ‘जेम्स बर्गेस’ ( James Burges ) का ‘रॉक टेम्पिल्स ऑफ अजन्ता’ ( Rock Temples of Ajanta ) लेख प्रकाशित हुआ।
लगभग इसी समय इंडिया ऑफिस, लंदन में फोटोग्राफ्स का एक सुन्दर संग्रह भी डॉ० बर्गेस द्वारा तैयार किया गया। चित्रों की ये अनुकृतियाँ सन् १८८५ ई० में ‘विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्यूज़ियम, साउथ कैंसिग्टन’ में प्रदर्शित की गयी। परन्तु दुर्भाग्यवश इस भवन में भी आग लगने से ये नष्ट हो गयीं।
सन् १९०९ से १९११ ई० के मध्य ‘लेडी हैरिंघम’ ( Lady Harringham ) भारत आयीं और उनके पर्यवेक्षण में सैयद अहमद, मोहम्मद फजलुदीन, नन्दलाल बोस, असित कुमार हाल्दार, समरेन्द्र नाथ गुप्त, वेंकटप्पा, लार्चर और ल्यूक जैसे तरुण भारतीय कलाकारों के द्वारा पुनः अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार करायी गयीं। इन अनुकृतियों को सन् १९१५ ई० में लंदन से पुस्तक४ के रूप में प्रकाशित की गयीं।
- ४Ajanta Frescoes : Lady Harringham
सन् १९१३ ई० में ‘विन्सेंट स्मिथ’ और ‘लेडी हैरिंघम’ के अजन्ता सम्बन्धित लेख प्रकाशित हुए।
हैदराबाद राज्य के पुरातत्त्व विभाग के निर्देशक ‘गुलाम यजदानी’ ने अजन्ता के चित्रों की पुन: प्रतिकृतियाँ तैयार करवायी और लेख को निज़ाम सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने चार भागों में क्रमश: सन् १९३०, १९३३, १९४६ और १९५५ ई० में प्रकाशित कराया।
स्वतंत्रता के पश्चात् ललित कला अकादमी, दिल्ली ने यहाँ के रंगीन फोटोग्राफ के प्रिन्ट का एक छोटा पोर्टफोलियो तैयार करवाया, जो कला प्रेमियों तक अजन्ता की छवि पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ।
सन् १९५४ ई० में ‘यूनेस्को’ के द्वारा भी न्यूयार्क से अजन्ता के रंगीन चित्रों वाला एक संग्रह ‘पेंटिंग्स ऑफ अजन्ता केव्ज’ ( Paintings of the Ajanta Caves ) के नाम से प्रकाशित किया गया।
गुफाओं का गणना क्रम
अजन्ता की ‘तीस गुफाएँ’ हैं। पहले उनतीस गुफाओं की एक श्रेणी थी, परन्तु कुछ वर्ष पूर्व एक और गुहा का ज्ञान हुआ, जिसको क्रम संख्या ‘१५-अ’ दिया गया है। नयी खोजी गयी गुफा को ‘१५-अ’ क्रम इसलिए दिया गया क्योंकि यह गुफा १४ व १५ के बीच में स्थित है। अध्ययन की सुविधाजनक बनाने के लिए अजन्ता की गुफाओं को क्रमांक पूर्व से पश्चिम की ओर दिया गया है।
अजन्ता की ३० गुफाओं में से ५ चैत्य और शेष विहार हैं:-
- पाँच चैत्य गुफाएँ – ९वीं, १०वीं, १९वी, २६वीं और २९वीं।
- शेष २५ गुफाएँ विहार ( संघाराम ) हैं – २४ + १५-अ।
इन ५ चैत्यगृहों का उपयोग पूजा व उपासना के लिए होता था और शेष २५ विहार गुफाओं में बौद्ध भिक्षु विश्राम करते थे।
अजन्ता गुफाओं का निर्माणकाल
अजन्ता की गुफाओं का निर्माण एक समय पर नहीं हुआ , वरन् यहाँ पर निर्माणकार्य शताब्दियों तक अनवरत रूप से चलता रहा।
यहाँ से मिली एक अपूर्ण गुहा को देखने से पता चलता है कि गुफाएँ ऊपर से नीचे की तरफ उत्खनित होती थीं। सबसे पहले गवाक्ष, फिर छतें, खम्भे, भित्तियाँ और अन्त में मुख्य द्वार का निर्माण किया जाता था। गुहाओं का निर्माण मौर्यकालीन काष्ठ भवन के नमूने पर किया गया था।
अनुमानत: १३वीं गुहा सबसे प्राचीन मानी जाती थी ( २०० ई०पू० )। इस गुफा की दीवार पर चमकदार मौर्यकालीन पॉलिश है।
८वीं, १२वीं, १३वीं गुफा में ये चित्र नहीं हैं, परन्तु ये प्राचीन हैं।
८वीं, ९वीं ११वीं गुफाएँ सम्भवत: २०० ई०पू० से परवर्ती हैं, क्योंकि इनमें कुछ मूर्तियाँ भी हैं।
८वीं से १३वीं गुफा तक की छः गुफाएँ प्रारम्भिक हीनयान बौद्ध धर्म से संबंधित हैं और अनुमानत: २०० ई०पू० तथा १५० ई० से कुछ बाद तक लगभग ३५० वर्षों के काल में अनुमानत: निर्मित की गयी थी।
अजन्ता की शेष गुफाएँ महायान बौद्ध धर्म से संबंधित हैं। छठी और सातवीं गुफाएँ १५० ई० से ५०० ई० के मध्य की हैं। शेष अर्थात् १५वीं से २२वीं तथा १९वीं और पहली से पाँचवीं तक की गुफाएँ ५०० ई० तक बनी हैं। कई गुफाएँ अधूरी हैं।
‘जेम्स फर्ग्युसन’ के अनुसार पहली गुफा सबसे बाद में चित्रित की गई है।
अजन्ता के भित्ति चित्रों का कालक्रम
इन गुफाओं में प्राप्त चित्र उसी समय वहीं चित्रित हुए, जिस समय इन गुफाओं का निर्माण हुआ। सर्वप्राचीन चित्र निश्चित रूप से ९वीं तथा १०वीं गुफा में हैं। इनमें से कुछ गुफाओं के चित्र पुनः ऊपर से बनाये गये हैं, जिससे पूर्व में बनाये चित्र ढँक गये हैं।
ये गुफाएँ दक्षिण के आंध्र-सातवाहन राजाओं के संरक्षण में चित्रित की गई थीं। यद्यपि ये राजा बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं थे और न ही इनके प्रचार में अवरोध उत्पन्न करते थे। इसके पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि अगले १०० वर्षों तक अजन्ता में चित्र ही नहीं बने।
अतः ९वीं-१०वीं गुफाओं के चित्रण चित्रकला के प्राचीनतम नमूने हैं।
एक मतानुसार इसके बाद लगभग ३०० वर्षों का व्यवधान है। तारानाथ का विचार है कि गुप्तकाल में ‘बिम्बसार’ नामक कलाकार के नेतृत्व में स्थापत्य तथा चित्रकला का पुनरुत्थान हुआ। इसे कला की ‘मध्य देशीय शैली’ कहा गया है। इस चित्र का अलंकरण अत्यन्त विस्तृत है। यहाँ चित्रण विधान सामान्य स्तर का प्रतीत होता है। चित्रों की पृष्ठभूमि में वृक्षों का अंकन विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
यहाँ पर अधिकांश चित्र ‘बरार के वाकाटक राजाओं’ ( गुप्तकाल ) और ‘चालुक्य राजाओं’ ( ५५० – ६४२ ई० ) के समय में बनाये गये। १६वींगुफा में एक वाकाटक लेख से पता चलता है।
अजन्ता गुफाओं में जो चित्रकारी हुई, उसके कालक्रम को लेकर सभी विद्वान एकमत हैं :—
१ – गुफा संख्या ९ तथा १० : २०० ई०पू० से ३०० ई० तक।
२ – गुफा संख्या ८ तथा १० के स्तम्भ : ३५० ई० से ५०० ई० तक।
३ – गुफा संख्या १६ तथा १७ : ३५० ई० से ५०० ई० तक।
४ – गुफा संख्या ४, ६, ११ तथा १५ भी इसी काल में चित्रित किये गये हैं, परन्तु अब इनके चित्र शेष नहीं बचे हैं।
५ – गुफा संख्या १ तथा २ : ५०० ई० से ६२८ ई० तक।
कुल मिलाकर हम मोटे तौर पर यहाँ के कलाकारी के समय का विभाजन इस तरह कर सकते हैं —
- मौर्योत्तर कालीन गुफा; जिसे हम आन्ध्र सातवाहन काल भी कह सकते हैं – गुफा संख्या ९ और १०
- गुप्तकालीन गुफा; गुफा संख्या १६, १७ और १९
- गुप्तोत्तर कालीन गुफा; जिसे चालुक्यों के समय बानाया गया – गुफा संख्या १ और २
संरक्षक
अजंता के महत्वपूर्ण संरक्षकों में बराहदेव, उपेन्द्रगुप्त, बुद्धभद्र और मथुरादास के नाम मिलते हैं :-
- बराहदेव ( गुफा संख्या १६ के संरक्षक ) जो वाकाटक नरेश हरिषेण के प्रधानमंत्री थे।
- उपेन्द्रगुप्त ( गुफा संख्या १७ व २० के संरक्षक ) जो उस क्षेत्र का स्थानीय शासक और वाकाटक नरेश हरिषेण के सामंत थे।
- बुद्धभद्र ( गुफा संख्या २६ के संरक्षक )।
- मथुरादास ( गुफा संख्या ४ के संरक्षक )।
सुरक्षित चित्र
सन् १८७९ ई० तक गुफा मन्दिरों में १६ गुफाओं में चित्र शेष थे। उनमें पहली, दूसरी, चौथी, सातवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, पन्द्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं, अठारहवीं, उन्नीसवीं, बीसवीं, इक्कीसवीं, बाइसवीं तथा छब्बीसवीं गुफाएँ चित्रों से अलंकृत थीं।
परन्तु सन् १९१० ई० तक विशेष महत्त्वपूर्ण चित्रों के अवशेष, पहली, दूसरी, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं, उन्नीसवीं तथा इक्कीसवीं गुफाओं में ही रह गये थे।
वर्तमान में मात्र छः गुफाओं के चित्र ही सुरक्षित बचे हैं; वे हैं – १, २, ९, १०, १६ और १७। इनमें से १६वीं व १७वीं गुफा के चित्र सर्वोत्कृष्ट हैं। ये दोनों गुफाएँ गुप्तकालीन हैं। १७वीं गुफा में सर्वाधिक चित्र प्राप्त होते हैं।
चित्रों का क्षरण क्यों हुआ?
देश-विदेश में प्रसिद्ध अजन्ता के चित्र सुरक्षित नहीं रह पाये। इसके कई कारण हैं —
- सर्वप्रथम तो हैदराबाद / राज्य के निज़ाम ने इनकी सुरक्षा में रुचि नहीं दिखाई और बाद में छोटे तबके के अधिकारियों ने इसे क्षति पहुँचायी।
- सुरक्षा के लिये रखा गया पदाधिकारी अजन्ता के भित्ति चित्रों में से उत्तम आकृतियों के सिर के भाग का प्लास्टर खण्ड दीवार से काट-काट कर दर्शकों को धन के लोभ में भेंट करता रहा।
- ‘डॉ० बर्ड’ जो मुम्बई में पुरातत्त्ववेत्ता थे, ने भी मुम्बई संग्रहालय को लाभान्वित करने की दृष्टि से इसे क्षति पहुँचायी।
- पक्षियों ( चमगादड़ों, कबूतरों व अन्य जीव-जन्तुओं ) के घोंसले एवं साधुओं व अन्य महानुभावों द्वारा खाना पकाने के धुआँ आदि से भी चित्र धुँधले और काले पड़ गये या फिर आम जनता ने इसे जगह-जगह से खुरच डाला।
चित्रों का संरक्षण
सन् १९०३ से १९०४ ई० के बीच पुरातत्त्व विभाग ने प्रमुख चित्रों के सामने जाली लगवा दी और यथोचित साफ-सफायी भी करायी गयी।
संरक्षण हेतु एक विस्तृत योजना के अन्तर्गत इटली के भित्तिचित्र विशेषज्ञों को सन् १९२० से १९२२ ई० तक बुलाकर इन चित्रों की सफाई और संरक्षण कराया गया।
रासायनिक उपचार से चित्रों को साफ किया गया और जहाँ-जहाँ प्लास्टर में दरार पड़ गई थी, उन्हें प्लास्टर ऑफ पेरिस से भर दिया गया, जिससे प्लास्टर खण्ड, दीवार से गिर न जाये। कहा जाता है कि सुरक्षा के नाम पर केमिकल्स व वार्निश के प्रयोग से चित्रों के सौन्दर्य में ह्रास हुआ है।
सन् १९०८ ई० में अजन्ता में क्युरेटर ( Curator ) की नियुक्ति की गयी और फिर सन् १९५६ ई० में भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने गुफा चित्रों के संरक्षण का कार्यभार अपने हाथों में संभाल लिया। आज बहुत से चित्रों को शीशों व कपड़ों के पर्दों से ढक दिया गया है ताकि बाह्य प्रकाश-पुंज चित्रों की चमक को कम न कर दे।
आज से लगभग १५०० सौ वर्ष पूर्व की ये कला साधना के अवशेष अजन्ता में अभी चित्रों के रूप में सुरक्षित हैं। इनकी अनेक अनुकृतियाँबनायी जा चुकी हैं और असंख्य फोटोग्रॉफ छप कर जनता के समक्ष पहुँच चुके हैं।
सन् १९६६ ई० में अभी तक के शोध एवं लेखों के आधार पर ‘अजन्ता म्यूरल्स’ ( Ajanta Murals )६ नामक पुस्तक प्रकाशित कर दी गयी है।
- ६Ajanta Murals : Archaeological Survey of India : Edited by Amalananda Ghosh.
सन् १९८३ ई० में यूनेस्को के तहत अजन्ता की गुफाओं को विश्व विरासत स्थल के रूप में घोषित करने से इन कलाकृतियों की सुरक्षा को और बल मिला है।
अजन्ता की गुफाएँ : विश्व विरासत स्थल; यूनेस्को – १९८३
अजन्ता गुफाएँ ( Ajanta Caves )
अजंता में मौलिक बौद्ध गुफा स्मारक द्वितीय और प्रथम शताब्दी ई०पू० में बनाये गये। गुप्त काल ( ५वीं और ६ठवीं शताब्दी ई० ) के दौरान मूल समूह में कई और समृद्ध रूप से सजाए गये गुफाओं को जोड़ा गया। बौद्ध धार्मिक कला की उत्कृष्ट कृति माने जाने वाले अजंता के चित्रों और मूर्तियों का काफी कलात्मक प्रभाव रहा है।
उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य ( Outstanding Universal Value )
संक्षिप्त संश्लेषण ( Brief Synthesis )
अजंता की गुफाओं की खुदायी अजन्ता की पहाड़ियों में वाघोरा नदी के बाएं किनारे के ऊपर एक खड़ी चट्टान से की गयी है।
ये गुफाएँ संख्या में तीस हैं, जिसमें अपूर्ण गुफाएँ भी शामिल हैं। इनमें से पाँच ( गुफाएं ९, १०, १९, २६ और २९ ) चैत्यगृह ( अभयारण्य ) जबकि शेष संघराम या विहार ( मठ ) हैं।
गुफाएँ चट्टान को काटकर बनाई गयी सीढ़ियों से नदी से जुड़ी हुई हैं। उत्खनन गतिविधि लगभग चार शताब्दियों के अंतराल से अलग-अलग दो अलग-अलग चरणों में की गयी थी।
- पहला चरण लगभग दूसरी शताब्दी ई०पू० से पहली शताब्दी ई०पू० तक सातवाहन राजवंश के शासन के साथ मेल खाता है।
- दूसरा चरण ५वीं से ६ठवीं शताब्दी ई० में वाकाटक वंश की बसीम शाखा के अस्मक और ऋषिका सामंतों के साथ मेल खाता है।
कुल मिलाकर, छह गुफाओं ( गुफाओं ८, ९, १०, १२, १३ और १५अ ) की खुदाई पहले चरण में बौद्ध धर्म के हीनयान ( थेरवादी ) अनुयायियों द्वारा की गई थी। जिसमें बुद्ध की पूजा एक अलौकिक/प्रतीकात्मक रूप में की गयी थी। ये गुफाएँ सरल और आडम्बरहीन हैं। जिनमें भित्ति चित्र बने हैं।
चैत्यगृह की विशेषता एक गुंबददार छत और एक अर्धवृत्ताकार अंत है, अग्रभाग एक घोड़े की नाल के आकार की खिड़की से घिरा हुआ है, जिसे चैत्य खिड़की के रूप में जाना जाता है। आंतरिक रूप से, उन्हें स्तम्भों ( Colonnade ) द्वारा एक केंद्रीय भाग ( गर्भगृह सदृश् ) ( nsve )और साइड गलियारों ( aisles ) में विभाजित किया जाता है। गलियारा प्रदक्षिणापथ का काम करता था। केन्द्रीय भाग में एक चैत्य या स्तूप चट्टान से भी उकेरा गया है।
मठों में मण्डली के लिए एक अस्तेय हॉल होता है, और भिक्षुओं के लिए आवास-अपार्टमेंट ( विहार ) के रूप में सेवा करने वाली तीन तरफ कोशिकाओं की शृंखला होती है।
दूसरे चरण में शैलकलात्मक गतिविधि पर बौद्ध धर्म के महायान अनुयायियों का प्रभाव रहा। जहाँ बुद्ध की पूजा एक प्रतीक/मूर्ति के रूप में की जाती थी। पूर्व निर्मित गुफाओं का पुन: उपयोग किया गया और कई नई गुफाओं की खुदायी भी की गयी। हालाँकि प्रथम चरण के स्थापत्य रूप एक नये वास्तुशिल्प और मूर्तिकला उत्साह के साथ जारी रहे। दीवारों को उत्तम भित्ति चित्रों से अलंकृत किया गया। जिनको टेम्परा तकनीक से बनाया गया और खंभे, कोष्ठक, चौखट, मंदिर और अग्रभाग मूर्तिकला की भव्यता से समृद्ध थे।
अपूर्ण गुफाएँ ( गुफा संख्या ५, २४, २९ ) शैल उत्खनन में नियोजित तकनीकों और कार्यप्रणाली के उत्कृष्ट साक्ष्य प्रदान करती हैं।
अजन्ता की गुफाएँ प्राचीन बौद्ध शैल-उत्कीर्णन ( Rock-cut ) वास्तुकला में सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक हैं।
अजंता की कलात्मक परम्परायें भारत में समकालीन समाज की कला, वास्तुकला, चित्रकला और सामाजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक व राजनीतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण तथा दुर्लभ नमूना प्रस्तुत करती हैं।
वास्तुकला, मूर्तियों एवं चित्रों के माध्यम से प्रकट हुआ बौद्ध धर्म का विकास अद्वितीय है और इस तरह की गतिविधियों के एक प्रमुख केंद्र के रूप में अजन्ता के महत्त्व का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
इसके अतिरिक्त अजंता में पाए गये शिलालेख समकालीन सभ्यता पर अच्छी जानकारी प्रदान करते हैं।
कसौटी या मानदण्ड ( Criterion )
अजन्ता की गुफाओं को यूनेस्को के १० मानदण्डों में से ४ मानदण्डों के आधार पर विश्व धरोहर स्थल की मान्यता दी गयी है :-
- मानदण्ड (i):अजंता एक अद्वितीय कलात्मक उपलब्धि है।
- मानदंड (ii):अजंता की शैली ने भारत और अन्य जगहों पर, विशेष रूप से जावा तक, काफी प्रभाव डाला है।
- मानदंड (iii):भारतीय इतिहास में दो महत्वपूर्ण क्षणों के अनुरूप स्मारकों के अपने दो समूहों के साथ, यह प्रस्तर समुच्चय ( Rupestral ensemble ) भारतीय कला के विकास के साथ-साथ बौद्ध समुदाय, बौद्धिक और धार्मिक समारोहों या सम्मेलनों ( religious foyers ) की निर्णायक भूमिका के लिए असाधारण गवाही देता है कि यह सातवाहन और वाकाटक राजवंशों के समय भारत में स्कूल और स्वागत केंद्र रहें हैं।
- मानदंड (vi):अजंता सीधे और भौतिक रूप से बौद्ध धर्म के इतिहास से जुड़ा हुआ है।
अखंडता / सत्यता ( Integrity )
अजन्ता की गुफाओं में इसके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को व्यक्त करने के लिए आवश्यक सभी तत्व शामिल हैं। जिसमें इन गुफाओं की प्राकृतिक सेटिंग, मूर्तियाँ, पेंटिंग और पुरालेख शामिल हैं।
बौद्ध दर्शन को दर्शाते हुए ८०० वर्षों तक अनवरत गहन कला और स्थापत्य गतिविधि को व्यक्त करने वाली सुविधाओं और प्रक्रियाओं का पूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए यह पर्याप्त आकार का है।
यह विकास और/या उपेक्षा के प्रतिकूल प्रभावों से ग्रस्त नहीं है। वर्षों से किए गए हस्तक्षेप का उद्देश्य गुफाओं की संरचना को मजबूत करना था। संपत्ति की अखंडता के लिए पहचाने गए संभावित खतरों में चित्रित गुफाओं में आगंतुक दबाव, संरक्षित स्थल का समग्र प्रबंधन, ढीले बोल्डर सहित गुफाओं की संरचनात्मक स्थिरता और संपत्ति पर कर्मचारियों की क्षमता शामिल है।
प्रामाणिकता ( Authenticity )
अजन्ता की गुफाओं की प्रामाणिकता चैत्यगृहों और विहारों के स्थापत्य रूपों के साथ-साथ इन स्थानों को सजाने में उपयोग की जाने वाली योजनाओं; यथा – कि विभिन्न बौद्ध परम्पराओं को दर्शाने वाली मूर्तियों और चित्रित पैनलों के माध्यम से व्यक्त की जाती है। इसका स्थान और सेटिंग, साथ-साथ इसकी सामग्री व पदार्थ, बौद्ध धर्म के इतिहास और भारत के इतिहास में दो महत्वपूर्ण युगों के साथ प्रामाणिक रूप से जुड़े हुए हैं
चित्रों के विषय
आलंकारिक आलेखनों को छोड़कर अजन्ता बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कला का सृजन केन्द्र था। अतः इन गुफाओं में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म से संबंधित चित्रों का समावेश नहीं किया गया है। बुद्ध के उपदेश और बुद्ध के जन्म-जन्मांतर की जीवन कथाओं का ‘जातक कथाओं’ के अन्तर्गत चित्रण हुआ है।
‘वाचस्पति गैरोला’ ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय चित्रकला’ में अजन्ता के चित्रों के विषयों को तीन भागों में बाँटा है।७
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- ७भारतीय चित्रकला : वाचस्पति गैरेला।
- प्रथम श्रेणी : अलंकारिक :— जिसमें गुफाओं को विविध आलेखन द्वारा अलंकृत किया गया है; यथा – फूल, पत्तियाँ, पुष्पों की बेलें, कमलदल, लताएँ, वृक्ष, पशु-पक्षी, अलौकिक पशु, राक्षस, किन्नर, नाग, गरूड़, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराएँ इत्यादि।
- द्वितीय श्रेणी : रूप भैदिक :— बुद्ध के दार्शनिक और आध्यात्मिक स्वरूप के साथ-साथ पद्मपाणी, व्रजपाणी, बोधिसत्व, अवलोकितैश्वर आदि के स्वरूपों के साथ बुद्ध के जन्म से मृत्यु तक विविध पहलुओं का चित्रण किया गया है; यथा – बुद्ध जन्म, मायादेवी का स्वप्न, महाभिनिष्क्रमण, संबोधि, महापरिनिर्वाण और बुद्ध के जीवन की अलौकिक घटनाएँ प्रमुख हैं, जैसे-विवाह, गृह त्याग इत्यादि।
- तीसरी श्रेणी : जातक कथाएँ :— जातक कथाओं के चित्रों में जातकों से अनुबद्ध ( जातक कथाएँ ) अनेक ऐसी प्राचीन कथाएँ हैं। इन जातक कथाओं में भगवान बुद्ध के जीवन से संबद्ध सर्वविदित घटनाओं का कथा रूप में निरूपण किया गया है, जैसे – ब्राह्मण जातक, शिवि जातक, छदन्त जातक, वेस्सान्तर, हस्ति, मुखपंख सरूजातक, मृग आदि जातक कथाओं का चित्रण हुआ है।
इस वर्गीकरण को सरलीक रूप में हम — अलंकरण, चित्रण और वर्णन कह सकते हैं।
अजन्ता के भित्ति चित्रों में रंग
अजन्ता के भित्ति चित्रों में खनिज रंगों का ही प्रयोग हुआ है, ताकि वे चूने के क्षारात्मक प्रभाव से अपना अस्तित्व को न खो बैठें।
रंगों में सफेद, लाल, पीला और विभिन्न भूरे रंगों का प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त नीला ( लेपिस लाजुली ) और गन्दे हरे ( संग सब्ज टेरावर्ट ) रंग हैं। सफेद रंग अपारदर्शी है और चूने या खड़िया से बनाया गया है। लाल तथा भूरे खनिज रंग हैं। हरा रंग एक स्थानीय पत्थर से बनाया गया है।
लेपिस लाजुली रंग फारस से आयात किया जाता था, शेष रंग स्थानीय थे।
अजन्ता की भित्ति चित्रण विधि
अजन्ता की दीवारों पर चित्रों के लिए धरातल तैयार करने के लिये सर्वप्रथम प्लास्टर की परत चढ़ायी जाती थी।
शंखचूर्ण, शिलाचूर्ण, सिता मिश्री, गोबर, सफेद मिट्टी, चोकर आदि को फेटकर गाढ़ा लेप तैयार किया जाता था। चित्र बनाने के पूर्व दीवार को भली-भाँति रगड़ कर साफ करते थे तथा फिर उसके ऊपर लेप चढ़ाया जाता था।
और आसान शब्दों में कहें तो प्लास्टर का मसाला तैयार करने में खड़िया, चूना, गोबर, धान की भूसी को अलसी के तेल में मिलाकर प्रयोग किया जाता था। प्लास्टर की पहली परत पौन इंच से लेकर एक इंच तक मोटी होती थी। पहली परत के ऊपर अंडे के छिलके की मोटाई के बराबर सफेद प्लास्टर का लेप चढ़ा दिया जाता था। इससे गुफाओं की चट्टानी दीवारों के छिद्र भर जाते थे और दीवार चित्र बनाने के लिये समतल हो जाती थी।
चित्र का खाका बनाने के लिये लाल खड़िया का प्रयोग होता था। रंगों में लाल, पीला, नीला, काला तथा सफेद रंग प्रयोग में लाये जाते थे। उल्लेखनीय है कि अजन्ता के पूर्व कहीं भी चित्रण में नीले रंग का प्रयोग नहीं मिलता। लाल तथा पीले रंग का प्रयोग अधिक किया गया है। रंगों में अलौकिक चमक है जो अंधेरी रात में चाँद-तारों की भाँति चमकते हैं।
‘ई.वी. हेविल’ ( Ernest Binfield Havell ) का मत है कि अजन्ता में चित्र पूर्ण हो जाने पर जब सूख जाते थे, तब चित्र में अत्यधिक प्रकाश को उभारने के लिये टेम्परा रंग से चित्रण किया जाता था ( सफेद मिश्रित गाढ़ा रंग )५।
- ५A History Of Fine Art In India & Ceylon : Vincent A. Smith.
‘लेडी हैरिंघम’ के विचार से सफेद प्लास्टर पर पूर्ण विवरण सहित लाल रेखांकन करने के पश्चात् एक, दो पतले गन्दे रंग टेरावर्ट ( गंदा सब्ज रंग ) खनिज रंग से कहीं-कहीं लाल रंग झलकता छोड़ कर रंगों की अन्य ताने लगा दी जाती थीं तथा फिर स्थानीय रंग लगाये जाते थे। बाद में काले और भूरे रंग से निश्चित सीमा रेखाएँ बनायी जाती थीं। अन्त में आवश्यकतानुसार छाया का प्रयोग किया जाता था। गोलाई दर्शाने के लिए विरोधी रंग अथवा काले रंगों के प्रयोग द्वारा आकृति को एक निश्चित रूप प्रदान किया जाता था।
किन्तु ‘ग्रिफिथ्स महोदय’ ( John Griffiths ) ने चित्र के रेखांकन में केवल लाल रंग के प्रयोग के द्वारा रेखांकन करने की पद्धति का विवरण दिया है।
अजन्ता में फ्रेस्को और टेम्पेरा दोनों ही विधियों से चित्र बनाये गये हैं।
- प्रथम ( फ्रेस्को ) में गीले प्लास्टर पर चित्र बनाये जाते थे तथा चित्रकारी विशुद्ध रंगों द्वारा ही की जाती थी।
- द्वितीय विधि ( टेम्पोरा ) में सूखे प्लास्टर पर चित्र बनाये जाते थे तथा रंग के साथ अंडे की सफेदी एवं चूना मिलाया जाता था।
अजन्ता : संक्षिप्त विश्लेषण
चित्रों में अनेक शैलीगत ( प्रकारगत ) अन्तर पाये जाते हैं। पाँचवीं शताब्दी के अजन्ता के चित्रों में बाहर की ओर प्रक्षेप ( outward projections ) दिखाया गया है। रेखाएँ अत्यन्त स्पष्ट और पर्याप्त लयबद्ध हैं। शरीर का रंग बाह्य रेखा से मिल गया है जिससे चित्र का आयतन फैला हुआ प्रतीत होता है। आकृतियाँ पश्चिमी भारत की प्रतिमाओं की तरह भारीपन लिये हुए हैं।
प्रथम चरण में बनी गुफाएँ, विशेषकर गुफा संख्या ९ व १० में भी चित्रों की रेखाएँ पैनी हैं, रंग सीमित हैं। इन गुहाओं में आकृतियाँ स्वाभाविक रूप लिए हुए बिना बढ़ा-चढ़ा कर अलंकृत किए हुए रंगी हैं।
भौगोलिक स्थान के अनुसार घटनाओं को समूहन किया गया है। सतहों में क्षैतिज तरीके आकृतियों का नियोजन किया गया है। भौगौलिक स्थिति को वास्तु के बाहरी हिस्सों से पृथक कर दिखाया गया है।
साँची की मूर्तिकला से समानता से यह स्पष्ट होता है कि किस तरह समसामयिक मूर्तिकला और चित्रकला की प्रक्रिया साथ-साथ चल रही थी। पगड़ी की आगे की गाँठ उसी प्रकार से आकृतियों में दिखाया गया है, जिस प्रकार मूर्तियों में दिखाया गया है। हालाँकि पगड़ियों के कुछ अलग प्रकार भी चित्रित हैं।
द्वितीय चरण के चित्रों का अध्ययन गुफा संख्या १० व ९ की दीवारों और स्तम्भों पर बने चित्रों से किया जा सकता है। बुद्ध की ये आकृतियाँ पाँचवीं शताब्दी ईसवी के चित्रों से भिन्न हैं। चित्रकला के क्षेत्र में इस प्रकार की गतिविधियों को धार्मिक आवश्यकताओं की दृष्टि से समझा जाना चाहिए। गुफाओं का निर्माण और चित्रकला की गतिविधियाँ साथ-साथ चलती रहीं।
तृतीय या अन्तिम चरण के चित्र मुख्यतः गुफा संख्या १६, १७, १ और २ में देखे जा सकते हैं। इसका कदापि यह अर्थ नहीं कि अन्य गुफाओं में चित्र निर्माण नहीं हुआ। वस्तुतः प्रत्येक गुहा में चित्र बनाये गये परन्तु उनमें से कुछ ही शेष रह गये। इन गुफा चित्रों में प्रतीकात्मक या सांकेतिक वर्गीकरण पाया जाता है।
साथ ही यह भी देखा गया है कि इन चित्रों में त्वचा के लिए विविध रंगों; जैसे – भूरा, पीलापन लिए हुए भूरा, हरित, पीले आदि का प्रयोग किया गया है जो विविध प्रकार की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है।
गुफा संख्या १६ व १७ के चित्रों में सटीक, संयत व शालीन रंगात्मक गुणों का प्रयोग हुआ है। इनमें गुफा की मूर्तियों के समान भारीपन नहीं पाया जाता है। आकृतियों के घुमाव लयबद्ध हैं। भूरे रंग की मोटी रेखाओं से उभार को प्रदर्शित किया गया है। रेखाएँ प्रभावी और उर्जावान हैं। आकृति संयोजनों ( figural composition ) को भी प्रमुखता ( highlights ) देने का प्रयास किया गया है।
गुहा संख्या १ एवं २ के चित्र व्यवस्थित रूप में बने हुए स्वाभाविक से हैं जोकि गुफा की मूर्तियों से सामंजस्य रखते हैं। वास्तु का संयोजन सरल व सामान्य है। आकृतियों को त्रि-आयामी बनाने और विशेष प्रभाव लाने के लिए गोलाकार संयोजन का प्रयोग किया गया है। आधी-बंद ( half-closed ) लंबी ( elongated ) आँखें बनायी गयी हैं। यहाँ पर चित्रकारों के विभिन्न समूहों द्वारा चित्रों का निर्माण किया गया जिसका पता उनकी ( भित्तिचित्रों ) प्रतीकात्मकता एवं शैलीगत विशेषताओं से चलता है। स्वाभाविक भाव-भंगिमाएँ और बिना बढ़ा-चढ़ा कर बनाए गये चेहरों का प्रयोग असाधारण रूप से किया गया है।
इन प्रतिमाओं के विषय बुद्ध के जीवन की घटनाएँ, जातक और अवदान कथाओं के प्रसंग हैं। कुछ चित्र, जैसे सिंहल अवदान, महाजनक जातक और विधुरपंडित जातक के प्रसंग गुफा की सम्पूर्ण दीवार को ढके हुए हैं। यह उल्लेखनीय है कि छद्दंत जातक की कथा आरंभिक काल की गुफा संख्या १० पर विस्तारपूर्वक चित्रित की गयी है। भिन्न-भिन्न घटनाओं को अनेक भौगोलिक स्थलों के अनुसार एक साथ रखा गया है; जैसे कि जंगल में घटित घटनाओं को राजमहल में घटित घटनाओं से अलग दिखाया गया है। गुफा संख्या १० में छदंत का दृश्य पूरी तरह पाली पाठ का अनुसरण करता है, जबकि गुफा संख्या १७ में वही प्रसंग भिन्न रूप में चित्रित किया गया है।
यह द्रष्टव्य है कि पद्मपाणि और वज्रपाणि की आकृतियाँ अजन्ता में आम हैं और अनेक गुफाओं में पायी जाती हैं। लेकिन वे गुफा संख्या १ में सर्वोत्तम रीति से सुरक्षित हैं।
गुफा संख्या २ की कुछ आकृतियाँ वेंगी की प्रतिमाओं से सम्बन्ध रखती हैं साथ ही कुछ प्रतिमाओं के निरूपण में विदर्भ मूर्तिकला का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है।
विविध गुफाओं के चित्र
अजन्ता के गुफाचित्र बौद्ध धर्म से संबन्धित हैं। इनमें बुद्ध और बोधिसत्वों का चित्रण मिलता है। बुद्ध के जीवन की विविध घटनाओं और जातक कथाओं के दृश्यों का अंकन इस गुफाओं का प्रमुख विषय है।
अजंता के चित्रों के तीन विषय हैं—
- अलंकरण : छतों, कोनों इत्यादि स्थानों को सजाने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य जैसे वृक्ष, पुष्प, नदी, झरने, पशु-पक्षी आदि और रिक्त स्थानों के लिए अप्सराओं, गंधर्वों एवं यक्षों के चित्र;
- चित्रण : बुद्ध और बोधिसत्व के चित्र, और
- वर्णन : जातक ग्रंथों के वर्णनात्मक दृश्य।
करुणा, प्रेम, लज्जा, भय, मैत्री, हर्ष, उल्लास, चिंता, घृणा जैसी मानोभावनाओं का चित्रकला के माध्यम से अद्वितीय दृश्यांकन किया गया है।
इन गुफाओं और चित्रों का विवरण इस प्रकार है :—
गुफा संख्या नौ
९वीं गुफा एक चैत्य गुफा है। चैत्य गुफाएँ बौद्ध भिक्षुओं के उपासना स्थल के रूप में तैयार की जाती थीं। यद्यपि ९वीं गुफा की रचना ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में हुई थी। तथापि इसमें हीनयान और महायान दोनों सम्प्रदायों से संबंधित चित्र मिलते हैं। इसके आधार पर यह माना जा सकता है कि इसका रचना काल तीसरी अथवा चौथी शताब्दी ईसवी तक विस्तृत रहा है। इस गुफा में एक ठोस हरमिक वाला ( तीन छतरियों के शीर्ष वाला ) पाषाण स्तूप बना है। गुफा की बनावट घोड़े की नाल के समान गोलाई लिये हुये खोदी गई है। इस गुफा में २३ स्तम्भ हैं।
गुफा संख्या नौ के कुछ प्रमुख चित्र निम्न हैं :-
- ‘एक बैठी हुई स्त्री’ : इस गुफा में ‘ग्रिफिथ्स महोदय’ ने एक दीवार के प्लास्टर के एक बड़े खण्ड की पपड़ी ( परत ) छुड़ाकर उसके नीचे चित्र खोजा है। यह चित्र चट्टान पर पॉर्सलीन के समान चमकदार प्लास्टर चढ़ाकर उसके ऊपर से बनाया गया था। इस चित्र में ‘एक बैठी हुई स्त्री’ को बनाया गया है। यह इस गुफा का सबसे प्राचीनतम चित्र है।
- स्तूप पूजा : इस गुफा का अन्य प्रसिद्ध चित्र ‘स्तूप पूजा’ का है। चित्र में लगभग सोलह व्यक्तियों का एक समूह ( पुजारियों का एक दल ) स्तूप की ओर जाते हुये दिखाया गया है। अर्धवृत्ताकार स्तूप, तोरणद्वार, पुरुषों की लट्टूदार पगड़ी, जिसमें लट्टूनुमा बड़ा मोती आगे माथे पर निकला है। पुरुषों के भारी वर्गाकार चेहरे, बड़े-बड़े मोतियों की मोटी मालाएँ, कान में भारी-भारी बड़े आभूषण, हाथों-पैरों में बड़े-बड़े कड़े, कमर में डेढ़ गाँठ लगाये हुये लटकते कमरबन्द अथवा फैंटे, जिनमें से बाहर निकला हुआ पेट दर्शनीय हैं। दायीं ओर के भाग में शहनाई, झांझ, मृदंग और शहनाई बजाते हुये वादक चित्रित हैं। किसी राजा अथवा श्रेष्ठी द्वारा चैत्य को बनवाकर संघ को भेंट देने के समारोह की घटना इस चित्र द्वारा प्रस्तुत की गयी है।
- नागपुरुष : इसी गुफा के भीतरी भाग पर बायीं ओर खिड़की के ऊपर पर्वत कन्दरा पर एक वृक्ष की छाँव में दो नागपुरुष बैठे हुये चित्रित किये गये हैं। नाग राजा को प्रजा के लोगों की बातें सुनते हुए दर्शाया गया है। उड़ती हुई अप्सराएँ चित्र में गति का अवबोध कराती हैं।
- पशुओं को खदेड़ते चरवाहे : इस गुफा की एक अन्य भित्ति पर ‘पशुओं को खदेड़ते चरवाहे’ अंकित किये गये हैं। यहाँ पशुओं की चंचलता और गति को रेखाओं द्वारा सुन्दर रूप से अंकित किया गया है।
इन चित्रों की अपनी विशेषताएँ हैं, जो इनको गुप्तकालीन चित्रों से अलग करती हैं। उदाहरणार्थ के लिए :-
- इन चित्रों में कुल चार रंगों का ही प्रयोग हुआ है। जिसमें काला, पीला, हरा तथा हिरौंजी है।
- सभी आकृतियों के चेहरे और मुद्राएँ एक जैसी हैं।
- भाव-भंगिमाओं का अभाव है। आँखें भावशून्य हैं।
- चित्रों की बाह्य रेखाएँ काले रंग से बनी हैं।
- यहाँ अनेक प्रकार के वृक्ष और उनमें अलग-अलग ढंग की पत्तियाँ बनाई गई हैं और अलग-अलग फूलों एवं फलों का अंकन है। इसको चित्रित करने में चित्रकार ने अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का परिचय दिया है।
- पशु, पक्षियों का चित्रण रीतिबद्ध ढंग से हुआ है।
- यहाँ स्तम्भों पर बुद्ध आकृतियाँ चित्रित हैं और भित्तियों पर चरवाहों के दृश्य भी बनाये गये हैं।
९वीं गुफा के चित्रों में एक विशेष प्रकार के शिरोवस्त्र अथवा पगड़ी धारण किये हुए पुरुषों को बनाया गया है। इनके गले में मोटी-मोटी मालायें हैं जिनमें धातु-खण्ड गूँथे गये हैं। कानों में बड़े-बड़े कर्णफूल जैसे आभूषण, हाथों में मोटे कड़े, कमर में विशेष प्रकार के कमरबन्द ( करधनी ) है। इसी तरह के शिरोभाग और आभूषण भरहुत व सांची की मूर्तियों में भी द्रष्टव्य हैं।
गुफा संख्या दस
१०वीं गुफा एक चैत्य गुफा है। यह एक प्राचीनतम चैत्य गुफा है। इसकी गहराई ९५ फीट है और ऊँचाई ३६ फीट है। इस गुफा का पीछे का हिस्सा घोड़े की नाल की तरह अर्द्धचंद्राकार है। इसके अन्दर एक स्तूप है। गुफा के बाह्य भित्ति पर एक लेख खुदा हुआ है, जिसके अनुसार यह चैत्य गृह जिसे आन्ध्र सातवाहन काल में ईसा से लगभग २०० वर्ष पूर्व बनाया गया था।
इस गुफा में दो विभिन्न काल-खण्डों में चित्रण हुआ मिलता। पहले वाले काल में साम जातक व छदन्त जातक के चित्र आते हैं, जो दाहिनी भित्ति पर हैं। आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व तक यहाँ अधिक चित्र पाये गये थे।
छदन्त जातक : अजन्ता के कलाकारों का प्रिय विषय ‘छदन्त जातक’ की कथाओं को यहाँ चित्रित किया गया है।
- चित्रकार ने घने जंगल में हाथियों को जल क्रीड़ा में मग्न अंकित किया है। नाना प्रकार के वृक्ष जिनमें बरगद, गूलर तथा आम चित्रित हैं। इनमें छदन्त हस्ति अपनी हथिनियों को सूंड से कमल पुष्प देते या कहीं पर अपने को अजगर से बचाते चित्रित है।
- दूसरी ओर जंगल में व्याघ्र प्रवेश करते हैं और छदन्त रूपी बोधिसत्व स्वयं उनके आगे समर्पण कर देते हैं।
- अन्तिम दृश्य में व्याघ्र को काशीराज के अन्तःपुर में पहुँचते दर्शाया है। काशीराज की रानी सुभद्रा पूर्व जन्म में छदन्त गज की हथिनी थी, अतः डाहवश वह छदन्त गजराज के दाँतों को काट कर लाने की आज्ञा देती है। कटे दाँतों को कहारों के कन्धों पर बहँगियों पर लदा हुआ देखकर मूर्छित हो जाती हैं। राजा सहारा देता है, चार दासियाँ जो पीछे खड़ी हैं, घबराई हुई हैं और एक दासी सहारा देने के लिये कदम आगे बढ़ा रही है।
जुलूस : बायीं भित्ति पर ‘एक जुलूस’ का चित्रण है।
- जुलूस दृश्य में ‘बोधिवृक्ष व स्तूप की उपासना हेतु राजा तथा उनका दल’ चित्रित है। दल में आगे पैदल, सशस्त्र घुड़सवार और पीछे राजा आठ स्त्रियों के मध्य में है, जो तीव्र गति से चल रही हैं। दृश्य में दो स्त्रियों ने अस्थि मंजूषा उठा रखी है। एक स्त्री पवित्र जल का कलश उठाये हुये है। स्त्रियों के वक्षस्थल खुले हुये और चेहरों पर अधीरता का भाव है। चित्र का निचला भाग नष्ट हो गया है।
- यह राजकीय जुलूस एक तोरण द्वार से होकर स्तूप तक जाता है। राजा स्तूप की पूजा करते हैं।
- हाथी सूँड़ उठाकर स्तूप को अभिनंदन करते हुए चित्रित किया गया है।
- स्तूप पूजा का यह दृश्यांकन अत्यन्त मनोहर है।
साम जातक : इसी गुफा में ‘साम जातक’ का चित्र है, इसका कथानक श्रवण कुमार वाली कहानी से मिलता-जुलता है।
- इस चित्र में अन्धे माता-पिता की सेवा करने वाले एक काले वर्ण के युवक ‘श्याम’ को काशीराज के द्वारा तीर से मार देने की कथा आती है।
- परन्तु यहाँ वृद्ध माता-पिता के विलाप को सुनकर एक देवी ने ‘श्याम’ को पुनर्जीवित कर दिया है।
- कन्धे पर घड़ा लिये श्याम की आकृति सुन्दर है और माता-पिता की आकृति में वेदना है। भागते हुये हिरणों का अंकन भी मार्मिक है।
इस प्रकार उपर्युक्त चित्रों में संयोजनों की परिपक्वता, भाव, रेखांकन, रंग, लालित्य और चित्रोपम तत्त्वों के मेल का सुन्दर उद्धरण हैं।
इस गुफा में स्तम्भों पर ‘बुद्ध की समभंगी आकृतियाँ’ बनी हैं। उनके कपड़ों तथा सिर के पीछे प्रकाश पुंज ( तेज मण्डल ) में गान्धार शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
हाथियों को विविध प्रकार से क्रीड़ा करते हुए सुन्दरता से चित्रित किया गया है। आम, गूलर, बरगद जैसे वृक्षों का भी चित्रण है।
यहाँ दायीं ओर के पाँचवें स्तम्भ के नीचे एक पाँचवीं शताब्दी का लेख मिलता है, जिसके आधार पर इन बुद्ध आकृतियों का समय अनुमानतः पाँचवीं शताब्दी भी स्थिर किया जा सकता है।
गुफा संख्या सोलह
१६वीं गुफा सभी गुफाओं के मध्य में स्थित है। यह एक विहार गुफा है। यहाँ से सप्तकुण्ड नामक वह जलस्रोत भी दिखायी देता है, जो वाघुरनदी ( Waghur River ) का उद्गम है। प्रवेश द्वार पर दो हाथी की प्रतिमा उत्कीर्ण हैं, फिर बायीं ओर सीढ़ियाँ चढ़कर सामने दीवार पर नागराज की सिंहासन पर आरूढ़ एक प्रतिमा है।
गुफा संख्या १६ अजन्ता के विहारों में सबसे सुन्दर है। इसके मण्डप में २० स्तम्भ हैं और यह ६५ वर्ग फीट के आकार में बनी है। गर्भगृह वर्गाकार है जिसमें बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा लम्बपाद मुद्रा ( पैर लटकाये हुए ) में बनी है। गुहा के स्तम्भों की विविधता दर्शनीय है क्योंकि किसी भी दो स्तम्भ में समानता नहीं हैं।
१६वीं गुफा में सर्वाधिक चित्र हैं। यहाँ की बायीं दीवार पर प्राप्त लेख के अनुसार इस गुफा का निर्माण ४७५ ई० से ५०० ई० के मध्य वाकाटक राजा ‘हरिषेण’ के मंत्री ‘वराहदेव’ ने तपोधन तापसों के निवास हेतु दान स्वरूप करवाया था। वाकाटक नरेश का शासनकाल ४७५ ई० से ५१० ई० के मध्य था। मोटे तौर पर इसकी चित्रकारी ५०० ई० के लगभग से प्रारम्भ होती है और १७वीं गुफा के कुछ पूर्व की है।
वाकाटकों के नागों, चक्रवर्ती गुप्तों और कदम्बवंशी शासकों से वैवाहिक सम्बन्ध थे :-
- प्राचीन ग्वालियर राज्य के नाग राजा भावनाग की पुत्री ‘पद्मावती’ का विवाह ‘वाकाटक प्रवरसेन’ से हुआ था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री ‘प्रभावती गुप्त’ का वाकाटक राजा रूद्रसेन द्वितीय ( ३८५ – ३९० ई० ) से विवाह किया था।
- कदम्बवंशी नरेश काकुत्सवर्मन् की एक कन्या का विवाह गुप्तवंश में तो एक कन्या का विवाह वाकाटक वंश में ( नरेन्द्रसेन – ४४० से ४६० ई० ) हुआ था।
वाकाटक शासक तथा उनके कुछ मंत्री बौद्ध धर्म के संरक्षक थे। इस काल में भगवान बुद्ध की प्रतिमा का पूर्ण विकास हो चुका था।
यहाँ पर एक विशाल प्रलम्बपाद मुद्रा में महात्मा बुद्ध की मूर्ति बनी हुई मिलती है। इस बुद्ध प्रतिमा को ‘चैत्यमन्दिरम्’ कहा जाता है।
इस विहार में अभी भी बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं से संबंधित चौदह चित्र अच्छी स्थिति में मिलते हैं। इन चित्रों में बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं में ‘माया देवी का स्वप्न’, ‘धर्मोपदेश’, ‘नन्द की दीक्षा’ आदि हैं। जातक कथाओं में ‘हस्ति जातक’, ‘महा उम्मग्ग जातक’ ( दो स्त्रियों तथा बारक की कथा ) है। ‘नन्दकुमार का वैराग्य’ और विभिन्न आलेखन बनाये गये हैं।
इस गुफा में २० स्तम्भ हैं। छत का तक्षण कार्य साँची की परम्परा की निर्वाह करता हुआ प्रतीत होता है। इस गुफा में उच्चकोटि के कलात्मक दृश्य देखे जा सकते हैं।
बुद्ध उपदेश : इस गुफा के सबसे भव्य चित्र ‘बुद्ध उपदेश’ का है। चित्र में बुद्ध को तुषित स्वर्ग में अपने अन्तिम जन्म के लिए अवतरित होते चित्रांकित किया गया है। ‘ग्रिफिथ्स महोदय’ ने इस चित्र को प्रदर्शित किया है। इसमें बहुत सी आकृतियाँ और बुद्ध की मुख- मुद्रा नष्ट हो चुकी हैं, परन्तु उनके अनुयायियों की आकृतियों को कम क्षति पहुँची है। समस्त आकृतियों में एकाग्रचित्तता, भक्ति, नम्रता इत्यादि के भाव भव्य रूप से अंकित किये गये हैं।
सुजाता की कहानी : इस गुफा की दाहिनी भित्ति पर ‘सुजाता की कहानी’ चित्रित है, जिसमें गायों का सुन्दर चित्रण है और भवन में गुप्तकालीन प्रस्तर शिल्प जैसी ज्यामितीय तरह की जाली काटी गई है।
मरणासन्न राजकुमारी : इस गुफा में सबसे उत्कृष्ट चित्र ‘मरणासन्न राजकुमारी’ ( Dying Princes ) नाम से विख्यात है। इस चित्र में करुणा की पराकाष्ठा है। यह पति के विरह में मरती हुई राजकुमारी का चित्र है। चित्र में एक कुलीन महिला ऊँचे आसन पर सिर लटकाये, अधखुले नेत्रों और शिथिल अंगों सहित अधलेटी है। उसके चारों ओर परिवारजन शोकाकुल अवस्था में खड़े हैं।
उसके पीछे एक दासी उसे सहारा देकर ऊपर उठाये है। दूसरी दासी अपना एक हाथ वक्षस्थल पर रखकर और दूसरे हाथ से उत्सुकता से उसकी नाड़ी का परीक्षण करती हुई उसे देख रही हैं। उसको मुख-मुद्रा गम्भीर और चेहरे पर मृत्यु के दर्द का एक विषाद भय छाया हुआ प्रदर्शित है। एक अन्य दासी पंखे से हवा कर रही है। नीचे भूमि पर अन्य स्नेही व स्वजन बैठे हैं, जिन्होंने राजकुमारी के जीवन की आशा छोड़ दी है और रुदन आरम्भ कर दिया है। इसी दल में एक स्त्री अपना मुख छिपाये रो रही हैं। सफेद टोपी लगाये एक वृद्धजन दरवाजे पर खड़ा हैं, दूसरा एक खम्भे के पीछे बैठा है।
यह राजकुमारी कोई और नहीं, वरन् बुद्ध के भाई नन्द की पत्नी ‘सुन्दरी’ हैं। जिसकी ऐसी दशा नन्द के द्वारा भिक्षु बन जाने पर अपना मुकुट एक सेवक के द्वारा सुन्दरी के पास सूचना के अभिप्राय से भेजने पर हुई है। सफेद टोपी लगाये एक वृद्धजन हाथ में मुकुट लिये द्वार के निकट खड़ा है। सामने की ओर दो स्त्रियाँ हैं, जिनमें से एक पारसी टोपी पहने हैं और हाथ में एक ढका हुआ कलश लिये है, जो सम्भवत: कोई औषधि है। दूसरी स्त्री के बाल नीग्रो जैसे हैं, वह कुछ माँगने या बताने की मुद्रा में है। दूसरी ओर दो परिचारिकाएँ एक अलग प्रकोष्ठ ( कक्ष ) में बैठी हैं।
विद्वानों ने इसकी ( मराणासन्न राजकुमारी ) पहचान बुद्ध के सौतेले भाई नन्द की पत्नी सुन्दरी से की है। ग्रिफिथ, बर्गेस और फर्ग्युसन जैसे कलामर्मज्ञों ने इस चित्र की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है
इस चित्र के विषय में ‘ग्रिफिथ्स महोदय’ का मत है कि, “यह चित्र, मुझे लगता है, कला के इतिहास में इसका जोड़ नहीं है। फ्लोरेन्स का चित्रकार इससे अच्छा रेखांकन कर सकता था और वेनिस का कलाकार अच्छे रंग भर सकता था, किन्तु दोनों में से कोई इससे अधिक सुन्दर भाव का प्रदर्शन नहीं कर सकता था।”८
- ८ “This picture, I consider, cannot be surpassed in the history of art. The Florentine artists could have put better drawing and Venetian better colour but neither could have thrown greater expression into it. — J. Griffiths : Journal of Asiatic Society of Bengal, Volume – 47.
नन्द कुमार का वैराग्य या भिक्षु होना : यहाँ एक दीवार पर अश्वघोष रचित ‘सौन्दरानन्द महाकाव्य’ के आधार पर बुद्ध के भाई ‘नन्द जी कथा’ चित्रित है, जो करुण भाव का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। एक बार बुद्ध कपिलवस्तु आये और राहुल एवं यशोधरा से भेंट करने के पश्चात् वे भिक्षा हेतु अपने मौसेरे भ्राता नन्द के घर गये। बुद्ध नन्द को विहार ले जाते हैं तथा उसकी इच्छा के विपरीत मुण्डन करवा कर उसे भिक्षु बनाकर संघ में प्रविष्ट कर लेते हैं। चित्र के एक भाग में नाई को नन्द के सिर के बाल काटते हुये दिखाया गया है। पुलकित नन्द, पत्नी के मोह में ही लीन रहते हैं। इस मनोस्थिति पर जब भिक्षु उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, तो नन्द को वैराग्य हो जाता है। एक मण्डप में नन्द को बैठा हुआ चित्रित किया है।
बुद्ध उसे आकाश मार्ग में अनेक सुन्दर लोक दिखाने लेकर जाते हैं। इसी प्रसंग से संबंधित दृश्य को एक विस्तृत भिति खण्ड पर कई भागों में तैयार किया गया है।
अजातशत्रु और बुद्ध की भेंट : इसी गुफा में ‘अजातशत्रु व बुद्ध की भेंट’ का भव्य दृश्य को अंकित किया गया है। अजातशत्रु अपने पिता का वध करने पर बड़ा पीड़ित और अशान्त मनोभाव से ग्रसित हैं। इस विषाद से परिहार के लिए उसके हृदय में किसी महापुरुष के उपदेश सुनने की इच्छा हुई। राजवैद्य ने उन्हें आम्र वाटिका में ठहरे भगवान बुद्ध के दर्शनों के लिये प्रेरित किया। चित्र में राजा अजातशत्रु को जुलूस के साथ दिखाया है। जुलूस में सुसज्जित हाथी, सिपाही, बाँसुरी और तुरही-वादक दिखाये गये हैं।
१६वीं गुफा की दायीं दीवार पर प्रसिद्ध चार दृश्यों का अंकन हुआ है — वृद्ध पुरुष, व्याधिग्रस्त व्यक्ति, मृतक और प्रसन्नचित्त सन्यासी। इन्हीं दृश्यों को देखकर गौतम बुद्ध को वैराग्य हुआ था।
बुद्ध की पाठशाला : पाठशाला में बालकों की क्रीड़ा का सुन्दर अंकन हुआ है। पास ‘धनुर्विद्या अभ्यास’ के दृश्य हैं। ऊपर ‘बुद्ध के सम्मोहन’ का दृश्य है। बीच में ‘बुद्ध के गृह त्याग का दृश्य’ है, जो खराब अवस्था में हैं।
‘माया देवी के स्वप्न’ के दृश्य के ऊपर ‘बुद्ध जन्म’ के कई अन्य दृश्य चित्रित हैं। इनमें ‘बुद्ध जन्म लेते ही सात पग चलने वाली कथा’ को सात कमल के फूलों के प्रतीक में अंकित किया गया है। यह प्रतीकात्मकता पुरानी परम्परा का अनुसरण प्रतीत होता है। भगवान बुद्ध को बालक के रूप में इस कथा में चित्रित किया गया है।
‘सुजाता को खीर’, ‘राजगृह की गलियों में भिक्षापात्र लिये बुद्ध’, ‘आषाढ़ में गौतम की प्रथम तपस्या’ आदि अन्य चित्र भी यहाँ बने हैं।
माया देवी का स्वप्न : इस चित्र में माया देवी की आकृति में पैर ही शेष बचे हैं। ‘ग्रिफिथ्स महोदय’ द्वारा लिखा, चित्रों का वर्णन इस प्रकार है- एक ओर महाराज शुद्धोधन और माया देवी स्वप्न की चर्चा करते हुये सोच-विचार में लीन दर्शाये हैं। माया देवी के चारों ओर दासियाँ अत्यन्त सुन्दर मुद्राओं में बैठी हुई हैं, परन्तु उनकी आँखों में चित्रण की निर्बलता दृष्टिगोचर होती है
हस्ति जातक : यह चित्र यहाँ मनोहारी रूप में दर्शाया गया है। कथा के अनुसार अपने किसी पूर्व जन्म में बोधिसत्व ने शक्तिशाली हाथी के रूप में जन्म लिया और वे उस बियावान जंगल में अकेले निवास करते थे। एक दिन जंगल में दर्द भरी आवाज सुनकर हस्ति रूपी बोधिसत्व आवाज की दिशा में चले गये, जहाँ उन्होंने भूखे-प्यासे आदमियों को देखा और उन्हें उन पर दया आ गयी। यात्रियों की भूख मिटाने के लिये वे स्वयं झील के पास वाली पहाड़ी से कूद गये और मृत्यु का वरण किया। इस प्रकार यात्रियों ने इनके मांस और झील के पानी से अपनी भूख और प्यास शांत की। लेकिन जब उन्होंने मृत हाथी के विषय में जाना, तो वे उसके त्याग से अभिभूत हो गये।
चित्र में भूखे यात्री पहाड़ी पर खड़े सफेद हाथी की तरफ इशारा कर रहे हैं। दृश्य के दूसरे भाग में मृत हाथी को जमीन पर पड़े हुये दर्शाया है। जिस पर दो यात्री तेज चाकू से मांस निकाल रहे हैं। कुछ मनुष्यों को मांस भूनते, कुछ को खाते और कुछ को झील से पानी लाते दर्शाया है।
महा उम्मग्ग जातक : इस चित्र में देवी शक्ति से युक्त ‘महोसंघ’ नाम गम्भीर विवादों को गम्भीरता एवं बुद्धिमत्तापूर्वक समाधान करते हुये प्रदर्शित किया गया है। बच्चे की असली माता कौन-सी है? इसके समाधान के लिये जब बच्चे के दो टुकड़े करने का प्रस्ताव रखा गया, तो असली माँ बच्चे पर अपने अधिकार छोड़ने के लिये तैयार हो गयी। बालक द्वारा
इसी तरह ‘रथ के स्वामित्व’ का प्रश्न हल किया गया है। अपनी बुद्धि का परिचय उन्होंने पुनः दिया है, जब उन्होंने कातती हुई स्त्री का सूत का गोला एक दूसरी स्त्री द्वारा चुरा लेने पर चोर स्त्री का पता लगाने के लिये यह पूछा कि गोला किस वस्तु पर लपेटा गया था।
१६वीं गुफा के एक दृश्य में बुद्ध के ‘महाभिनिष्क्रमण’ का चित्रांकन है जिसमें वे अपनी पत्नी, पुत्र और परिचायिकाओं को त्यागकर जाते हुए दिखाये गये हैं। उनकी वैराग्य भावना दर्शनीय है।
बुद्ध के जन्म तथा उनके सात पग चलने की कथा को कमल के सात फूलों के प्रतीक के माध्यम से चित्रित किया गया है।
गुफा संख्या सत्रह
१७वीं गुफा विहार गुफा है। १७वी गुफा को ‘चित्रशाला’ भी कहा जाता है। अजन्ता में प्राप्त गुफाओं में से १७वीं गुफा सबसे अच्छी अवस्था में है। इस गुफा का निर्माण वाकाटक वंश के राजा ‘हरिषेण’ के एक श्रद्धालु मण्डलाधीश ने करवाया था।
१७वीं गुफा भी आकार-प्रकार में सोलहवीं गुहा जैसी है। बरामदे की दीवारों पर चित्रित भावचक्र ( जीवन-चक्र ) के कारण पहले इसे राशिचक्र गुफा ( Zodiac cave ) कहा जाता था। इसमें सर्वाधिक भित्ति चित्र सुरक्षित है।
इस गुफा में सोलहवीं गुफा की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण चित्र हैं और उसके बाद के हैं। ‘डॉ. बर्गेस’ ने इस गुफा के लगभग इक्कीस दृश्यों का वर्णन दिया है, जिनमें बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्रों की अपेक्षा जातक कथाओं के चित्र अधिक हैं और सुरक्षित भी।
अजन्ता की गुफाओं में जातक कथाओं से लिये गये दृश्यों का भी बहुविध अंकन प्राप्त होता है। जातक कथायें सबसे अधिक सत्रहवीं गुफा में चित्रित की गयी हैं। जातकों से संबंधित चित्रों में व्यग्रोधमृग जातक, छदन्त जातक, महाकपि जातक, मातृपोषक जातक, शिवि जातक, साम जातक, वेस्सान्तर जातक, महाहंस जातक, महिष जातक, सिंहल अवदान, मच्छ जातक, महासुतसोम जातक, रुरु जातक, हस्ति जातक इत्यादि अंकित किये गये हैं।
इसके साथ ही आठ पापों से बचने के लिये बुद्ध का आदेश, नीलगिरी प्रकरण, जीवन कूप, मैत्रेय और मानुषी बुद्ध, श्रावस्ती का चमत्कार, बुद्ध का संघ को उपदेश तथा उड़ती हुई गन्धर्व अप्सराएँ व छत पर सुन्दर आलेखन हैं।
मातृपोषक जातक : जातक कथाओं में ‘मातृपोषक जातक’ की कथा को सुन्दरता से अंकित किया गया है। कथा इस तरह है — एक बार बुद्ध देव श्वेत हाथी के रूप में अवतीर्ण हुये थे। उनको पकड़कर काशीराज के पास लाया गया। परन्तु यहाँ उन्होंने अपनी माँ के वियोग में दाना-पानी सब-कुछ छोड़ दिया। काशीराज को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने श्वेत हाथी को पुनः जंगल में छुड़वा दिया। इस जातक कथा के अंकन में चित्रकार ने माँ से पुनः मिलन की दशा को बड़ी मार्मिक दृष्टि से अंकित किया है। जातक कथा के अन्तिम दृश्य में श्वेत गज अपनी सूँड़ से नेत्रहीन माँ को सहलाते हुये दर्शाया गया है।
हस्ति जातक : ‘हस्ति जातक’ का दृश्य गुफा नम्बर सोलह की भाँति ही किया गया है। परन्तु यहाँ एक गवाक्ष के ऊपर गहरे गुलाबी रंग से डेढ़ पंक्ति का प्राचीन लेख अंकित है।
वेस्सान्तर जातक : वेस्सान्तर जातक की कथा को यहाँ बड़े मार्मिक रूप से चित्रित किया गया है। चित्र में बोधिसत्व राजा भावपूर्ण हस्त-मुद्रा धारण किये आसन पर विराजमान है। सामने एक भिक्षुक अपने कुरूप दाँत निकाले कुछ भिक्षा याचना कर रहा है। उसकी याचना से सारा राज परिवार चकित है। राजा के पीछे बैठी स्त्रियाँ चिन्तामग्न हैं। भिक्षु राजा की दानशीलता का यश सुनकर एक यज्ञ में बलि के लिये उसके राजकुमार पुत्र को भिक्षा में प्राप्त करने आया है। राजकुमार तैयार है। पीछे एक सेवक पात्र में जल लाया है। जिससे यह जान पड़ता है कि राजा ने इस महादान का संकल्प कर लिया है। वेस्सान्तर अपनी पत्नी माद्री को राज्य से अपने निष्कासन का दुखद समाचार सुना रहे हैं।
अगले दृश्य में कुमार विदा ले रहे हैं। वे हाथ जोड़े बैठे हैं। माँ, दासी और चार अनुचर आदि दुःख में डूबे हुए अंकित किया गया है। इससे अगले दृश्य में वे रथ में बैठकर अपनी पत्नी और दो पुत्रों के साथ नगर से जाते हुए अंकित किया गया है। पृष्ठभूमि में बाजार का दृश्यांकन है।
अगले दृश्य में कुमार भिक्षुओं को अपने रथ और अश्व देकर पैदल ही जाते हुये दर्शाये गए हैं। इससे आगे ‘जूजुक’ नामक ब्राह्मण कुमार के दोनों बालकों को भिक्षा में माँगते हुये दर्शाया गया है। कथा के अन्त में कुमार वेस्सान्तर को वापस लौटते हुये चित्रित किया गया है। रानी पारदर्शी चोली और पारदर्शी अन्तरीय पहने है। इस चित्र में हस्त-मुद्राएँ व नेत्रों के भाव उल्लेखनीय हैं। रेखाएँ शक्तिशाली एवं सुडौल हैं। विशेष रूप से भिक्षु के असुन्दर ( कुरूप ) चेहरे, गंजे सिर, मुँह से बाहर निकले दाँत, भारी ठुड्डी, गाल की उठी हड्डी का सूक्ष्मता से अंकन हुआ है। एक अन्य चित्र में कई सौ चेहरे अंकित हैं, जिनमें सुन्दरियों के दलों, सवारियों, राज्याभिषेक, डाकनियों का युद्ध इत्यादि में कुरूप और सुन्दर सभी पक्षों का अंकन सफलता से हुआ है।
महाहंस जातक : इस घटना को दो दृश्यों में अंकित किया गया है। पहले दृश्य में दो हंसों को पद्मसरोवर में से पकड़ता हुआ बहेलिया और हंस भय से आतंकित उड़ते हुए। अन्य हंस का चित्रण बड़े व्यञ्जक रूप से हुआ है। दूसरे दृश्य में पकड़े हुए हंस को सिंहासन पर बैठा हुआ दर्शाया गया है। बोधिसत्व हंस काशी की राजसभा में राजा और रानी को उपदेश दे रहे हैं
यह चित्र अपने वर्ण-विधान के कारण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त कर चुका है। इस चित्र की कथा इस तरह है — भगवान बुद्ध एक जन्म में स्वर्ण हंस के रूप में अवतीर्ण हुये। इसी समय काशीराज की रानी खेम ने अपने स्वप्न में स्वर्ण हंस देखा। इसी कारण राजाज्ञा से स्वर्ण हंस रूपी बुद्ध और सुमुख हंस को पकड़कर काशी नरेश की सेवा में प्रस्तुत किया गया। काशी नरेश की राजसभा में स्वर्ण हंस राजा को उपदेश देता है। काशीराज भगवान बुद्ध को राजसिंहासन पर बैठाते हैं एवं उनसे उपदेश ग्रहण करते हैं।
राहुल समर्पण या माता और शिशु ( Mother and Child ) : यशोधरा से भगवान बुद्ध द्वारा भिक्षा माँगने वाले चित्र में यशोधरा के द्वार पर बुद्ध एक भिक्षुक के रूप में आये हैं। यशोधरा क्या दे? जब उनका पति स्वयं भिक्षुक बन कर आयें हों। उनके पास उनका एकमात्र पुत्र राहुल है। राहुल को वह अपने सर्वस्व की तरह बुद्ध को दे देती है। चित्रकार ने इस चित्र में राहुल के मुख पर अबोधता, यशोधरा के नेत्रों में श्रद्धायुक्त आत्म त्याग का भाव और भगवान बुद्ध के मुख पर आध्यात्मिकता के भाव का दृश्यांकन बड़ी सुन्दर ढंग से किया है। यहाँ बुद्ध को विश्व के कल्याणकर्त्ता के रूप में बृहद् आकार में बनाया गया है। गुफा की छत पर सुन्दर अलंकरण किया गया है।
इस चित्र को देखने से सहानुभूति और करुणा टपकती है। कलाविद् हैवेल महोदय ने तो इस चित्र को जावा के वोरोबुदुर से प्राप्त बौद्ध कला की समकक्षता में रखना पसन्द किया है।
महाभिनिष्क्रमण या गृह त्याग : बुद्ध के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले चित्रों में उनके महाभिनिष्क्रमण का एक चित्र अत्यन्त सजीवता के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इसमें युवक सिद्धार्थ के सिर पर मुकुट है तथा शरीर सुडौल है। आंखों से अहिंसा, शांन्ति एवं वैराग्य टपक रहा है। मुखमुद्रा गम्भीर एवं सांसारिकता से उदासीनता स्पष्ट रूप से झलकती है। सिस्टर निवेदिताजी के शब्दों में ‘यह चित्र शायद बुद्ध का महानतम कलात्मक प्रदर्शन है जिसे संसार ने कभी देखा है। ऐसी कल्पना कठिनता से दुबारा उत्पन्न हो सकती हैं।’९
- ९The picture is perhaps the greatest imaginative presentment of Buddha that the would ever saw. Such a concept could hardly occur twice. ( footfalls of Indian History )
हंस से बातें करता राजकुमार : एक अन्य चित्र में कोई सम्राट एक सुनहले हंस ( हंस से बातें करता राजकुमार ) से बातें करता हुआ चित्रित किया गया है। सिस्टर निवेदिता के विचार में इस चित्र से बढ़कर विश्व में कोई दूसरा चित्र नहीं हो सकता।
महाकपि जातक : इस कथा के दृश्यांकन में, गंगाजी के किनारे आम्र वृक्ष पर बहुत से बन्दर रहते थे। बोधिसत्व रूपी बन्दर के मना करने पर भी एक बन्दर ने आम नदी में गिरा दिया। यह आम मछुआरे के माध्यम से काशी के राजा को मिला। आम के स्वाद से राजा का मन बड़ा प्रसन्न हुआ और वह अपने दलबल के साथ आम लेने के लिये आम्र वृक्ष आया। बोधिसत्व बन्दर सब की जान बचाने के लिए वृक्ष की अन्तिम टहनी पकड़कर दूसरे वृक्ष की ओर लपके और साथी बन्दरों को अपनी पीठ के माध्यम से बने पुल से उतर जाने को कहा। इन बन्दरों में पूर्व जन्म का चचेरा भाई देवदत्त भी था। जिसकी बोधिसत्व से सदा अनबन रहती थी। वह उचित अवसर देखकर बोधिसत्व की पीठ पर कूद गया। इससे महाकपि बोधिसत्व को बहुत चोट आयी। राजा ने उस पर दया कर उसका उपचार करवाया। बोधिसत्व ने राजा की कृतज्ञता मानते हुये उन्हें धर्मोपदेश दिया और मोक्ष को प्राप्त हो गये।
सिंहलावदान की कथा : इस कथा के अनुसार सिंहल, सिंहल के व्यापारी का पुत्र था और वह अपने ५०० साथियों के साथ व्यापार हेतु निकला। परन्तु बीच रास्ते में समुद्री तूफान में उनका सब कुछ नष्ट हो गया। इसके बाद वे ‘ताम्र द्वीप’ पर पहुँचे। ताम्र द्वीप पर उन्हें नरभक्षी राक्षसी ने खा लिया। सिंहल बोधिसत्व रूपी सफेद घोड़े के ले जाने के कारण बच गये। बाद में सिंहल ने उस राक्षसी को भगा दिया और इसी समय से इस द्वीप का नाम ‘सिंहल द्वीप’ पड़ गया।
मृग जातक : इस कथा-चित्र में एक सुनहरी मृग ने एक कर्जदार व्यापारी को गंगा में आत्महत्या करने से बचाया। तत्पश्चात् मृग ने व्यापारी से यह प्रार्थना की कि वह इस बात की चर्चा नगर में जाकर न करे। जब व्यापारी अपने शहर काशी पहुँचा, तब उसे मालूम हुआ कि राजा सुनहरे मृग का पता बताने पर बहुत सा धन दे रहा है। व्यापारी ने लोभ के वशीभूत हो राजा को सुनहरे मृग के निवास स्थल के विषय में बता दिया। जब काशी नरेश इस जंगल में मृग का वध करने पहुँचे, तो मृग ने राजा को बताया कि व्यापारी ने उसके साथ विश्वासघात किया है। इस पर राजा व्यापारी को दण्डित करने के लिये सहमत हो गये। मृग ने राजा से व्यापारी के लिये दया की याचना की। सुनहरी मृग स्वयं बोधिसत्व ही थे।
इसी गुफा के बाहर बरामदे में बायीं ओर उड़ती हुई या आकाश में विचरण करती हुई ‘अप्सराएँ व गन्धर्व और इन्द्र का अंकन’ अत्यन्त मनोहारी है। इसके अतिरिक्त ‘सुरापान’ का भी अंकन है। दायीं ओर आकाश में ‘उड़ती हुई अप्सरा’ चित्रित की गयी है, जिसके होठ का रंग उड़ गया है। ये सभी अजन्ता के सर्वोत्तम चित्रों में गिने जाते हैं।
अन्य चित्रों में काले मृग, हाथी और सिंह के शिकार के दृश्यों का अंकन अत्यधिक कुशलता के साथ किया गया है।
कुल मिलाकर बुद्ध के जीवन से संबन्धित विविध घटनाओं के साथ-साथ उनके पूर्व जन्मों से संबन्ध रखने वाली कथाओं का भी पूर्ण चित्रण प्राप्त होता है। इस प्रकार का चित्रण एक स्थान पर अन्यत्र मिलना कठिन है।
गुफा संख्या दो
दूसरी गुफा का निर्माण ५०० से ५५० ई० के मध्य निर्मित हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि यहाँ पर चित्र सातवीं शताब्दी में भी बने।
इस गुफा के प्रमुख चित्रों में महाहंस जातक, माया देवी का स्वप्न, बुद्ध जन्म, श्रावस्ती का चमत्कार, पूर्णावादन जातक, विदुर पंडित की कथा,झूलती हुई राजकुमारी, पूर्णक तथा इरन्दती की प्रेमकथा, क्षान्तिवादी जातक, सर्वनाश, प्राणों की भिक्षा, पूजार्थिनी स्त्रियाँ, सुनहरे मृग का धर्मोपदेश, द्यूतक्रीड़ा चित्रण, बोधिसत्व का उपदेश सुनती हुई काशिराज की राजमहिषियों, बोधिसत्व की पूजा में लीन एक साधक आदि चित्र उल्लेखनीय हैं।
महाहंस जातक : गुफा में दाहिनी ओर एक अज्ञात सभा ‘महाहंस जातक’ का चित्र है, जिसमें हंस के रूप में बोधिसत्व बनारस के राजा और रानी को धर्मोपदेश दे रहा है। हंस रूप बोधिसत्व को बनारस की रानी खेमा ने पकड़वा कर मंगवाया था। परन्तु बाद में हंस को मुक्त कर दिया गया। चित्र में अन्तराल विभक्ति का बड़ा सुन्दर अंकन है, जो आँखों को अनूठा लगता है।
गुफा की बायीं भित्ति पर ‘तुर्षित स्वर्ग’, ‘बुद्ध जन्म’ और ‘माया देवी का स्वप्न’ नामक चित्र है।
माया देवी का स्वप्न : ‘माया देवी का स्वप्न’ सर्वोत्कृष्ट चित्रों में गिना जाता है। बुद्ध जन्म के चित्रों के नीचे माया देवी का शयन कक्ष है, जहाँ वो सो रही हैं। एक श्वेत हाथी को अपने गर्भ में प्रवेश करते हुये मायादेवी ने स्वप्न में देखा था। इस चित्र में ने गोल आकार या प्रताप पुंज के प्रतीक से स्वप्न की कथा का निरूपण किया गया है।
बुद्ध जन्म : बुद्ध के जन्म वाले चित्र में महामाया तथा शुद्धोधन को स्वप्न की चर्चा करते हुये दर्शाया है। उनके चारों ओर दास-दासियाँ खड़े हैं, जिनकी अंग-भंगिमाएँ सुन्दरता से अंकित किया गया हैं। सामने दो ब्राह्मण हैं।
दो बाएँ अंगूठे वाली रमणी : दाहिनी ओर महामाया के समान ही एक ओर स्तम्भ के सहारे रत्नाभूषणों से सुसज्जित एक रमणी की भव्य आकृति है, जिसका बायाँ पाँव एक कोमल तूलिका के समान बड़ी स्वाभाविकता से मुड़ कर खम्भे पर टिका हुआ है और शरीर का ऊपरी भाग खम्भे से सटा हुआ है। ग्रीवा कुछ झुकी हुई है। ‘श्री रायकृष्ण दास’ ने इस आकृति को राजकुल की महिला ‘महाप्रजापति देवी’ माना है जोकि ‘भगवान बुद्ध की विमाता’ थीं। इस चित्र में चित्रकार ने भूल से दोनों पैरों की अँगुलियाँ एक जैसी बना दी हैं, जिसके कारण यह आकृति ‘दो बाएँ अंगूठे वाली रमणी’ ( The lady with two left toes ) के नाम से भी सुप्रसिद्ध है।
तूषित स्वर्ग : इस चित्र में भगवान बुद्ध को स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान भव्य रूप से दर्शाया गया है। उनका एक हाथ ‘धर्मचक्र मुद्रा’ में बनाया गया है। मुख मंडल के चारों ओर प्रभा मण्डल हैं। उनके दोनों तरफ मकर और सुन्दर आलेखन बने हैं। भगवान बुद्ध की दृष्टि चिन्तनपूर्ण अवस्था में है। समीप में खड़े देवताओं की आकृतियाँ इनको समादर की दृष्टि से देख रही हैं। चित्र में आकृतियों की मुद्राएँ और अंग-भंगिमाओं का सुन्दर दृश्यांकन है।
अगले दृश्य में शाल वृक्ष की डाल पकड़े माया देवी को उपवन में खड़े दर्शाया है। नवजात शिशु को इन्द्र ने ले रखा है। इन्द्र को चौकोर टोपी लगाये तीन नेत्रों के साथ दर्शाया गया है। उपवन के बाहर भिखारियों की भीड़ है, जिसका बड़ा जीवन चित्रण हुआ है।
सर्वनाश : इस गुफा में एक वृद्ध भिक्षु लकड़ी का सहारा ले खड़ा है। उसका बायाँ हाथ ठोढ़ी से चिन्ता की मुद्रा में लगा हुआ है जबकि दायाँ हाथ इस प्रकार घूम गया, मानो सब कुछ नष्ट हो गया है। यह दृश्य सब कुछ मिथ्या है, के सन्देश भाव को अभिव्यक्त कर रहा है। उसके नेत्रों और मुख के भावों में अनुभव, विषाद, असहायता की अभिव्यक्ति हो रही है। चित्र मूक होने पर भी सब कुछ अभिव्यक्त कर रहा है।
क्षान्तिवादी जातक : दया याचना का यह चित्र भी इस गुफा के उत्कृष्ट चित्रों में से एक है। क्षान्तिवादी का अर्थ है — क्षमा का उपदेश देने वाला। जातक के अनुसार एक बार बोधिसत्व ने क्षान्तिवादी नामक सन्यासी ( मुनि ) के रूप में जन्म लिया। वहाँ ( वन-प्रदेश ) इस प्रदेश के राजा, रानियों और नर्तकियों के साथ उपवन-क्रीड़ा के लिये गये, जहाँ क्षान्तिवादी का निवास था। राजा के निद्रामग्न होने पर काशीराज के अन्तःपुर की सभी स्त्रियाँ क्षन्तिवादी का उपदेश सुनने चली गयीं। निद्रा खुलने पर स्वयं को अकेला पाकर राजा ने क्षान्तिवादी ( सन्यासी ) और नर्तकी को मृत्युदण्ड की आज्ञा दे दी। चित्रित दृश्य में एक दीर्घकाय राजा हाथ में खड्ग लिये सिंहासन पर विराजमान है। कोमलांगी स्त्री ( नर्तकी ) उनके पैरों में पड़ी हुई क्षमायाचना कर रही है। नर्तकी की देह-यष्टि में मृत्यु की पदचाप स्पष्टरूपेण सुनायी दे रही है। उसके सम्पूर्ण शरीर की आकृति और रेखा प्रवाह ऐसा बनाया गया है, जैसे कि वह स्वयं अपने को भूमि में समाहित कर देना चाहती हो। पैरों में झुकी हुई नर्तकी की पीठ की गोलाई में छाया लेकर शरीर की गठनशीलता एवं कोमलता को बड़ी सुन्दरता से चित्रित किया गया है।
आसपास की स्त्रियों में, कुछ स्त्रियाँ भयाक्रांत हैं, तो कुछ मुँह छिपाये चिन्तामग्न हैं, तो कुछ भागना चाह रही हैं। आसपास बैठे दरबारीगण भी राजा के क्रोध से भयाक्रांत हैं।
विदुर पंडित जातक की कथा : यहाँ विदुर पंडित की सवारी के दृश्य में अश्वों और नंगी तलवारें लिये पदाति सैनिकों का बड़ा गतिपूर्ण चित्रण हुआ है। हाथी पर सवार विधुर पण्डित धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए जान पड़ते हैं। उनके अग्र और पार्श्व भाग में अश्वारोही दिखाये गये हैं।
पूर्णक इरन्दवती की प्रेमकथा : गुफा की दाहिनी ओर ‘पूर्णक इरन्दवती की प्रेम कथा’ ( झूला झूलती राजकुमारी ) का चित्रण किया गया है। उपवन में झूले पर झूलती राजकुमारी इरन्दवती का चित्र है। राजकुमारी का मदमाता यौवन ( जिसमें वेग, कौमार्य और सौन्दर्य है ) तथा आँखों का स्वप्निल भाव बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। रस्सी को उसने बड़ी स्वाभाविकता से पकड़ा हुआ है। रस्सी में कुछ गोलाई देकर गति का आभास दिया गया है।
संख्या उन्नीस गुफा
१९वीं गुहा एक चैत्य गुहा मन्दिर है। इसमें पूर्ववर्ती चैत्यों की भाँति गर्भगृह, गलियारा और स्तम्भ बने हुए हैं। इसके मुख्य भाग को अलंकृत करने के लिये काष्ठ का प्रयोग नहीं किया गया है।
प्रवेश द्वार की चिपटी छत चार स्तम्भों पर टिकी है और ऊपर बड़े आकार का चैत्य गवाक्ष ( झरोखा ) बना है। शैलकृत स्तूप में ऊँचा बेलनाकार अण्ड है जिसके ऊपर गोल गुम्बद, हर्मिका और तीन छत्र हैं।
भित्ति स्तम्भों के बीच बुद्ध की मूर्तियाँ खड़ी या आसीन मुद्रा में बनायी गयी हैं। साथ ही साथ यक्ष नागदम्पत्ति, शालभंजिका, ऋषि-मुनियों इत्यादि की आकृतियाँ भी अंकित की गयी हैं। चैत्यगृह में केवल एक प्रवेश द्वार है।
मण्डप के दोनों ओर प्रदक्षिणामार्ग पर सत्रह पंक्तिबद्ध स्तम्भ बनाये गये हैं।
इस गुफा की गणना पश्चिमी भारत के उत्कृष्टतम् चैत्यगृहों में की जाती है।
ध्यातव्य है कि पूर्ववर्ती चैत्यों के समान यहाँ बुद्ध का अंकन प्रतीकों में न होकर विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियों में किया गया है जो मानव रूप में प्रवेश द्वार, ताखों और एकाश्मक स्तूप पर उत्कीर्ण की गयी है। स्पष्टतः यह महायान का प्रभाव है।
गुफा संख्या ग्यारह
११वीं गुफा में हस्ति जातक कथा, नन्द की कथा और उसके विरह में व्याकुल रानी का सुन्दर चित्र है। एक अन्य चित्र में बाँध के किनारे कुछ बालक और स्त्रियाँ सरोवर में स्नान कर रही हैं। इस चित्र में एक राक्षस का भी चित्रण किया गया है।
गुफा संख्या छः
छठी गुफा के चित्र उन्नीसवीं गुफा के समान ही कुछ चित्र मिलते हैं। किसी कुशल चितेरे ने ‘केश संस्कार से युक्त सुन्दरी’, ‘भिक्षु’ और ‘द्वारपालों’ के चित्र बनाये हैं।
क्योंकि प्रथम और द्वितीय गुहा के चित्र सबसे बाद में बनाये गये हैं। यही कारण है कि यहाँ कला का सर्वोच्च सौन्दर्य छन कर अवतरित हुआ है। ये गुफाएँ सबसे पीछे की ओर बनी हैं।
गुफा संख्या एक
पहली गुफा एक विहार गुहा है। डॉ० आर०ए० अग्रवाल१० के अनुसार इस गुहा के निर्माण का समय ४७५ से ५०० ई० के मध्य बताया है।
- १०कला विलास : भारतीय कला का विवेचन।
इसके चित्र ५०० ई० से ६२५ ई० के मध्य बनाये गये। इनमें कुछ चित्र तो वाकाटक साम्राज्य के अन्तिम वर्षों में और कुछ चित्र चालुक्य राजाओं के समय तक बनते रहे। चालुक्य काल में इस कला का पतन आरम्भ हो गया था। भगवान बुद्ध की आकृति का अंकन राजसी रूप में होने लगा और परम्परागत रूप में अधिकाधिक रूप से अलंकृत होती चली गयी। जातक कथाओं के स्थान पर सम्राटों के जीवन सम्बन्धित चित्र बनाये जाने लगे।
निश्चित ऊँचाई तक चढ़ने के पश्चात् प्रथम गुफा तक पहुँचा जा सकता है। यह गुफा विशाल है — ६४ फीट और ६४ स्तम्भों की सहायता से गहरायी तक खुदी है। इसमें १४ कोठरियाँ हैं।
इसके खम्भों पर सुन्दर खुदाई की गयी है और गर्भगृह में २० फीट चौड़े चबूतरे पर ‘भगवान बुद्ध की धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में विशाल प्रतिमा’ बनी हुई है, जिनके आसपास शिष्य, पशु, जिसमें एक मृग मुख से चार मृग धड़ों को विशेषता के साथ संयोजित किया है। इस प्रकार इस गुफा में मूर्तिकला के अतिरिक्त भित्तिचित्रों को भी सुन्दर ढंग से समाहित किया गया है।
प्रथम गुफा के उल्लेखनीय जातक चित्रों में ‘शिवि जातक की कथा’; ‘शंखपाल जातक’; ‘चम्पेय जातक’; ‘महाउम्मग जातक’ आदि से लिए गये कथाओं का चित्रण मिलता है। शंखपाल जातक के चित्रण में कलाकारों को विशेष सफलता मिली है।
इस गुफा के कुछ उल्लेखनीय चित्र हैं — ‘बज्रपाणि’ और ‘पद्मपाणि बोधिसत्व’; ‘मारविजय’; ‘नागराज शंखपाल’; ‘नागराज की सभा का दृश्य’; ‘चालुक्य राजा पुलकेशियन द्वितीय के दरबार में ईरानी राजदूत’; ‘श्रावस्ती का चमत्कार’; ‘महाजनक का वैराग्य’; ‘नृत्यवादन’; ‘बैलों की लड़ाई’; ‘चीटियों के पहाड़ पर साँप की तपस्या’ और ‘छतों में कमल व हंसों के अलंकरण’ एवं ‘प्रेमी युगलों’ के मनोहारी चित्र हैं।
चालुक्य राजा पुलकेशियन द्वितीय के दरबार में ईरानी राजदूत : प्रथम गुफा के चित्रों में सबसे सुन्दर चित्र फारस देश के राजदूत का है जो चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय के दरबार में आया था। इसमें संभवतः पुलकेशिन् को दूत का स्वागत करते हुये दिखाया गया है। इसमें राजा दक्षिणी परम्परा के अनुरूप अधोवस्त्र पहने हैं जबकि राजदूत को ईरानी टोपी, जामा और चुस्त पायजामा पहने हुये चित्रित किया गया है। राजदूत की दाढ़ी भी ईरानी ढंग की है।
मजे की बात है कि इस चित्र को कुछ विद्वान ‘ईरानी दैत्य’ का बताते हैं। जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि यह द्वितीय चालुक्य सम्राट पुलकेशियन द्वितीय की राजसभा में आये। फारस के बादशाह ( फारसी सम्राट ) खुसरू परवेज के राजदूत का चित्र है। कुछ विद्वान इससे असहमत भी हैं।
शिवि जातक : मुख्य द्वार में से प्रवेश करके बायीं ओर की दीवार पर ‘शिवि जातक’ की कथा चित्रित की है, जिसमें राजा शिवि के रूप में जन्मे बोधिसत्व एक बाज से कबूतर बचाने के लिये उसके बराबर भार का माँस अपने शरीर में से काटकर बाज को देने के लिये प्रस्तुत हो गये थे। चित्र के बाएँ भाग में कपोत राजा की जंघा पर बैठा है और दायें ओर एक तराजू के निकट राजा शिवि खड़े हैं। चित्र का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया है। गुफा संख्या १७ में भी शिवि जातक की एक अन्य घटना चित्रित है, जिसमें राजा ने अपनी आँख का दान कर दिया था।
नन्द तथा सुन्दरी की कथा : अगला दृश्य सम्भवतः ‘नन्द तथा सुन्दरी की कथा’ से सम्बन्धित है। एक मण्डप में उदास रानी एक अन्य स्त्री से बात कर रही हैं। निकट ही एक दासी शृंगार-दान लिये खड़ी है। एक सेवक द्वारपाल से प्राप्त किसी दुःखद समाचार को बता रहा है। द्वारपाल अत्यन्त शोकाकुल मुख-मुद्रा रहित रनिवास के द्वार पर खड़ा है। बायीं ओर एक विरह पीड़ा से विह्वल एक सुन्दरी का चित्र है, जोकि शैय्या पर लेटी है। इस सुन्दरी की विरह वेदना को उसकी सखियाँ जान गयी हैं और उसकी व्यथा दूर करने को प्रयत्नशील हैं। चित्र में सजीवता है। आकृतियों की हस्त मुद्राओं व बालों के शृंगार के आलेखन में कोमलता है। परन्तु आकृतियों की शारीरिक रचना में भारीपन है। कटि भाग अत्यन्त क्षीण और कहीं-कहीं दोनों भृकुटियों को एक ही रेखा से बना दिया गया है।
महाजनक जातक : गुफा की बायीं भित्ति पर ‘महाजनक जातक’ की कथा को बनाया गया है, जो अनेक टुकड़ों में बना है। चित्र के पहले दृश्य में राजकुमार महाजनक किसी देश पर आक्रमण करने की योजना पर अपनी माँ से विचार-विमर्श कर रहे हैं। राजकुमार और उनकी माँ के चारों ओर अनेक परिचारिकाएँ विभिन्न मुद्राओं में अंकित हैं। यहीं पर कुछ हट कर ‘नृत्य व वादन’ का दृश्य अंकित है। बीच में मुकुट युक्त नर्तकी गतिशील मुद्रा में है तथा उसके परिपार्श्व में सुन्दर स्त्री गायिकाएँ वाद्य यंत्र ( मृदंग, मंजीरे और वेणु ) बजाती हुई दिखायी गयी हैं। पास खड़ी अन्य युवतियाँ नृत्य और वादन का आनन्द ले रही हैं।
आगे की ओर सेना का प्रयाण ( कूच करते ) दिखाया गया है, जो जुलूस के रूप में द्वार से बाहर निकल रहा है। निकट ही जेतवन का दृश्य है, जहाँ पर सन्यासी प्रवचन कर रहे हैं। युद्ध के बाद राजकुमार को विरक्ति हो गयी थी और उन्होंने वैराग्य जीवन का वरण कर लिया था। उसी के ( वैराग्य ) प्रतीक स्वरूप यह वन दिखाया गया है। इससे आगे पुनः सेना का प्रयाण, सागर पार करने तथा नौकाओं के टूटने आदि के दृश्य अंकित हैं।
अवलोकितेश्वर बोधिसत्व : इसी गुफा की बायीं भित्ति के बीचों-बीच अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का एक उत्कृष्ट चित्र अंकित है। इन चित्रों के अंकन में चित्रकार ने असीम दया और विश्व करुणा को अभिव्यक्त किया है। कलात्मकता लिये इस चित्र संयोजन में केन्द्रीयता के नियम ( Law of centrality ) का पालन किया गया है।
नागराज सभा : इसी गुफा में बायीं दीवार पर ‘नागराज सभा’ का चित्र अंकित है। इसमें नृत्य, राजकीय भव्यता व चहल-पहल को सुन्दरता से दर्शाया गया है। राजदम्पति के पीछे चँवरधारिणी बड़ी ही मनोहर मुद्रा में अंकित है।
नागराज शंखपाल जातक : नागराज शंखपाल जातक की कथा में बोधिसत्व को नागराज शंखपाल की योनि में जन्म लेकर नागलोक का वैभव भोगकर पुनः विरक्त होने की कथा का अंकन है। इस चित्र में प्रवचन सुनती हुई महिला पीठ की ओर से चित्रित है, जोकि अत्यन्त भावपूर्ण व तल्लीन मुद्रा में दर्शायी गयी है।
चम्पेय जातक : इसी गुहा की दाहिनी भित्ति पर ‘चम्पेय जातक’ की कथा को बनाया गया है। एक जन्म में बोधिसत्व ने चम्पेय नाग की योनि में जन्म लिया था। वे मनुष्यलोक में तप करने आये थे। जहाँ वे एक सँपेरे द्वारा पकड़ लिये गये। जब काशी के दरबार में सँपेरा खेल दिखा रहा था, तो चम्पेय की पत्नी की प्रार्थना पर राजा ने नाग को सँपेरे से मुक्त करा दिया। चम्पेय इस बात से इतने कृतज्ञ हुए कि उन्होंने राजा को अपने लोक में ले जाकर खूब आदर-सत्कार किया और साथ ही विपुल खजाना देकर विदा किया। चित्र में ऊपर नागराज का दरबार और उसके दायीं ओर वाराणसी की राजसभा अंकित है। सँपेरा अपना खेल दिखा रहा है और नाग पत्नी राजा से याचना कर रही है। नीचे नाग लोक का दृश्य जहाँ नाग राजा चम्पेय और वाराणसी के राजा को अनेक सुन्दरियों व दरबारियों से भरी है, सभा में दर्शाया है। एक दासी फल का थाल लिये है, पीछे से एक छोटा लड़का हाथ डाल कर चुपचाप कुछ उठा रहा है।
बोधिसत्व पद्मपाणि या पद्मपाणि अवलोकितेश्वर११ : बोधिसत्व का चित्र मालाओं से सुसज्जित है और इनके दायें हाथ में नीलकमल पुष्प है। पद्मपाणि के इस चित्र पर गुप्तकालीन भगवान विष्णु के व्यक्तित्व की छाप है। घुटनों के नीचे का भाग चित्रित नहीं है। चित्र में कुछ ही रेखाओं द्वारा कन्धों और बाहुओं का बड़ा ही मनोहारी चित्रण हुआ है। केवल एक ही रेखा से दोनों भौहें बना दी गयी हैं, इससे रेखाओं में प्रवाह व शक्ति झलकती है। पद्मपाणि बुद्ध के चित्र में भगवान बुद्ध की आकृति त्रिभंग मुद्रा में पर्याप्त बड़ी बनायी गयी है।
- ११इस चित्र के आधार पर विसेन्ट स्मिथ का कहना है कि – ‘The Ajanta school is local development of the cosmopolitan art of the contemporary Roman Empire.’
बोधिसत्व पद्मपाणि की मुखमुद्रा विश्व करुणा से ओत-प्रोत और अध्यात्मिक विचारों में लीन है। आँखों में सुख-दुःख का भाव समान रूप से जाग रहा है। ‘तीन शिखरों वाले मौलि और गले में मोतियों की माला का प्रदर्शन चित्रकार ने अत्यन्त सूक्ष्मता व कुशलतापूर्वक किया है। आकृति चित्रण की दिशा में यह सर्वोच्च उपलब्धि है तथा हम इसे एशियाई चित्रण कला की पराकाष्ठा कह सकते हैं।’१२
- १२The great Bodhisattva Pdmapani Avlokiteswar in cave one shows the highest attainment in way of figure-painting. We may recognise it as the very acme of pictorial art. ( वासुदेवशरण अग्रवाल – भारतीय कला )
चित्र ( पद्मपाणि ) की पृष्ठभूमि में अनेक मानवीय पशु-पक्षी ( सिंह, वानर, कबूतर, मयूर ) देवी और अन्य आकृतियाँ बोधिसत्व के चारों ओर आनन्द भाव से चित्रित की गयीं हैं।
बुद्ध की एक ओर राजकुमारी यशोधरा का चित्र है, तलवार लिये रक्षक हैं चित्रित हैं।
काली राजकुमारी : पद्मपाणि चित्र के बग़ल में लम्बे कोटवाली दासी ‘पारसी’ प्रतीत होती है, जिसे पाश्चात्य लेखकों ने ‘काली राजकुमारी’(Black Princes ) से सम्बोधित किया है।
श्री राय कृष्णदास१३ का विचार है कि सिन्दूर रंग से चित्रांकन होने के कारण रंग काले पड़ गये हैं। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा हैं, उनकी भावमग्न आँखें जैसे किसी ऊँचाई से देखने के कारण नीचे की ओर झुकी हैं, मानो सारे संसार की व्यथा को देख, उसे दूर करने के लिये वे उत्सुक हैं। उनका आकार अन्य आकृतियों से बड़ा है, जिससे उनकी विशिष्टता का ज्ञान होता है। सर्वोपरि है उनका किंचित् भंग, जिसकी अटूट रेखाएँ द्रष्टव्य हैं।
- १३भारत की चित्रकला : राय कृष्णदास
एक कलाविद् का कथन है कि ‘सिस्टाइन पूजागृह’ में लियोनार्दो द्वारा निर्मित ‘अन्तिम भोज’ ( The Last Supper ) में ईसा की आकृति जिस भव्यता और आत्म-त्याग के साथ विश्व कल्याण की भावना प्रकट करती है, ठीक वही प्रभाव अजन्ता के ‘बोधिसत्व पद्मपाणि’ के चित्र का है।
मार विजय : इस गुफा का अन्य विश्वप्रसिद्ध चित्र ‘मार विजय’ है। यह चित्र १२ फीट लम्बा और ८ फीट ऊँचा है।
मान्यतानुसार जब भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने वाला था, तब अनेक प्रकार के संकट व प्रलोभन उनकी परीक्षा के रूप में आये थे। इन सबको सम्मिलित रूप में कामदेव ( मार ) की सेना कहा गया है। इन्होंने भगवान बुद्ध को अनेक प्रकार से विचलित करना चाहा, उन्हें डराया धमकाया व आकर्षित किया, परन्तु गौतम बुद्ध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
यहीं पर एक ओर तपस्वी के रूप में ध्यानमग्न बैठे हुये बुद्ध को लाल बौना आँखें फाड़कर देखते हुये डराने का प्रयास कर रहा है। एक भयानक आकृति खड्ग चला रही है।
जिस तरह कमल का पत्ता जल में रहने पर भी गीला नहीं होता। ठीक उसी प्रकार भगवान बुद्ध सबके मध्य निर्विकार भाव से सांसारिक दुःखों को दूर करने के लिये भूमि को साक्षी बनाकर वज्रासन मुद्रा ( भूमि स्पर्श मुद्रा ) में बैठे ध्यानमग्न हैं।
पृष्ठभूमि में बोधिवृक्ष को चित्रित किया गया है, जिसके नीचे बैठकर सिद्धार्थ गौतम, बुद्धत्व को उपलब्ध हुए थे अर्थात् उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। यथार्थ में इस चित्र में भगवान बुद्ध की मनोवैज्ञानिक छवि के दृश्य को प्रस्तुत किया गया है।
भगवान बुद्ध के चेहरे पर अभय व शान्ति के भाव को, डरावनी आकृतियों और सुन्दरियों के चंचल आकर्षण को चित्रकारों ने बड़े ही सहज ढंग से अजन्ता की इस भित्ति पर उकेरा है। चित्र संयोजन में यहाँ पर केन्द्रीयता के नियम ( Law of centrality ) का पालन किया गया है।
गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है कि वे तप करने के कारण पर्याप्त दुर्बल हो गये थे। परन्तु अजन्ता के चित्रकारों ने उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट ही चित्रित किया है। क्योंकि उन्होंने बुद्ध के आध्यात्मिक शरीर को ही महत्त्व दिया है; न कि उनके भौतिक शरीर को। दूसरी ओर ‘गन्धार शैली’ के कलाकारों ने तपस्वी बुद्ध के दुर्बल शरीर एवं पसलियों को अंकित करके भौतिक शरीर को महत्त्व दिया था।
श्रावस्ती का चमत्कार : अन्तःकक्ष की दायीं भित्ति पर ‘श्रावस्ती का चमत्कार’ को अंकित किया गया है। स्वयं को आचार्यों की पंक्ति में सिद्ध करने के लिये बुद्ध ने श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित्त की उपस्थिति में कुछ चमत्कार किये थे। जिसमें से एक चमत्कार में उन्होंने अपने को अनगिनत बुद्ध रूपों में प्रकट किया था। जो सब के सब कमलासीन थे।
इसी गुफा ( प्रथम गुफा ) में एक मधुपायी दम्पति का चित्रण है जिसमें प्रेमी अपने हाथ से प्रेमिका को मधुपात्र देते हुए दिखाया गया है।
यहाँ पर शारीरिक पीड़ा से दुःखी एक दुबली-पतली स्त्री का चित्रण अत्यन्त सजीव एवं भावनात्मक है।
मगधराज और नागराज के बीच वार्तालाप का चित्रांकन है। शंखपाल एवं उसकी महिषी का चित्रण बड़ा ही स्वाभाविक है। महाजनक जातक से लिये गये एक चित्र में राजा और महिषी एक सुसज्जित सिंहासन पर बैठे हैं एवं सामने राजनर्तकियां नृत्य में संलग्न हैं। एक अन्य चित्र में राजपुरुष सैनिकों के साथ प्रस्थान करता दिखाया गया है। उसके आगे सैनिक तलवार लिये हुए घोड़ों पर सवार होकर चल रहे हैं। इसी के पास एक आश्रम में ध्यानावस्थित मुद्रा में बैठे हुए योगी का चित्र है।
गुफा एक दीवालगीर ( ब्रेकिट ) के ऊपरी भाग पर ‘सांडों की लड़ाई’ का सुन्दरता से अंकित किया गया है। चित्र में अत्यधिक गति, सुडौलता व बल है।
‘विन्सेंट स्मिथ’ के अनुसार इस गुहा की छत के आलेखन ७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाये गये थे।
अजन्ता के चित्रों की विशेषताएँ
( १ ) रेखाओं का असाधारण प्रभुत्व : भारतीय चित्रकार के लिये रेखा एक चित्रोपम मर्यादा मानी गयी है। इसलिये भारतीय चित्रकला ‘रेखा-प्रधान’ है। अजन्ता के कलाकार रेखीय अंकन में निपुणता के कारण ही नग्न आकृतियों को भी सौम्य व सैद्धान्तिक रूप में प्रस्तुत कर सके। कलाकारों ने चित्र में आवश्यकता के अनुसार अपनी रेखा को कोमल, कठोर, पतला या मोटा बनाया है। यहाँ पर गोलाई या डील-डौल को ही रेखा के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया, वरन् स्थितिजन्यलघुता, बल, उभार, अलंकरण और अन्यान्य विशेषताओं को रेखा द्वारा प्राप्त किया गया है।
भावाभिव्यंजक रेखा के उदाहरण अजन्ता की प्रथम गुहा में चित्रित ‘अवलौकितेश्वर बोधिसत्व’ के चित्र में है। इसमें सिद्धार्थ की मुख मुद्रा पर दुःख, चिन्तन, शोक का भाव एक ही रेखा से उभारा गया है। ‘मार विजय’, ‘सर्वनाश’, ‘दया-याचना’ इत्यादि चित्र, रेखा की प्रधानता दर्शाते हैं।
कलाविद् ‘पर्सी ब्राउन’ ने पूर्वी देशों की चित्रकला को मुख्य रूप से रेखा की चित्रकला माना है, जबकि पाश्चात्य कला को छाया-प्रकाश प्रधान।
हमारे यहाँ मानव के भिन्न-भिन्न रूपों, चरित्रों और भावों को रेखा के द्वारा ही सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। अजन्ता शैली में अधिकांश रेखाएँ अटूट, प्रवाहमय और भाव-प्रवण हैं।
हाथों का चित्रण भी अजन्ता के इसी ज्ञान का एक प्रमाण है, जहाँ हाथों से ही सारी बात स्पष्ट कर देने की क्षमता है। गुफा संख्या दो में दूत अपने हाथ से ही किसी महानाश का संदेश जिस कुशलता से दे देता है, उसे हम अजन्ता के कलाकारों की प्रवीणता ही कह सकते हैं। रेखाओं में अनोखी कोमलता है। गुफा संख्या नौ में ‘एक बैठी हुई युवती’ का पिछला भाग इसी कोमलता का एक अन्यतम् उदाहरण है।
अजन्ता की गुफाओं में मानव आकृतियों, पशु-पक्षियों या प्रकृति का कोई भी अंकन, सजीव रेखांकन के द्वारा ही चिरस्थायी हो सका है। चित्रकार की तूलिका इतनी गतिमान हैं कि उसके थोड़े से ही प्रत्यावर्तन से चित्र की रूपरेखा उभरकर आ जाती है।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि अजन्ता के कलाकारों ने रेखा के महत्त्व को पूर्णतया हृदयंगम किया है।१४
१४‘रेखां प्रशंसन्त्याचार्या वर्त्तना च विचक्षणा।
स्त्रियो भूषणमिच्छन्ति वर्णाढ्य मितरंजनाः॥’
चित्रसूत्र; विष्णुधर्मोत्तर पुराण।
( २ ) नारी चित्रण में प्रवीणता : नारी चित्रण में अजन्ता के चित्रकार परम प्रवीण थे और यह उनकी उपलब्धि है। अजन्ता के चित्रकारों ने अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने के लिये नारी को अनगिनत स्थितियों में चित्रित किया हैं।
यहाँ के कलाकार अपने नारी चित्रों को असुन्दर नहीं बना पाये हैं, यह उनकी कमजोरी रही है। यह चित्रकारों के अलंकरण की सर्वोत्तम पूँजी है। उसका उन्होंने कोई ऐसा दुरुपयोग नहीं किया कि हर अवसर पर उसे ला रखा हो, चाहे वह कथा से संबद्ध हो या न हो।
यदि कहीं प्रसंगवश ऐसा किया भी है तो केवल एक दृष्टि से, सौन्दर्य की दृष्टि से चित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि सौन्दर्य से परे नारी का चित्रण करना उन्हें पसन्द ही नहीं था। इसी कारण गुफा संख्या दो में ‘दण्ड पाती हुई युवती’ के चेहरे को, इस डर से कि कहीं प्रसंगानुकूल मनःस्थिति चेहरे पर कुरूपता न ला दे, छिपा ही दिया। सौन्दर्य के प्रति इतनी आस्था और कहीं देखने को मिलेगी, इसमें संशय है।
अजन्ता के चित्रों में नारी की नग्न, अर्द्धनग्न और आवृत, विभिन्न स्थितियों का समावेश किया है। अनावृत शरीर उनके लिये कोई गोपनीय विषय नहीं रहा था, जिसके अध्ययन के लिये उन्हें व्यावसायिक मॉडल बैठाने पड़े हों। उन्होंने खुले रूप में उसे देखा और खुले रूप में उसको चित्रित किया। जहाँ कहीं किसी झीने या पारदर्शी वस्त्र से शरीर ढका भी है, वहाँ शरीर की कान्ति वस्त्र के अन्दर से झाँककर कलाकार की सशक्त अभिव्यक्ति एवं सूक्ष्म अध्ययन का उद्धरण ही प्रस्तुत करती है। स्त्रियों के नितम्बों और स्तनों का आकार बढ़ाकर चित्रित करना जीवन के वास्तविक आकारों की अपेक्षा कविता में वर्णित आकारों के निकट रहा है।१४
- १४कन्हैयालाल नन्दन : अजन्ता के चित्र कैसे बने; धर्मयुग।
अजन्ता के नारी चित्रण से कला-समीक्षक ‘ग्लेडस्टोन सॉलमन’ बड़े प्रभावित हैं। उन्होंने इस संदर्भ में लिखा है — “कहीं भी नारी को इतनी पूर्ण सहानुभूति और श्रद्धा प्राप्त नहीं हुई है। अजन्ता में यह प्रतीति होती है कि उसे विशिष्टता के साथ नहीं, बल्कि एक सारतत्व के रूप में निरूपित किया है। वह कोई व्यक्तिगत पात्र नहीं है, वह तो एक नियम है। वह वहाँ एक नारी ही नहीं, अपितु समस्त विश्व के सौन्दर्य का अवतार है।”
( ३ ) विषय वैविध्य : अजन्ता बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। इसीलिए यहाँ भगवान बुद्ध की लौकिक और पारलौकिक छवि का एक धरातल पर ही कलाकार ने चित्रण करके कल्पना, बुद्धि तथा तकनीकी महानता का परिचय दिया है।
यूँ भी बौद्ध धर्म के करुणा, प्रेम और अहिंसा ने चितेरों, दानदाताओं और जन-सामान्य को बहुत समय तक अप्रत्याशित रूप से आकर्षित किया।
बुद्ध के उपदेश, महात्मा बुद्ध की जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ ( जातक कथाएँ : जिनको उन्होंने स्वयं अपने उपदेशों में सुनाया और बताया है कि अनेक जन्मों से वह इसी प्रकार अनेक रूपों में अवतीर्ण होते आ रहे हैं ), बोधिसत्व इत्यादि से अजन्ता की भित्तियाँ सजी हुई हैं। वहीं तत्कालीन, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियों का प्रदर्शन करती विविध घटनाएओं का अजन्ता की भित्ति पर अलग रूप प्रदर्शित करती हैं।
अजन्ता तत्कालीन जनजीवन का प्रतिरूप है। गाँव और नगर, महल और झोपड़ी, समुद्रों और यात्राओं का संसार अजन्ता की इन गुफाओं में दृष्टिगोचर होता है। भित्तियों पर प्रकृति के विविध अवयवों का आलेखन जलचर, थलचर और नभचरों से सजाया गया है। जुलूस के जुलूस, हाथी-अश्व और अन्य पशु-पक्षी इस प्रकार चित्रों में प्रदर्शित किये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो किसी निर्देशक के बताये हुए अभिनय व इशारों पर वे कार्यरत हों। अन्य चित्रों में बौने, यक्ष, द्वारपाल, देवदूत, यक्ष-यक्षिणियाँ, गणिकाएँ आदि अनगिनत पात्रों को मनोहारी रूप से रेखांकित किया है।
इस तरह कहा जा सकता है कि अजन्ता के ये चित्र एक धर्म विशेष तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् विभिन्न समुदायों की कला के रूप में व्यापक रूप धारण कर चुके हैं। विषय धार्मिक होते हुये भी जीवन और संसार से लिये हुए ये चित्र महत्त्वपूर्ण साबित हुये हैं। उदाहरणार्थ ‘झूला झूलती राजकुमारी’; ‘मरणासन्न राजकुमारी’ और ‘नृत्य करती बालाओं’ का दृश्यांकन ही नहीं, वरन् कई अन्यान्य इहलौकिक पक्षों का यहाँ चित्रण किया गया है। यहाँ शृंगार और जन-जीवन सम्बंधी विषयों की उपेक्षा नहीं की गयी है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि यह शैली ‘धर्मनिरपेक्ष’ है।
( ४ ) रंग विधान : अजन्ता के भित्तिचित्रों में प्लास्टर पर टेम्परा पद्धति ( अर्थात् गीले प्लास्टर पर कार्य न करके उसके सूखने पर किया गया है ) से चित्रण किया हुआ मिलता है। यद्यपि समय के बीतने से प्राकृतिक आघातों ने इस प्राचीन चित्रकारी का बहुत कुछ वर्ण सौष्ठव और लावण्य क्षीण कर दिया है। फिरभी अजन्ता के इन चित्रों की आभा फीकी नहीं पड़ी है। रंग अमिश्रित व चमकीले हैं। चित्र तरोताजा दिखते हैं।
अजन्ता के चित्रों में गिने-चुने प्राकृतिक खनिज रंगों का ही प्रयोग किया है, ताकि वे चूने के क्षारात्मक प्रभाव से सुरक्षित रह सकें।
अजन्ता शैली में जिन रंगों का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग किया गया है; उनमें सफेद, लाल, भूरे से बने विभिन्न हल्के और गहरे रंग हैं। पीला रंग लिये पीली मिट्टी या रामरज़ पीले रंग का प्रयोग है ( Natural Arsenic Sulphide )। लाल रंग के लिये गेरू व हिरौंजी, काले के लिये काजल, सफेद रंग प्रायः अपारदर्शी है और चीनी मिट्टी, जिप्सम, चूने या खड़िया से बनाया गया है। लाल तथा भूरा, लौह ( अयस्क ) से प्राप्त खनिज रंग हैं। हरा रंग एक स्थानीय ( अयस्क ) खनिज से बनाया गया है, जो संग सब्ज टेरावर्ट ( Terraverte ) है। नीला रंग फारस ( वर्तमान ईरान ) और बदख्शाँ ( वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान में ) से आयात किया हुआ ‘लेपिस लाजुली’ ( Lapis Lazuli ) है जो एक बहुमूल्य पत्थर को घिस कर बनाया गया है। इन रंगों को गोंद अथवा सरस ( वज्रलेप ) के साथ घोलकर तैयार किया जाता था।
अजन्ता के चित्रों में प्रायः एक बार में ही सपाट रंग भर दिया गया है। छाया-प्रकाश के सिद्धान्त का अनुपालन नहीं किया गया है। परन्तु कहीं-कहीं इसका प्रयत्न अवश्य देखने को मिलता है। केवल उभार दर्शाने अथवा स्थानीय गोलाई के लिये आसपास के रंगों को कुछ गहरा कर दिया जाता था, जो रंग अर्द्ध-पारदर्शी होते थे। शरीर और कपड़ों का रंग लावण्ययुक्त एवं संगत है।
अजन्ता के कुछ आरम्भिक चित्रों को छोड़कर १६वीं और १७वीं गुफा में अजन्ता के चित्रकारों ने गहरी पृष्ठभूमि पर हल्के वर्ण में आकृतियाँ बनाने की प्रवृत्ति मिलती है; साथ ही हल्की पृष्ठभूमि पर गहरी आकृतियों के बनाने की प्रवृत्ति का भी प्रदर्शन मिलता है। जो यूरोप की वेनिस चित्रकला शैली के समान है।
चित्रकारों ने दर्शकों का ध्यान चित्र की ओर आकर्षित करने की पुरजोर कोशिश की है। मानवाकृतियों के बाल काले दर्शाकर रूप एवं लावण्य में वृद्धि की गयी है जिससे इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया गया है।
( ५ ) भवन : अजन्ता के चित्रों में गुप्तकालीन भवन व वास्तु का प्रयोग मिलता है। यद्यपि शुंग, सातवाहन, वाकाटक प्रभाव भी अजन्ता की कला में झलकती हैं, परन्तु विशेष रूप से कक्षों, स्तम्भों, चैत्य, स्तूप और वीथिकाओं को सुन्दरता से बनाया गया है।
( ६ ) केश विन्यास : हालाँकि अजन्ता की चित्रकारी पर्याप्त पुरातन है, परन्तु वर्तमान में भी भारतीय स्त्रियाँ अजन्ता में चित्रित स्त्रियों के केश सज्जा से प्रेरणा लेती हैं। स्त्रियों के लम्बे लहराते लम्बे बाल, वेणियों में बंधे केश, कन्धों पर लटकते घुंघराले बाल, माथे पर लटकते केश, चिकुर जूड़ों में बँधे बाल, गुंथे हुये बाल, खुले और छिटके हुये कुन्तल केश इत्यादि अनेक तरह से केश सज्जाओं का मनोरम चित्रण देखने को अजन्ता में मिलता है।
सुन्दर केशों के अलावा क्रूर, धूल-धूसरित और राक्षसों के केश दर्शाने में भी चित्रकार पीछे नहीं रहे हैं।
( ७ ) आलेखन : अजन्ता को यदि ‘आलेखनों की खान’ या ‘आलेखनों का भण्डार’ कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अजन्ता की गुफाओं को सुसज्जित करने, रिक्त स्थानों को भरने, गुफाओं के मुख्य द्वारों, छतों, स्तम्भों इत्यादि पर कलाकारों ने भगवान बुद्ध से सम्बन्धितचित्रों के समकक्ष आलेखन चित्रित किये गये हैं। साथ ही कपड़ों, मुकुटों, आभूषणों आदि में भी आवश्यकता के अनुसार आलंकारिक छटा लिये हुये आलेखनों को बनाया गया है। इन आलेखनों में चित्रकार ने सुन्दर रूप, पशु-पक्षियों, पुष्पों व लताओं का प्रयोग किया है।
पशु-पक्षियों में बन्दर, वृषभ, मीन, मकर, मृग, महिष, हंस, तोता, बत्तक को उनकी स्वाभाविक उन्मुक्तता के भाव के साथ बनाया गया है। मानो वे मानव जीवन के सुख-दुःख के साथी हो जायें।
पुष्प-लताओं में कमल के पुष्प, मुरियाँ, लाताएँ, आम की वाटिकाएँ विविध आकृतियों में बनायी गयी हैं, जो अजन्ता की निजी विशेषता जान पड़ती है।
आम्रवाटिका में विचरण करते प्रेमी-युगल, लताओं से लिपटे किन्नर, हंस, हथियों के झुण्ड, मछली, मकर, मृग, मयूर, जलचर व थलचर एक-दूसरे से मेल खाते प्रवाहमय रेखांकनों में चित्रित किये गये हैं।
ये आलेखन बलवती रेखा के अनन्त प्रवाह, गति सन्तुलित योजना और छन्दमय अभिप्रायों की लयात्मक पुनरावृत्ति के कारण शक्तिशाली भी बन गये हैं।
अलंकरणों में आयताकार, षड्कोणीय, वर्तुलाकार और शंकु के आकार में ज्यामितीय आलेखनों का प्रयोग किया गया है।
कहीं-कहीं प्रेमी-युगलों से युक्त दिव्य आलेखन ( शोभन ) शाखाओं और छतों में चित्रित किये गये हैं। अजन्ता के चित्रों का यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि यहाँ क विहार गुफाओं की छत वितान ( शामियाना ) के समान ढोल वाली बनायी गयी है। वितान के समान ही आलेखनों का उपयोग गुहा छत में किया गया है।
प्रकृति की विविध हरियाली और रूपों में अशोक, साल, आम, बरगद, पीपल, ताड़, गूलर, कदली ( केला ) आदि में पेड़ों का सुन्दर चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिये छदन्त जातक के चित्र में गजराज की शोभा, प्रकृति, वैभव और उन्मुक्तता का चित्रण बड़ी अच्छी तरह से किया गया है।
इन आलेखनों को काली और लाल ( हिरौंजी की ) पृष्ठभूमि पर पहले सफेद रंग से बनाया गया है। उसके पश्चात् पारदर्शी रंगों का प्रयोग किया गया है।
प्रथम और द्वितीय गुफाओं में तमाम छतें इन आलेखनों से परिपूर्ण हैं। इनमें हिरौंजी और बुझे हुये काले रंग से पृष्ठभूमि या धरातल बनाकर लाल, पीले तथा सफेद रंग से चित्रकारों ने अपनी कल्पना को अनगिनत रूप दिये हैं।
इन आलेखनों की व्यवस्था सुन्दर है और कहीं भी आवश्यकता से अधिक रिक्त स्थान नहीं छोड़ा गया है। समुचित अन्तराल व्यवस्था के कारण ये आलेखन सन्तुलित, ठोस एवं प्रभाव डालने वाले हैं।
मानव, अर्द्ध मानव, विचित्र काल्पनिक जीव, किन्नर, पशु-पक्षी, पुष्प, अनेक फल और लताएँ इत्यादि बड़ी सुन्दर आकृतियों में प्रस्तुत किये गये हैं। अनेक आलंकारिक ज्यामितीय और काल्पनिक रूप चित्रित हुये हैं। नभचरों और जलचरों के अलावा गंधर्व तथा विद्याधर-युगल भी बादलों के बीच-बीच में बनाये गये हैं। अजन्ता की गुफाओं के ये आलेखन भारतीय चित्रकला की सर्वोत्कृष्ट निधि हैं।
( ८ ) परिप्रेक्ष्य : अजन्ता के चित्रकारों ने भावना एवं कल्पना के महत्त्व को स्थापित करने के लिये मानसिक परिप्रेक्ष्य को ही उपयुक्त समझा। इस मानसिक परिप्रेक्ष्य में उसने घृणा, क्रोध, श्रद्धा आदि भावों को बड़े सुन्दर ढंग से दिखाया है। कलाकारों का यह प्रयास दृष्टा तक पहुँचने में पूर्ण सफल भी रहा है।
कलाकारों ने चित्रों में प्रयुक्त अनेक आकृतियों को सामान्य अनुपात से अधिक बड़ा अथवा छोटा बनाकर उनके महत्त्व और आध्यात्मिक उत्थान की अभिव्यक्ति की है।
‘राहुल समर्पण’ ( गुफा संख्या – १७ ) नामक चित्र में कमल पर खड़े भगवान बुद्ध की आकृति यशोधरा की आकृति के अनुपात में बहुत बड़ी बनाई गई है, जो भवन के समकक्ष है। यहाँ भवन आदि के परिप्रेक्ष्य में चित्रकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है और दृष्टि क्रम अथवा परिप्रेक्ष्य से आलेखनों की सुन्दरता व रूप को नष्ट नहीं होने दिया है।
अजन्ता के चित्रकारों ने ‘काल्पनिक परिप्रेक्ष्य’ का भी चित्रों में समावेश किया है। अनेक स्थानों व विभिन्न समयों के दृश्यों को एक ही चित्र में अंकित कर दिया गया है। महल के कई भागों में होने वाले क्रियाकलापों को दर्शाने के लिये महल की छत हटा दी गई है और सम्पूर्ण दृश्य कुछ ऊँचाई से देखा गया है। चित्र दीवारों द्वारा स्थान-स्थान पर विभाजित हो गया है, पर पूरे चित्र में एक-सूत्रता अथवा तारतम्य विद्यमान है।
अजन्ता के चित्रकारों ने ‘बहुद्देशीय परिप्रेक्ष्य’ ( Multiple Perspective ) का अनुपालन भी किया है। अजन्ता के कलाकारों ने मिलन बिन्दु को दर्शक के आँखों पर स्थिर रखा है। उदाहरणार्थ चौकोर वस्तु का समीप का भाग छोटा और दूर का बड़ा बनाया जाता है। गुफा संख्या – १ में ‘प्रेमी युगल’ और ‘बुद्ध जन्म’ के दृश्यों में बहुद्देशीय परिप्रेक्ष्य का भलीभाँति किया गया है।
यूरोपीयन कला में मिलन बिन्दु क्षितिज पर होता है, जो उनका मुख्य गुण है। अजन्ता के दृश्यों में यूनानी परिप्रेक्ष्य का भी प्रयोग हुआ है; यथा – १०वीं गुफा के ‘भाडयन्त जातक के जंगली दृश्य’ और ‘पूजागृह के महराबों’ में।
कलाकारों ने अनेक दृष्टि बिन्दुओं से बने रूपों का विकास अन्तराल की सरल संगत वाले सुलभ यथार्थता के आधार पर किया है। रेखा के घुमाव एवं अन्तराल के रूप स्थापना के माध्यम से दूरी व नजदीकी का अवबोध कराया गया है।
( ९ ) मुकुट और वस्त्राभूषण : अजन्ता की गुफाओं के चित्रों में मुकुटों, कपड़ों और आभूषणों को भी बड़ी सुन्दरता व सहजता से अंकित किया गया है। राजा व रानी के मुकुटों की ऊँचाई ( आकार ) में विशेष अन्तर दिखाया गया है। देवताओं एवं महापुरुषों के मुकुट शिखर के समान ऊँचे व भव्य बनाये गये हैं। उदाहरणार्थ नागराज के मुकुट के पीछे पाँच फन का नाग लगा है। इसी तरह ‘गृहत्याग’ नामक चित्र में गौतम बुद्ध का मुकुट उल्लेखनीय है। ‘पद्मपाणि’; ‘गन्धर्व युगल’; ‘वज्रपाणि’ नामक चित्रों में मुकुट की बनावट और आकार से व्यक्ति का पद, चरित्र एवं महत्त्व का आभास कराया गया है।
कलाकारों ने अपने पात्रों की शोभा बढ़ाने के लिये इन्हें बहुमूल्य रत्नों से जड़ित मोतियों की लड़ीदार लम्बी मालाओं और गर्दन में बड़े-बड़े मोतियों की मालाओं से युक्त चित्रित किया गया है। ये मालाएँ मुकुटों से माथे पर लटकती और गर्दन से वक्षस्थल पर लता के समान लहराती हुई प्रतीत होती हैं। अन्य आभूषणों में कानों में मीनाकार कुण्डल, पत्र कुण्डल, मटकाकार कुण्डल, भुजाओं में अनन्त, कमर में मोतियों अथवा कड़ियों से युक्त करधनियाँ बनायी गयीं हैं। हाथों में कड़े, बाजूबन्ध, मणिबन्धों इत्यादि से स्त्रियों के सुडौल हाथ और भी सुन्दर बन पड़े हैं।’वज्रपाणि’; ‘अप्सरा’; ‘राजकुमारी’; ‘गायक दल’ नामक चित्र इसके उपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
वस्त्रों के स्वाभाविक पहनावों को चित्रों में बड़ी अच्छी तरह दिखाया गया है। वस्त्रों की सलवटें न तो हवा में फूली हुई जान पड़ती हैं और न ही उनमें भारीपन दिखायी देता है। पुरुषों को अधिकांशतः अधोभाग में धोती पहने और ऊपरी भाग में चुस्त या ढीला कुर्ता पहने चित्रित किया गया है। स्त्रियाँ कोहनी तक की आस्तीन की चोली तथा नीचे के भाग में धोती या आँचल है। नृत्यांगनाएँ विशेष प्रकार का चुस्त कुर्ता तथा तंग पायजामा पहने हैं। वस्त्रादिक को सुन्दर व मनोरम आलेखनों से अलंकृत किये गये हैं; जिनमें पशु-पक्षियों व जलचरों का अंकन किया गया है।
( १० ) स्त्रियों का स्थान : अजन्ता के चित्रों में नारी लज्जा, ममता, वात्सल्य, विनय जैसे भावों की प्रतीक स्वरूप महिलाओं के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। स्त्री को प्रेयसी, रानी, विरहणी, राजकुमारी, गृहस्थ, ग्राम्या, नृत्यांगना, सेविका, वृद्धा, सुरबाला, बालिका, माता आदि रूपों में दिखाया गया है। चित्रकार ने उसके अंग-प्रत्यंग के छरहरेपन, तीखे नाकनक्श और भावपूर्ण चित्रण के बल पर नारी सौन्दर्य के सिद्धान्त के रूप में अलंकृत किया है।
नारी का रूप सर्वत्र मोहक एवं गौरवपूर्ण है। कहीं भी चित्र में उसे दीन, अशोभनीय और हीन दृष्टि से नहीं चित्रित किया गया है। उसकी आँखों में दिव्य तेज और शरीर की सुडौलता उसके एक-एक रेखा और चित्रण के अनुपात में दृष्टिगत हुए हैं। इसीलिए नारी जहाँ भी वस्त्रहीन भी है फिरभी वह पाश्चात्य कामुकता जैसे कुत्सित विचार से पृथक होकर लज्जा और मातृत्व जैसे गरिमापूर्व भाव का ही संवहन करती है।
( ११ ) हस्त मुद्राएँ, अंग व भाव-भंगिमाएँ : अजन्ता के चित्रों में विविध प्रकार की हस्त मुद्राएँ, अंग और भाव-भंगिमाओं की अद्भुत छटा देखने को मिलती है। अजन्ता के चितेरों ने चित्रों में अपने मन की समस्त भावनाओं को ऐसे सजीव ढंग से अभिव्यक्ति दी है कि ये मूक चित्र ऐसा प्रतीत होता है कि अभी बोल पड़ेंगे।
यहाँ के चित्रों का शैलीकरण भाव-भंगिमाओं से हुआ है। चित्रों की बनावट, भावयुक्त नेत्र, अधर, भौंहें, हस्त मुद्राएँ इत्यादि के माध्यम से विषाद, स्नेह, वात्सल्य जैसे मनोभावों को दर्शाया गया है।
लचीली अँगुलियों की बनावट शास्त्रीय नृत्य की प्रचलित मुद्राओं जैसी लगती हैं। यहाँ कलाकार ने तत्समय प्रचलित नृत्य कला की हस्त मुद्राओं का प्रयोग किया है, जिनमें नाटकीयता के साथ-साथ लाक्षणिकता भी है।
यहाँ कलाकारों ने बुद्ध और अन्य देवी-देवताओं को नैसर्गिक स्वरूप प्रदान करने के लिये नृत्य की मुद्राओं को अधिक उपयुक्त पाया, क्योंकि इन मुद्राओं में भव्यता और भावों की अभिव्यक्ति में अपूर्व शक्ति दिखायी दी इसलिए सभी पात्रों में वह दिव्य रूप प्रतिबिम्बित हो पाया है।
इस शैली की विविध आकृतियों के निर्माण में सुन्दर हस्त मुद्राओं का प्रयोग किया गया है। इसमें प्रमुख रूप से शांति की हस्त मुद्रा, शिखर हस्त मुद्रा, दण्ड हस्त मुद्रा, नील कमल धारण किये भगवान बुद्ध की हस्त मुद्रा, ज्ञान हस्त मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा, कत्तकामुख मुद्रा वैराग्य सूचक साधु की हस्त मुद्रा आदि प्रमुख हैं। ये सभी मुद्राएँ सुन्दर और भावपूर्ण हैं। हस्त मुद्राओं में फूल लिये, वाद्ययंत्र बजाते, मधुपात्र पकड़े, चँवर डुलाते, वस्त्र पकड़े जैसे भी चित्रण दिखाये गये हैं, जिसमें शरीर की कमनीयता प्रदर्शित होती है।
सामान्य मनुष्य और महान् आत्मा के अलगाव को व्यक्त करने के लिये ये नृत्य जैसी मुद्राएँ प्रासंगिक हैं। इसलिए कलाकारों ने भगवान बुद्ध जैसी महान आत्मा के अंकन में भेद स्थापित करने के लिये संगीतपूर्ण मुद्राओं का सहारा लिया गया है। ‘गायक दल’ और ‘अप्सरा’ नामक दृश्यइसके सुन्दर उद्धहरण हैं।
‘पैर की मुद्राओं’ का भी अजन्ता चित्रों में प्रमुख स्थान है। पैर की मुद्राओं से बैठने, चलने, शीघ्रता से चलने, लेटने, खड़े होने जैसे भावों का बड़ी सफलता से चित्रण हुआ है।
भाव प्रदर्शन की दृष्टि से अजन्ता की गुफाओं के चित्रों में अंग-भंगिमाओं का विशेष महत्त्व है। कलाकार ने अपनी छन्दमय बुद्धि और कल्पना का परिचय देते हुये नारी को सुकोमल लतिका सदृश लचकदार भंगिमाओं में अंकित किया है। ये भावांकन आकर्षक और प्रभावपूर्ण है। यहाँ के चित्रों में महाप्रजापति की भाव-भंगिमा दर्शनीय है, जिसमें वह एक कोमल लतिका के समान स्तम्भ का सहारा लिये अपना बायाँ पैर मोड़े खड़ी है ( गुफा संख्या – २ )।
वक्षस्थल की गोलाई एवं कमर की लचक कलाकार ने समस्त नारी चित्रों में अत्यधिक स्वाभाविकता एवं सजीवता से दर्शाया है। उदाहरणार्थ ‘अवलोकितेश्वर’, ‘मरणासन्न राजकुमारी’, ‘मार विजय’, ‘झूला झूलती युवती’ इत्यादि के चित्र प्रमुख हैं।
आकृतियों की विविध भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित करते समय चित्रकार ने मांसपेशियों और अस्थिपंजरों का विशेष ध्यान रखा है। किसी भी आकृति में शारीरिक रचना में विकृति नहीं दिखायी देती है। इसी कारण प्रायः सभी आकृतियों में चाहे वे पुरुष की हो या स्त्री की, पशु की हो या पक्षी की, सभी के मुखमण्डल से ही स्वभाव की उग्रता, सौम्यता, विनोद-प्रियता, चांचल्य, दृढ़ता आदिक भाव निखरकर आते हैं। इस सटीकता के कारण चित्र और भी सजीव व स्वाभाविक लगते हैं।
भय, शांति, शृंगार, हर्ष, विषाद, रौद्र, वीर जैसे भावों को चित्रकार ने चित्र आकृतियों की मुखाकृति पर स्वाभाविक रूप से दर्शाया है। भाव की दृष्टि से ‘राजा के चरणों पर नर्तकी’, ‘वेस्सान्तर जातक’, ‘मार विजय’ जैसे चित्र इसके उत्तम उदाहरण हैं। भय, आतंक, याचना ग्लानि, शान्ति और आनंद जैसे भावों का इन चित्रों में पूर्णतः अंकन हुआ है।
निष्कर्ष
इस तरह समग्र रूप में अजन्ता की चित्रकला बड़ी प्रशंसनीय है। रेखाओं की निश्चितता एवं सूक्ष्मता, रंगों की चमक, प्रफुल्ल भाव तथा स्पन्दमान जीवन के साथ अभिव्यक्ति की प्रचुरता आदि ने मिलकर अजन्ता की चित्रकला को सदा के लिये सर्वश्रेष्ठ बना दिया है। निश्चय ही यह भारतीय चित्रकला ( भित्तिचित्र ) के चरमोत्कर्ष को द्योतित करती हैं।
तकनीकी दृष्टि से अजंता के भित्तिचित्र विश्व में सर्वोच्च स्थान रखते हैं। सुंदर कल्पना, रंगों और रेखाओं के सौंदर्य इन चित्रों की विशेषता हैं। नीले, श्वेत, लाल, हरे, भूरे रंगों में वृक्ष, पुष्प, पशु, सरिताएँ, मनुष्य, देवी-देवता इत्यादि का चित्रण किया गया है। चित्रों में समृद्ध सजीवता है।
छतों के स्तम्भों, दरवाजों और झरोखों की चौखटों के अलंकरण से रचना और तकनीक के क्षेत्र में कलाकार की कुशलता स्पष्टरूप से दर्शनीय है।
यद्यपि अजंता चित्र मुख्यतः धार्मिक विषयों पर हैं परंतु इनमें राजकुमारों, सामन्तों, योद्धाओं व साधुओं के जनजीवन की झाँकी मिलती है।
यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अजन्ता की कला उच्च वर्ग की संपन्नता का दृश्यांकन तो करती है परंतु ग्रामीणों की सामान्य कठिनाइयों की कोई झलक नहीं मिलती है।