भूमिका
एरण मध्य प्रदेश के सागर जनपद में मालवा के पठार से बहने वाली बेतवा की सहायक बीना नदी के तट पर स्थित है। इसका एक अन्य प्रचीन नाम ‘एरकिण’ भी मिलता है।
एरण का संक्षिप्त इतिहास
इसका इतिहास प्रागैतिहासिक काल तक जाता है। यहाँ से चार सांस्कृतिक स्तर मिलते हैं :—
- एक, ताम्रपाषाणिक संस्कृति
- द्वितीय, लौहयुगीन संस्कृति
- तृतीय, ऐतिहासिक युग की शुरुआत ( द्वितीय नगरीकरण से लेकर गुप्तपूर्व समय तक की संस्कृति )
- चतुर्थ, गुप्तकालीन संस्कृति
ताम्रपाषाणिक संस्कृति ( Chalcolithic Culture )
तकनीकी रूप से ताम्रपाषाणिक काल; नवपाषाणकाल का परवर्ती और काँस्यकाल की पूर्ववर्ती है परन्तु भारतीय संदर्भ में यह मामला गड्मड्ड सा हो जाता है। काँस्ययुगीन सैंधव सभ्यता के पतन के बाद भारतीय उप-महाद्वीप के आंतरिक भागों में ताम्रपाषाणिक संस्कृति देखने को मिलती है।
इन ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों की विशेषता ‘विशिष्ट प्रकार के चित्रित मृद्भाण्ड।’
भारतीय उप-महाद्वीप के आंतरिक भागों में निम्न ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ देखने को मिलती हैं :—
- अहार या बनास संस्कृति
- कायथा संस्कृति
- मालवा संस्कृति
- सावलदा संस्कृति
- जोरवे संस्कृति
- प्रभास संस्कृति
- रंगपुर संस्कृति
इनमें से कुछ संस्कृतियाँ हड़प्पा सभ्यता की समकालीन तो कुछ परवर्ती थीं।
एरण नामक सांस्कृतिक स्थल मालवा संस्कृति के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है। मालवा संस्कृति में काले रंग से चित्रित लाल रंग के मृद्भाण्ड हैं। मालवा संस्कृति के मृद्भाण्ड इन सबमें सर्वोत्कृष्ट है। यहाँ की बस्तियाँ ग्रामीण ही थी हाँ कुछ नगरीकरण के करीब पहुँच गयी थीं। एरण की बस्ती के चारों ओर एक खाईं के साथ परकोटा पाया जाता है।
मालवा संस्कृति का समय नवदाटोली के संदर्भ में १६०० से १३०० ई०पू० निर्धारित की गयी है। यही समय एरण के लिए भी मानना उपयुक्त होगा।
लौहयुगीन संस्कृति
एरण ताम्रपाषाणिक स्थल की संस्कृति आगे चलकर लौहप्रयोक्ता संस्कृति में विकसित होती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एरण में पूर्ववर्ती ताम्रसंस्कृति का ही विकास है, जिसमें लोहे का प्रयोग होने लगा और काले-लाल मृद्भाण्ड खूब प्रचलित थे। यहाँ से लोहे के बने हुए अनेक औज़ार मिले हैं; यथा – दुधारी कटारें, कुल्हाड़ी, बाणाग्र, हँसिया, चाकू इत्यादि।
प्रारंभ में यह माना जाता था कि मालवा ( एरण और नागदा ) में ताम्रपाषाणिक संस्कृति के बाद ऐतिहासिक काल शुरू हो गया। किन्तु अर्वाचीन अन्वेषणों में यह तथ्य सामने आया है कि इन दोनों के मध्य कुछ व्यवधान है। इस व्यवधान में लौह प्रयोक्ता संस्कृति अस्तित्व में आयी।
अर्थात् ताम्रपाषाण काल, लौह काल और ऐतिहासिक काल क्रमशः एरण ( मालवा ) में अविच्छिन्न रूप से आये।
लौह काल के समय के सम्बन्ध में विवाद है —
- एन० आर० बनर्जी के अनुसार मालवा में लोहे का प्रयोग लगभग ८०० ई०पू० से होने लगा था।
- डी० के० चक्रवर्ती मालवा में लोहे के प्रयोग की शुरुआत ११०० ई०पू० से निर्धारित करते हैं।
- एरण में लौह काल स्तर की तीन रेडियो कार्बन तिथियाँ निर्धारित की गयी हैं। जिसके आधार पर यह कहा गया है कि यहाँ पर लौहयुक्त स्तर का ११०० ई०पू० के बाद की नहीं हो सकती है।
- यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मालवा के समीप ही राजस्थान के अहाड़ से पुरास्थल पर लोहे का प्रयोग होने का साक्ष्य लगभग १५०० ई०पू० निर्धारित किया गया है। अतः यह मानना समीचीन होगा कि मालवा ( एरण ) में भी लोहे का प्रयोग इसके बाद होने लगा होगा।
ऐतिहासिक काल
भारतीय संदर्भ में ऐतिहासिक समय की शुरुआत ७०० से ६०० ई०पू० मानी जा सकती है। मालवा में ही १६ महाजनपदों में से शक्तिशाली अवन्ति महाजनपद स्थित था।
एरण में इस विकासक्रम के साक्ष्य मिलते हैं।
गुप्तकालीन संस्कृति
गुप्त काल ( ३१९ से ५५० ई० ) में यह एक प्रमुख नगर था।
यह स्थान प्राचीन पुरातात्विक महत्त्व का है। यहाँ से कई गुप्तकालीन अभिलेख और पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुएँ मिली हैं।
इनमें से कुछ अभिलेख और पुरातात्त्विक साक्ष्यों के विवरण और उनका विश्लेषण :—
- समुद्रगुप्त का एरण अभिलेख – गुप्त सम्वत् ८२ ( अर्थात् ४०२ ई० )
- इस अभिलेख की खोज कनिंघम ने की थी।
- यह अभिलेख भग्न अवस्था में मिला है।
- इसको वर्तमान में कोलकाता संग्रहालय में रखा गया है।
- यह अभिलेख समुद्रगुप्त का प्रशस्तिगान करता है जो प्रयाग प्रशस्ति की याद दिलाता है।
- समुद्रगुप्त को इसमें पृथु, राघव आदि पौराणिक राजाओं से बढ़कर बताया गया है।
- वह ( समुद्रगुप्त ) प्रसन्न होने पर कुबेर के समान और रुष्ट होने पर यमराज के समान थे।
- अभिलेख में समुद्रगुप्त की पत्नी ‘दत्तादेवी’ का नाम मिलता है।
- उसे ( समुद्रगुप्त ) अनेक पुत्र और पौत्रों से सम्पन्न बताया गया है ( मुदिता-बहुपुत्र-पौत्रा)।
- इसी लेख में एरण को समुद्रगुप्त का ‘भोगनगर’ बताया गया है।
- रामगुप्त की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालनेवाले कई सिक्के यहाँ से प्राप्त होते हैं।
- प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति विभाग, सागर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री कृष्णदत्त वाजपेयी को यहाँ से रामगुप्त की कुछ ताम्र मुद्राएँ मिली हैं। ( जर्नल ऑफ न्यूमिस्मेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया )
- इन सिक्कों पर सिंह एवं गरुड़ की आकृतियाँ अंकित हैं।
- इस पर राजा का नाम राम, रामगु, मगुप्त अंकित है।
- सिक्कों पर गरुड़ का अंकन रामगुप्त की ऐतिहासिक पर नया बहस शुरू कर देती है क्योंकि गरुड़ गुप्त साम्राज्य का राजकीय चिह्न था।
- गरुड़ के राजकीय चिह्न होने का प्रमाण कई स्थान से मिलता है; जैसे – प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि गुप्तों की राजाज्ञाएँ गरुड़मुद्रांकित ( गरुत्मदंक ) होती थीं।
- अतः गरुड़ अंकित मुद्रा से ज्ञात होता था कि इस मुद्रा का जारीकर्ता शासक कोई और नहीं वरन् चन्द्रगुप्त द्वितीय का अग्रज था।
- कुछ विद्वानों ने कृष्णदत्त वाजपेयी के विचार का विरोध किया है। उनके अनुसार यह कोई मालवा का स्थानीय शासक हो सकता है जो गुप्तों मातहत शासन करता हो। क्योंकि ये सभी मुद्रायें ताँबे की हैं इसलिए इसका जारीकर्ता सार्वभौम गुप्त सम्राट नहीं हो सकता है।
- फिरभी हम इस आधार इस तथ्य की उपेक्षा नहीं कर सकते कि यह ताँबे के सिक्के है और अन्यत्र यह सिक्के नहीं मिलते हैं।
- इन सिक्कों की लिपि तृतीय-चतुर्थ शती ईसवी की है और इस समय हम किसी ऐसे शासक की कल्पना नहीं कर सकते जो स्वतंत्र रूप से मालवा में मुद्रा अंकित करा सके।
- प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति विभाग, सागर विश्वविद्यालय के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री कृष्णदत्त वाजपेयी को यहाँ से रामगुप्त की कुछ ताम्र मुद्राएँ मिली हैं। ( जर्नल ऑफ न्यूमिस्मेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया )
- बुधगुप्त का एरण स्तम्भ लेख
- यह अभिलेख एक ध्वजास्तम्भ पर अंकित है।
- इस स्तम्भ का निर्माण मातृविष्णु और उसके अनुज धन्यविष्णु ने करवाया था।
- यह स्तम्भ वर्तमान में भी सुरक्षित स्थित में पाया गया है।
- इस स्तम्भ की ऊँचाई ४३ फीट और यह १३ फीट वर्गाकार आधार पर लगाया गया है। स्तम्भ के शीर्ष पर ५ फीट ऊँची द्विरुखी गरुड़ की प्रतिमा स्थापित है और इसके पीछे चक्र बनाया गया है। इसीलिए इसको गरुड़ स्तम्भ भी कहा जाता है।
- इस स्तम्भ लेख से बुद्धगुप्त के शासनकाल के कुछ प्रादेशिक पदाधिकारियों की सूचना मिलती है —
- मातृविष्णु पूर्वी मालवा का सामन्त था।
- सुरश्मिचन्द्र अन्तर्वेदी का शासक था। प्राचीनकाल में गंगा-यमुना के दोआब के लिए अन्तर्वेदी शब्द का प्रयोग मिलता है।
- भानुगुप्त का प्रस्तर स्तम्भ लेख ( सती अभिलेख ) – ५१० ई०
- इसमें भानुगुप्त जगत् का सर्वश्रेष्ठ वीर ( जगति प्रवीरो ) और महान शासक कहा गया है।
- इस अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व सती प्रथा के विषय में है क्योंकि यह सती प्रथा के प्रचलन का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि भानुगुप्त का सामन्त गोपराज हूणों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे और उनकी पत्नी सती हो गयीं थी।
सती-प्रथा का प्राचीनतम् अभिलेखीय प्रमाण “श्री भानुगुप्तो जगति प्रवीरो, राजा महान्पार्थसमोऽतिस शूरः। तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपराजो, मित्रानुगत्येन किलानुयातः॥ कृत्वा च युद्धं सुमहत्प्रकाशं, स्वर्ग गतो दिव्य नरेन्द्रकल्पः॥ भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता, भार्यावलग्नानुगताग्निराशिम्॥” भानुगुप्तकालीन एरण अभिलेख ( ५१० ई० ) |
- हूण शासक तोरमाण का एक अभिलेख मिला है जो ‘वाराह प्रतिमा’ पर अंकित है। इससे यह ज्ञात होता है कि तोरमाण ने इस स्थान को विजित कर लिया था और ‘धान्यविष्णु’ उसके सामन्त के रूप में यहाँ पर शासन करता था।
एरण के वाराह प्रतिमा पर अंकित तोरमाण का अभिलेख “वर्षे प्रथमे पृथिवीमपृथु कीर्तो पृथुद्युतो, महाराजाधिराज श्रीतोरमाणे प्रशासति।” |
सागर विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में एरण में व्यापक स्तर पर उत्खनन का कार्य हुआ जिसमें अनेक ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तुएँ मिली हैं।
कला
- यहाँ से कई गुप्तकालीन मंदिरों के अवशेष मिलते हैं; जैसे – नृसिंह मंदिर, वाराह मंदिर, विष्णु मंदिर आदि। परन्तु ये अब भग्न अवस्था में हैं।
- एरकिण में गुप्तकालीन भगवान विष्णु का मंदिर मिला है। यह विष्णु मंदिर अब भग्न अवस्था में है। भगवान ‘विष्णु की प्रतिमा’ लगभग १४ फीट ऊँची है। इस मंदिर के गर्भगृह का द्वार और इसके समक्ष खड़े दो स्तम्भ मात्र वर्तमान में बचे हैं। इस स्तम्भ की शीर्ष गज, सिंह, नारीमुख इत्यादि से अलंकृत किया गया था।
- भगवान विष्णु के वाराहवतार की एक ‘वाराह प्रतिमा’ यहाँ से मिली हैं। यह काफी विशाल है। इसी वाराह प्रतिमा पर हूण शासक तोरमाण का लेख अंकित है। इस वाराह प्रतिमा पर अंकित अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण मातृविष्णु के अनुज धान्यविष्णु द्वारा कराया गया था।
- विष्णु मंदिर के समक्ष एक ‘गरुड़ स्तम्भ’ खड़ा है। इसकी ऊँचाई लगभग ४७ फीट है।