कुमारगुप्त द्वितीय के अनन्तर बुधगुप्त () शासक हुआ। परवर्ती गुप्त शासकों में बुधगुप्त सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था।
संक्षिप्त परिचय
नाम | बुधगुप्त |
पिता | पुरुगुप्त |
माता | — |
पत्नी | — |
पुत्र | — |
पूर्ववर्ती शासक | कुमारगुप्त द्वितीय |
उत्तराधिकारी | नरसिंहगुप्त |
शासनकाल | ४७६ से ४९५ ई० |
उपाधि | परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमदैवत, परमभागवत, श्रीविक्रम |
अभिलेख | सारनाथ बुद्ध-मूर्ति-लेख; गुप्त सम्वत् १५७ (४७६ ई०) |
पहाड़पुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् – १५९ (४७८ ई०) | |
राजघाट स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १५९ (४७८ ई०) | |
मथुरा पादासन-लेख; गुप्त सम्वत् १६१ (४८० ई०) | |
दामोदरपुर ताम्र-लेख (तृतीय); गुप्त सम्वत् १६३ (४८२ ई०) | |
एरण स्तम्भलेख; गुप्त सम्वत् १६५ (४८४ ई०) | |
शंकरगढ़ ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६६ (४८५ ई०) | |
नन्दपुर ताम्र-लेख; गुप्त सम्वत् १६९ (४८८ ई०) | |
भीतरी शिलापट्ट लेख; गुप्त सम्वत् १७० (४८९ ई०) | |
दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ) | |
नालंदा मुद्रा-लेख |
माता-पिता का निर्धारण
प्रारम्भ में विद्वानों का विचार था कि वह कुमारगुप्त (प्रथम) का पुत्र था क्योंकि हुएनसांग उसके पिता का नाम “शक्रादित्य” बताता है। परन्तु नालन्दा से उसकी मुहर (seal) प्राप्त हो जाने के पश्चात् यह प्रमाणित हो गया है कि वह पुरुगुप्त का पुत्र था।
“म[हाराजाधिराज श्रीपूरुगुप्तस्त
[त्पादानुध्यातो महादेव्यां श्री] [————]देव्यामुत्पन्न [परमभागवतो महाराजाधिराज]
श्रीबुधगुप्तः [I]”
—पंक्ति संख्या- ६, ७; नालंदा मुद्रा-लेख
नालन्दा मुहर के उपलब्ध छाप में माता का नाम अस्पष्ट है। हीरानन्द शास्त्री ने इसे बिना किसी हिचक के महादेवी पढ़ने की चेष्टा की है। अमलानन्द घोष ने चन्द्रदेवी नाम का सुझाव दिया है। इसे भण्डारकर ने भी स्वीकृति दी है। परन्तु दिनेशचन्द्र सरकार का स्पष्ट मत है कि नाम चन्द्रदेवी से सर्वथा भिन्न है उन्हें महादेवी पाठ में भी सन्देह है। नालन्दा से मिली नरसिंहगुप्त के मुहर की छाप से उसकी माता का नाम चन्द्रदेवी असंदिग्ध रूप से पढ़ा गया है। इसलिए बुधगुप्त की माता चन्द्रदेवी हो भी सकती है और नहीं भी।
राज्यारोहण
गुप्त सम्वत् १५७ अर्थात् ४७६ ईस्वी का उसका सारनाथ से लेख मिला है। यह उसके शासन काल की प्रथम ज्ञात तिथि है। इससे अनुमान किया जाता है कि उसने ४७६ ईस्वी में अपना शासन प्रारम्भ किया। इसके अनुसार— “गुप्त शासकों के वर्ष १५७ बीत जाने पर, जिन दिनों बुधगुप्त का पृथ्वी पर शासन है।”
“गुप्ता [नां] समतिक्कान्तो सप्तपंचाशदुत्तरे [।] शते समानां पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति [॥]”
कुमारगुप्त (द्वितीय) और बुधगुप्त के सारनाथ अभिलेख की तुलना कीजिए—
- कुमारगुप्त द्वितीय के सारनाथ से ही प्राप्त बुद्ध-मूर्ति लेख (४७३ ई०) में उसके लिए किसी विरुद का प्रयोग नहीं है— “भूमि रक्षति कुमारगुप्ते”।
- बुधगुप्त के सारनाथ अभिलेख (४७६ ई०) में उसके लिए किसी विरुद का प्रयोग नहीं किया गया है— “पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति”।
इस आधार पर कुमारगुप्त द्वितीय को स्वतंत्र शासक नहीं अपितु पुरुगुप्त के अधीन प्रशासक अर्थात् सारनाथ क्षेत्र का गोप्ता बताया गया। बाद में उसके सिक्के जो मिले उसपर “क्रमादित्य” विरुद अंकित है। यह उपाधि स्कंदगुप्त की भी प्राप्त होती है। अर्थात् कुमारगुप्त द्वितीय अल्पकाल के लिए गुप्त साम्राज्य का सम्राट रहा होगा। उसके अल्प-शासनकाल को ४७३ से ४७८ के बीच में कहीं रखा जा सकता है।
उपर्युक्त तर्क को ही तनिक आगे बढ़ाते हैं। बुधगुप्त के सारनाथ अभिलेख (४७६ ई०) में किसी विरुद का प्रयोग नहीं है। अब यदि कुमारगुप्त द्वितीय को स्वतंत्र शासक नहीं माना गया तो बुधगुप्त भी ४७६ ई० में सम्राट नहीं बना था और वह सम्भवतया कुमारगुप्त द्वितीय के अधीन गोप्ता था।
बुधगुप्त गुप्त सम्राट कब बना?
- इसका उत्तर हमें उसके राजघाट स्तम्भलेख से मिलता है। यह ४७८ ई० का है। इसमें बुधगुप्त को “महाराजाधिराज” कहा गया है।
- ४७८ ई० के पहाड़पुर ताम्र-लेख में “परमभट्टारक” विरुद का प्रयोग है। परन्तु शासक का नाम उल्लिखित नहीं है। राजघाट लेख के आधार पर इसे बुधगुप्त का माना जा सकता है, क्योंकि दोनों का ४७८ ई० के हैं।
- अतः कहा जा सकता है कि बुधगुप्त ४७८ ई० में गुप्त सम्राट बना।
परन्तु यदि विरुद को महत्त्व न देते हुए राजघाट लेख के आधार पर बुधगुप्त को ४७३ ई० में ही सम्राट माना जाये तो यह तर्क कुमारगुप्त द्वितीय पर भी लागू होगा। तब हमें यह मानना होगा कि कुमारगुप्त द्वितीय ४७३ से ४७६ ई० तक सम्राट रहा।
यह विवाद इतना उलझा हुआ है कि निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। सम्भावना यह है कि कुछ समय के लिए हो सकता है कि बुधगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय के अधीन प्रशासक रहा हो, सम्भवतया ४७६ से ४७८ ई० के मध्य कुछ समय के लिए। परन्तु हम उसे ४७८ ई० में गुप्त सम्राट के रूप में शासन करता हुआ पाते हैं। बहुत हद तक सम्भावना है कि उसने कुमारगुप्त द्वितीय को हटाकर सत्ता पायी हो।
शासनकाल का निर्धारण
- बुधगुप्त का शासनकाल ४७६ या ४७८ ई० से प्रारम्भ हुआ।
- उसके रजत मुद्राओं के आधार पर उसके शासन काल की अन्तिम तिथि गुप्त सम्वत् १७५ अर्थात् ४९४ ईस्वी उत्कीर्ण मिलती है।
- अतः ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि बुधगुप्त ने ४७६ या ४७८ ई० से ४९४ ई० तक शासन किया था।
- अतः बुधगुप्त का शासनकाल १६ (४७८-४९४ ई०) या १८ (४७६-४९४ ई०) वर्ष माना जा सकता है।
साम्राज्य विस्तार
परवर्ती गुप्त शासकों में बुधगुप्त सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने एक बड़ क्षेत्र पर शासन किया। उसके साम्राज्य विस्तार का निर्धारण हम अभिलेखों और सिक्कों के प्रचलन के आधार पर कर सकते हैं।

बुधगुप्त के अभिलेख प्राप्ति स्थल अधोलिखित हैं—
- दामोदरपुर, रंगपुर, बाँग्लादेश
- पहाड़पुर, राजशाही; बाँग्लादेश
- नन्दपुर, मुंगेर जनपद; बिहार
- नालन्दा; बिहार
- सारनाथ और राजघाट, वाराणसी; उत्तर प्रदेश
- मथुरा, उत्तर प्रदेश
- भीतरी, गाजीपुर; उत्तर प्रदेश
- एरण, सागर; मध्य प्रदेश
- शंकरगढ़, सीधी; मध्य प्रदेश
दामोदरपुर ताम्रपत्र में उसे “परमदैवत परमभट्टारक महाराजाधिराज” () कहा गया है। स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों में बुधगुप्त सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था जिसने एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया। स्वर्ण मुद्राओं पर उसकी उपाधि “श्रीविक्रम” मिलती है। उसके अभिलेखों से उसके कुछ प्रान्तीय पदाधिकारियों की सूचना मिलती है।
एरण अभिलेख से पता चलता है कि पूर्वी मालवा में मातृविष्णु उसका सामन्त था। इसी लेख के अनुसार सुरश्मिचन्द्र अन्तर्वेदी (गङ्गा-यमुना-दोआब) का शासक था।
दामोदरपुर ताम्रपत्र के अनुसार ब्रह्मदत्त पुण्ड्रवर्धन भुक्ति का शासक था।
बुधगुप्त के अभिलेख तथा सिक्कों के प्रसार से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने मालवा से बंगाल तक के भूभाग पर शासन किया।
बलभी (गुजरात) के मैत्रक नरेश भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे। मैत्रक नरेश द्रोणसिंह का ५०२ ईस्वी का लेख मिला है जिसमें वह अपने को परमभट्टारक महाराजाधिराज (बुधगुप्त) का ‘तत्पादानुध्यात’ बताता है। यह उल्लेख स्पष्ट रूप से उसकी सामन्त स्थिति का सूचक है।
खोह (मध्य प्रदेश) नामक स्थान से महाराज हस्तिन् के दो ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं जिसमें गुप्त सम्वत् १५६ तथा १६३ (४७५ तथा ४८२ ईस्वी) की तिथियाँ अंकित हैं। दूसरे लेख से पता चलता है कि वह गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार करता था।
उच्चकल्पवंश के महाराज जयनाथ के लेखों में १७४ तथा १७७ की तिथियाँ मिलती हैं। उच्चकल्पवंश परिव्राजकों का समीपवर्ती था जो गुप्तों के सामन्त थे। अतः हम कह सकते हैं कि उक्त तिथियाँ गुप्तवंश की ही हैं और इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जयनाथ भी बुधगुप्त का सामन्त था।
उसकी रजत मुद्राओं पर ‘विजितावनिरवनिपतिः श्रीबुधगुप्तो दिवं जयति’ अर्थात् ‘राजा बुधगुप्त पृथ्वी को जीतने के बाद स्वर्ग को जीतता है’ मुद्रालेख उत्कीर्ण मिलता है। यही लेख कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त की मुद्राओं पर भी मिलता है।
इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद बुधगुप्त के समय में साम्राज्य ने अपनी शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया।
“It will thus appear that the empire under Budhagupta recovered its position and prestige after the dark days following the death of Skandagupta.”
—The Gupta Empire, p. 121; Radhakumud Mookerji
बुधगुप्त बौद्धमतानुयायी था, जैसा कि चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण से ज्ञात होता है। उसने नालन्दा महा विहार को धन दान दिये थे। परन्तु बुधगुप्त के अभिलेख में उसे— परमभागवत और परमदैवत दोनों कहा गया है—
- परमभागवत— नालंदा मुद्रा-लेख
- परमदैवत— दामोदरपुर ताम्र-लेख (तृतीय) और दामोदरपुर ताम्रपत्र (चतुर्थ)
“वह अन्तिम गुप्त सम्राट था जिसने हिमालय से लेकर नर्मदा नदी तक तथा मालवा से लेकर बंगाल तक के विस्तृत भू-भाग पर शासन किया।”
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