प्राचीन भारतीय इतिहास

वेदों का रचनाकाल क्या है?

भूमिका वेद मानव सभ्यता और संस्कृति की अमूल्य थाती हैं। वेदों से सम्बन्धित कई समस्याओं में से एक प्रश्न यह भी है कि वेदों का रचनाकाल क्या है? या वैदिक साहित्य की रचना कब हुई? इस पर विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्हीं विचारों और जहाँ तक सम्भव हो पुरातत्व की सहायता से […]

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वेदों के रचयिता कौन हैं?

भूमिका वेद भारतीयों की ही नहीं मानव सभ्यता व संस्कृति की प्राचीनतम् उपलब्ध साहित्य है। प्रश्न यह उठता है कि वेदों के रचयिता कौन हैं? अथवा वैदिक साहित्य के रचयिता कौन है? यद्यपि भारतीय परम्परा में वेदों को नित्य और अपौरुषेय माना गया है। परन्तु वैदिक संस्कृति व सभ्यता से पूर्व इस प्रश्न पर विचार

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वैदिक साहित्य क्या है?

भूमिका वेद किसी व्यक्ति विशेष द्वारा रचित कोई धार्मिक कृति नहीं है और न ही ये किसी समय विशेष की कृतित्व है अपितु वैदिक साहित्य कई शताब्दियों तक विकसित और समृद्ध होता रहा और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहा है। इससे पूर्व की हम वैदिक काल और संस्कृति के विषय में विषद् चर्चा

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महापाषाण संस्कृति ( Megalithic Culture )

भूमिका नवपाषाण युग की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण में जिस संस्कृति का उदय हुआ, उसे वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण संस्कृति (Megalithic Culture) कहा जाता है। इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग करते थे। वृहत्पाषाण को अंग्रेजी में मेगालिथ (Megalith) कहा जाता है। यह यूनानी भाषा

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उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड (Northern Black Polished Ware, NBPW)

भूमिका ये मिट्टी के पात्र ईसा पूर्व छठी शताब्दी अथवा बुद्ध काल के विशिष्ट मृद्भाण्ड हैं जिन्हें सामान्यतः उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड अथवा काली पॉलिश के बर्तन कहा जाता है। इन मृद्भाण्डों से द्वितीय नगरीकरण के प्रारम्भ की सूचना मिलती है। संक्षेप में इन्हें एन० बी० पी० डब्ल्यू० ( NBPW – Northern Black Polished Ware

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कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड ( Black and Red Ware – BRW )

भूमिका कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड के समय और स्थान दोनों में बहुत व्यापकता है। इसको काले और लाल मृदभाण्ड और नील-लोहित मृदभाण्ड ( अथर्ववेद ) भी कहा जाता है। इसको संक्षिप्त रूप से BRW ( Black & Red Ware ) कहा जाता है। काले और लाल मृदभाण्ड को सर्वप्रथम सर मार्टीमर व्हीलर द्वारा अरिकामेडु ( १९४५

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चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW )

भूमिका चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware ) नाम से ही विदित है कि इस पात्र परम्परा के पात्र प्रधानतः धूसर अथवा स्लेटी रंग के हैं जिन पर काले रंग में चित्रण किया गया है। कहीं-कहीं काले अथवा चाकलेटी रंग के बर्तन भी मिलते हैं। इस पात्र परम्परा का सम्बन्ध लोहे से है। चित्रित

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गैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP )

भूमिका गैरिक मृद्भाण्ड एक विशेष प्रकार के मिट्टी के बर्तन हैं जो अधिकांशतः गंगा घाटी क्षेत्र से मिलते हैं। गैरिक मृदभाण्ड को गेरुवर्णी या गेरुए रंग के मृदभाण्ड भी कहते हैं। गैरिक मृद्भाण्डों को खोज सर्वप्रथम पुराविद बी० बी० लाल ने १९४९ ई० में बिसौली (बदायूँ) तथा राजपुरपरसू (बिजनौर) के पुरास्थलों के उत्खनन के दौरान

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मृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )

भूमिका प्रारम्भ में मृद्भाण्डों के महत्त्व को नहीं समझा जाता था। उत्खनन के दौरान जो मृदभाण्डों के जो टुकड़े प्राप्त होते थे उन्हें महत्त्वहीन समझकर फेंक दिया जाता था। सर्वप्रथम फ्लिंडर्स पेट्री ( Flinders Petry ) नामक पुरातत्ववेता ने मिस्र में उत्खनन के दौरान प्राप्त मृद्भाण्डों के महत्त्व का आकलन करते हुए बताया कि प्रत्येक

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लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

भूमिका ताम्र तथा कांस्य के प्रयोग के पश्चात् मानव ने लौह धातु का ज्ञान प्राप्त कर इसका प्रयोग अस्त्र-शस्त्र एवं कृषि उपकरणों के निर्माण में किया। इसके फलस्वरूप मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उत्खनन के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी, पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी भागों के लगभग ७०० से भी अधिक पुरास्थलों से लौह उपकरणों

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