योग दर्शन

योग दर्शन

परिचय

भारतीय दर्शनों में योग ही वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय है। योग हमें आत्मशुद्धि और आत्मनियंत्रण का व्यावहारिक मार्ग बताता है। २१ जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है। योग दर्शन सांख्य के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बंधित है। यह सांख्य दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है। इसके प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं और इनकी कृति ‘योगसूत्र’ है।

योग का शाब्दिक अर्थ है मिलन अर्थात् आत्मा का परमात्मा के साथ मिल जाना।

गीता में समत्व को योग कहा गया है, “समत्वं योग उच्यते”। समत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति दुःख-सुख, हानि-लाभ, जय-पराजय आदि सभी के प्रति समभाव रखता है।

पतंजलि के अनुसार “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध योग है।

सांख्य द्वारा प्रतिपादित २५ तत्त्वों के साथ ईश्वर को मान्यता योग दर्शन में दी गयी है। इस प्रकार इसमें २६ तत्त्व हैं। इसमें सांख्य के ‘विवेक ज्ञान’ को भी मान्यता है। योग को ‘ईश्वर सांख्य’ भी कहा जाता है। योग दर्शन कैवल्य प्राप्ति के लिए ‘व्यावहारिक मार्ग’ का निर्देशन करता है।

चित्त और उसकी वृत्तियाँ

योगसूत्र के अनुसार “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”। चित्त से तात्पर्य बुद्धि, अहंकार और मन से है। चित्त प्रकृति का प्रथम विकार है और इसमें सत्व तत्त्व की प्रधानता रहती है। चित्त स्वभाव से जड़ है, परन्तु पुरुष ( आत्मा ) से निकटता होने के कारण यह उसके प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है और चेतनता का आभास कराता है।

जब चित्त का किसी विषय से सम्पर्क होता है तो यह उसी का आकार ग्रहण कर लेता है और इसी स्वरूपपरिवर्तन को ‘वृत्ति’ कहते हैं।

पुरुष के चैतन्य का प्रकाश, जो वृत्ति को प्रकाशित करता है, ‘ज्ञान’ कहलाता है।

पुरुष मूलतः शुद्ध चैतन्य स्वरूप है और प्रकृति द्वारा बाधित नहीं है। परन्तु भ्रमवश वह अपना समीकरण चित्त में अपने प्रतिबिम्ब से स्थापित कर लेता है और इसमें परिवर्तन का आभास होने लगता है। जब पुरुष स्वयं को पूर्ण निरपेक्ष और निष्क्रिय द्रष्टा मात्र समझ लेता है, तब चित्त के प्रतिबिम्ब के साथ उसका सम्बन्ध टूट जाता है जिससे प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाता है और चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है। चित्तवृत्ति के इसी निरोध को योग कहते हैं जिसमें पुरुष अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में आ जाता है।

 

चित्त की पाँच वृत्तियाँ हैं :— (१) प्रमाण, (२) विपर्यय, (३) विकल्प, (४) निद्रा और (५) स्मृति।

  • प्रमाण ( सत्य ज्ञान ) के तीन भेद हैं — प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द।
  • विपर्यय को मिथ्या ज्ञान; जैसे- रज्जु में सर्प का आभास।
  • विकल्प अर्थात् कल्पना; जैसे- आकाश-कुसुम।
  • निद्रा अर्थात् मन के विकार से है।
  • स्मृति भूतकाल के अनुभवों की मानसिक प्रतीति है।

 

बंधन – पुरुष का चित्त की वृत्तियों या विकारों के साथ भ्रमवश अपना तादात्म्य स्थापित कर लेना बन्धन है। इस अवस्था में पुरुष अपने को कर्त्ता, भोक्ता आदि समझते लगता है। पुरुष को प्रतीत होने लगता है कि पुरुष का जन्म तथा मरण होता है और वही नाना प्रकार के दुःखों का भोक्ता है। 

दुःख – दुःख पाँच प्रकार के हैं — अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष (ईर्ष्या) और अभिनिवेश (मृत्यु का भय)।

 

मुक्ति – विवेक ज्ञान के उदय होने से पुरुष को स्वयं और प्रकृति के भेद का ज्ञानों जाता है जिससे चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है। योग का उद्देश्य इसी अवस्था को प्राप्त करना है।

 

चित्त ( मन ) की पाँच अवस्थायें हैं – क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।

  • क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्तावस्था योग के अनुकूल नहीं है।
  • एकाग्र और निरुद्ध की अवस्था योग के अनुकूल हैं। 

 

अष्टांग योग

योग शरीर, मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का उपदेश करता है। इन्द्रियजन्य राग एवं आसक्ति मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में बाधक हैं। इनपर विजय पाने का साधन ‘अष्टांग योग’ है।

“यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा ध्यानसमाधयोष्टावंगानि।”

अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के आठ अंग हैं।

अष्टांग योग के दो वर्गों में बाँटा गया है :—

  1. बहिरंग साधन, इसके अंतर्गत प्रथम पाँच — यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार आते हैं।
  2. अन्तरंग साधन, इसके अंतर्गत अंतिम तीन — धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं।

समाधि के दो प्रकार बताये गये हैं — सम्प्रज्ञात ( Conscious ) और असम्प्रज्ञात ( Supra-conscious )। सम्प्रज्ञात में बुद्धि की क्रियीशीलता किसी न किसी रूप में बनी रहती है जबकि असम्प्रज्ञात में बुद्धि की क्रियाशीलता पूर्णतया लोप हो जाता है। सम्प्रज्ञात को एकाग्र जबकि असम्प्रज्ञात को निरुद्ध कहा जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि से ही कैवल्य की प्राप्ति होती है।

 

ईश्वर

योग दर्शन में ईश्वर की सत्ता स्वीकृत है। उसके विषय में योगसूत्र कथन है —

क्लेशकर्म विपाकाशयैः अपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।

अर्थात् ईश्वर वह पुरुष विशेष है जो क्लेश, कर्म, परिणाम, आशय ( संस्कार ) आदि से अप्रभावित रहता है।

ईश्वर नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। वह सर्वविधि परिपूर्ण है। ईश्वर का प्रतीक “ओइम्” है। ईश्वर की भक्ति समाधि प्राप्ति करने का साधन है। 

परन्तु ईश्वर कर्त्ता, धर्ता और संहर्ता नहीं है। वह पुरुष विशेष मात्र है। वह मुक्तिदायक भी नहीं है। ईश्वर का कार्य साधन के मार्ग की बाधाओं को दूर करना मात्र है। उसका बंधन या मोक्ष से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करना नहीं, अपितु पुरुष का प्रकृति से सम्बंध-विच्छेद करना है।

 

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